सोमवार, 26 नवंबर 2018

परछाईं


थक जाती है कभी
अपनी ही परछाईं हमसे
दौड़ती रहती है सारा दिन
करती है पीछा कभी
हमारी हसरतों का
हमारी प्यास का
तो कभी
हमारी आस का
हमारे सपनों को
पंख देती है
तो कभी देती है पैर
पर शाम होते ही
हो जाती है गुम
सारी उदासियाँ समेटे
भीतर हमारे
रहने दो वहीं उसे
थोड़ा विश्राम कर लेने दो
आ जाएगी सुबह फिर
लिपट जाएगी पैरों से
फिर एक बार
हौसला बन कर
तो कभी हिम्मत बन कर!!!
                  — उषा किरण 
रेखाँकन; उषा किरण 

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