सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

कविता— अश्वत्थामा





    ~अश्वत्थामा ~
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कहो तो  पाँचाली
अबोध सोए पड़े सुकुमार,अबोध
पुत्रों के हन्ता अश्वत्थामा को
क्यों क्षमा किया तुमने ?
क्यों तुम्हारी करुणा से
तुम्हारा दारुण दु:ख
कम पड़ गया ?
और तुम वासुदेव ...?
तुमने भी श्रीहीन कर छोड़ दिया
उस घायल विषधर को
अजर- अमर होने का
वरदान देकर ?
लपलपाती रक्त सनी तलवार ले
हा-हा कर घूमता है निर्द्वन्द्व
मस्तक पर रिसते बदबूदार घाव सहित
आज भी...
धूँ-धूँ कर जलती प्रतिशोध ज्वाला उसकी
करती रहती है हमें भस्म
नासूर बने ज़ख़्मों से लावा बन
गिरता है रक्त आज भी हम पर
बँट गया है वो,
विस्तार पा गया है...
असंख्य नफरत और प्रतिशोध के नुकीले
नश्तरों को आखिर
कब तक सहेंगे हम ?
कब तक अबोध शिशुओं का
बलिदान देगी माँ ?
नहीं ...वासुदेव अब नहीं
शापमुक्त करो इसे
ले जाओ साथ
या फिर दो गाण्डीव
या ब्रह्मास्त्र हमारे ही  हाथ
ताकि कर सकें
इस आततायी अश्वत्थामा का
स्वयम् संहार
हम !!
               -उषा किरण


9 टिप्‍पणियां:

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  2. मार्मिक रचना..अश्वत्थामा स्वयं ही नहीं जल रहा होगा क्या पश्चाताप के शोक में..वह तो करना चाहता होगा वरण मृत्यु का जो कभी नहीं मिलेगी उसे..इससे बड़ा भला कोई दंड हो सकता है

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  3. ब्रह्मास्त्र हमें दो, फिर देखो

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    1. अनीता जी पश्चात्ताप भी हो सकता है परन्तु मेरी कल्पना ने आज के सन्दर्भ में उसको यहाँ प्रतिशोध व नफरत में सुलगते ,झुलसते आतंकवाद के रूप में देखा है जो विस्तार पा और विकराल रूप में आज भी जिन्दा है !

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  4. एकदम सीधी सच्ची बात कहती कविता जो मेरी अब तक पढ़ी गयी बेहतरीन कविताओं मे से एक है।

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    उत्तर
    1. संजय सी आपकी टिप्पपणी पढ़ कर बहुत अच्छा लगा...धन्यवाद!

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  5. ये ही जज्बा और उत्साह चाहिए रश्मिप्रभा जी!

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