रविवार, 24 मार्च 2019

कविता — " धूप”



     धूप
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सुनहरी लटों को झटक
पेड़ों से उछली
खिड़की पर पंजे रख
सोफ़े पर कूदी
और वहाँ से छन्न से
कार्पेट पर पसर गई
हूँ...उधम नहीं...
चाय बनाती किचिन से
उंगली दिखा
बरजती हूँ
जीभ चिढ़ा
खिलखिलाती है
जरा नहीं सुनती
ये धूप भी पूरी
शैतान की नानी है !!

           — उषा किरण 

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