ताताजी को लगता था कि मुझे लुकाट बहुत पसन्द हैं, हैं तो आज भी। वो इसीलिए खूब भर- भरके मंगवाते थे। लेकिन क्यों पसन्द थे ये उनको नहीं पता था।नाइन्थ क्लास में जब बुलन्दशहर में पढ़ती थी तब एक दिन जिस थैले में लुकाट आये उस पर जब ध्यान गया तो बेहद खूबसूरत मोती जैसी लिखाई में नीली स्याही से कविता लिखी थीं। आजतक मैंने वैसी सुघड़ लिखाई किसी की नहीं देखी। कविता क्या थीं, ये अब नहीं याद परन्तु उन कविताओं ने तब मन मोह लिया था।मैंने वो लिफ़ाफ़ा अपने पास सहेज कर रख लिया। खूब शोर मचा कर कहा लुकाट मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, फिर कई दिनों तक वैसे ही कविताओं में लिपटे लुकाट रोज आते रहे। मैंने मोहन से कहा रोज उसी से लाना जिससे कल लाए थे, उसके लुकाट बहुत मीठे थे। मैं लुकाट खाती और लिफ़ाफ़े को सहेज लेती। कई दिन तक आती रहीं ।पता नहीं किसकी कॉपी या रजिस्टर थे जो रद्दी में बिक गये…।पता नहीं कभी वे कविताएं लोगों तक पहुँची भी या नहीं? तब गूगल भी नहीं था जो सर्च कर पाती। कई साल तक सहेज कर रखीं, फिर जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गईं ।
शादी के बाद पति को पता चला मुझे लुकाट पसन्द हैं तो मौसम आने पर वे भी लाने लगे, लेकिन बिना कविताओं के लुकाट में अब वो मिठास कहाँ…?
Anjum Sharma की पोस्ट पढ़ कर पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो गईं।सच है जाने कितनी प्रतिभाएं यूँ ही बिना साधन व प्रयास के गुमनामी के कोहरे में लिपटी गुम हो जाती हैं …!!!
—उषा किरण
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील जी
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