भूल जाना चाहती हूँ इस तारीख को
है ऐसी कोई रबड़ तो इस तारीख को ही
कैलेंडर से मिटा दो कोई
जो तुम्हारी पुण्य- तिथि के नाम से
दर्ज है अब हमारी यादों में !
सारा दिन
सीने से पेट तक
घू-घू करते चक्रवात
और एक दबी ,सुलगती सी चिंगारी
अग्निशिखा सी प्रश्न बन
सिर पटकती है
क्या जल्दी थी इतनी....!
दिल को मुट्ठी में जैसे कोई भींच
निचोड़ता है ...
कि तुम्हारी फिसलती उंगलियों को थाम
किया वादा कहाँ निभा पाई ?
जानती हूँ तुम मेरी मजबूरी समझते होगे
तुम्हारे रोपे पौधे आज वृक्ष बन
आसमानों को छूते
झूम रहे हैं
आशीषों और दुआओं से
हर पल सींचती हूँ
रात घिर रही है
और मन के
अंधेरों में
हजारों उत्ताल तरंगों संग
डूबती-उतराती
अवश सी मैं बुदबुदा रही हूँ
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी .....!”
—उषा किरण
संवेदना का सरगम।
जवाब देंहटाएंविश्वमोहन जी धन्यवाद!
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