ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

" चामुण्डा देवी मंदिर “(काँगड़ा )


आश्रम जाकर खाना खाकर हम लोग सो गए शाम को पाँच बजे पवन की गाड़ी से मैं,कान्ता जी,भारती और एक कान्ता जी की फ्रैंड चामुण्डा देवी के दर्शन को निकल लिए और पन्द्रह मिनट में ही पहुँच गए .
हिमाचल-प्रदेश को देव-भूमि भी कहा जाता है.पूरे हिमाचल में २००० से भी ज़्यादा मंदिर हैं इनमें से एक चामुण्डा मंदिर भी प्रमुख  है .यह भी प्रमुख शक्तिपीठ मंदिरों में से एक है.यह मंदिर ७०० साल पुराना है कहते हैं यहाँ सती माँ  के चरण गिरे थे.मान्यता है कि यहाँ दर्शन करने एवं मन्नत मानने से मनोकामना पूर्ण होती है.देश भर से असंख्य श्रद्धालु प्रतिवर्ष दर्शन को आते हैं.यह मंदिर धर्मशाला से पन्द्रह कि०मी० दूरी पर बंकर नदी के किनारे स्थित है पर जब हम लोग गए तब नदी लगभग सूखी हुई थी यहाँ की प्रकृतिक सुषमा मनमोहक  है.
यह मंदिर माता काली को समर्पित है चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण ही माता का नाम 'चामुण्डा' पड़ा.जब-जब भी दानवों के कारण कोई संकट  धरती पर आया तब-तब मॉं ने दानवों का संहार किया.मंदिर के बीच वाले भाग में प्राय: लोग ध्यान लगाते हैं .कुछ लोग ब्रह्म गंगा तथा मंदिर के पास स्थित कुंड में स्नान कर दर्शन करते हैं.प्रमुख प्रतिमा को शुचिता के कारण ढंक कर रखते हैं. मंदिर के पीछे एक पवित्र गुफा है जिसमें शिवलिंग स्थापित हैं.मंदिर के मुख्य द्वार के पास हनुमान जी तथा भैरों नाथ की प्रतिमा है. हनुमान जी को माता का रक्षक माना जाता है.
मंदिर जाकर हमने प्रसाद लिया और लाइन में लग गए काफी भीड़ थी सामानान्तर  दो लाइन चल रही थीं.
दर्शन करके हम बाँए साइड से बाहर निकले वहां बड़ी सी हनुमान जी की मूर्ती   थी वहां हमने फोटो खिंचवाईं नीचे ब्रह्म गंगा बह रही थीं पर बिल्कुल सूखी हुई सी. मैंने और भारती ने वहां से आम पापड़ खरीदे।
गाड़ी में गाना बज रहा था...
रत्नों सी सुण रत्नों
तेरियां गला दाँ मारया
के पौणाहारी
जोगी हो गया
जोगी हो गया,वैरागी हो गया...
मुझे पवन ने बताया ये बाबा बालकनाथ का भजन है.
हम रास्ते से कुछ डाइट नमकीन ख़रीदते हुए वापिस आश्रम की तरफ़ प्रस्थान कर गए.
                                                                         
#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा-5                                                          क्रमशः
          

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

"श्री १००८ बगलामुखी बनखण्डी मंदिर” (कांगड़ा)



हिमाचल प्रदेश ऋषि-मुनियों की तपस्थली रही है यहां बहुत प्राचीन मंदिर संथित  हैं ...हमने पहली बार बगलामुखी मॉं का नाम सुना था ।इस मंदिर का नाम " श्री १००८ बगलामुखी बनखण्डी मंदिर  है " यह  मंदिर ज्वालाजी से बाइस किलोमीटर दूर  कोटला कस्बा ,ग्राम बनखण्डी में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ मंदिर है ।कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा एक ही रात में की गई थी भगवान कृष्ण के कहने पर इसकी स्थापना कर सर्वप्रथम यहां विशेष पूजा भीम व युधिष्ठिर ने शक्ति प्राप्त करने एवं युद्ध पर विजय प्राप्त करने के लिए की थी इन देवी की उपासना एवं हवन करवाने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है एवं कष्ट व भय से मुक्ति तथा वाक्सिद्धि प्राप्त होती है ,कुछ धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि यहां सर्वप्रथम आराधना ब्रह्मा व विष्णु ने तत्पश्चात परशुराम ने की थी और कई शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी ।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में दस महाविद्याओं  की देवी में से एक मॉं बगलामुखी का आठवां स्थान माना गया है इन्हें माता पीताम्बरा भी कहा जाता है ...ये स्तम्भन की देवी हैं सारे ब्रह्मान्ड की शक्ति मिल कर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती  ।कहते हैं कि समुन्द्र में छिपे राक्षस का वध करने हेतु मॉं ने बगुला का रूप धारण किया था इसी से बगलामुखी नाम पड़ा यहां मॉं का पीत वस्त्र, पीत आभूषण एवं पीले ही फूलों की माला से श्रंगार किया जाता है भक्त लोग भी पीले रंग के फूल ही अर्पित करते हैं । मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने जाते हैं जो क्रमश: दतिया,नलखेड़ा,(म०प्र०) तथा कांगड़ा(हि०प्र०) में स्थित है जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है ।
'बगलामुखी जयंती’ पर यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जिसमें अन्य देशों के विभिन्न राज्यों से लोग आकर कष्टों के निवारणार्थ हवन,पूजा-पाठ करवाते हैं ।वर्षों से प्रतिवर्ष असंख्य श्रद्धालु अन्य अवसरों पर भी यहां दर्शन को आते रहे हैं ।
नगरकोट के महाराजा संसारचन्द कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर आराधना करते थे ।देश के कई नेता यहां आकर अनुष्ठान- पूजा करवाते रहे हैं ।मंदिर के अंदर कई हवन कुंड हैं जिनमें हवन-अनुष्ठान चलते रहते हैं
इस मंदिर के परिसर में मॉं लक्ष्मी,कृष्ण, हनुमान,भैरव तथा सरस्वती मॉं की प्रतिमा भी स्थापित हैं आदमकद शिवलिंग  भी हैं यहां पर ..इसके अतिरिक्त...नवरात्री में यहां भारी भीड़ रहती है बेलपत्रआंवला,नीम ,पीपल के वृक्ष परिसर में हैं ।
परिसर में बनी दुकान से प्रसाद लिया और एक दोने में बिक रहे पीले गेंदे के फूल लेकर पूजा कर बाहर आए बहुत तेज धूप और बेहद गर्मी थी ,मैंने मंदिर में बिक रही दो आइस्क्रीम खरीदीं और टीन के शेड के नीचे बैठ कर मजे से मैंने और कान्ता जी ने खाईं फिर बाहर निकल कर गाड़ी में बैठ वापसी के लिए रवाना हो गए ।हमने  रास्ते से खूब सारे फल खरीदे कैम्प में हमें फल नहीं मिलते थे तो रास्ते में हम लीची,आलूबुखारा , आम खाते रहे और गपियाते रहे ।मैंने पवन से पूंछा कि ' तुम्हारे कांगड़ा में देवता नहीं पूजे जाते क्या ‘ तो उसने कहा`नहीं हमारे कांगड़ा में देवी की पूजा करते हैं और शिव जी तथा भैरों की पूजा करते हैं ।
     दरअसल मेरे साथ एक फैमिली लगभग बीस साल से रहती है वो लोग पौड़ी गढवाल से हैं  और एक मेड थी उत्तरांचल से ये लोग हर दम हजारों रुपये उधार मांग कर गांव जाते थे यह कह कर कि देवताओं को पूजा देनी है और फिर बकरे की बलि देकर उनका ओझा या पंडित कुछ पूजा करता था फिर सारे गांव की दावत होती थी ...उनकी बातों से पता चलता था कि उनके देवता मृत पूर्वज ही होते हैं जो प्रेत बन कर नाराज होने पर इनको सताते हैं और खुश होने पर मदद करते हैं ।मैं कई बार समझाती थी कि भगवान की पूजा करो ,हनुमान जी,शिवजी या देवी मॉं की ।इतनी मेहनत से कमाया पैसा क्यों बर्बाद करते हो कुछ साल बाद उनकी समझ में आया और अब वे भी भगवान को मानते हैं परन्तु उनके किस्से इतने डरावने और मजेदार होते थे कि एक पुस्तक तो लिखी जा सकती है ।
पवन ने हमसे कहा कि यदि आप चाहो तो शाम को चामुन्डा देवी के दर्शन कर सकती हैं आश्रम से पन्द्रह मिनट की दूरी पर है तो हमने कहा कि ठीक है पांच बजे आ जाना हम चलेंगे और  करीब डेढ बजे हम वापिस आश्रम आ गए
                                                                                                                                                   क्रमश:

#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा-4






मंगलवार, 10 जुलाई 2018

"ज्वाला देवी मंदिर “


बृजेश्वरी देवी मंदिर से चल कर लगभग एक घंटे में हम ज्वालामुखी मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने कहा आप यहां से ऑटो कर लें तो सीधे ऊपर पहुंचा देगा हमने एक ऑटो वाले से बात की और उसने हमें ऊपर पहुंचा दिया प्रसाद लेकर हम मंदिर में पहुंचे बहुत भीड़ थी किसी तरह अंदर जाकर दर्शन किए ।
ज्वाला देवी को ज्वालामुखी ,नगरकोट और जोतावाली मॉं का मंदिर भी कहा जाता है यहां पर मां की पावन ज्योति एक पहाड़ी चट्टान से प्रज्वलित हुई है। इनकी पूजा मॉं की ज्योतियों में की जाती है मान्यता है कि यहां दर्शन करने से सभी कामना पूरी होती है पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है ।
कांगड़ा घाटी से तीस कि०मी० दक्षिण मेंस्थित है यह मंदिर इक्यावन शक्तिपीठों में शामिल है ...इस स्थान पर सती मॉं की जीभ गिरी थी इस स्थान पर मॉं के दर्शन ज्योति के रूप में होते हैं इसमें नौ ज्योतियां प्रज्वलित  हैं इनको महाकाली,अन्नपूर्णा ,चंडी,हिंगलाज,विंध्यवासिनी,महालक्ष्मी,महासरस्वती,अंबिका,अंजी-देवी के नाम से जाना जाता है ! 
मंदिर के पास ही एक जगह 'गोरख डिब्बी ‘है देखने पर लगता है कि गर्म पानी है ,छूने में ठंडा 
लगता है इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमिचन्द ने करवाया था बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचन्द ने 1835 में इसका पुनर्निर्माण करवाया ।
इस मंदिर से जुड़ी किंवदन्ति है कि एक ग्वाले की गाय दूध नहीं देती थी एक दिन जंगल में उसका पीछा किया तो ग्वाले ने देखा कि गाय सारा दूध एक दिव्य कन्या को पिला देती है ग्वाले ने यह बात राजा को बताई राजा ने सत्य की जांच करने के बाद उस स्थान पर मंदिर बनवा दिया।एक और कथा प्रचलित है कि भक्त ध्यानु मॉं का परम भक्त था एक बार वह मॉं के दर्शन के लिए भक्तों के साथ जा रहा था रास्ते में उन्हें मुगल सेना ने पकड़ लिया अकबर ने पूंछा कि 'तेरी मॉं में क्या शक्ति है ‘तो ध्यानु ने कहा कि `मेरी मॉं संसार की रक्षा करने वाली है ‘अकबर ने उसके घोड़े का सिर कलम करके कहा `किअगर तेरी मॉं में शक्ति है तो घोड़े को फिर से जिंदा करके दिखाए ‘कहते हैं कि ध्यानु की विनती से मॉं ने घोड़े का सिर फिर से जोड़ दिया ,यहां बिना तेल बाती बरसों से ज्योति जल रही हैं ...अकबर ने इस ज्योति को बुझाने की भी बहुत कोशिश की पर नाकाम रहा तब अकबर ने श्रद्धावनत हो सोने का छत्र चढाने की कोशिश की पर वह छत्र किसी दूसरी धातु में परिवर्तित हो गया वह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है ।अंग्रेजों नेभी काफी कोशिश की कि इस ज्योति का इस्तेमाल बिजली बनाने के काम में लिया जाए पर असफल रहे ।लोगों का कहना है यह ज्वाला चमत्कारी रूप से निकलती है प्राकृतिक रूप से नहीं वर्ना तो यहां मंदिर की जगह बड़ी -बड़ी मशीनें लगी होतीं ।
दर्शन करके हमने ऑटो वाले को फोन किया वो हमें लेकर नीचे आ गया घड़ी देखी मात्र दस बजे थे हमने  गाड़ी में बैठ कर ड्राइवर से पूंछा कि `पास में और कोई देवी हैं ‘उसने कहा `हां बगुलामुखी देवी हैं आधे घंटे में पहुंच जाएंगे ‘हमने कहा `ले चलो पर प्यास और भूख लगी है तो पहले हमें किसी होटल या रस्टोरेन्ट में ले चलो ‘उसने कहा कि `ठीक है मंदिर की तरफ ही चलते हैं रास्ते में किसी ढाबे पर रोक कर खा पी लेंगे ‘हमने कहा `चलो ठीक है ‘रास्ते में एक छोटा सा साफ सुथरा ढाबा मिला हम उतर गए मैंने पूंछा कि `खाने को क्या मिलेगा ‘उसने कहा `खाना ‘इतनी सुबह हमारा मन खाने का नहीं हुआ उसको कहा'आलू का परांठा और चाय बना दो ‘उसने मना कर दिया बोला 'नहीं नहीं हम परांठा नहीं बनाते बस रोटी बना देंगे वर्ना तो हम बस चावल ही देते हैं हमने कहा'ठीक है फिर वही खिलाओ भई ‘हम बैठ गए ड्राइवर को भी बुला लिया वो तीन थाली लाया दाल ,कढी,चावल, रोटी थोड़ा बहुत खा पीकर पूंछा कितने रुपये ? उसने कहा `सौ रुपये ‘तो मैं उसका मुंह देखने लगी इतना सस्ता ? खैर सौ पर कुछ एक्स्ट्रा पैसे रख कर हम आगे चले । 
कान्ता जी ने आम पापड़ निकाला और हम उसे चटकारे लेकर खाने लगे ड्राइवर ने पहाड़ी गाने लगा दिए कान्ता जी स्वयम् चम्बा से हैं तो वो मुझे उन गानों का मतलब समझाती रहीं ..कांगड़ी बोली पंजाबी बोली से बहुत मिलती जुलती है...कान्ता जी से पूंछ कर एक हिमाचली गाना लिखा...
"पारलिया बनिया मोर जे बोले
अम्मा पूछदी सुण धिए मेरिए 
दुबली इतनी तू किया करी होई हो
पारली बणिया मोर जे बोले हो
अम्माजी ने मोरे निंदर गवाई हो
सद ले संदूकी जो सद ले शकारी जो
धीए भला एह तों मोर मार गिराणा हो
मोर नी मारणां मोर नी गवाणा हो
ओह अम्मा जी एहतां मोर पिंजरे पवाणा हो...”
ठंडी पहाड़ी हवा,आम पापड़ और पहाड़ी लोक संगीत  और भक्ति भाव ने मिल कर मन प्रसन्नता से भर दिया... और हम मां की जय बोल आगे के लिए प्रस्थान कर गए...

#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा- 3









शनिवार, 7 जुलाई 2018

''बृजेश्वरी देवी मंदिर '' (कांगड़ा,हिमाचल- प्रदेश)—यात्रा-2


साधना-शिविर के बाद हम एक दिन एक्स्ट्रा तपोवन में रुके तो मेरा मन हुआ क्यों न कांगड़ा की देवियों के दर्शन कर आऊं कांगड़ा में जगह- जगह पर देवस्थान होने से इसे देवभूमि कहा जाता है ...पर मेरे साथ की सभी फ्रैंड्स पहले ही दर्शन कर चुकी थीं पर शिविर में एक फ्रैंड बनी थीं कान्ता जी वो भी जाना चाह रही थीं तो हम दोनों टैक्सी करके सुबह सात बजे निकल पड़े ।कांगड़ा का प्राचीन नाम नगरकोट था अत: ब्रजेश्वरी देवी मंदिर को नगरकोट वाली देवी और कांगड़ा देवी भी कहा जाता है।यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर स्थित है ।
करीब आधे  घन्टे में  हम मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने हमें ऊपर पहाड़ी पर जाती सीढियां दिखाईं हम और कान्ता जी चल दिए हाथ पकड़ कर आस्था की लाठी टेकते...कान्ता जी ने किसी बात पर मुझे बेटी कहा तो हंस कर टोका `मैं सहेली हूं आपकी आपसे ज्यादा छोटी नहीं ...मेरे रंगे बालों पर न जाएं ...’खैर सीढी के दोनों तरफ दुकानें सजी थीं जिनका वैभव ललचा रहा था ।रंग-बिरंगी चूड़ियां ,सिंदूर,कंगन ,तांबे -पीतल के कंगन,झुमके, भगवान जी की पोशाकें व दमकते जेवर, बच्चों के खिलौने .प्रसाद और भी जाने क्या-क्या ...खैर हमने भी प्रसाद लिया हांफते-सुस्ताते हम पहुंच गए मंदिर और लग गए लाइन में ।
मान्यता है कि जब मां सती ने शिव के द्वारा किए अपमान से आहत होकर दक्ष के यज्ञ-कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए थे तब कुपित होकर भगवान शिव उनका शव लेकर  पूरी सृष्टि में घूमे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के बावन टुकड़े कर दिए तो जहां -जहां माता सती के अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाते हैं, यहां मां का बायां वक्ष गिरा था तो यहां शक्तिपीठ की स्थापना हुई । शक्तिपीठ मंदिर किसे कहते हैं यह मुझे यहीं आकर पता चला ...यह मंदिर मध्यकालीन वास्तुशिल्प का सुंदर उदाहरण है,यहां स्थित गुंबद,शिखर ,कलश और स्तम्भ समूह पर राजपूत कालीन शिल्प का प्रभाव दिखाई पड़ता है प्राचीन काल में देवी की पूजा तांत्रिक विधि से होती थी आज भी यहां पांच टाइम पूजा बहुत विधि-विधान से होती है ।
दसवीं शताब्दी तक यह मंदिर बहुत समृद्ध था पर 1909 में मोहम्मद गजनबी ने इस मंदिर को पांच बार लूटा 1337 में मो. बीन तुगलक ने और पांचवी शताब्दी में सिकंदर लोदी ने इसको लूटा बार- बार इसका पुनर्निर्माण किया जाता रहा पर 1905 में आए भूकम्प में यह पूरी तरह नष्ट हो गया 1920 में पुन: इसका पुनर्निर्माण किया गया ।सिर्फ हिंदू ही नहीं मुस्लिम व सिक्ख सम्प्रदाय के श्रद्धालु भी यहां पर आस्था के फूल चढाते हैं ,उसके तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक हैं ।मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली मुख्य पिंडी मॉं बृजेश्वरी की है,दूसरी भद्रकाली की और तीसरी सबसे छोटी मां एकादशी की है ...बहुत से श्रद्धालु पीले वस्त्र पहन कर आए थे पूंछने पर पता चला कि परम भक्त ध्यानु ने यहां मॉं को अपना शीश अर्पित किया था तो उनके अनुयायी आज भी पीले वस्त्र पहन कर दर्शन को आते हैं ।कहते हैं सच्चे मन से मांगी मुराद यहां जरूर पूरी होती है।
मंदिर में प्रवेश करने पर बहुत भीड़ के कारण ज्यादा देर रुकना मुश्किल था तो दर्शन करके तुरंत बाहर आ गए ।लौटते समय हमने भी बाहर की दुकानों से सिंदूर और पीतल के कड़े प्रसाद में देने के लिए खरीदे और हां आम पापड़ भी खरीदे । नीचे आने पर हम गाड़ी में बैठ कर आगे ज्वाला जी के दर्शन के लिए निकल लिए ।रास्ते में कान्ता जी की बेटी का फोन आया तो उन्होंने नहीं उठाया बार बार आने पर उठाया पर बताया नहीं कि वो कहां हैं बोलीं ''आश्रम से बाहर आई हूं ''मैंने पूंछा क्यों नहीं बताया तो बोलीं कि ''बच्चे गुस्सा करते उन्होंने मना किया था कि कौन तुमको हाथ पकड़ कर चढाई पर ले जाएगा  तुम गिर जाओगी ''पर बेटी को शक हो गया वो बार -बार फोन करने लगी मैंने कहा ''आप बता दो कि मेरी सहेली है साथ गिरने नहीं देगी'' तब उन्होंने बताया ...मैंने भी हम दोनों के फोटो उनके बच्चों को वहाट्अप पर भेजे साथ ही मैसेज किया कि ''मेरे साथ हैं फिक्र न करे आप लोग''...तब उनको तसल्ली हुई । कान्ता जी ने बताया कि पांचों बच्चे छोटे थे जब उनके पति की हार्ट- अटैक से डैथ हो गई थी बहुत मेहनत से बच्चे पाले वे मॉं ज्वाला जी को बहुत मानती हैं उन्होंने मन्नत मानी थी और मुराद पूरी हुई चारों बेटियों की बहुत अच्छे घरों में शादी हो गई मुंह से मांग लिया एक दो बेटियों को ...बेटे की भी शादी हो चुकी है और उसका बहुत अच्छा जॉब है सारे दामाद, बहू बेटियां बहुत सम्मान करते हैं ...मेरा बार- बार हाथ पकड़ कर कह रही थीं कि ''उषा तुम्हारी वजह से मैं दर्शन कर पाई ''मैंने कहा ''आपकी वजह से मैं कर पाई''...कान्ता जी का जोश और भोलापन बच्चों जैसा था सच ही मुझे उनसे प्यार हो गया ...रास्ते में वो अपनी आप बीती सुनाती रहीं और मॉं का धन्यवाद करती रहीं ..हम दोनों ही प्रभु कृपा को स्मरण करते श्रद्धावनत हो इतने अभिभूत हो चुके थे कि गाड़ी और ड्राइवर की सुविधा भी हमें  भावविभोर करे दे रही थी गाडी़ हमेंअर्जुन के रथ `नन्दीघोष ‘से कम नजर नहीं आ रही थी और सारथी( ड्राइवर) में हमें साक्षात वासुदेव ही दृष्टिगोचर हो रहे थे ...सारथी महोदय की आंखें सड़क पर थीं पर कान हम दोनों माताजीओं पर ही टिके थे वे भी हमें देवी महिमा के बारे में ज्ञान देते रहे  ...हम श्रद्धा और आस्था की मंदाकिनी में डुबकी लगाते ज्वाला जी के दर्शन हेतु प्रस्थान कर चुके थे. 🙏
                                                                                                                क्रमश:
                       



शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

" तपोवन ”,सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल-प्रदेश) यात्रा-1

साधना -शिविर


  दस जून से अट्ठारह जून तक होने वाले चिन्मय- मिशन के साधना शिविर  में सम्मिलित होने हेतु मैं और मेरी फ्रैंड्स नलिनी,उषा अग्रवाल, भारती और सरोज गुलाटी शालीमार एक्सप्रेस से नौ जून शाम को बड़े उत्साह-पूर्वक  सवार हुए । हम चारों ने तय किया था कि नलिनी पूड़ी लाएंगी भारती सब्जी और हम अचार व मिठाई ।हमको ये ख्याल था कि ट्रेन अंडरकनेक्टेड होगी तो दूर होने पर भी सब्जी पूड़ी पहुंचा दी जाएगी पर हमारे कम्पार्टमेन्ट दूर थे बिना उतरे हम एक दूसरे तक नहीं पहुंच सकते थे और इतनी देर कहीं भी ट्रेन बीच में नहीं रुकती अब ? अब क्या करें ? भारती और नलिनी साथ थीं पर समस्या हमारे और सरोज के साथ थी सरोज सब्जी ले आई थीं और उषा जी दिल्ली से आई थीं तो दो परांठे आलू के अपने लाई थीं नलिनी फोन कर रही थीं कि कैसे पूड़ी पहुंचाई जाएं हमने कहा परेशान न हों हम ट्रेन की पेन्ट्री से ही मंगा कर खा लेंगे नहीं तो मठरी और अचार मैं ले गई  थी वो खा लेंगे चाय से ।मैं ट्रेन का खाना नहीं खाना चाह रही थी  तभी एक लड़का जो चिप्स बेच रहा था हमने उससे रिक्वेस्ट की तो वो मान गया उसे सीट नम्बर वगैरह दे दिए और एक दो घंटे में उसने नलिनी से लेकर हमें पूडिएं लाकर दीं जब हमने उसे इनाम दिया तो वो मना करने लगा पर मैंने उसे जबर्दस्ती कुछ रुपये दिए । खा पीकर हम लेटे सारी रात खटर -पटर के चलते नींद तो क्या ही आ पाई ...टॉयलेट्स का जो हाल था उसका बयान करना तो मुश्किल ही है ..हां टॉयलेट देख कर हमें वन्दना अवस्थी दुबे  की  याद जरूर आ गईं  अब जैसा वो इसकी हालत का वर्णन करती हैं  वो काफी है मेरे ख्याल से ...सुबह पठानकोट पहुँचे और वहाँ से टैक्सी करके सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल प्रदेश) स्थित आश्रम “तपोवन “पहुचे ।
हमें नवनिर्मित साकेत विंग में फर्स्ट-फ्लोर पर रूम एलॉट हुआ था जिसमें चार बैड थे । हमने अपना सामान जमाया  और नहा-धोकर चाय-नाश्ते के लिए डाइनिंग -हॉल में पहुँच गए । पूरे दिन आराम कर सोकर थकान उतारी और शाम को पाइन फ़ॉरेस्ट में वॉक के लिए मैं ,भारती ओर सरोज निकल पड़े । अगले दिन सुबह से ही क्लासेज शुरू हो गईं मान्डूक्योपनिषद , हनुमान चरित, भक्ति , ज्ञान,साधना इत्यादि पर क्लासेज अटैंड कीं...आश्रम का शांत ,आध्यात्मिक एवम् आडम्बर- रहित वातावरण ,मनमोहक सुरम्य प्राकृतिक सुषमा ने तन-मन को एक नई ऊर्जा से भर दिया ,साथ ही प्रिय दोस्तों का साथ , हँसी मज़ाक़ , चुहल और चर्चा से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हॉस्टल लाइफ़ दुबारा लौट आई...साथ खाना- पीना ,सोना , वॉक करना, क्लासेज अटेंड  करना, सूर्योदय के साथ टैरेस पर बैठ कर साथ चाय पीना ...मैं सबसे देर में उठती बार -बार उठती और वापिस चादर मुंह तक ढंक कर लेट जाती ...सब आवाजें देकर कई बार उठाते तब उठती ...रात में टैरेस पर चाँदनी में बैठ देर रात बातें करते ...चाँद भी हमारी खिलखिल सुन कर ताक-झाँक करता रहता ...वो हमें  और हम उसे देख कर मुस्कुराते ...देर रात गप्पों में मशगूल रहते । सामने धर्मशाला और मैक्लॉइडगंज की झिलमिल करती रोशनियाँ और उसके पीछे गर्व से मस्तक उन्नत करे पर्वत श्रंखलाएँ हमारे अंदर  एक नई शक्ति एवं उर्जा का संचार करतीं । घर-गृहस्थी , जॉब, क्या पकेगा , साफ़-सफ़ाई ,शॉपिंग,न्यूज पेपर, टी.वी.  इत्यादि सभी झंझटों से मुक्त...घंटी बजी मतलब चाय, नाश्ता या खाना लग चुका है और हम अपनी थाली गिलास लेकर उछलते कूदते चल देते । शुद्ध सात्विक सीधा सादा पौष्टिक खाना होता । रात में और सुबह अपने पैसों से चाहें तो गाय का दूध भी ले सकते थे...हम लोगों में  ही कुछ लोग खाना सर्व करते थे...मुझे ये काम बहुत अच्छा लगता था तो प्राय: सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती थी ...किसी - किसी दिन शिविर में से ही कोई लंच या डिनर अपनी तरफ़ से देता तो उस दिन थोड़ा मज़ेदार खाना होता पूड़ी, जलेबी , छोले , , कोफ्ते , कढ़ी , हलुआ आदि भी शामिल रहते उस दिन खाने में ।
 भारती हम सबसे यंग थी तो वो हम तीनों का बहुत ध्यान रखती थी...नलिनी इलैक्ट्रिक केटल लाई थीं तो रूम में ही चाय बना लेते प्राय: ये काम नलिनी या उषा जी ही करतीं मठरी अचार , बिस्किट, चाय और गप्पें .....आहा आनन्द !
कई लोगों से परिचय हुआ विभिन्न प्रांतों के भिन्न शहरों से आए लोग सब आपस में बहुत प्रेम भाव से मिलते खाते पीते । एक दिन वॉक करते मैं और भारती पाइन फ़ॉरेस्ट की मेन रोड छोड़ अंदर चले गए वहाँ पतले से पीले साँप  पर पैर रखने से बचे तो भारती मुझे खींच कर बाहर ले आई तीसरे दिन फिर घुसे अंदर तो फिर दिखा एक साँप  हम भागे और फिर अंदर नहीं गए ।इसी तरह हँसते, गाते,खिलखिलाते , खाते पीते ,एक दूसरे का ध्यान रखते ,ध्यान, साधना करते कब ये आठ दिन निकल गए पता ही नहीं चला ।
                                                                 











                             
                             क्रमश:
                                                           

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कस्तूरी



हरसिंगार
जूही,चंपा,चमेली
रात की रानी
महकती है सारी रात
मेरे आंगन में
या शायद...
तकिए या चादर में ?
नींद से लड़ती
चांद-तारों को डपटती
चांदनी से लिपटती
सारी रात
पलटती रही करवट
अकुला कर उठ बैठी
खुद को सूंघा...
अरे !
यह सुगंध तो झर रही थी...
इसी तन के उपवन से
या शायद
मन के प्रांगण से
या शायद
मेरी ही नाभि से...
कहीं दूर कबीर गा रहे हैं
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी...!!

बुधवार, 30 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग 1 )





      सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।

उसे सहसा याद अाया--- जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी।
संयोगिता को सहसा खिसियानी-सी हंसी आ गयी अपनी बेबसी पर। तोंद पर बनियान चढाये आराम से हाथ फिराते, दियासलाई की  तीली से अन्तिम दाढ को मुंह फाडकर कुरेदते विनय ने अधमुंदी  आंखों से उसकी ओर एकटक ताकते तीली सामने कर गौर से देखते हुए पूछा, `क्यों क्या याद आ गया, क्यों हंस रही हो ‘?
वह हडबडा गयी। उसे पता था, जब तक विनय जवाब नहीं पा लेंगे, पूछते जायेंगे।
'क्या बात है आखिर ?'   
'बात क्या है?'
'आखिर पता तो चले ?'
'फिर भी' 
इससे पहले कि यह सिलसिला शुरू होता, वह प्लेट उठाकर चल दी, 'कुछ नहीं काफी देर तक रसोई में  खटर-पटर करती रही। जैसे सभी आम औरतें रात में थके लस्त-पस्त शरीर घसीटती, पसीने, प्याज और मसाले से गंधाती करती है।
कमरे के दरवाजे पर खडे होकर एक पल को दहशत फिर उभरी । पर्दे से झांककर देखा, विनय सो चुके थे। आश्वस्त हाेकर वह धीरे-धीरे कमरे में जाकर आराम-कुर्सी पर पसर गयी। क्या पता यदि विनय जाग रहे होते तो फिर हांक लगाते शायद।
'तुमने बताया नहीं, तुम क्यों हंसी थीं ?'
एक पल को संयोगिता को लगा शायद आज वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती, पर तुरन्त ही वह एक व्यंग्य भरे अाश्चर्य से दग्ध हो उठी कि दस-बारह वर्षों बाद भी आज तक खुद से ऐसे किसी साहस या उत्तेजना की आशा रखती हैं ?
सच ! यह अनुभव उसके लिए एकदम आकस्मिक था और किसी हद तक रोमांचक भी..
                                                                                                                                क्रमश:

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...