सारे दिन खटपट करतीं
लस्त- पस्त हो
जब झुँझला जातीं
तब...
तुम कहतीं-एक दिन
ऐसे ही मर जाउँगी
कभी कहतीं -
देखना मर कर भी
एक बार तो उठ जाउँगी
कि चलो-
समेटते चलें
हम इस कान सुनते
तुम्हारा झींकना
और उस कान निकाल देते
क्योंकि-
हम अच्छी तरह जानते थे
माँ भी कभी मरती हैं !
कितने सच थे हम
आज...
जब अपनी बेटी के पीछे
किटकिट करती
घर- गृहस्थी झींकती हूँ
तो कहीं-
मन के किसी कोने में छिपी
आँचल में मुँह दबा
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो माँ...!!!
—— उषा किरण
रेखाँकन; उषा किरण )
मातृ दिवस पर सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद!
हटाएंक्योंकि वो माँ है इसलिए हमेशा साथ रहती है ... जीती है बच्चों के साथ साथ ...
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना ...
और जाने के बाद भी बेटी में रूपान्तरित हो जाती है😌
हटाएंवाह! चिरंजीवी रहती है माँ! हमेशा।
जवाब देंहटाएंजी सही कहा...धन्यवाद!
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 12 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ! माँ कभी मर ही नहीं सकतीं ! हर किस्से में, हर बात में, हर याद में, हर चीज़ में ज़िंदा रहती हैं ! हमारे अंतर में साँसें लेती हैं और हमें जीवन देती रहती हैं !
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने साधना जी ...धन्यवाद प्रोत्साहित करने के विए��
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