कहानी सुनाना भी एक कला है और इस विद्या में हम बचपन में बहुत निपुण थे। एक बार हम और अम्माँ 1977 में ग़ाज़ियाबाद में एक मूवी देख कर आए
"यही है ज़िंदगी “।
हमें संजीव कुमार की एक्टिंग बहुत पसन्द थी बेशक संजीव कुमार खुद पसन्द नहीं थे।इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान में लड़ाई होती है ,जब वो पूजा में रखे पैसों को पत्नि से छिपा कर चोरी कर लेते है। कृष्ण भगवान उनका हाथ पकड़ लेते हैं कि ये तो मेरे पैसे हैं तुम नहीं ले जा सकते। दोनों में बहस होती है और अन्तत: संजीव कुमार कहते है कि यदि मेरे पास खूब पैसा हो तो मैं जीवन की सारी ख़ुशियाँ खरीद सकता हूँ। भगवान मुस्कुरा कर कहते हैंकि तुमको पूरा विश्वास है कि तुम पैसों से सारी ख़ुशियाँ खरीद सकते हो ? अभी देखो तुम्हारा परिवार कितना खुशहाल है सब प्रेम से रहते हो ( उस जमाने में कई फ़िल्मों में दिखाई देता था कि ख़ुशियाँ व पैसा साथ नहीं रह सकते )।
पर वह बहस करते हैं तो भगवान कहते हैं कि ठीक है मैं तुमको खूब अमीर बना देता हूँ और फिर हम और तुम बाद में फिर बात करेंगे।
सहसा संजीव कुमार बहुत रईस हो जाते हैं और धीरे- धीरे बच्चे बिगड़ जाते हैं। घर की सुख- शान्ति, सेहत सब समाप्त हो जाती है। जहाँ पहले सारा परिवार एक थाली में प्यार से रूखी- सूखी प्रेम से खाते थे अब टेबिल व्यन्जनों से भरी है पर किसी के पास खाने का वक्त नहीं है।संजीव कुमार की पत्नि बनी सीमा देव बहुत व्यथित होती हैं। फिर संजीव कुमार पछताते हैं, दुखी होते हैं और अन्त में सब कुछ छोड़कर कहीं शायद आश्रम में पत्नि के साथ चले जाते हैं
इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान के मध्य हुई नोंक- झोंक बहुत मजेदार थी जो बीच-बीच में चलती रहती थी। कृष्ण भगवान मुस्कुरा कर कभी भी टपक जाते हैं और कटाक्ष करते हैं ।संजीव कुमार एग्रेसिव होकर कृष्ण भगवान से खूब ऐंठ कर जवाब देते हैं।
तो हमने घर आकर भैया और छोटी बहन नीरू को डायलॉग व एक्टिंग सहित पूरी कहानी खूब मजे लेकर सुनाई। हमें कहानी सुनाने का खूब शौक भी तब तक था ही। भैया को सुन कर बहुत मजेदार लगी।
"चल नीरू हम भी देख कर आते हैं “ कह कर वो और नीरू तुरन्त उसी दिन पास में चौधरी थियेटर में वो मूवी देखने चले गए।
तीन घन्टे बाद जब वो आए तो हमने लपक कर पूछा कैसी लगी ? भैया झुँझला कर बोला-
" खाक लगी…कुछ भी छोड़ा था तुमने बताने से जो देखने में मजा आता।सारे डायलॉग्स तक तो पता थे… ये तक तो पता था कि डायनिंग टेबिल पर क्या- क्या डिश सर्व हुई थीं!”
वो दोनों पैर पटकते अन्दर चले गए और हम खड़े सिर खुजा रहे थे कि हमारी क्या गल्ती थी ।
—उषा किरण
रोचक संस्मरण है उषा जी आपका। यही है ज़िन्दगी मैंने अपने बचपन में दूरदर्शन पर देखी थी। यह एक बेहतरीन फ़िल्म है। संजीव कुमार की पत्नी की भूमिका वस्तुतः सीमा देव ने निभाई
जवाब देंहटाएंजी हाँ सीमा देव ही थीं…मैं सुधार लेती हूँ…धन्यवाद 😊
हटाएंवाह वाह!रोचक, बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंएक बेहतरीन फ़िल्म
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