शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (भाग 3)




उस दिन उनकी उस स्नेहमयी भंगिमा ने मेरा सारा डर भगा दिया उनके कर्कश रूप की पर्तों में छिपे उस स्नेह-पूरित नवीन रूप तले तो मैं अचम्भित रह गई थी..अभिभूत होकर उनकी ऊल -जलूल बातें सुनते फिर कितना वक्त निकल गया पता ही नहीं चला । हम लोग जब लौटने लगे तो फिर रास्ता रोक कर खड़ी हो गईं और अपनी एकमात्र संपत्ति कुंए की महिमा बखानने लगीं कि सब जानते हैं कि उनके कुंए का जल कितना मीठा है..दाल तो मिनटों में घुट जाती है । कभी-कभी वे पापा और ताऊ जी का भी रास्ता रोक कर खड़ी हो जातीं और जब तक अपने कुंए के गुणगान न सुन लेतीं एक कदम भी न हिलने देतीं ...ताऊ जी अक्सर उनको खुश करने के लिए बड़ी गंभीरता से समझाते `बिट्टा तुम अपने कुंए पर अपना नाम लिखवा लो ...’तो वो पुलकित हो जातीं और पुरस्कार में अमृत -स्वरूप कुंए का लोटा भर पानी ताई जी को दे आतीं और बदले में बड़े अधिकार से उसी लोटे में लबालब दूध या छाछ भर कर छलकती बूंदों को जीभ से चाटतीं ले आतीं।
अब तक का उनका वर्तमान देख कर मुझे ऐसा लगता था कि झुकी कमर,झुर्रियों से भरे कठोर चेहरे और बेतहाशा गालियों के पीछे कोई इतिहास नहीं ..कोई अतीत की छाया नहीं...जो कुछ है बस यही भावहीन उनका वर्तमान है परन्तु उस दिन घर वापिस लौट कर बुआ से उनकी कहानी सुन कातर हो उठी ।
बिट्टा बुआ का विवाह कभी बहुत ही अच्छे घर खानदान में हुआ था ,पति भी फौज में थे परन्तु विवाह के साल भर भीतर ही सोलह वर्षीया बिट्टा बुआ विधि-विडम्बना से आहत,स्तब्ध अपार रूप राशि ,सूनी मांग पेंशन की डोर थामे पुन: पीहर की देहरी पर आ खड़ी हुईं तो भाई-भाभी के ताने और अपमान भरे स्वागत से हतप्रभ हो अधर में झूल कर रह गईं ...ससुराल वालों ने तो पहले ही डायन,
कुलक्षिणी,मनहूस जैसी उपाधियां देकर सदा को धक्का दे दिया था और अब पीहर की देहरी भी उनके घायल हृदय पर कस कर लात जमा रही थी..बगल में पोटली दबाए वे चुपचाप सारा मान-अपमान पीती हुई कोने में मुंह छिपा सिसक उठीं।
धीरे-धीरे हिम्मत कर संभाला खुद को गहने बेच कर और पेंशन के पैसों को जोड़ उन्होंने भाई के कच्चे सीलन भरे मकान को पक्का बनवाया साथ ही बड़ी लगन से चौपाल पर बनवाया प्यासे राहगीरों के लिए एक पक्का कुंआ।
धीरे-धीरे भाई -भाभियों के तानों ,गांव वालों की उपेक्षा -तिरस्कार और उससे भी बढ़ कर विधि-विडम्बना से आहत होकर बिट्टा बुआ अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं...निर्दयी भाई ने पेंशन हड़पनी शुरु कर दी और वे दाने-दाने को मोहताज हो पेट की ज्वाला से आहत होकर घर-घर के चूल्हे झांकने लगीं...सारा स्वाभिमान तो मानसिक विकार ने धो ही दिया था ।गांव वालों ने भी कुछ स्वेच्छा से और कुछ अनिच्छा से उनके इस हक को अपना लिया था...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ वे मान-अपमान को परे कर जुड़ा ही लेतीं...कभी न भी मिलती तो रास्ते में पड़ा कोई फटा जूता चप्पल ही उठा लातीं और पहन कर पुलकित हो अपने कमरे में पड़े जूते चप्पल के ढ़ेर पर उसी संतोष से सो जातीं जैसे कोई नन्हा बालक अपने खिलौने से खेलता हुआ थक कर उसी को सीने से लगाए सो जाता है...होठों पर मीठी मुस्कान लिए...उसी के सपने देखता हुआ ...परन्तु सारे दिन के ताने उलाहने,मान-अपमान को जागने पर ऐसे भूल जातीं जैसे रूठ के सोया बालक उठने पर सब भूल कर पुन: खेल में मस्त हो जाता है ।
मुझे याद है एक बार बुआ और बुआ की चुलबुली सहेलियों की चहकती टोली छत पर खूब चहक रही थीं ...बिट्टा बुआ ने उन्हें देखते ही अपनी चौपाल से उसी `पावन-ग्रन्थ’ का पाठ अभिनय सहित ऊंचे स्वर में करना प्रारम्भ कर दिया ...बुआ का मुंह क्रोध से तमतमा उठा परन्तु इस सबसे बेखबर बिट्टा बुआ तो बस बुआ की काल्पनिक बेचारी सास के कर्मों को ठोंकती लगातार मातमी स्वर में पृथ्वी मैया के रसातल में चले जाने की दुआ माग रही थी क्यों कि भले घर की लरिकिनी होकर भी तरला बुआ छत्ता लगाए सुहानी शाम का आनन्द ले रही थीं और वो भी बिट्टा बुआ के होते ?
...झटकती-पटकती धमधम करतीं तरला बुआ बड़बड़ाती नीचे उतर आईं ...ताई जी ने पूंछा `...`क्या हुआ’ बुआ रुंआसी होकर चिनचिनाईं...`और क्या ? वो खड़ी हैं न चौपाल पर जगत सास..जब तक हैं सारी लड़किएं हमारे गांव की आवारा ही रहेंगी...मेरा नाम लेकर पता है हमारे कुल का नाम रौशन कर रही हैं...’।
उसी दिन शाम को जब बिट्टा बुआ अचार मांगनें आईं तो अनसुना कर तरला बुआ आंगन में बैठी सब्जी काटती रहीं...हवाओं का रुख भांपते ही बिट्टा बुआ ने उनके हाथ से चाकू छीन सब्जी काटते- काटते न जाने किस जादुई छड़ी से मंत्र मार कर बुआ की नाक पर बैठी मक्खी क्षण भर में उड़ा दी थी...आधे घंटे बाद ही वही बिट्टा बुआ हमारी `बुआ महान ‘का यशगान करतीं कागज में छै: सात आम के अचार की फांकें हाथ में दबाए चली जा रही थीं.
क्रमश: -

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