शनिवार, 26 मई 2018

इन दिनों...

इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच बैठ
खेलने लग जाती हूं घंटो
कैंडी-क्रश
रास्ते में गाड़ी रोक
टिक्की- गोलगप्पों के चटखारे ले
कुल्फी चूसती घर आती हूं
नाक सिकोड़ कहती हूं दाल चावल से
`नहीं भूख नहीं अभी’!
रात के दो बजे तक इयरफोन की आड़ में
सुनती हूं गीत...गजल...कहानियां
भटकती रहती हूं फेसबुक
ब्लॉग या इन्स्टाग्राम की गलियों में
लगभग सारी रात
जब तक एक भी रेशा बाकी है
नींद का पलकों पर
सोती रहती हूं
चादर तान कर लम्बी
आठ...नौ...या दस
कितने भी बजे तक
`हुंह बजते रहें...
रोज ही तो बजते हैं ...’
बाथरूम में बन्द हो घंटों
करती हूं गाने रेकॉर्ड...
अपने मोबाइल पर
कमरा बंद कर याद करती हूं
बचपन में सीखे
कत्थक के स्टैप
और...तलाश जारी है
एक सितार टीचर की
आदि की चॉकलेट कुतर लेती हूं
थोड़ी सी
लड़ता है वो..`नानी गंदी हैं ’
सुबह...दोपहर...रात कभी भी
जब मन हो नहाती हूं
ठाकुर जी झांकते रहते हैं पूजाघर से
स्नान-भोग के इंतजार में
जब मन होता है भाग जाती हूं
बैग उठा कर
दिल्ली...मुरादाबाद...गुड़गांव
या कहीं भी...
मन होता खिलखिलाती हूं
मन होता है रोती हूं
कोई नॉवेल लेकर घंटों
पड़ी रहती हूं औंधे
तकिए पर
या टी०वी० पर देखती हूं लगातार
दो मूवी एक साथ...
सालों साल घड़ी की सुइयों पर सवार
भागी हूं बेतहाशा
पर अब
चल रही हूं मैं
अपनी घड़ी के हिसाब से
सच...
इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं
मैं !!!







4 टिप्‍पणियां:

  1. जीना इसीका नाम है ! काश यूं बिगड़ पाना हरेक के नसीब में हो ! बहुत प्यारी अपनी सी रचना !

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  2. बिगड़ जाइए
    क्योंकि बचपन की गलियों में है

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