ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 26 नवंबर 2018

परछाईं


थक जाती है कभी
अपनी ही परछाईं हमसे
दौड़ती रहती है सारा दिन
करती है पीछा कभी
हमारी हसरतों का
हमारी प्यास का
तो कभी
हमारी आस का
हमारे सपनों को
पंख देती है
तो कभी देती है पैर
पर शाम होते ही
हो जाती है गुम
सारी उदासियाँ समेटे
भीतर हमारे
रहने दो वहीं उसे
थोड़ा विश्राम कर लेने दो
आ जाएगी सुबह फिर
लिपट जाएगी पैरों से
फिर एक बार
हौसला बन कर
तो कभी हिम्मत बन कर!!!
                  — उषा किरण 
रेखाँकन; उषा किरण 

शब्द

         


आसमान की खुली छाती पर
नन्हीं उँगलियों से
पंजों के बल उचक कर
लिखती रहती शब्द अनगिनत
तो कभी
बाथरूम की प्लास्टर उखड़ी
दीवारों पर दिखतीं
आकृतियों के शब्द बुदबुदाती
बुद्ध ,बकरियॉं ,भूत , परियॉं...
बहुत कुछ बोलना चाहती थी पर
शब्द डराते थे मुझे
थका देते थे
हॉंफ जाती बोलते...
सो कुछ नदिया की धारा पर बहा दिए
कुछ हवाओं के पंखों पर सहेज दिए
और बाकी ठेल देती अन्तर गुहा  में...
कभी डांटती तो कभी हौसला देती
खुद को
बोलो ...अब बोलो...
पर होंठों पर एक अस्फुट
फुसफुसाहट कॉंप जाती...
मेरी ख़ामोशियों पर कब्जा था
औरों के दस्तावेज़ों का...
फिर एक दिन सहसा बोलने लगी मैं
और बस बोलती ही चली गई...
अरे चुप रहो
कितना बोलती हो
कान खा गईं
लोगों ने नश्तर फेंके
पर बिना रुके बोलती रही
मैंने सोचा था
मेरे बोलों की तपिश से
पिघल जाएगी सालों की
अनबोले  शब्दों की बर्फ़ीली  चट्टान
पर नहीं....जरा भी नहीं...
हॉं नींद में पलकों पर घात लगा
हमला जरूर करते हैं...
कभी भी पीछा छोड़ते नहीं
रक्तबीज जैसे उपजे
ये कहे - अनकहे शब्द !!
              — उषा किरण 
रेखाँकन;  उषा किरण 

सोमवार, 27 अगस्त 2018

राखी





लो बांध लिए बहनों ने
भाइयों की कलाइयों पर
प्यार के ,आशीष के
रंगबिरंगे धागे...
मना कर उत्सव पर्व
लौट गए हैं सब
अपने-अपने घर
रोकी हुई उच्छवास के साथ
हृदय की गहराइयों में संजोई
प्यार,स्नेह के सतरंगी रंगों से रंगी
आशीष के ,दुआओं के
धागों से बुनी...
तारों की छांव में
विशाल गगन तले
खड़ी हूं बांह फैलाए
तुम्हारे असीम भाल पर
लाओ तो
लगा कर तिलक दुलार का
बांध देती हूं मैं भी
राखी अब...
अपनी कलाई बढाओ तो
भैया !!

शनिवार, 18 अगस्त 2018

...ढ़लने लगी सॉंझ

       

एक और अटल जी की कविता जिस पर यह पेंटिंग  बनाई थी एग्जीबीशन के लिए...

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
                                   #अटलबिहारीबाजपेयी

एक बरस बीत गया



2000 में आई फ़ैक्स,दिल्ली  में अटल जी की कविताओं पर “कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन “के तत्वाधान में चित्र कला प्रदर्शनी की थी तब बनाई थी उनकी कविता पर यह पेंटिंग -

एक बरस बीत गया

झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
                             #स्व०अटलबिहारीबाजपेयी

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

नमन




यूँ तो
जाने को ही आता है
हर शख्स यहॉं
पर...
ये कैसा जाना
कि
बसजाना
हर दिल
में .....

-भावपूर्ण श्रद्धांजलि
      नमन
#अटल जी
💐🙏

बुधवार, 8 अगस्त 2018

परिचय


पूंछते हो कौन हूँ मैं
क्या कहूँ
कौन हूँ मैं
शायद...
भगवान का एक
डिफेक्टिव पीस
जिसमें जल,आकाश,हवा
तो बहुत हैं
पर आग और मिट्टी
तो बहुत ही कम...
रंगों की बिसात तो
हर तरफ़ हैं
पर आँकड़ों के हिसाब तो
ग़ायब हैं
उड़ानें बिन पंखों के
भागती हैं रात-दिन
और बचपन से ही
अंदर एक थकी सी बुढ़िया
करती रहती है
खटर-पटर
भीतर ही भीतर धमा- चौकड़ी
एक बच्ची की भी
चलती रहती है आज भी
और जो षोडशी  है
उसके तो पैर ही नहीं टिकते
नए इन्द्रधनुष रचती
नए ख़्वाब बुनती
जाने कहॉं-कहॉं ले जाती है
उड़ा कर मुझे
मुझे तो अपना ख़ुद ही पता नहीं
किसी को पता हो तो बताए
हो सके तो मुझसे
मेरा
परिचय कराए !!
                   -उषा किरण



मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...