ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 11 मई 2020

कविता— माँ






सारे दिन खटपट करतीं
     लस्त- पस्त हो
   जब झुँझला जातीं
             तब...
  तुम कहतीं-एक दिन
   ऐसे ही मर जाउँगी
       कभी कहतीं -
    देखना मर कर भी
  एक बार तो उठ जाउँगी
           कि चलो-
        समेटते चलें
    हम इस कान सुनते
      तुम्हारा झींकना
  और उस कान निकाल देते
            क्योंकि-
   हम अच्छी तरह जानते थे
       माँ भी कभी मरती हैं !
        कितने सच थे हम
                आज...
      जब अपनी बेटी के पीछे
            किटकिट करती
       घर- गृहस्थी झींकती हूँ
                  तो कहीं-
     मन के किसी कोने में छिपी
          आँचल में मुँह दबा
            तुम धीमे-धीमे
           हंसती हो माँ...!!!

                        ——   उषा किरण
                         रेखाँकन; उषा किरण )

सोमवार, 4 मई 2020

पुस्तक समीक्षा- ताना बाना

मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -
 ~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~




जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ललकारे , मुट्ठी में आसमान को भरने के स्वप्न देखने लगे ,जब कल्पना वक्त की निर्मम लहरों से चुराई रेत ,बन्द सीप ,शंख आदि बटोर कर अनुभूतियों का घर सजाने लगे, वेदना के पाखी शब्दों के नीड़ तलाशने लगें, लहरों और बादलों से बातें करे और कल्पनाओं की हीर अभिव्यक्ति के राँझे की तलाश में यहाँ वहाँ भटकने लगे , हृदय के शून्य को भरने की व्यग्रता वेदना बन जाये तब ताना-बाना जैसी कृति हमारे सामने आती है .
डा. ऊषाकिरण को जितना मैंने जाना है , इस पुस्तक से वह परिचय और प्रगाढ़ हुआ है . उनके सरल तरल स्नेहमय सुकोमल व्यक्त्तित्त्व का दर्पण है तानाबाना . यों तो वे मेरी आत्मीया हैं , मुझे बड़े स्नेह के साथ यह सुन्दर उपहार भेजा . इसलिये इसे पढ़ना और पढ़कर इसके विषय में कुछ कहना मेरा तो एक कर्त्तव्य भी है और एक जरूरी काम भी लेकिन वास्तव में यह किताब ही ऐसी है कि कोई अनजान भी इसे देख-पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रहेगा . लगभग सौ कविताओं और इतने ही सुन्दर उनके खुद के रचे गए सुन्दर चित्रों से सजी यह ऐसी कृति नहीं कि जल्दी से पढ़ो और थोड़ा बहुत लिखकर मुक्त हो जाओ . इसमें गहरे पैठकर ही मोतियों का सौन्दर्य दिखाई देता है . कुमार विश्वास जी ने शुरु में ही लिखा है कि ऊषा जी कविता को चित्रात्मक नजरिया से देखतीं हैं और चित्रों कवितामय नजरिया से . यही बात उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करती है .
संग्रह की पहली कविता ‘परिचय’ पढ़कर ही ऊषा जी के कद का पता चल जाता है जिसमें अनूठी उपमा और बिम्ब के साथ विविधवर्णी भाव हैं .’तुम होते तो’ एक बहुत प्यारी कविता है जिसमें हर भाव और सौन्दर्य-बोध किसी के होने न होने पर आधारित हैं . बहुत कोमल भाव . देखिये— .”..जब छा जाते हैं/ बादल घाटियों में / मन पाखी फड़फड़ता है/ ...पहुँचती नहीं कोई एक भी किरण /वहाँ घना कुहासा छाया है.....सारी किरणें जो ले गए तुम/ अपनी बन्द मुट्ठी में .”
हर रचना कवि के मन का दर्पण होती है . ऊषा जी अपनी हर रचना में पूरी ईमानदारी और सादगी के साथ मौजूद हैं .उनका भाव-संसार कोमल , अछूता , उदार और संवेदना से भरा हुआ है . वे कभी परछाइयों’ को पकड़कर कभी ‘पारिजात’ की गन्ध को बाँधकर और कभी ‘चाँद को थाली ‘ में उतारकर खुद को बहलाने की बात कहती हैं . यह बात कहने में जितनी सुन्दर है समझने में उतनी ही मर्मस्पर्शी है .वे शिकवे शिकायतों का बोझ लादे रहने की पक्षधर नहीं हैं . ‘मुक्ति’ कविता में बड़े प्रभावशाली तरीके से यह बात कही है –“आओ सब /,..करने बैठी हूँ हिसाब/ कब किसने दंश दिया/ किसने किया दगा/.... किसने ताने मारे /सताया किसने /...जब मन छीजा /तब किसका कंधा नहीं था पास/.. फाड़ रही हूँ पन्ना पन्ना /यह इसका /यह उसका./..आओ सब ले जाओ/ अपना अपना /मुक्त हुई मैं /...जाते जाते बन्द कर जाना दरवाजा /.....बहुत सादा सी लगने वाली यह कविता असाधारण है .दरवाजा बन्द करने में एक सुन्दर व्यंजना है . वे नदिया के साथ बहना चाहती हैं ( नदिया कविता ),मुट्ठी में आसमान भर लेना चाहती है ( एक टुकड़ा आसमान) हवाओं में गुम होना चाहतीं हैं खुशबू की तरह ...कहीँ सूफियाना रंग है तो कहीं शाश्वत जीवन-दर्शन .सुख और दुख का स्रोत हम स्वयं हैं ( हम कविता) क्षमताएं हमारे भीतर हैं . कस्तूरी कविता में यही बात है--- “हरसिंगार ,जूही /...महकती है सारी रात/ ....मेरे आँगन में/ ..या तकिये चादर में /...अरे यह खुशबू तो झर रही है /इसी तन-उपवन से/ ..दूर कबीर गा रहे हैं काहे री नलिनी....”
‘ताना-बाना’ में प्रेम और संवेदना के रंग सबसे गहरे हैं . ‘चौबीस-बरस’ और ‘क्यूँ’ कविताओं में प्रेम की वेदना बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है . रहस्यवाद से रची बसी ‘क्यूँ’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—--“.....मैंने कहा था / क्या दोगे मुझे /...तुमने एक लरजता मोरपंख/ रख दिया मेरे होठों पर/ एक धूप बिखेर दी गालों पर /..एक स्पन्दन टाँक दिया वक्ष पर/ एक अर्थ बाँध दिया आँचल में /..तब से तुम्हें पुकार रही हूँ /..तुम कहीं नजर नहीं आते/... या कि हर कहीं नजर आते हो .”.
भाई को याद करते हुए लिखी ‘पतंग’ कविता बरबस ही आँखें सजल कर देती है—
“आज तुम नहीं /पर तुम्हारा स्पर्श हर कहीं है/ तुम्हारी खुशबू हवाओं में /.....तुम्हारी स्मृतियों की डोर आज भी मेरे हाथों में है /पर तुम्हारी पतंग /....कहीं दूर../ बहुत दूर निकल गई है भाई ..”
‘ताना-बाना’ का फलक बहुत व्यापक है .उसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता . उसमें यादें हैं फरियादें हैं , माँ का वात्सल्य है , बेटियों की उड़ानें हैं .शहीदों के लिये भावों के पुष्प हैं ,प्रेम की पीड़ा है , मुक्ति की प्रबल आकांक्षा है . ‘बहुत बिगड़ गई हूँ मैं’ और ‘पाप’ कविता में मुक्ति का सुखद अनुभव पाठकों को भी कुछ पलों के लिये जैसे मुक्त कर देता है . नारी के दमन शोषण की व्यथा-कथा के साथ उसे उठकर संघर्ष करने की प्रेरणा ‘तुम सुन रही हो ? और ‘सभ्य औरतें’ कविताओं में बोल नही रही , चीख रही है . ‘यूँ भी’ कविता अपने अस्तित्त्व को दबाने और उस पर पर प्रश्न लगाने वाली व्यवस्था को सिरे से नकारती है . गान्धारी के माध्यम से ऊषा जी ने व्यभिचारियों ,अत्याचारियों की माताओं को सही ललकारा है .
ऊषा जी की कल्पनाएं और बिम्ब मोहक हैं . कुछ उदाहरण देखें–-(1) “रात में /जुगनुओं को हाथ में लेकर /खुद को साथ लिये /..सात समुद्र तैर कर /धरती को पार कर / दूर चमकते मोती को/ मुट्ठी में बन्द कर लौटना .....”
(2) “सूरज को तकती/ सारे दिन महकती नीलकुँई/ साँझ ढले सूरज के वक्ष पर /...आँख मूँद सोगई ..”
(3) “तारों ने होठों पर /उँगली रख /हवा से कहा /धीरे बहो / उजली चादर ओढ़ अभी अभी/ सोई है सुकुमारी रात ..”
(4) “धूप –सुनहरी लटों को झटक/ पेड़ों से उछली/ खिड़की पर पंजे रख /सोफे पर कूदी /छन्न से पसर गई कार्पेट पर /...ऊधम नहीं ..मैं बरजती हूँ पर वह जीभ चिढ़ा खिलखिलाती है /..शैतान की नानी धूप ..”
(5) “थका-माँदा सूरज/ दिन ढले /टुकड़े टुकड़े /लहरों में डूब गया जब/ सब्र को पीते /सागर के होठ और भी नीले होगए .”
(6) “ हाथ में दिया लिये / जुगनू की सूरत में / गुपचुप / धरती पर आकर.../ किसे ढूँढ़ते हैं ये तारे  / मतवाले /”
ऊषा जी की स्वभावानुरूप ही भाषा कोमल और ताजगी भरी है . कहीं ‘नए नकोर प्रेम की डोर ‘ जैसे खूबसूरत प्रयोग भी हैं .
कुल मिलाकर ऊषा जी की यह पुस्तक अनूठी है . बार बार पढ़ने लायक . आधुनिक चित्रकला में हालांकि मेरी समझ कम है फिर भी इतना तो समझ सकी हूँ कि हर चित्र कविता का ही सुन्दर चित्रांकन हैं . हाँ एक बात विशेष रूप से कही जानी चाहिये कि पुस्तक का कलेवर बेहद खूबसूरत है . आवरण , पृष्ठ ,निर्दोष छपाई ..यह सब उत्कृष्ट है . जिसने कृति को अधिक सुन्दर और आकर्षक बना दिया  है . . शिवना प्रकाशन को इसके लिये बहुत बधाई . और ऊषा जी को तो क्या कहूँ . खुद को भगवान का गढ़ा हुआ डिफेक्टिव पीस कहने वाली डा. ऊषाकिरण को ईश्वर ने खूब तराशा है . बस यही कामना कि वे स्वस्थ रहें और सुन्दर कविताएं कहानियाँ लिखती रहें .
                                                                                       लेखिका- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कविता— एक दिन


   ~ एक दिन~
     ~~~~~~

तुम तो
नफरत की सिलाइयों से
अपनी बदबूदार सोच का
एक मैला सा स्वेटर बुनो
क्योंकि
तुम्हें क्या मतलब इससे
कि देश मेरा जल रहा है
कराह रहा है
बंट रहा है
तड़प रहा है
भूखा है
डरा हुआ है
मर रहा है
तुम तो बस अपनी
अँधेरी परिधि की हद में
आत्ममुग्ध  हो
गर्वोन्मत्त हो थोड़ा सा भौंह उठा
हल्के से मुस्कुराओ
और फिर से शुरु हो जाओ
क्योंकि-
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है कि-
देश मेरा जल रहा है
सिसक रहा है...
तुम तो बस अपनी बदबूदार सोच से
नफरत की सिलाइयों से
एक मैला सा स्वेटर बुनो
पहनो और
सो जाओ !
लेकिन वे जो हैं न
अपनी छोटी -छोटी हथेलियों में
सूरज उगाए बढ़ रहे हैं
बुन रहे हैं एक रोशनी का वितान
वे ही बचा ले जाएंगे अपनी उजास
मेरे देश को
पूरे विश्व को
और मानवता को भी
तुम देखना एक दिन....!!!!

                     — उषा किरण

फोटो:गूगल से साभार

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कविता —ना कहना





तुम ये कहना
तुम वो कहना
इसे भी कहना
उसे भी कहना
इस बात पे कहना
उस बात पे कहना
यहाँ भी कहना
वहाँ भी कहना
जो दिखे
उसे कहना
ना दिखे
उसे भी कहना
सब कुछ कहना
परन्तु...
सही को सही
और
गलत को गलत
बस ये कभी न कहना !!!!!
                     डॉ० उषा किरण
                     ( रेखांकन ; उषा किरण)

मंगलवार, 24 मार्च 2020

मन का कोना — नर हो न निराश करो मन को ...

                                     


वैश्विक संकट की स्थिति है ।सारे दिन घर में बन्द होकर टी वी , न्यूज़ पेपर, मोबाइल में देख पढ़ कर सबके मन दहशत में हैं । जिस भी फ्रैंड से बात की हर कोई ख़ौफ़ज़दा है ।फेसबुक पर भी कई पोस्ट में हताशा दिखाई दी दहशत है सब तरफ बदहवासी है खुद मैं भी सुकून में नहीं हूँ ।सारे दिन टी वी के आगे बैठी रहती हूँ इस उम्मीद में कि अभी उद्घोषणा होगी कि वैक्सीन आ गया जाकर सब अपने डॉक्टर से लगवा लें ...जबकि जानती हूँ अभी वक्त लगेगा काश मेरा ये दिवा स्वप्न साकार हो जाए!🙏
ज्यादातर लोगों के बच्चे विदेशों में या दूसरे शहरों में पढ़ रहे हैं या जॉब कर रहे हैं उनके लिए मन परेशान है ।देश के हालात भी धीरे-धीरे चिन्ताजनक होते जा रहे हैं परन्तु कुछ बेवकूफों की बेवक़ूफ़ी का खामयाजा सबको भुगतना पड़ेगा ।कई लोगों की पोस्ट और मैसेज पढ़ रही हूँ धीरे- धीरे सब अवसाद में जा रहे हैं तो संभलिए खुद और संभालिए सबको । अपने से जुड़े अशिक्षित व अति उत्साही और अन्धविश्वासी लोगों को मौका मिलने पर समझाएं कि घर पर रहें और आवश्यक सावधानी स्वच्छता का पालन करें ।
ध्यान करिए , प्राणायाम करिए मन शाँत होगा । एन्जायटी से कहीं ऐसा न हो कि आपका बी पी , शुगर बेकाबू हो जाए या दिल पर ज्यादा बोझ पड़ने से दिल गड़बड़ा जाए और आपको डॉक्टर या हॉस्पिटल की जरूरत पड़ जाए । एक तो डॉक्टर्स व हॉस्पिटल स्टाफ पर पहले ही इतना बोझ है कोरोना के चलते और आगे भी उनको कोरोना पीडि़तों को देखना है तो हिम्मत रखिए ।अपना ध्यान रखिए ,अपने बुजुर्गों से बात करिए , हौसला दीजिए उन्हें , बच्चों के साथ गाने गाइए , नाती पोतों को कहानी सुनाइए उनके पापा मम्मी की बचपन की शैतानियाों के किस्से सुनाइए , कविता या कहानी की दो लाइन सुना कर कहिए बाकी तुम पूरी करो  देखिए फिर उनकी कल्पना की उड़ान कैसी ईरान तूरान की मिलाते हैं ।बच्चों से कुछ रेसिपी ट्राई करवाइए हमारे आदी (नाती) ने चीज सैंडविच , कप केक ,फ्रूट सलाद बनाना सीखा है । जब बच्चे खुद बनाते हैं तो खूब गपर-गपर खाते हैं ।बच्चों के साथ इन्डोर गेम खेलिए , यदि लॉन हैतो बैडमिंटन खेलिए (मेरे दामाद ने इन दिनों चार कि० वेट कम किया खेल कर) कुछ जो मन को अच्छा लगे पढ़िए, मित्रों से फोन पर बात करिए एक दूजे का हौसला बढ़ाइए ।देखिए घर में कहीं कभी मंगा कर रखे कलर्स ब्रश रखे हों तो पेंटिंग ही बना डालिए  । नहीं तो गर्म कपड़ों की पैकिंग का काम निबटा लीजिए । अपनी कवर्ड चैक करिए कुछ बहुत अच्छे कपड़े जो ये सोच कर साल दो साल से सेंत रखे हैंकि जब स्लिम हो जाउंगी तब पहनूँगी तो निकाल कर दे दीजिए अपने केयर टेकर्स को और भूल जाइए दो साल में नहीं घटा तो कोई गारंटी नहीं कि आगे भी....।
कभी सितार, हारमोनियम, बाँसुरी, माउथऑर्गन , पियानो,तबला ,कुछ सीखा था जिसे जीवन की आपाधापी में भूल गए थे तो निकालिए ,धूल झाड़िए फिर से जीवन में सुर लाइए कुछ गुनगुनाइए ।अगर लिखने का मन  है या हुनर है तो लिखिए कुछ ।सर्च करिए नेट पर कुछ अच्छी रेसिपी ट्राई करिए आप भी। जैसे आज मैंने तवा फ्राई सब्जी बनाई ।मर्द लोगों को चाहिए कि पत्नियों को कहें अब इस सन्डे ,सैटरडे तुम्हारी छुट्टी और बच्चों के साथ खुद संभालिए किचिन ।बाजार से ग्रोसरी आप खुद लाएं । माली की छुट्टी कर गार्डन में खुरपी चलाइए बच्चों से कहिए पानी दें ।देखिए कितनी ख़ुशियाँ आएंगी घर में सेहत भी बनेगी टेंशन भी कम होगा । सहायकों की छुट्टी होने से आपकी पत्नि पर काम का बोझ आ पड़ा है ऊपर से बढ़िया डिशेज की फ़रमाइश तो जाकर काम में हाथ बंटाइए न ।यदि कोई परिचित या पड़ोसी बुजुर्ग घर पर अकेले रहते हों तो उनकी खबर फोन पर जरूर लेते रहिए और छोटे बच्चों से भी कहिए कि वो भी पूछे संस्कार पड़ेंगे बच्चों में कोई जरूरत हो तो मदद करिए।
आज बेटी ने बताया कि उनकी सोसायटी में एक बुजुर्ग डॉक्टर दंपत्ति अकेले रहते हैं बच्चे बाहर हैं उन्होंने अपनी सभी मेड को छुट्टी दे दी है तो कल बेटी और उसकी कुछ फ्रैंड्स मिल कर उनके घर की साफ- सफाई करके आईं और कुछ खाना भी बना कर दे कर आईं  कुछ देर उनसे बात की हाल- चाल पूछा , हिम्मत बढ़ाई कहा कि कोई प्रॉब्लम हो तो हमें बताइएगा । एक और परिवार है जिन्होंने पूरी तरह खुद को घर में बंद कर लिया है क्योंकि उनकी माँ को कैंसर है कैंसर पेशेन्ट की इम्यूनिटी वैसे भी कम होती है तो अपनी दवाइयाँ लेने जाते समय उनसे पूछा और उनकी भी दवाइयाँ व फल लाकर दिए । सुन कर मन भीग गया मैंने खूब शाबाशी दी
भूल जाइए इस समय जाति -पाँति, धर्म बस जरूरतमंदों को मदद करिए । आप जिन मंदिरों में , तीर्थों में भगवान के नाम पर दान देते हैं वो सब वैसे ही बन्द पड़े हैं नर में नारायण देखिए । आपकी मेड, ड्राइवर, माली जो भी आप पर निर्भर हैं इसके अतिरिक्त भी जहाँ कर सकते हैं उनकी मदद करिए ताकि उनके चूल्हे जलते रहें ।बिना पैसे काटे  छुट्टी दें  एक महिने के पैसे एडवांस दें और कहें कि कम से कम आटा,चावल , नमक ,चीनी, पत्ती,दाल चावल, आटा लाकर रख लें या सेलरी से अलग दान समझ कर कुछ पैसे देकर उनकी मदद करें ऐसा करके देखिए कितनी खुशी और शाँति मिलती है ऐसी शाँति किसी पूजा पाठ से भी नहीं मिल सकती। क्योंकि हो सकता है हालात बिगड़ने पर घरों से निकलने लायक हालात न रहें आगे जाकर  ,क्योंकि  लॉक-डाउन से भी रुक नहीं रहे घरों में कुछ बेवकूफ लोग।आलम ये है कि कल टी वी पर देखा कुछ लोग टैटू बनवाने जा रहे थे...मजाक समझ रखा है कुछ लोगों ने वे कोरोना को गंभीरता से नहीं ले रहे तो सरकार को सख्त कदम उठाने ही पड़ेंगे हो सकता है कल आपके शहर में भी कर्फ़्यू लग जाय।
प्रार्थना करिए  ये आपको मानसिक शक्ति , शान्ति देती है और आशावान बनाती है तो आप जिसको भी इष्ट मानते हों प्रार्थना करिए ,चैन्टिंग करिए या जिस भी धर्म के अनुयायी हों अल्लाह, ईशू,नानक जिसमें भी आस्था हो विश्व के लिए पहले प्रार्थना करिए तब अपने और अपने बच्चों के लिए  करिए सामूहिक प्रार्थना में बल होता है ।
सारे विश्व में मौत का तांडव है । इस समय सबसे बड़ी समस्या है खुद को बचाए रखना और अपने देश परिवार समाज को कैसे बचाएं उस पर विचार कर सहयोग करना ।
पैसे बैंकों में रखे रह गए, जमीन जायदाद पड़ी रह गईं , अकूत संपत्ति भी साथ नहीं गईं और हजारों लोग चटापट उठ गए । रह गया सब यहीं रिश्ते मान- अपमान , सम्मान ,प्रशस्ति-पत्र भी !
दूसरी तरह के अमीर बनिए एकांतवास में आत्मनिरीक्षण करिए  । दिल बड़ा करिए ।कभी किसी ने अपमान किया आपका ,आपको हर्ट किया,दुश्मनी ठानी बस यही टाइम है माफ कर दीजिए मन से ।यदि आपकी गल्ती है तो माफी माँग लीजिए ...मन का कबाड़ छाँट दीजिए आशा, प्रेम व प्रार्थना का दीप जलाइए " #अप्प_दीपो_भव”सकारात्मक बनिए । बच्चों को भी ये सब सिखाइए ।ये बवंडर तो थम ही जाएगा एक दिन बहुत कुछ उत्पात मचा कर ।प्रकृति का कहर है थमेगा ही एक दिन पर हमें बहुत कुछ सिखा कर और सीखने का वक्त भी है । देखिए अपने अहंकार को जाँचिए जरा काम करिए उस पर भी।
आखिर में करबद्घ निवेदन है कि मोदी, केजरीवाल,अमितशाह वगैरह को जितनी मन हो बाद में गाली दे लेना पर अभी जो कह रहे हैं , जो पॉलिसी व नियम बना रहे हैं मानने में ही सबकी भलाई है ...मान लो सबके कल्याण की बात है🙏
ये जो कुछ मैं लिख रही हूँ ये आपसे ज्यादा खुद के लिए लिख रही हूँ कि ...उषा किरण संभल जाओ , रुक तो गई ही हो ...संभलो...जरा सोचो...क्योंकि कल हो न हो 🤔
कोरोना लॉक डाउन का हासिल-कुछ फोटो








मंगलवार, 17 मार्च 2020

पुस्तक- समीक्षा


दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’
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कभी-किसी की एक रचना ऐसी आती है कि मन करता है उसका लिखा अगला-पिछला सब कुछ एक साँस में पढ़ जाएं।
रूपा पहली बात तो ये कि आपको ख़ूब लिखना चाहिए हम और पढ़ना चाहते ऐसी सुंदर जादू रचने वाली ,सम्मोहित करने वाली कहानियाँ ।
रुपा सिंह  की हंस कथा मासिक में छपी कहानी 'दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’ का चारों तरफ इतना शोर सुना तो रूपा से माँग कर पढ़ी और न सिर्फ़ पढ़ी लगातार दो बार एक ही बार में पढ़ गई कारण था पंजाबी मिश्रित मज़ेदार भाषा की वजह से मज़ा भी आया और कुछ पहली बार पढ़ने में समझने में परेशानी भी हुई और दूसरा सबसे बड़ा कारण था अंत में छल्ले के साथ आखिरी वक्त में उजागर होता बेबे का वो प्रेम जिसको नानाजी बेबे को सात तालों में बन्द करके भी नहीं बाँध पाए ।
कभी मंगेतर रही सुग्गी का बच्ची सहित छल से अपहरण करते एक बार भी पूछा नहीं उसका मन ...बस बाँध लिया साथ जैसे कोई ढोर हो ...पर दिल तो बेबे का छूट गया था न उस पार ।साथ आ गये  उस रिश्ते की ख़ुशबू तो बेबे की साँसों में महकती रही अगर -कपूर सी आख़िर तक ।बेबे गाती रही मगन हो...हंसती रहीं ...बोलती ...गाली देती ताउम्र...।
".....ओय छल्लिया होया वैरी...वतन माहिया हो गया वैरी...सोहणा...वे ढोलणा....।”
धड़कनों की ताल पर गीतों में हंसने -रोने में ढलता रहा दिल का दर्द...गूंजती रही अनकही पीर ।
अंत तक पढ़ते-पढ़तेही एक झटके में जैसे भावना का ,आँसुओं का गुबार फूट पड़ता है और बहा ले जाता है अपने साथ और आप हठात्  दुबारा पढ़ने को विवश हो जाते हैं ।
बाकी सबने पहले ही इतने विस्तार में इतनी सुंदर समीक्षा लिखी है कि मैं क्या लिखूँ ?
बस एक बात है कि मुझे  इसमें एक नहीं दो-दो अनकही पावन प्रेम कहानियाँ नज़र आईं...एक बेबे की और दूसरी जो बेबे की नातिन और तोषी के बीच चलती है ने भी छू लिया ...अंदर तक उदास कर दिया । दूसरी कहानी बेबे के आड़ में छिपती छिपाती सी चलती रहती है बेहद लापरवाह अल्हड़ किशोरी सी ...काँगड़ी में जलती धीमी -धीमी आँच सी सुलगती सी ।
अमृतसर छूटने के बाद उसे लहना सिंह के बहाने जिसकी याद आती रही ......"कभी चाँद देखती तो आकाशगंगा से अमृत के बहते परनाले दिखते जो बगल की छत पर जाकर ठहर जाते...लेकिन अब वहाँ कोई नहीं होता ।केवल यादें ही यादें थीँ ....कौन बता सकता है किसके रौशन तन में मन के अंधेरे कैसे गाढ़े होते हैं ? ...जो पूर्णिमा की रात खीर और चुन्नी थामे चाँदनी में साथ बहता रहा... जो बचपन में कहता मैं भी चौकीदारी करूँगा ...तेरी सुंदर भूतनी की ...जो छल्ले को सीधा करता नाम पढ़ता है 'शमशेर ‘....दोनों साथ पढ़ते हैं ...रोते हैं ..समझते हैं साथ ही छिपा भी जाते हैं बेबे के रिश्ते के साथ अपना भी और सभी की गरिमा पूरी तरह निभा ले जाते हैं ...।
बेबे का अंतिम आर्तनाद “....छल्ला वैरी क्यूँ होया....ओ छल्लिया...” के पीछे कुछ और चाहतें , कुछ और सिसकियाँ भी छिपी रह जाती हैं और छोड़ जाती है हमारे मनों पर एक तीखी सी चिलचिलाती पीली धूप...!!!!!ब




मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...