शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है। 

जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?

     क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।

           कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?

     जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।

       खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!

       एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…! 

       बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है। 

      तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया  रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!

                              —उषा किरण                    


फोटो: गूगल से साभार

बुधवार, 13 मार्च 2024

चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से



हाँ पिछली पोस्ट में मैंने अपनी प्रथम कहानी `बिट्टा बुआ ‘ के छपने की स्मृतियों को साझा किया। बिट्टा बुआ से पहले मनोरमा में छपने हेतु कहानी `गिरगिट और गुलाब’ भेजी थी। बाद में बिट्टा बुआ भेजी। परन्तु सम्पादक अमरकान्त जी ने पहले बिट्टा बुआ छापी क्योंकि वो उन्हें बहुत पसन्द आई थी। गिरगिट और गुलाब कहानी में बहुत कमियाँ होने पर भी सम्पादक अमरकान्त जी ने उस पर गहन चर्चा की, सुझाव दिए , यहाँ तक कि खुद करैक्शन करने के लिए भी कहा पर रिजेक्ट नहीं की। मैंने लिखा था कि कहानी पसन्द न आए तो लौटाइएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा । क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि घर में किसी को पता चले। और पता नहीं तब मैंने क्या- क्या बेवक़ूफ़ी लिखी थीं कि हर बात को बहुत प्यार से समझाया। और फिर बिना करैक्शन के ही कहानी को ज्यों का त्यों ही छाप दिया बस उसका शीर्षक बदल कर "गुलमोहर “ कर दिया था। शायद मैंने बेवक़ूफ़ी में लिखा था कि मैं नहीं चाहती कि कहानी में ज़्यादा परिवर्तन हो। 


ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।

दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं  "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए  में कूद जाएंगी!”


फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।


नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो  अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ। 




यादों के गलियारों से


मेरी कितनी ही दोस्त हैं पर हम कभी भी एक दूसरे के घर रहने के लिए नहीं जाते। हमारी अम्माँ की बचपन की एक दो सहेलियाँ थीं और ताताजी के भी दो तीन दोस्त थे जहाँ कभी हम उनके घर और कभी वो लोग हमारे यहाँ सपरिवार दो- चार दिनों के लिए छुट्टियाँ मनाने आते थे।ऐसे ही कभी-कभी मौसी के यहाँ तो कभी मामाजी के यहाँ भी जाते थे। कोई फालतू टशन नहीं, बहुत सहजता से हम दोनों परिवार पानी में शक्कर से घुल जाते थे।आज प्राय: घरों में एक या दो बच्चे होते हैं और वे अपने ही घरों की परिधि में सिमटे रहते हैं। वे कहाँ जानते हैं अपने खिलौने, अपना स्पेस, अपना रूम,अपनी चॉकलेट और अपने माता-पिता का प्यार- दुलार भी शेयर करना…एक-दूसरे को बर्दाश्त करना। 


हम चार भाई बहन और चार- पाँच उनके बच्चे मिलकर खूब धमाल मचाते थे। खेल-कूद होते तो लड़ाई- झगड़े भी चलते ही रहते थे।ताताजी और अम्माँ भी अपनी कम्पनी में खूब बातें व हंसी मजाक करते। ताश, कैरम भी चलता।वे अपने बचपन की शरारतें हम बच्चों को सुनाते तो हमें भी बहुत मजा आता था। इत्तेफाक से सभी बड़े- बड़े अफसर थे तो आर्थिक परेशानी नहीं थी, काम तो औरतों पर बढ़ जाता था परन्तु नौकर- चाकर, अर्दली भी होते जो घर के काम में हाथ बटाने के साथ- साथ बाजार से दौड़- दौड़ कर रबड़ी, जलेबी, इमरती,समोसे, आम, लीची, आइस्क्रीम वगैरह लाते रहते और जम कर खिलाई- पिलाई के दौर भी चलते रहते।


वीरेन्द्र चाचाजी तो सगे चाचा जैसा प्यार करते थे और ताताजी से विशेष लगाव था उनका। कुछ तेरा- मेरा जैसा भाव ही नहीं था। गोरे चिट्टे चाचाजी बहुत सुन्दर थे और आदर्शवादी भी थे। काफी स्कोप होने पर भी कभी एक रुपये की भी रिश्वत नहीं ली कभी।चाचीजी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थीं और उन जैसे करेले तो कभी कहीं नहीं खाए। चाचीजी और अम्माँ खूब बतियाती थीं और चाची जी स्नेह  भी बहुत करती थीं ।


ताताजी के गुजर जाने के बाद एक दो बार चाचाजी से मिली तो वे "मेरा यार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया” कहकर ताताजी को याद करके बच्चों की तरह फूट - फूट कर रो पड़े । मैंने आजतक दो दोस्तों में इतना प्यार नहीं देखा। चाचाजी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन ताताजी की सिगरेट उनके हाथ से लेकर कभी-कभी देवानन्द के स्टाइल में सुट्टे आंगन में साथ में चारपाई पर लेट कर बड़ी मस्ती में लगाते थे। उनका स्वभाव  बहुत हंसमुख था। दोनों ने साथ- साथ पढ़ाई की थी तो खूब किस्से सुनाते थे-

"अरी तेरा बाप तो मेरी नकल करके पास होता था।” हम एक स्वर में चिल्लाते "झूठ…झूठ “ तो खूब हंसते और फिर असली किस्सा सुनाते -" अरी तेरा बाप था टॉपर। एग्जाम से एक दिन पहले मैं तो आठ बजे ही लम्बी तान कर सो गया। मेरा यार आया तो मुझे झिंझोड़ कर बोला पढ़ता क्यों नहीं बे ? मैंने कही अबे जिधर से भी किताब खोलू हूँ नई सी ही लगे है, तो पढ़ने से क्या फायदा? इसने कुछ क्वेश्चन लिख कर दिए कि ले इसे याद कर ले पास है जाएगा ।जब एग्जाम में पेपर देखा तो मेरे छक्के छूट गए, मैंने तेरे बाप की कॉपी छीन ली…ये अरे रे रे करता रह गया मैंने कही पहले मेरा लिख, तुझे टॉप करने की पड़ी है यहाँ पास होने के लाले पड़े हैं…हा हा हा ।”

ऐसे किस्सों की भरमार रहती उनके पास।चाचीजी और अम्माँ में भी खूब बनती थी।

दोनों दोस्त जरूर अब ऊपर जाकर फिर मिल गए होंगे और उनकी मस्ती बदस्तूर जारी होगी…।अम्माँ भी उनमें ही जा मिली होंगी।उनकी मस्ती देख हंसती रहती होंगी।चाचीजी की कई दिनों से कोई खबर नहीं है …!!