मंगलवार, 19 नवंबर 2024

खुशकिस्मत औरतें

 



ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें

जो जन्म देकर पाली गईं

अफीम चटा कर या गर्भ में ही

मार नहीं दी गईं,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पढ़ाई गईं

माँ- बाप की मेहरबानी से,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो ब्याही गईं

खूँटे की गैया सी,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो माँ बनीं पति के बच्चों की,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जिन्हें घर- द्वार सौंपे गये

पति के नाम वाली तख्ती के,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पर्स टाँग ऑफिस गईं

पति की मेहरबानी से..!


जमाना बदल गया है

बढ़ रही हैं औरतें 

कर रही हैं तरक्की

देख रही हैं बाहरी दुनिया

ले रही हैं साँस खुली हवा में 

खुली हवा...खुला आकाश...!

क्या वाकई ?

कौन सा आकाश ?

जहाँ पगलाए घूम रहे हैं

जहरीली हवा में 

दृष्टि से ही नोच खाने वाले

घात लगाए गिद्ध-कौए !


कन्धे पर झूलता वो पर्स

जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं

ऊँची एड़ी पर

वो निकलती है घर से

बेटी के बुखार और

बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता

पति की झुँझलाहट कि

नहीं दिखती कटरीना सी

मोटी होती जा रही हो...!

सास की शिकायतों 

और तानों का पुलिन्दा

फिर चल दी महारानी

बन-ठन के...!


ऑफिस में बॉस की हिदायत

टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए

चेहरे पे मुस्कान चिपकाइए मोहतरमा

शॉपिंग की लम्बी लिस्ट

जीरा खत्म,नमक खत्म, तेल भी

कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी

लौट कर क्या पकेगा किचिन में 

घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर

कल टेस्ट है मुन्ना का...

सोच को ठेलती ट्रेन में पस्त सी 

ऊँघती रहती है !


ख़ुशक़िस्मत औरतें

महिनों के आखिर में लौटती हैं 

रुपयों की गड्डी लेकर

उनकी सेलरी

पासबुक, चैकबुक

सब लॉक हो जाती हैं

पति की सुरक्षित अलमारियों में !


खुश हैं बेवकूफ औरतें

सही ही तो है

कमाने की अकल तो है

पर कहाँ है उनमें

खरचने की तमीज !


पति गढ़वा  तो देते हैं 

कभी कोई जेवर

ला तो देते हैं

बनारसी साड़ी

जन्मदिवस पर 

लाते तो हैं केक

गाते हैं ताली बजा कर

हैप्पी बर्थडे टू यू

मगन हैं औरतें

निहाल हैं 

भागोंवाली  हैं 

वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!


सुन रही हैं दस-दस कानों से

ये अहसान क्या कम है कि

परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं

उनके चरणों में पड़ी हैं 

पाली जा रही हैं

नौकरी पर जा रही हैं 

पर्स टांग कर 

लिपिस्टिक लगा कर

वर्ना तो किसी गाँव में

ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर

फूँक रही होतीं चूल्हा

अपनी दादी, नानी 

या माँ की तरह...!


बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं 

ख़ुशक़िस्मत औरतें कि...

सबको खिला कर

चूल्हा ठंडा कर

माँ या दादी की तरह

आँगन में अमरूद की 

सब्ज छाँव में बैठ

दो जून की इत्मिनान की रोटी भी

अब नहीं रही उसके हिस्से !


घड़ी की सुइयों संग 

पैरों में चक्कर बाँध 

सुबह से रात तक भागती

क्या वाकई आज भी

ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??

                         उषा किरण -

फोटो: गूगल से साभार

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

तेरी रज़ा

 

कुछ छूट गए 

कुछ रूठ गए

संग चलते-चलते बिछड़ गए


छूटे हाथ भले ही हों

दूरी से मन कब छूटा है 

कुछ तो है जो भीतर-भीतर

चुपके से, छन्न से टूटा है


साजिश ये रची  तुम्हारी है

सब जानती हूँ मनमानी है

सबसे साथ छुड़ा साँवरे

संग रखने की तैयारी है


हो तेरी ही अभिलाषा पूरी 

रूठे मनाने की कहाँ अब

जरा भी हिम्मत है बाकी 

सच कहूँ तो अब बस

गठरी बाँधने की तैयारी है

अब सफर ही कितना बाकी है


वे हों न हों अब साथ मेरे

न ही सही वे पास मेरे

हर दुआ में हृदय बसे 

वे मेरे दुलारे प्यारे सभी

वे न सुनें, वे ना दीखें

पर उन पर मेरी ममता के 

सब्ज़ साए तो तारी हैं…


थका ये तन औ मन भी है

तपती धरती औ अम्बर है

टूटे धागों को जोड़ने की 

हिम्मत न हौसला बाकी है


न मेरे किए कुछ होता है

न मेरे चाहे से होना है

न कुछ औक़ात हमारी है

ना कुछ सामर्थ्य ही बाकी है

जो हुआ सब उसकी मर्ज़ी 

जो होगा सब उसकी मर्ज़ी 

रे मन फिर क्यूँ  तड़पता है

मन ही मन में क्यूँ रोता है


संभालो अपनी माया तुम

ले लो वापिस सब छद्म-बन्ध

अब मुक्त करो है यही अरज

ना बाँधना फिर फेरों का बन्ध


हो तेरी इच्छा पूर्ण प्रभु

तेरी ही रज़ा अब मेरी रज़ा 

जो रूठ गए या बिछड़ गए

खुद से न करना दूर कभी

बस पकड़े रहना हाथ सदा

संग-साथ ही रहना उनके प्रभु…!!!


                        — उषा किरण 🍁

फोटो; गूगल से साभार 

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से


"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था

सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था

हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े 

दुश्मन थे हम ही अपने. औरों में कहाँ दम था…”

जिस तरह मेरे लिए किसी किताब को पढ़ने के लिए सबसे पहले प्रेरित करता है उसका कवर और पेपर की क्वालिटी। उसी तरह किसी फिल्म को देखने से पहले उसका टाइटिल व म्यूज़िक का अच्छा होना जरूरी है। अब इस फिल्म का टाइटिल बहुत बाजारू टाइप घटिया लगा हमें और गाना एक भी सुना नहीं था तो पता नहीं था कैसी है, फिर भी देखी तो सिर्फ़ इसलिए कि तब्बू और अजय देवगन दोनों की एक्टिंग कमाल होती है और इसमें साथ थे दोनों, तो ये तो तय था कि टाइम बर्बाद नहीं होगा।तो देखी फिर…और लगा कि इससे बेहतर टाइटिल इसका और क्या होता ?अजय देवगन की आवाज में पूरी नज्म सुनिए, आनन्द आ जाएगा।

एक सम्पूर्ण प्रेम किसे कहते हैं, यदि देखना हो तो देख सकते हैं । ऐसा प्रेम जहाँ सब कुछ खोने के बाद, बिछड़ने के बाद भी जीवन में जो बचा वह सम्पूर्ण प्रेम ही है। जहाँ मीलों दूरी के बाद भी इतनी निकटता है कि विछोह का भी स्पेस नहीं । जहाँ एक का सुखी होना ही दूसरे की सन्तुष्टि है, तो किसी की सन्तुष्टि के लिए ही किसी को सुखी होना है…जहाँ किसी के लिए बर्बाद होने पर भी कोई ग़म नहीं, क्योंकि वह आबाद है….जहाँ कुछ भी न पा सकने पर भी कोई कमी का अहसास नहीं या शायद जहाँ अब कुछ पाना शेष नहीं….तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी तीसरे को सब हासिल होने पर भी ख़ालीपन का अहसास है। खुद को वह असुरक्षित, ठगा हुआ सा महसूस करता है( ठगा हुआ बेशक पर सच के हाथों, छल के हाथों नहीं) प्यार की यही रीत अनोखी है यहाँ पाने और खोने के मीटर पर आप कुछ नहीं नाप सकते ।

कुछ लोगों का मत है कि जिमी को खामखाँ मूवी में डाला गया है।जिम्मी यानि  पति के बिना तो यह प्रेम कहानी अधूरी ही रहकर एक आम कहानी बन जाती। वो न होता तो जेल से निकल दोनों शादी करते, गृहस्थी में बंध जाते…स्वाहा, बात खत्म।

लेकिन यहाँ, जहाँ एक ने प्रेम यज्ञ में अपनी ही आहुति भेंट कर दी उसके हाथ बेशक ख़ाली हैं पर वह जानता है कि नायिका पूरी तरह सिर्फ़ उसकी है, दूसरी तरफ़ पति है जिसने उसे हासिल तो किया पर जानता है कि नायिका को पाकर भी उसके हाथ ख़ाली हैं, उसका सर्वांग पहले ही किसी और का हो चुका है, इस प्रेम यज्ञ में उसने भी अपनी आहुति डाली है। पति बहुत अच्छा इंसान है और इसी अच्छाई से बंधी है वह. पति सालों से अपने उस रक़ीब को जेल से छुड़ाने में बिना बताए प्रयासरत है, जिससे खुद इन्सिक्योर है.ये कहानी एक प्रेम- यज्ञ की कहानी है जिसमें तीनों अपनी-अपनी आहुति डाल रहे हैं, वक्त ने रचा है ये हवनकुंड.

नायिका को अपने पति के प्यार पर भी इतना विश्वास है कि वह जानती है कि पति उसे पूर्व प्रेमी के गले लगा हुआ देख रहा है पर वह निर्भय है, क्योंकि कुछ इतना खोने को है नहीं जिसका डर हो, कोई ऐसा सच नहीं जो छिपा हो तो भय कैसा ? और विश्वास का घृत है इस समिधा में मिला हुआ…!

वैसे इसे आप एक मामूली नाटकीय प्रेम कहानी भी कह सकते हैं और देखने पर आएं तो प्रेम- दर्शन का महाकाव्य रचती है यह फिल्म…बात है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर है। मेरा चश्मा है ही विचित्र जाने क्या-क्या तो दिखा देता है, सब कुसूर उसी का है…।

फिल्म का आखिरी दृश्य जब तब्बू अजय देवगन को नीचे गाड़ी तक छोड़ने जाती है इस फिल्म का प्राण है।एक- एक डायलॉग, हरेक भाव अद्भुत है। अजय देवगन की आँखों में राख और चिंगारी एक साथ दिखाई देती हैं। तृप्ति और प्यास एक साथ मचलते हैं। उसकी आवाज में कही गई नज्म…'औरों में कहाँ दम था…’ लगता है हर शब्द से धुआँ उठ रहा है…बार- बार सुनने का मन करता है।

सच कहूँ तो फिल्म देखते समय गाने से ज्यादा कहानी पर ध्यान था, तो गानों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।फिल्म देखने के तुरन्त बाद जब सारे गाने इत्मिनान से सुने तो मन मुग्ध हो गया।सुनिधि और जुबीन नौटियाल की आवाज में गाया गाना बेहद सुन्दर है-

"ऐ दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना

ये आज की शाम संभाल के रख लेना..

मैं तारे-सितारे करूंगा क्या 

जो पैरों तले ये जमीन न रही 

वजूद मेरा ये तुम ही से तो है 

रहा क्या मेरा जो तुम ही न रही 

ए आंसू ठहर कभी और छलक लेना 

ए दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना…

ये गाना इस फिल्म की आत्मा है जिसे मनोज मुंतज़िर ने बहुत ख़ूबसूरत लिखा है और कम्पोज़ किया है एम.एम. केरावनी ने।सुनिधि की आवाज इस गाने को अलग ही मुकाम पर पहुँचा देती है।

एक और सूफी गाना है- 

"किसी रोज बरस जल- थल करदे न और सता ओ साहेब जी,मैं युगों- युगों की तृष्णा हूँ तू मेरी घटा ओ साहेब जी…” इसको सुनते ही लगा बहुत अपनी सी आवाज है पर है कौन…देखा, अरे ये तो वही है अपनी मैथिली ठाकुर ! ये गाना भी जैसे भटकती रूहों को विश्राम देता है।जैसे प्रार्थना करता है कि जन्मजन्मान्तरों से भटकती प्यासी रूहों को अब इतना बरसो कि तृप्त कर दो….

चारों एक्टर की एक्टिंग कमाल की है।

अब कहानी नहीं बताएंगे, आप खुद ही देखिए। हम बता कर आपका क्यों मजा खराब करें। बस एक चीज खटकती रही कि कुछ सीन को पूरा का पूरा बार- बार दोहराना। कुछ फालतू सीन हटा देते तो फिल्म में कसावट आती।वैसे मैं ज्यादा मीनमेख निकालकर मूवी नहीं देखती. जिस नजरिए से बनाई गई बस उसी से देखती हूँ…अपने काम के मोती चुन लेती हूँ…बस!

यदि अजय देवगन, तब्बू की केमिस्ट्री देखनी है, बढ़िया संगीत सुनना है, प्रेम की पराकाष्ठा देखनी है तो देख लीजिए…सुना है कुछ लोगों को पसन्द नहीं आई तो नहीं आई….अब हमने तो अपने चश्मे से जो देखा वो बता दिया, आगे आपकी मर्ज़ी…आप देखें अपने चश्मे से 

फिलहाल तो हम रात दिन सुनिधि और मैथिली की आवाजों की चाशनी में डूब रहे हैं…अच्छा संगीत भी ध्यान ही है मेरे लिए।

                   —उषा किरण 



सोमवार, 22 जुलाई 2024

असुर

 



बहुत मुश्किल था 

एकदम नामुमकिन 

वैतरणी को पार करना 

पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से

उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी

हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!


हताश- निराश हो 

मैंने आह्वान किया दैत्यों का

हे असुरों विराजो

थोड़ा सा गरल

थोड़ी दानवता उधार दो मुझे 

वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !


वे खुश हुए

तुरन्त आत्मसात किया

अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को

मुझमें उतार दिया 

परास्त कर हर बाधा 

बहुत आसानी से

पार उतर आई हूँ मैं !

अब...


मुझे आगे की यात्रा पर जाना है

कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

हे असुरों आओ

जा न सकूँगी आगे 

तुम्हारी इन अमानतों सहित

ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त

ये आर - पार चीरती कटार

मुक्त करो इस दानवता से

पर नदारद हैं असुर !


ओह ! नहीं जानती थी

जितना मुमकिन है 

असुरों का आना

डेरा डाल देना अन्तस में

उतना ही नामुमकिन है 

उनका फिर वापिस जाना

मुक्त कर देना ...!


बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई

हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

आओ हे असुरों आओ

मुक्त करो

आओ......मुक्त करो मुझे

परन्तु....!


—उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 


                 

रविवार, 7 जुलाई 2024

प्राग ( Prague), चैक रिपब्लिक






 'चेक गणराज्य’ की राजधानी, एक सांस्कृतिक शहर है `प्राग’, जो शानदार स्मारकों से सुसज्जित है। प्राग एक समृद्ध इतिहास के साथ मध्य यूरोप का एक राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक केंद्र रहा है। 

यह एक ऐसा देश है जो संगीत और कला के प्रति पूरी तरह समर्पित है।मुझे यह इसलिए भी बहुत पसन्द आया , क्योंकि यहां हर कदम पर कला के दर्शन होते हैं ।इसे बागीचों और उद्यानों का शहर भी कहा जाता है। इसके अलावा यह शहर बीयर के लिए भी मशहूर है। यहां दुनिया की सबसे अच्छी बीयर बनाई जाती है।

हमने पहले ही दिन विन्टेज कार का टूर ले लिया था जिससे हमें शहर के बारे में काफ़ी जानकारी मिल गई थी।हमारी कार जिधर से गुजर रही थी लोग पॉइंट आउट कर रहे थे, वीडियो बना रहे थे ,हमें भी  तो मजा आ रहा था।

यहां के पुराने कस्बे व गाँव बेहद ही खूबसूरत हैं। साथ ही प्राग कैसल में भव्य सेन्ट वाइटस कैथेड्रल चर्च , आर्ट गैलरी, संग्रहालय भी देखे । चेक गणराज्य की सबसे लंबी नदी, वल्टावा पर बना चार्ल्स ब्रिज पर घूमने का आनंद भी लिया।ऐतिहासिक 600 साल पुराने चार्ल्स ब्रिज से  हमने प्राग किले की जलती लाइट का अभूतपूर्व नजारा देखा। 600 साल पुराने ओल्ड टाउन स्क्वैयर में बेहतरीन ऐतिहासिक स्मारक और इमारतें आज भी संरक्षित हैं । चौक के बीच में धार्मिक सुधारक `जान हुस ‘ ( Jan Hus) की भव्य मूर्ति है। चर्च ऑफ़ अवर लेडी बिफोर टिन ( Church of Our Lady before Tyn) , एस्ट्रोनॉमिकल क्लॉक का जादुई करिश्मा देखा , जहाँ हर घंटे पर कुछ हलचल हो रही थी। ( मैंने इस पर विस्तृत पोस्ट पीछे वाली पोस्ट में लिखा है)। किंस्की पैलेस में नेशनल गैलरी का कला- संग्रहालय देखने का अनुभव  भी काफी सुखद रहा। 

यूरोप में सबसे सुविधाजनक है जगह- जगह पर साफ-सुथरे टॉयलेट का होना। कई जगह कुछ पेमेन्ट करके आप इस सुविधा का लाभ ले सकते हैं। तो अपनी पॉकेट या पर्स में कुछ सिक्के रखना न भूलें।यहाँ पर  कोरूना करेन्सी चलती है परन्तु अधिकांशत: यूरो ही चलता है।

खाने- पीने के लिए साफ- सुथरे रेस्तराँ व कैफे की भरमार है।थाई, मैक्सिकन, चाइनीज, इटैलियन, वियतनामी और इंडियन खाने का भी हमने मजा लिया। इंडियन रेस्तराँ कई थे और वहाँ का खाना अच्छा था। मसाला इंडियन रेस्तराँ, इंडियन बाई नेचर, एकान्त रेस्तराँ आदि।एकान्त रेस्तराँ के बिजनौर  वाले भैयाजी ने कॉम्पलीमेन्टरी हम सबको एक- एक कटोरी खीर दी तो मजा आ गया। 😊बाकी हर दिन सुबह- शाम स्वादिष्ट जिलाटो आइस्क्रीम के डिफ्रेंट फ्लेवर खा- खाकर हमारा  दो- तीन किलो वेट और बढ़ ही जाना था , इसमें कुछ आश्चर्य नहीं ।जबकि पैदल घूमना खूब होता था।

मौसम तो बहुत मज़ेदार था। सुबह- शाम हल्की ठंड और दोपहर हल्की गर्म हो जाती थीं । कभी-कभी हल्की बारिश, बादल मौसम खुशगवार रखते थे और यात्रा को सुखद बनाए हुए थे और पूरा परिवार जब साथ हो तो घूमने का आनन्द कई गुना बढ़ जाता है। 

— उषा किरण 

रविवार, 30 जून 2024

युरोप डायरी ,खगोलीय घड़ी, प्राग(चैक रिपब्लिक)

 


खगोलीय घड़ी, प्राग
(Astronomical Clock, Prague)

जून, 2024 में यूरोप के ट्रिप में हमें प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी देखने का सुअवसर मिला। प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी है। यह 600 साल से भी ज़्यादा पुरानी है और दुनिया की सबसे पुरानी खगोलीय घड़ियों में से एक है। प्राग खगोल घड़ी पहली बार 1410 में स्थापित की गई थी। यह दुनिया की तीसरी सबसे पुरानी खगोल घड़ी है और आज भी चालू स्थिति में है।

जिसे ओर्लोज के नाम से भी जाना जाता है, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी और राशि चक्र नक्षत्रों की सापेक्ष स्थिति दिखाती है। यह समय भी बताती है, तारीख भी बताती है और सबसे अच्छी बात यह है कि यह अपने दर्शकों को हर घंटे कुछ न कुछ नाटकीय करतब दिखाती है। प्राग खगोलीय घड़ी , जिसे आमतौर पर ओर्लोज के नाम से जाना जाता है, चेक राजधानी में सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक है। सुबह 9 बजे से रात 9 बजे के बीच पूरे समय, आप दो खिड़कियों में दिखाई देने वाली 12 लकड़ी की प्रेरित मूर्तियों की परेड देखने वाले पर्यटकों की भीड़ देखेंगे। पौने बारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो भारी भीड़ देखकर रुक गए। सब बारह बजे का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, हम भी भीड़ में शामिल हो गए।बारह बजते ही टनटनाटन करके घंटियाँ बजने लगी और एक ब्रास के नरकंकाल ने घंटा बजाना शुरु कर दिया। सब तरफ़ हर्ष छा गया।

इसकी सबसे खास बात है इसका प्रभावशाली और खूबसूरती से अलंकृत खगोलीय डायल। यह आकाश में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति और अन्य विभिन्न खगोलीय विवरणों को दर्शाता है।निचले कैलेंडर डायल को लगभग 1490 में जोड़ा गया था। लगभग उसी समय,अविश्वसनीय गॉथिक मूर्तियां भी जोड़ी गईं। 

1600 के दशक के अंत में, संभवतः 1629 और 1659 के बीच, लकड़ी की मूर्तियाँ स्थापित की गईं। प्रेरितों की मूर्तियाँ 1787 और 1791 के बीच एक बड़े जीर्णोद्धार के दौरान जोड़ी गईं। घंटाघर पर प्रतिष्ठित स्वर्ण बांग देने वाले मुर्गे का निर्माण लगभग 1865 में किया गया था। 

कई सालों तक यह माना जाता रहा कि इस घड़ी को घड़ी-मास्टर जान रूज़े ने डिज़ाइन किया और बनाया था, जिन्हें हनुश के नाम से भी जाना जाता है। बाद में यह साबित हो गया कि यह एक ऐतिहासिक गलती थी।हालांकि, इस गलती की वजह से एक स्थानीय रोचक किंवदंती बन गई जिसे आज भी पर्यटकों को सुनाया जाता है। कहानी के अनुसार- इस घड़ी के बनने के बाद, हनुस के पास कई विदेशी राष्ट्र आए, जिनमें से हर कोई अपने शहर के चौराहे पर एक अद्भुत खगोलीय घड़ी लगवाना चाहता था। हनुस ने अपनी उत्कृष्ट कृति की योजना किसी को भी दिखाने से इनकार कर दिया, लेकिन यह बात प्राग के पार्षदों तक पहुंच गई। इस डर से कि हनुस किसी दूसरे देश के लिए इससे बड़ी, बेहतर और ज़्यादा सुंदर घड़ी बना सकता है, पार्षदों ने उस शानदार घड़ी बनाने वाले को अंधा करवा दिया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनकी घड़ी कभी भी खराब न हो। पागल हो चुके घड़ी बनाने वाले ने सबसे बड़ा बदला लिया, खुद को कला के अपने असाधारण काम में झोंक दिया, घड़ी के गियर को गुम कर दिया और उसी समय आत्महत्या कर ली। ऐसा करते हुए, उसने घड़ी को श्राप दे दिया। जो कोई भी इसे ठीक करने की कोशिश करेगा, वह या तो पागल हो जाएगा या मर जाएगा।वास्तव में, यह घटना कभी नहीं हुई और ऐसा प्रतीत होता है कि हनुश मूल शिल्पकार नहीं थे। 1961 में खोजे गए एक पेपर के अनुसार, जिसमें घड़ी के खगोलीय डायल के काम करने के तरीके का एक व्यावहारिक विवरण है, निर्माता कदान के शाही घड़ी-निर्माता मिकुलास थे।

इस कहानी को सुनकर मुझे भी ताजमहल की कहानी याद आ गई कि उसको बनाने वाले कारीगरों के हाथ भी बादशाह ने कटवा दिए थे। 

2018 में, जब इस घड़ी का नवीनीकरण किया जा रहा था, तो इसकी एक मूर्ति के अंदर एक गुप्त संदेश छिपा हुआ मिला।जब इसकी कुछ मूर्तियों पर जीर्णोद्धार का काम चल रहा था, तो उन्होंने देखा कि सेंट थॉमस के प्रेषित की मूर्ति बाकी सभी मूर्तियों से हल्की थी। जब उन्होंने मूर्ति पर दस्तक दी, तो उन्होंने पाया कि यह खोखली थी। फिर मूर्ति को हटाया गया और एक्स-रे किया गया और अंदर एक अजीब धातु का डिब्बा मिला।धातु के बक्से में वोजटेक सुचार्डा नामक एक मूर्तिकार द्वारा लिखा गया 18 पृष्ठ का पत्र था।संदेश में मूर्तिकार की खगोलीय घड़ी के लिए अधिक व्यापक योजनाओं का खुलासा किया गया है, जो कभी पूरी नहीं हुईं।

जीर्णोद्धार कार्य से घड़ी टॉवर की कुछ अन्य छिपी हुई विशेषताएं भी सामने आईं जो 15वीं शताब्दी के आसपास की हैं। कुछ लकड़ियों के पीछे कैलेंडर डायल के नीचे कोनों में कई पत्थर की मूर्तियाँ प्रकट हुईं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये 1400 के दशक के अंत में डायल की स्थापना से पहले घड़ी के कुछ मूल विवरण थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के प्राग विद्रोह के दौरान घंटाघर को भारी नुकसान पहुंचने के बाद उन्हें कुछ मूर्तियों को फिर से बनाने का काम सौंपा गया था। 

15वीं सदी में इस तरह की वस्तु को "हाई-टेक" माना जाता रहा होगा। आज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह मध्ययुगीन वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी कौशल और सुंदर डिजाइन का एक आकर्षक संयोजन है।

मुझे उक्त घड़ी से संबंधित खोजबीन करने पर उक्त रोचक जानकारी मिली। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन जो भी है, है बहुत रोचक 😊

- उषा किरण 

 

सोमवार, 24 जून 2024

युरोप डायरी( मन्नतों के ताले)

 



मन्नत मांगने के सबके अपने तरीके हैं। हम प्रसाद बोलते हैं, हे भोलेनाथ मनोकामना पूरी कर दो सवा रूपये ( अब तो रेट बढ़ गए हैं महंगाई के साथ) का प्रसाद चढ़ायेंगे। मजार, मन्दिर व पेड़ों पर भी मन्नतों के धागे बाँधे जाते हैं। विदेशों में देखा पुलों पर मन्नतों के ताले बाँधते हैं लोग। उन तालों पर कई बार प्रेमी युगल के दिल और नाम अंकित होते हैं । कई बार बच्चों की सूदर या कोई वस्तु साथ में लॉक कर चाबी नीचे नदी में फेंक देते हैं। कैसा विश्वास है कि नदी अपने हृदय में सब संजो लेगी और पुल के साथ प्रार्थना करेगी।

नदी के दो किनारे जो कभी नहीं मिलते, परन्तु उनको जोड़ देता है एक पुल।ये कैसा अजीब सा रिश्ता है प्यार का कि एक दूसरे से अनजान, कई बार तो अलग-अलग देशों व संस्कृतियों के लोग एक हो जाते हैं, जन्म- जन्मान्तरों तक साथ निभाने की कसमें खाते हैं ।ज़्यादातर ये ताले दो प्रेमी ही लगाते हैं। कई बार इन लव- लॉक्स का वजन इतना ज़्यादा हो जाता है कि इनमें से कई तालों को तोड़कर हटाना पड़ता है। 

दो इंसानों की परिस्थितियाँ चाहें कितनी ही विकट या विपरीत हों, प्यार दो दिलों पर पुल बना कर उनको एक कर देता है और भावनाओं की लहरें बहती रहती है निरन्तर। आशाओं के सहारे ही जी लेता है कई बार इंसान…शायद इसीलिए मन्नत मांगने के लिए ये विदेशी प्रेमी युगल पुलों को चुनते हैं कि शायद…!!!

मेरी मनोकामना है कि इन तालों में बंधी सबकी कामनाएं पूर्ण हों…आमीन🤲

युरोप डायरी

Photo ;Makartsteg  Bridge, Salzburg( Austria)


शनिवार, 1 जून 2024

पंचायत वेब सीरीज, सीजन 3

 





लेखक ; चंदन कुमार

निर्देशक ; दीपक कुमार मिश्रा

अभिनय ; जितेंद्र कुमार, रघुवीर यादव, 

नीना गुप्ता ; चंदन राय ; फैजल मलिक 


वेब सीरीज पंचायत का तीसरा सीज़न भी धमाल है और नवीनता बरकरार है। हम तो आठों भाग डेढ़ दिन में देख गए।यदि आपका वास्ता गाँव से पड़ा है तो यकीनन आपको बहुत मजा आने वाला है। हम सपरिवार बचपन में छुट्टियों में गाँव जाते रहे हैं और गाँव को खूब देखा परखा है । कमाल की कहानी लिखी है और कमाल का डायरेक्शन भी है। देख कर लगता है कि कथाकार व डायरेक्टर के जीवन का जरूर काफी हिस्सा गाँव में बीता है। 


इस बार फुलेरा गाँव और विधायक की नाक की लड़ाई पर सारा पंचायत सीजन तीन केन्द्रित है ।जब भी बार- बार गाँव के लोगों का नफरत व मजाक उड़ाते हुए कहना "विधायक कुत्ता मार के खा गया” सुनती तो मुझे जोरों की हंसी आ जाती थी। सोचो ज़रा विधायक जी कुत्ता खा रहे हैं , सोच कर ही हंसी आती है।विधायक जी की बौखलाहट देखने लायक है और तिस पर कयामत ये कि फुलेरा गाँव वाले विधायक को दो कौड़ी का कुछ नहीं समझते, सिवाय कुछ फितरती लोगों के।


नया कैरेक्टर मुझे सबसे प्यारा लगा अम्माँ जी का। जगमोहन की अम्माँ का मकान लेने के लिए छल- कपट करना, कहानी बनाना और कभी दीन- हीन तो कभी चतुर चालाक वाले एक्सप्रेशन ग़ज़ब के दिए हैं । कई करैक्टर तो ऐसे हैं जैसे गाँव से ही पकड़ कर आम आदमी से एक्टिंग करवाई गई हो।


जो बहुत बारीकी से बात पकड़ी है वो है गाँव के लोगों की मानसिकता। प्राय: वे चौपाल पर, पेड़ के नीचे बैठे टूटी सड़क की बनवाने जैसी समस्याओं पर विचार विमर्श करते रहते हैं। गाँवों के आदमियों को किसी विषय पर चाहें जानकारी न हो पर प्राय: कॉन्फ़िडेंस ग़ज़ब होता है।दाँवपेंच, दूसरे को पटकी देने की साजिश, चालाकियाँ, दुश्मनी निकालने के तरीके, आपसी सौहार्द, परस्पर सुख- दुख में भागीदारी सब कुछ जो एक गाँव की मिट्टी में समाया होता है पंचायत में मिलेगा। बाकी तो सचिन जी के रिंकी से इश्क के पेंच  इशारों-इशारों में हौले - हौले चल ही रहे हैं । गाँव के मेहमान ( दामाद जी )की ठसक और शेखी भी खूब दिखाई है।एक के दामाद सारे गाँव के मेहमान हैं । 


पहले गाँवों में गोरे दिखने के लिए अफगान स्नो क्रीम की चेहरे पर रगड़ाई चलती थी और उस पर टैल्कम पाउडर  हथेली में लेकर चुपड़ लिया जाता था तो चेहरे पर सफेदी सी नजर आती थी। प्रधान बनी नीना गुप्ता का मेकअप उसी तर्ज पर किया गया है, देखकर हमें अपने गाँव की कई बहुओं , चाचियों के मेकअप की याद ताजा हो गई।


प्राय: गाँव में जब चार  लोग जमा होकर हंसी ठट्ठा करते हैं तो छोटी सी बात पर भी ताली बजाकर खूब मजे लेते हैं । विधायक जी के कबूतर उड़ाने को ख्वाहिश पर वैसे ही ठट्ठे प्रधान जी की टीम लगाती है।प्रह्लाद का बेटे के गम में दारू पीकर पड़े रहना और विकास, प्रधान जी व सबका उनका ध्यान रखना बहुत दिल को छू जाता है।


बम बहादुर की दबंगई व चतुराई देखते बनता है। गाँव का उसके साथ खड़ा रहना, गाँव में दो ग्रुपों पूरब वाले व पश्चिम वालों के बीच की खींचातानी सब रोचक है। बम बहादुर ने छोटे से रोल में जान फूंक दी है।कुल मिलाकर देख डालिए। 


आप कहेंगे भई क्यूँ देखें ? तो ग्रामीण भारतीय जीवन का चित्रण,जीवन की चुनौतियाँ आपको भी पसंद आएगी। कलाकारों का अभिनय और गाँव की राजनीति, स्थानों, वेशभूषा और भावनाओं का सजीव व विस्तृत चित्रण हुआ है। यकीन मानिए ये तय है कि आखिरी सीन देखते ही आप भी मेरी तरह अगले सीजन का इंतजार शुरु कर देंगे। 

                      —उषा किरण

गुरुवार, 30 मई 2024

इससे पहले

 ज़िंदगी में कुछ हादसे, कुछ लोग या उनसे जुड़ी बातें या कुछ अफ़सोस ऐसे होते हैं जो सालों बाद भी पीछा नहीं छोड़ते।चाह कर भी भुला नहीं पाते और वे हमारी विचारधारा व जीवनधारा को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं।

लगभग बाइस - तेइस साल पहले मेरा एक माली था मोहन, जो बिल्कुल ही चुप रहता था, बस जितना पूछो उतना जवाब दे देता था। पैंतीस , चालीस के बीच का होगा।कई घरों में काम  करता था। बाकी सहायकों ने बताया कि वो शराब पीता है तो कई बार मैंने उसे समझाया भी । वह सिर झुका कर अपना काम करता जवाब नहीं देता था। चुपचाप आता था और क्यारियों व लॉन में जो भी जितना काम बताओ, करके चला जाता था। अब जो इतना चुप्पा हो उससे कोई कहाँ तक सिर मारे ? फिर उसी समय मैं भी कैंसर जैसी असाध्य बीमारी के चंगुल में फँसकर डॉक्टर व हॉस्पिटल के चक्रवात में फंसी जीवन व मृत्यु के बीच कहीं खड़ी थी। सारा  परिवार स्तब्ध व तनावग्रस्त था। तो मुझे खुद अपनी ही खबर नहीं थी और न ही घर परिवार व सहायकों की। 

एक दिन सहसा खबर मिली कि वो सोते - सोते मर गया। मैं हैरान रह गई। ड्राइवर और बाकी सहायकों से पता चला कि वो खाली पेट शराब पीता रहता था जब भूख लगती तो हमारी क्यारी से तोड़ कर भिंडी या मूली खा लेता , या जामुन बीन कर खा लेता था। "अरे ! कच्ची भिंडी ?और  ये बात तुम लोग मुझे अब बता रहे हो ? तब क्यों नहीं बताया ? या तुम ही खाना खिला दिया करते अंदर से लाकर “ मैं गुस्से और ग्लानि से भर गई। पर अब क्या हो सकता था ? मैं खुद को भी मन ही मन कोस रही थी कि घर में रोज  इतना खाना बनता है, और फ्रिज में  भी बचा हुआ रखा रहता है यदि समय पर पता चलता तो मैं ही उसे रोज कम से कम एक वक्त का तो खाना खिला ही सकती थी। मेरा मन मुझे लानतें भेजता कि मेरे यहाँ काम करने वाला एक कर्मचारी भूखे पेट पी- पीकर मर गया और मुझको खबर भी नहीं हुई…डूब मरो  ! उसका गाँव कहीं पटना के पास था। घर पैसे भेजता होगा और  शराब पीने के बाद इतना पैसा बचता ही नहीं होगा कि पेट भर खाना खा सके। 

उसके बाद से मैं बहुत ज़्यादा सजग हो गई। सभी सहायकों को व उनके परिवार, उनकी सेहत, भूख प्यास सबको ज्यादा पूछती हूँ व मदद भी करती हूँ ।पर वो जो अफसोस है वो अब भी मन को कचोटता है। हमें ज़्यादा संवेदनशील व सजग होना ही चाहिए इनके प्रति। ये लोग पूरब से , नेपाल व पहाड़ों और जाने कहाँ- कहाँ के गाँवों से बेहद गरीबी के मारे आते हैं चार पैसे कमाने के लिए। कई तरह की बीमारियों, अभावों व कुंठाओं से ये जूझ रहे होते हैं। अशिक्षित होने के कारण ज़्यादा सोच- विचार की बुद्धि भी नहीं होती। कई बार जघन्य अपराधों में भी संलग्न हो जाते हैं । इनके जीवन  में मनोरंजन का अभाव रहता है तो ये शराब के उन्माद को ही एन्जॉय करने लगते हैं । इनकी सोच- समझ इतनी वीक हो जाती है कि खुद नहीं निकल पाते इस जाल से। 

यहाँ मेरे लिखने का मक़सद सिर्फ़ यही है कि आप बड़ी- बड़ी समाज सेवा बेशक न करें, कम्बल बाँटकर फोटो भले न छपवाएं पर यदि अपने सहायकों को किसी तरह समझाकर, इलाज कर किसी तरह मदद कर सकें तो ये बहुत बड़ी मानव सेवा है। इस तरह आप न सिर्फ़ इनकी बल्कि इनके परिवार की भी मदद कर सकते हैं। हो सकता है ये आपको जवाब दें, बहस करें, बत्तमीजी भी कर दें , काम छोड़कर जाने की धमकी भी देते हैं। तब बहुत क्रोध आता है कि भाड़ में जाओ फिर। लेकिन तब भी विवेकपूर्वक व धैर्य से इनके सुख- दुख पर नजर रखना और उदार होना हमारा फ़र्ज़ है। हम समर्थ हैं और बौद्धिक स्तर पर भी बेहतर सोच सकते हैं  तो इनकी मदद करनी चाहिए ताकि  फिर हमारा या आपका कोई और मोहन यूँ जिंदगी की लड़ाई न हार जाए।

                            —🌸🌿उषा किरण



रविवार, 26 मई 2024

`तीसरी कसम’ - ( फिल्म समीक्षा )

                     

-निर्देशक: बासु भट्टाचार्य 

-लेखक: फणीश्वर नाथ रेणु ( संवाद)

-पटकथा: नबेन्दु घोष

-निर्माता: शैलेन्द्र

-अभिनेता: राज कपूर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफ़्तिख़ार , असित सेन, सी. एस. दुबे, केस्टो मुखर्जी

-संगीतकार: शंकर जयकिशन

-गीतकार- शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी

-पूरी फिल्म मध्यप्रदेश के बीना एवं ललितपुर के  पास खिमलासा में फिल्मांकित की गई।

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          बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी यादगार फिल्म `तीसरी कसम’ के निर्माता थे सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र। यह फिल्म सिने जगत में श्रेष्ठतम फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दर्शकों को लुभाती है। हीरामन और हीराबाई की यह दु:खान्त फिल्म , फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई । इस फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य है। निर्देशन की नजर से भी यह फिल्म बेजोड़ है।ग्रामीण परिवेश की भाषा- बोली, रहन- सहन , विचारधारा व परिवेश का निर्देशन बहुत ख़ूबसूरती से किया गया है। 

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को गीतकार और कवि शैलेंद्र ने जिस तरह सिनेमा के परदे पर उतारा, वह अद्भुत है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। अभिनय, संगीत, पटकथा, व निर्देशन हर दृष्टि से यह फिल्म बेजोड़ थी, इसीलिए 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया।

इस फिल्म के गीतकार स्वयं शैलेंद्र और हसरत जयपुरी हैं। गीतों को अपनी आवाज में  मुकेश, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और मन्नाडे ने बहुत ख़ूबसूरती से गाया है। संवाद स्वयं रेणु के हैं। पटकथा नवेंदु घोष की है। इन कलाकारों के सम्मिलित प्रयासों ने फिल्म के संवादों और गीतों को दर्शकों के हृदय में उतार दिया। "दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में  समाई…, सजनवा बैरी हो गए हमार…,चलत मुसाफिर मोह लियो रे…हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…पान खाए सइयाँ हमारो…,लाली- लाली डोलिया में…” आदि सभी गीत बेहद कर्णप्रिय व लोक- कला की सौंधी सी महक से सुवासित हैं और आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं ।

राजकपूर की एक्टिंग की ताकत उनकी सादगी और भोलापन है।जिसके कारण हीरामन के किरदार को उन्होंने बहुत सफलतापूर्वक जिया है।जब हीरामन बने राज कपूर बात- बात में हंसकर, शर्मा कर  एकदम गंवई अंदाज में 'इस्स’ कहते हैं तो देखते ही बनता है। हीरामन के साथ के दृश्यों में वहीदा रहमान का अप्रतिम सादगीपूर्ण शीतल सौंदर्य तथा सरलता मोहक लगती है। एक कुशल नृत्यांगना होने के कारण  नौटंकी में  "पान खाए सैंया हमारो…” और "हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…” जैसे गानों पर किए उनके नृत्यों व भावपूर्ण अभिनय ने फिल्म में चार चाँद लगा दिए हैं। हीराबाई पर फिल्माए सभी गाने नौटंकी की तर्ज पर लिखे और प्रस्तुत किए गए हैं। नौटंकी के स्टेज पर आते ही हीराबाई के व्यक्तित्व का दूसरा ही पक्ष उजागर होता है।कटाक्षयुक्त नयन, शोख, फुर्तीली नृत्यांगना और विभिन्न भावों में प्रवीण समर्पित अभिनेत्री का।ऐयाश विक्रम सिंह  का किरदार भी नौटंकी के अनुरूप ही बुना गया है जो हीराबाई को अपने पैसे व ताकत के बल पर खरीदना चाहता है। 

बेशक यह कथा ग्रामीण अंचल की है, लेकिन इसका विषय सार्वभौमिक है। प्रेम मनुष्य की आत्मा का संगीत है।इसकी कहानी प्रेम की पवित्रता व शक्ति को अभिव्यक्त करती है। कितनी सहजता से एक नौंटकी की बाई एक निर्धन, गंवार, भोलेभाले गाड़ीवान पर मोहित हो जाती है और जमींदार जैसे संपन्न व्यक्ति के प्रणय निवेदन को ठुकरा देती है। 

आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं हैं , तीसरी कसम इनमें सबसे अलग व विशेष है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम’ एक ग्रामीण अंचल की कथा है। इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं। हीराबाई नौंटकी में अभिनय करने वाली एक खूबसूरत अदाकारा है जिसे सामान्य भाषा में ‘बाई’ कहा जाता है। इस प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा था राजकपूर और वहीदा रहमान की लाजवाब एक्टिंग और शैलेन्द्र की परिकल्पना ने।

फ़िल्म की शुरुआत एक गाने से होती है जिसमें हीरामन बैलगाड़ी हाँकते हुए गा रहा है -"सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है…!” गाने के बाद नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे पुलिस पकड़ लेती है । किसी तरह वह अपने बैलों को छुड़ा कर भागता है और कसम खाता है कि अब से  चोरबजारी का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बाँस की लदनी की वजह से पिटाई होने पर, डर कर उसने दूसरी कसम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बाँस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। 

इसके बाद फिल्म में एक दृश्य में हीरामन बैलगाड़ी बहुत खुश होकर हाँक रहा है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियाँ और लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक हीराबाई को ले जा रहा है।  पूरी दुनिया में अपने-अपने अकेलेपन से जूझ रहे दो सम्वेदनशील अजनबी यात्री इस यात्रा में सहसा  प्रीत व मित्रता की नाजुक सी डोर में बंध जाते हैं । पूरी यात्रा का हर पल, हरेक संवाद  व गाने दर्शकों के मन को लुभाते हैं।

सफर के प्रारंभ में हीरामन को डर लगता है। रात का सुनसान सफर है, वह मंदिर में भगवान के सामने बड़बड़ाता है कि -

"पीठ में गुदगुदी होती है, गाड़ी में रह- रह कर खुसबू आती है, एक पैर ही देखा था , वो भी जाने उल्टा था या सीधा…कहीं जिन परेत न हो …सवा रुपय का प्रसाद चढ़ाऊँगा भोलेनाथ रक्षा करो …!” 

परन्तु ताक-झाँक करते हीराबाई को देख खुशी से चिल्ला बैठता है "उरे बाबा ये तो परी है…!” हीराबाई परदे से बाहर आकर पूछती है "परी…कहाँ है परी !” 

जब हीरामन कहता है कि औरत और मर्द के नाम में बहुत फ़र्क़ होता है तो हीराबाई कहती है "कहाँ है फर्क ? मैं भी हीरा, तुम भी हीरा ।” हीरामन के हाव-भाव व मन:स्थिति यहाँ से बदल जाते हैं और दोनो के बीच  आत्मीयता पनप जाती है।सफर के मध्य दोनों के संवाद बहुत रोचक हैं।

हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी नहीं देखा है, वह पूछता है- "आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?”कानपुर नाम सुनते ही उसकी हंसी छूट जाती है "वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा?” और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया।

हीरामन का गाया लोकगीत  "सजनवा बैरी हो गए हमार…!” कर्णप्रिय होने के कारण आज भी लोकप्रिय है। हीरामन की सादगी, हीराबाई के प्रति करुणा व सम्मान का भाव हीराबाई के हृदय को छू लेता है।वह हीरामन से मन ही मन प्यार करने लगती है। 

एक जगह हीराबाई कहती है "तुमने पर्दा क्यों गिरा दिया मीता ?” तो वह कहता है आप यहाँ के लोगों को नहीं जानतीं , औरत देखी और लगे घूरने, देहाती भुच्च कहीं के !”  कोई सवारी के बारे में पूछता है तो कहता है बिदाही (लड़की को ससुराल ले जाना) ले जा रहे हैं । कभी कहता है हस्पताल  की डाक्टरनी हैं मरीज देखने जा रही हैं।वह झूठ बोलकर उसे सारी दुनिया की नजरों से बचाकर ले जाता है। हीराबाई की शिष्टता, शालीनता और सुंदरता उसे मंत्रमुग्ध कर देती है।वह उसे प्यार करने लगता है।प्यार और सम्मान को तरसती हीराबाई भी हीरामन को दिल में चाहने लगती है।वास्तव में इस अनोखे रिश्ते में मात्र प्यार ही नहीं है एक- दूसरे के प्रति सम्मान है। मीता (मित्र ) हैं वे । उनके नाम ही नहीं मिलते  हृदय में बहती कोमल सी भावधारा भी एक सी बहती है।जब हीराबाई महुआ घाट पर नहा रही होती है तब हीरामन गाड़ी में से छिपकर मुग्ध हो उसको एकटक देखता है, परन्तु तुरन्त पर्दा खींच देता है। अनुरागी मन से विवश हो उसके बिछावन पर चुपके से तनिक देर तक टिक जाता है।

दूसरी तरफ़ हीराबाई ‘मथुरामोहन नौटंकी कंपनी’ की नर्तकी है। इस बार वह `रौता संगीत नौटंकी’ कंपनीके सौजन्य से मेले में आई है। जिस प्रकार हीरामन को अपनी गाड़ीवानी पसंद है और इसे वह किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहता, ठीक उसी प्रकार हीराबाई भी नौटंकी में नाचने की कला को नहीं छोड़ना चाहती है।यह काम उसे आर्थिक अवलम्ब देता है और उसकी अस्मिता व पहचान से जुड़ा है। बेशक नौटंकी में लोग उसे रंडी, पतुरिया आदि नामों से संबोधित करते हैं ।लोगों की वासनापूर्ण दृष्टि व अश्लील कमेन्ट सुनकर वह  चाहता है कि हीराबाई नौटंकी का काम छोड़ दे। इस पर हीराबाई अपने कार्य के प्रति लगाव और प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए उसे समझाती है- "गुस्सा न करो हिरामन! ये बात नामुमकिन है। समझते क्यों नहीं? नशा जो हो गया, जैसे तुम्हें बैलगाड़ी चलाने का नशा है, वैसे ही मुझे लैला और गुलबदन करने का नशा है।  देश-देश घूमना, सज-धज के रोशनी में नाचना-गाना, जीने के लिए सिवा इस नशे के और क्या है मेरे पास ?” 

फिल्म में ‘छोकरा-नाच’ तथा ‘महुआ घटवारिन’ नामक लोककथा का वर्णन मिलता है। छोकरा- नाच बिहार राज्य का प्रमुख नाच- विधा है। इसमें स्त्री-वेश धारण कर पुरुष ही नाचते हैं। हीराबाई के चेहरे को देखकर हिरामन को छोकरा-नाच के मनुआ-नटुआ की याद आ जाती है। हीराबाई पूछती है तो  हीरामन संकोच के साथ अपने दिल की बात को प्रकट कर देताहै- "जी, आपका मुँह बिल्कुल छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ जैसा दिखता है।”

“हाय राम! मैं क्या छोकरा जैसे दिखती हूँ?”

“जी नहीं! वे छोकरे ही लड़कीनुमा हुआ करते थे।” हीरामन कहता है तो दोनों निश्छल हंसी हंस पड़ते हैं ।


महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।

"तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?”

"इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको?”

लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।महुआ घटवारिन की कथा सुनकर हीराबाई विह्वल हो जाती है क्योंकि इस कथा में उसे अपने ही जीवन की झलक दिखाई देती है।महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।

"यहाँ देखती हूँ हर कोई गीत गीत गाता रहता है।”

गीत नहीं गाएगा तो करेगा क्या ? कहते हैं फटे करेजा गाओ गीत

दुख सहने का ये ही रीत।”


एक दृश्य में गाड़ी गाँव के बीच से जा रही है बच्चे परदेवाली गाड़ी देख पीछे लग लेते हैं और तालियां बजा-बजा कर गाने लगे-

“लाली-लाली डोलिया में

लाली रे दुलहिनिया

पिया की पियारी भोलीभाली रे दुल्हनियाँ ..”

हीराबाई हल्का सा घूंघट काढ़े नवेली दुल्हन सी शर्माती है। हीरामन के चेहरे पर भी दूल्हे जैसे भाव हैं । दोनों के मन का अरमान चेहरे पर साफ़ परिलक्षित होता है।

हीराबाई हीरामन को नौटंकी का पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अश्लील शब्द कहे जाने पर वो उनसे झगड़ा कर बैठता है। हीरामन के मन में अपने  लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है। इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है।पर हीराबाई उसे ठुकरा देती है। हीराबाई नौटंकी छोड़ कर हीरामन के साथ जाने का मन बनाती है तो नौटंकी कंपनी के साथी उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे -

"जिसके मन में देवी हो उसके घर में बाई कैसे बस सकती है ? यदि उसका भ्रम तोड़ दोगी तो वह बर्बाद हो जाएगा और नौटंकी छोड़ दोगी तो तुम ख़ुद बर्बाद हो जाओगी…बिना कुछ कहे मुँह मोड़ लो बेवफा समझ कर माफ कर देगा !” वे समझाते हैं कि जमींदार  हीरामन की हत्या भी करवा सकता है। रोते हुए हीराबाई अपनी व्यथा सखी से कहती है कि " उसके भोलेपन और सादगी की हरेक बात मुझे याद आती है।रास्ते में वो गाड़ी का पर्दा ऐसे गिरा देता था जैसे यदि मुझे किसी ने देख लिया तो नजर लग जाएगी।आठ आने के टिकिट में जिसका नाच  कोई भी देख सकता है मुझे वह सारी दुनियाँ से छिपा कर ले आया। महुआ के घाट पर बोला यहाँ मत नहाइए यहाँ कंवारी लड़कियाँ नहीं नहातीं…लैला का पाठ करने वाली लैला बनने चली थी..मेरा चाहें जो भी हो मैं उसके सपने टूटने नहीं दूँगी, उसके मन में हीराबाई तो बनी रहेगी…"अपनी विवशता पर रोकर कहती है "दोष मेरा नहीं पाठ लिखने वाले का है अब पाठ ख़त्म नहीं हुआ तो मैं क्या करूँ!”

और सोच-विचार कर हीरामन की भलाई के लिए हीराबाई गांव छोड़ हीरामन से बिना अपने मन की बात कहे चुपचाप जाने की तैयारी कर लेती है।इस दृश्य में वहीदा रहमान की एक्टिंग देखने लायक है। हीराबाई के मन की मजबूरी, कसक, उदासी को अपनी सम्वेदनशील अभिनय से जीवंत कर दिया है।

फिल्म के आखिर में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसे समझाती हुए कहती है-" दिल छोटा मत करो हीरामन । तुमने कहा था न कि महुआ को सौदागर ने ख़रीद लिया, मैं बिक चुकी हूँ हीरामन…!” और उसके पैसे उसे लौटा देती है जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे रखने के लिए दिए थे।

विदाई का अन्तिम दृश्य बहुत मार्मिक है। रेलगाड़ी में बैठी आँसू भरी विवश आँखों से जाते हुए दूर तक वह हीरामन को देखती रहती है।हीरामन उदासी व क्षोभ के साथ गाड़ी में आकर बैठता  है और फिर हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं-“न, मारो नहीं” वह रुक जाता है।फिर झुँझलाकर कहता है- "उलट- उलट कर क्या देखते हो…खाओ कसम कम्पनी की बाई को कभी गाड़ी में नहीं बिठाओगे..!”

जाते हुए गाड़ी के नेपथ्य में गीत बजता है-

"प्रीत बना के तूने जीना सिखाया, 

हंसना सिखाया रोना सिखाया

जीवन के पथ पर मीत मिलाए

मीत मिलाके तूने सपने जगाए

सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई…!”

अन्तिम  दृश्य दर्शकों के मन में कसक छोड़ जाता है। 

बहुधा ऐसी साहित्यिक कृतियां कम ही होती हैं, जिसमें फिल्मनिर्माता कहानी को उसके मौलिक स्वरूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन तीसरी कसम में रेणू की कहानी के सभी पात्रों के नाम, संवाद और कुछ गीत भी वही हैं जो कहानी के मूलस्वरूप में हैं।इसी कारण  'तीसरी कसम’ क्लासिक फिल्म कहलाई और मील का पत्थर साबित हुई, परन्तु उस समय व्यावसायिक रूप से असफ़ल होने व बॉक्स ऑफ़िस पर पिटने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र का निधन हो गया।

कुछ लोगों का मत था कि इसका अन्त परिवर्तित करके दोनों का मिलन करवा दिया जाय परन्तु इसके लिए शैलेंद्र व रेणु तैयार नहीं हुए। यह उचित निर्णय था वर्ना कहानी का असली फ्लेवर समाप्त हो जाता और यह एक सामान्य श्रेणी की फिल्म होती।

बेशक इसको तत्कालीन बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी परन्तु आज भी लोकतत्वों को समाहित किए यह  फिल्म हिन्दी की श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है।              

— उषा किरण 

खाने की बर्बादी



मेरे घर का एक बच्चा होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा है। एक प्रतिष्ठित फाइव- स्टार होटल में छह महिने की ट्रेनिंग के बाद छुट्टियों में घर आया हुआ है।वह अपने अनुभव बताता रहता है। आज उसने बताया कि वहाँ पर रोज तीन टाइम बुफे लगता था और बचा हुआ सारा खाना फेंक दिया जाता था। तो हमने पूछा कि अपने स्टाफ को या जो ट्रेनी थे तुम जैसे उनको नहीं देते थे ? उसने कहा नहीं, हमारा अलग से बनता था बहुत ही ऑडनरी सा खाना और महंगी से मंहगी डिश सब डस्टबिन में…।” हमने कलप कर कहा ” अरे तो तुम लोगों को ही दे देते। और होटल में तो देते होंगे ?”

तो उसने कहा कि "नहीं देते, फ़ाइव स्टार पर यही पॉलिसी है सब जगह। बुफे तो रोज लगता है , कई बार तो बहुत कम लोग खाते हैं और काफ़ी ज़्यादा खाना फिंकता है।” उसके साथ के जो और  बच्चे अन्य जगह पर करते आए उन्होंने भी यही बताया।

सुनकर इतना दुख हुआ कि क्या बताएं। सोचिए जरा रोज कितना सारा खाना इन मंहगे होटलों व रेस्टोरेन्ट में फेंका जाता होगा। कम से कम अपने स्टाफ़ को ही खिला दें, फिर बाकी बचा हुआ खाना कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि गरीबों में बाँट दिया जाय। 

इस विषय में आपको कुछ जानकारी है,यह सच

आपके क्या विचार हैं इस पर ?

— उषा किरण 

शुक्रवार, 10 मई 2024

जरा सोचिए

    


अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है

क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है

हर समय उधार मांगती रहती है

कामवालों के नखरे बहुत हैं 

पूरी हीरोइन है , चोर है

जब देखो बीमारी का बहाना…

मेरा ड्राइवर बत्तमीज है

जवाब देता है, बेईमानी करता है

सच में, इन लोगों ने नाक में दम कर रखा है…

बिल्कुल सही..!

पर क्या कभी सोचा है कि आपकी मेड, माली, ड्राइवर, धोबी, चौकीदार, बच्चों का रिक्शेवाला…ये सब न हों तो आपका क्या हो ? इनकी बदौलत आप कितनी ऐश करते हैं? कितने शौक पूरे करते हैं, कितना आरामदायक व साधनसम्पन्न जीवन जीते हैं ? 

कोविड के दिनों में इनका महत्व काफी समझ आ गया था वैसे हमको और आपको । अपने ही घर का काम करते कमर दोहरी हो गई और मेनिक्योर, पेडिक्योर का तो बाजा बज गया था…नहीं ? 

आपके सहायक अपना कीमती समय, अपना परिश्रम देकर आपका व हमारा घर, आपके बच्चों को, आपके कपड़े, खाने- पीने को संभालती हैं, मदद करती हैं , आप आराम से सोते हुए या गाने सुनते यात्रा एन्जॉय करते हैं और आपका ड्राइवर एक ही मुद्रा में घन्टों ड्राइव करता है, गर्मी, सर्दी, बरसात घर के बाहर या गाड़ी में बैठा जीवन का कितना मूल्यवान समय आपके आराम व सुरक्षा पर खर्च करता है। हमारे सहायकों के  घर में कोई उत्सव हो, बच्चा या पति या बीवी बीमार हो, खुद बीमार हों किसी की डैथ  हो जाए तो भी आप बहुत अहसान जता कर डाँट- डपट कर एक दो दिन की छुट्टी देते हैं । ज़्यादा छुट्टी होने पर पैसे काट लेते हैं । आपके बच्चों को स्कूल से घर लाने वाले रिक्शे वाले के गर्मियों की छुट्टियों के पैसे नहीं देते जबकि आपको अपनी जॉब में छुट्टियों के पूरे पैसे मिलते हैं ।होली, दीवाली पर या कभी जरा सा कुछ बख़्शीश देकर आप कितनी शान से सबके बीच बखान करते हैं ।आपके सहायक कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों व अपने आराम को देने वाला समय आपको देते हैं । 

आप क्या देते हैं? ? ?

चन्द पैसे ? उतने ही न जितने आप एक बार में एक डिनर या एक ड्रेस या एक ट्रिप , या एक गिफ्ट में उड़ा देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता, फैशन की तो नकल हम करते हैं पर ये भी तो जानिए और नकल करिए कि विदेशों में वे सहायिकाओं को कितनी इज्जत, पैसा व सुविधा भी देते हैं । 

जरा सोचिए कि आप उनको जो कीमत देते हैं वो ज्यादा मूल्यवान  है या वो जो वे आपको देते हैं…कभी सोचा है ? हर चीज की कीमत पैसों से नहीं तोली जा सकती। जितना प्यार और सहानुभूति आप आपने पालतू पशु- पक्षी पर लुटाते हैं क्या उसके पचास प्रतिशत के भी ये हक़दार नहीं हैं?


मेरी बात कड़वी अवश्य लगेगी आपको लेकिन इंसानियत के नाते उनको डाँटने फटकारने, पैसे काटने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर

  — उषा किरण

बुधवार, 8 मई 2024

हीरामंडी मेरे चश्मे से😎




           तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और  हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन में ठहर गया वो थी बस करुणा और मर्दों के प्रति नफरत व गुस्सा।

ये रईस और नवाबों में कितनी हवस थी जो कई बेगमों, बीवियों के बावजूद कोठों की भी जरूरत पड़ती थी। जाने कहाँ- कहाँ से मासूम लड़कियों को खरीद कर  इनकी हवसपूर्ति के लिए कोठों को आबाद किया जाता था मासूम लड़कियों को तवायफ बनाया जाता था। और हद्द तो ये है कि उन्हीं ऐयाश अमीरों व नवाबों की तवायफों से पैदा हुई औलादें फिर उन्हीं कोठों पर घुँघरू बाँध तवायफ बन कोठे आबाद करतीं या बेटे दलाल और तबलची बनते। वो तो भला हो फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी बदौलत लाहौर व हिन्दुस्तान की कई तवायफों ने बाद में गायिका व अभिनेत्री बनकर इज़्ज़तदार जिंदगी गुजारी और आज उनका नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। उनके बच्चों व परिवार को भी समाज में इज़्ज़त की नजर से देखा गया जिनमें से एक नरगिस की माँ जद्दनबाई भी थीं । खैर अब ये बातें जाने देते हैं और बात करते हैं हीरामंडी की। अब मैं तो कोई समीक्षक हूँ नहीं तो बस दिल की बात ही कहूँगी।

पहले तो इस सीरीज़ को देखते साहिर लुधियानवी का लिखा बहुत पुरानी फिल्म साधना का गाना याद आ गया-
"औरत ने जनम दिया मर्दों को 
मर्दों ने उन्हें बाजार दिया
जब जी चाहा मसला- कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया…!”
इस नज़्म में ही  इन औरतों के दर्द की पूरी दास्तान दर्ज हो जैसे…!

जब ट्रेलर देखा तो मेरी नजर गाने "सकल बन फूल रही सरसों …” पर ही अटक गई । हाँ  सारी हीरोइनें, डांस, हावभाव, मुद्राएँ, पेशाकें, जेवरात ग़ज़ब, लेकिन मेरी सुई अटकी कि पोशाकों में ये नया सा पीला रंग कौन सा ले आए भंसाली साहब ? अभी तक फिल्मों में शोख लाल, गुलाबी, नारंगी , काले और हरे रंग में ही मुजरे देखे थे।ये तीखी पीड़ा , उदासी को, देशभक्ति को समेटे, छिपाये हुए सरसों ,अमलतास या सूरजमुखी सा पीला नहीं ये तो खेतों में लहलहाती गेहूँ की पकी सुनहरी बालियों पर जब सन्ध्या की किरणें पड़ती हैं या बर्फ़ से ढंकी हिमालय चोटियों पर सूर्यास्त से कुछ पहले जो आभा होती है वैसी ही पीतवर्णीय आभा है कुछ। सबसे पहले तो इस शेड ने ही दिल चुरा लिया। रात भर सुई अटकी रही इसके पीलेपन पर , सुबह होते ही फिर पैलेट पर ढूँढा तो Light raw umber, orange, unbleached titinum के मेल- मिलाप से कुछ बात बनी, शेड पकड़ में आया तो मन प्रसन्न हो गया। एक तो हमें नई- नई मोहब्बत हुई है पीले रंग से पर क्या बताएं इस नए पीले के अनोखे शेड से तो इश्क़ ही हो गया।

       हीरामंडी सीरीज़ बहुत खूब बनाई है लेकिन बाद के दो- तीन एपीसोड कमाल के बने हैं।जिसकी वजह से यह सीरीज़ एक अलग ही मुकाम हासिल करती है। गाना सबसे बढ़िया लगा।"सकल बन फूल रही सरसों”,  और "चौदहवीं शब को कहाँ चाँद कोई ढलता है…!”
     
और क्या कहें ये नई लड़की शरमिन सहगल पर  जाकर फिर हमारी निगाह ठहर गईं…हमने पढ़ा कि लोग काफ़ी आलोचना कर रहे हैं कि एक्सप्रेशन विहीन एक्टिंग की है भंसाली की भानजी ने पर हमें तो वो ही एक्टिंग भा गई। एक लड़की जो कोठे पर रहकर तवायफ की बेटी होने पर भी शेरो शायरी की दुनियाँ में विचरती है, शायरा बनने के ख़्वाब बुनती है, हकीकत से कोसों दूर खोई- खोई सी बादलों में विचरती है …कोठे पर बेशक है पर तवायफ नहीं बनी है अभी, तो वो यही एक्सप्रेशन तो देगी न, सपनों में  खोई- खोई सी आँखें और धुआँ धुआँ सा चेहरा…। कटाक्ष, चंचलता, खिलखिलाहट, रोना- पीटना और लुभावनी अदाएं ये सारे भाव उसके किस काम के ? वो सब तो बाकी सबमें भरपूर दिखाई देते ही हैं। बाद में किया गया उसका मुजरा भी मुजरा कम प्रेम दीवानी की दीवानगी भरा रुदन ही नजर आता है और जब किसी का प्रेम सारी सीमाएँ तोड़कर देशप्रेम का बाना पहन ले तो सदके उस प्यार के।

          एक विशेष बात ने बहुत सुकून दिया कि इस कोठों की कहानी में कितने ही अश्लील दृश्य परोसे जा सकते थे पर भंसाली साहब का शुक्रिया कि तवायफों को भी शालीनता से पेश किया है ,कहीं कोई अश्लीलता, छिछोरीपन नहीं। बल्कि अन्त तक आते- आते स्त्री ( याद है न कि तवायफ भी स्त्री ही होती हैं) की अस्मिता व गरिमा को बहुत मार्मिक व शालीन तरीके से हीरामंडी से निकाल देशभक्ति के रंग में रंग कर एक नया मुकाम दिया है…इसके लिए एक सैल्यूट तो बनता है।

बाकी चीजों के बारे में तो और सब लोग लिखेंगे ही और हमसे बेहतर ही लिखेंगे तो हम क्या लिखें ? 
बस इतना जरूर कहेंगे कि देख डालिए, वाकई लाजवाब बनाई है हीरामंडी…।

— उषा किरण 

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है। 

जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?

     क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।

           कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?

     जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।

       खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!

       एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…! 

       बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है। 

      तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया  रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!

                              —उषा किरण                    


फोटो: गूगल से साभार

बुधवार, 13 मार्च 2024

चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से



हाँ पिछली पोस्ट में मैंने अपनी प्रथम कहानी `बिट्टा बुआ ‘ के छपने की स्मृतियों को साझा किया। बिट्टा बुआ से पहले मनोरमा में छपने हेतु कहानी `गिरगिट और गुलाब’ भेजी थी। बाद में बिट्टा बुआ भेजी। परन्तु सम्पादक अमरकान्त जी ने पहले बिट्टा बुआ छापी क्योंकि वो उन्हें बहुत पसन्द आई थी। गिरगिट और गुलाब कहानी में बहुत कमियाँ होने पर भी सम्पादक अमरकान्त जी ने उस पर गहन चर्चा की, सुझाव दिए , यहाँ तक कि खुद करैक्शन करने के लिए भी कहा पर रिजेक्ट नहीं की। मैंने लिखा था कि कहानी पसन्द न आए तो लौटाइएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा । क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि घर में किसी को पता चले। और पता नहीं तब मैंने क्या- क्या बेवक़ूफ़ी लिखी थीं कि हर बात को बहुत प्यार से समझाया। और फिर बिना करैक्शन के ही कहानी को ज्यों का त्यों ही छाप दिया बस उसका शीर्षक बदल कर "गुलमोहर “ कर दिया था। शायद मैंने बेवक़ूफ़ी में लिखा था कि मैं नहीं चाहती कि कहानी में ज़्यादा परिवर्तन हो। 


ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।

दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं  "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए  में कूद जाएंगी!”


फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।


नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो  अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ। 




यादों के गलियारों से


मेरी कितनी ही दोस्त हैं पर हम कभी भी एक दूसरे के घर रहने के लिए नहीं जाते। हमारी अम्माँ की बचपन की एक दो सहेलियाँ थीं और ताताजी के भी दो तीन दोस्त थे जहाँ कभी हम उनके घर और कभी वो लोग हमारे यहाँ सपरिवार दो- चार दिनों के लिए छुट्टियाँ मनाने आते थे।ऐसे ही कभी-कभी मौसी के यहाँ तो कभी मामाजी के यहाँ भी जाते थे। कोई फालतू टशन नहीं, बहुत सहजता से हम दोनों परिवार पानी में शक्कर से घुल जाते थे।आज प्राय: घरों में एक या दो बच्चे होते हैं और वे अपने ही घरों की परिधि में सिमटे रहते हैं। वे कहाँ जानते हैं अपने खिलौने, अपना स्पेस, अपना रूम,अपनी चॉकलेट और अपने माता-पिता का प्यार- दुलार भी शेयर करना…एक-दूसरे को बर्दाश्त करना। 


हम चार भाई बहन और चार- पाँच उनके बच्चे मिलकर खूब धमाल मचाते थे। खेल-कूद होते तो लड़ाई- झगड़े भी चलते ही रहते थे।ताताजी और अम्माँ भी अपनी कम्पनी में खूब बातें व हंसी मजाक करते। ताश, कैरम भी चलता।वे अपने बचपन की शरारतें हम बच्चों को सुनाते तो हमें भी बहुत मजा आता था। इत्तेफाक से सभी बड़े- बड़े अफसर थे तो आर्थिक परेशानी नहीं थी, काम तो औरतों पर बढ़ जाता था परन्तु नौकर- चाकर, अर्दली भी होते जो घर के काम में हाथ बटाने के साथ- साथ बाजार से दौड़- दौड़ कर रबड़ी, जलेबी, इमरती,समोसे, आम, लीची, आइस्क्रीम वगैरह लाते रहते और जम कर खिलाई- पिलाई के दौर भी चलते रहते।


वीरेन्द्र चाचाजी तो सगे चाचा जैसा प्यार करते थे और ताताजी से विशेष लगाव था उनका। कुछ तेरा- मेरा जैसा भाव ही नहीं था। गोरे चिट्टे चाचाजी बहुत सुन्दर थे और आदर्शवादी भी थे। काफी स्कोप होने पर भी कभी एक रुपये की भी रिश्वत नहीं ली कभी।चाचीजी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थीं और उन जैसे करेले तो कभी कहीं नहीं खाए। चाचीजी और अम्माँ खूब बतियाती थीं और चाची जी स्नेह  भी बहुत करती थीं ।


ताताजी के गुजर जाने के बाद एक दो बार चाचाजी से मिली तो वे "मेरा यार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया” कहकर ताताजी को याद करके बच्चों की तरह फूट - फूट कर रो पड़े । मैंने आजतक दो दोस्तों में इतना प्यार नहीं देखा। चाचाजी खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन ताताजी की सिगरेट उनके हाथ से लेकर कभी-कभी देवानन्द के स्टाइल में सुट्टे आंगन में साथ में चारपाई पर लेट कर बड़ी मस्ती में लगाते थे। उनका स्वभाव  बहुत हंसमुख था। दोनों ने साथ- साथ पढ़ाई की थी तो खूब किस्से सुनाते थे-

"अरी तेरा बाप तो मेरी नकल करके पास होता था।” हम एक स्वर में चिल्लाते "झूठ…झूठ “ तो खूब हंसते और फिर असली किस्सा सुनाते -" अरी तेरा बाप था टॉपर। एग्जाम से एक दिन पहले मैं तो आठ बजे ही लम्बी तान कर सो गया। मेरा यार आया तो मुझे झिंझोड़ कर बोला पढ़ता क्यों नहीं बे ? मैंने कही अबे जिधर से भी किताब खोलू हूँ नई सी ही लगे है, तो पढ़ने से क्या फायदा? इसने कुछ क्वेश्चन लिख कर दिए कि ले इसे याद कर ले पास है जाएगा ।जब एग्जाम में पेपर देखा तो मेरे छक्के छूट गए, मैंने तेरे बाप की कॉपी छीन ली…ये अरे रे रे करता रह गया मैंने कही पहले मेरा लिख, तुझे टॉप करने की पड़ी है यहाँ पास होने के लाले पड़े हैं…हा हा हा ।”

ऐसे किस्सों की भरमार रहती उनके पास।चाचीजी और अम्माँ में भी खूब बनती थी।

दोनों दोस्त जरूर अब ऊपर जाकर फिर मिल गए होंगे और उनकी मस्ती बदस्तूर जारी होगी…।अम्माँ भी उनमें ही जा मिली होंगी।उनकी मस्ती देख हंसती रहती होंगी।चाचीजी की कई दिनों से कोई खबर नहीं है …!!



रविवार, 4 फ़रवरी 2024

विश्व कैंसर दिवस




कैंसर लाइलाज नहीं है, बशर्ते जागरूक रह कर समय पर पकड़ा जाए और समुचित इलाज करवाया जाय।आँखें मूँद लेने से नहीं अपितु एक दिया जलाने से जरूर अंधेरा दूर होता है।पुस्तक 'दर्द  का चंदन ’ यही समझाती है…जागरूक रहिए, स्वस्थ रहिए।           पुस्तक मेले में उपलब्ध रहेगी।

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"दर्द का चंदन उपन्यास: इंसानी हौसलों की मर्मस्पर्शी दास्तान”

-डॉ. हंसा दीप

 

“ये हौसलों की कथा है

निराशा पर आशा की, हताशा पर आस्था की

पराजय पर विजय की कथा है”

 

उषा किरण जी का उपन्यास “दर्द का चंदन” निश्चित ही हौसलों की कथा है। इसे पढ़ते हुए उषा जी के संवेदनशील मन की गहराइयों से परिचय हुआ। इतने भीतर तक जहाँ जाकर पाठक और लेखक का संवाद हो सके। कैंसर जैसी बीमारी से घर के दो सदस्य एक साथ लड़ रहे हों, एक दूसरे को दिलासा दे रहे हों, वहाँ हर कोई अपने दर्द को कमतर महसूस करने लगता है। उषा किरण ने अंत में लिखा है कि किसी सहानुभूति के लिए नहीं लिखी है यह कथा, यानी वे पाठक को इस तथ्य से अवगत करना चाहती हैं कि यह उनकी अपनी जीवन कथा है। जब यथार्थ को कोई भी कलम कागज पर अंकित करती है तो नि:संदेह शब्दों में सच्चाई मर्मांतक हो जाती है।

उषा जी ने कहानी को जीवंतता देते हुए बचपन की यादों को बहुत करीने से पेश किया। ऐसी छोटी-छोटी बातें जो हर पाठक को अपने बचपन की सैर करा दें। उनकी भाषा का प्रवाह पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है- “कहीं-कहीं नन्हे शिशु के अलसाए हाथ-पैरों से फूल-पत्ते मानो माँ के आँचल से निकल इधर-इधर से टुकुर-टुकुर ताक-झाँक कर रहे थे।”

कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो बरबस ही लेखक की कलम के प्रशंसक बन जाते हैं जैसे- “मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।” गद्य के साथ कविता इस तरह संयोजित करके प्रस्तुत की गयी है जैसे लगता है इसके बगैर यहाँ कही गई बात अधूरी ही रहती। भाषायी सौंदर्य में इन कविताओं ने जबरदस्त तड़का लगाया है।

बचपन की यादें माता-पिता पर केंद्रित होकर फिर से उनके बहुत करीब ले जाती हैं। उनके अवसान का समय बच्चों के मन में हमेशा-हमेशा के लिए एक टीस छोड़ जाता है। उषा जी की पीड़ा इन शब्दों में अभिव्यक्त होती है- “कितना मुश्किल होता है अपने माता-पिता को यूँ अस्त होते देखना।”

एक के बाद एक, परिवार पर मौत के साए मँडराने लगे तो किससे शिकायत की जाए और सुनवाई कहाँ होगी, पर हाँ भीतर की व्यथा को यूँ व्यक्त करना एक पल के लिए सुकून जरूर देता है- “और कितना तराशोगी जिंदगी, जब हम ही न होंगे, तो किस काम आएँगे हुनर तेरे”

एक विशेष बात का खयाल रखा है लेखिका ने जो बहुत ही रचनात्मकता के साथ उभर का आया है वह यह कि कैंसर के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। शुरुआत से लेकर अंत तक किस तरह इस घातक बीमारी से लड़ा जा सकता है, मरीज के साथ परिवार किन परिस्थितियों में इससे जूझता है, साथ ही शरीर के संकेतों को अनदेखा न करने का बड़ा संदेश है। कई बार मशीनें उस बीमारी को पकड़ नहीं पातीं पर शरीर लगातार दिमाग को संकेत भेजता है। इसी संकेत की उपेक्षा आगे जाकर जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है।

एक लेखक होने के नाते मैं जानती हूँ कि इसे लिखते हुए न जाने कितने आँसू बहे होंगे, न जाने कितनी बार माता-पिता सामने आकर दिलासा देकर गए होंगे और शायद छोटा भाई तो हर पल जेहन में रहा होगा जिसके मासूम चेहरे ने बहन को अनवरत ढाढस बंधाया होगा।

कहानी के अंत तक मेरे लिए भी आँसू रोक पाना असंभव हो गया था। यही सच इस उपन्यास को विशिष्ट बनाता है कि पाठक पात्रों के साथ जुड़कर उनकी तकलीफ को महसूस करे।

मैं उषा किरण जी को हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए उनके हौसलों की दाद देती हूँ। उषा जी, आपका आशावादी, सकारात्मक रवैया पाठकों के जीवन को ऊर्जा से भरने में कामयाब होगा। साथ ही, हर पाठक अपने दर्द की आग को चंदन की शीतलता से कम करने का प्रयास अवश्य करेगा।  

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डॉ. हंसा दीप


—दर्द का चंदन  पुस्तक से….

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

मौन




सुनो तुम-

एक ही तो ज़िंदगी है 

बार- बार

और कितनी बार 

उलट-पलट कर 

पढ़ती रहोगी उसे

तुम सोचती हो कि

बोल- बोल कर 

अपनी नाव से

शब्दों को उलीच 

बाहर फेंक दोगी

खाली कर दोगी मन

पर शब्दों का क्या है

हहरा कर 

आ जाते हैं वापिस

दुगने वेग से….

देखो जरा 

डगमगाने लगी है नौका

जिद छोड़ दो

यदि चाहती हो 

इनसे मुक्ति तो

कहा मानो 

चुप होकर बैठो और

गहरे मौन में उतर जाओ अब…!

                               —


उषाकिरण

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

जीवन की आपाधापी में…!!


जीवन की आपाधापी में न जाने हमसे हमारे कितने प्रिय लोगों का हाथ और प्रिय वस्तुओं का साथ अनचाहे छूट जाता है।

नाइन्थ में मैंने वोकल म्यूजिक लिया और घर में आदरणीय `श्री परमानन्द शर्मा’ गुरुजी से विधिवत संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। तबले और हारमोनियम के साथ मैं और दीदी संगीत  सीखते थे। गुरुजी की मैं बहुत प्रिय शिष्या थी। उनके हिसाब से मैं बहुत टेलेन्टेड स्टुडेंट थी, जबकि मुझे खुद पर विश्वास जरा सा भी नहीं था। वे प्राय: क्लास में सिखाई जा रही बंदिशों से अलग भी खूबसूरत बंदिशें सिखाते।

गुरुजी को ज्योतिष का भी अच्छा ज्ञान था। मेरी जन्मपत्री एक दिन अम्माँ से मांग कर देखी और बहुत खुश हुए। उस दिन उन्होंने जो भी बातें कहीं वो आगे जाकर सब सच साबित हुईं। अम्माँ ने उनके परिवार को खाने पर आमन्त्रित किया और उनकी गुरुजी की पत्नि से खूब दोस्ती हो गई।अम्माँ प्राय: हम लोगों को साथ लेकर उनके घर जातीं तो कभी उनका परिवार हमारे घर आमन्त्रित रहता।

 उन्होंने सुझाव दिया कि मुझे हारमोनियम की जगह तानपूरे के साथ रियाज करना चाहिए। तब ताताजी की पोस्टिंग बुलन्दशहर में थी। वहाँ तानपूरा नहीं मिलता था तो गुरुजी दिल्ली से बस में अपनी गोद में रखकर मेरे लिए तानपूरा लाए और हमने तानपूरा संग रियाज करना शुरु किया…सचमुच रियाज में अलग ही आनन्द आने लगा। हमारा तानपूरा बेहद सुघड़ व सुँदर था। जब गुरुजी कहते कि मेरी ज़िंदगी का अब तक का  ये सबसे बढ़िया तानपूरा है तो मैं मगन हो जाती।फिर उसका कवर भी खुद बनवा कर लाए। तानपूरा मिलाना और संभालना सिखाया। टैन्थ में स्लेबस में छोटा खयाल था परन्तु गुरुजी ने बड़ा खयाल, घ्रुपद, धमार व तराना भी सिखाया। प्रैक्टिकल परीक्षा में टीचर की परमीशन से तबले पर संगत करने के लिए खुद कॉलेज आए और हमने चॉयस राग का बड़ा ख्याल वगैरह भी गाया। जाहिर है मेरी डिस्टिन्क्शन आई। मैंने गुरुजी से इलैवेन्थ तक ही, कुल तीन साल तक संगीत की शिक्षा ली फिर ताताजी का ट्रांसफ़र मथुरा हो गया और गुरुजी का साथ छूट गया। गुरुजी ने इतनी अच्छी तैयारी करवा दी थी कि ट्वैल्थ में कोई परेशानी नहीं हुई और म्यूज़िक में डिस्टिन्कशन मार्क्स मिले। 

टॉन्सिल की परेशानी की वजह से फिर बी ए में मैंने म्यूज़िक नहीं लिया और धीरे-धीरे मेरी  रुचि पेंटिंग और साहित्य की तरफ़ बढ़ती गई, संगीत छूट गया। 

गुरुजी के लाये तानपूरे की मैं बहुत संभाल करती थी।जहाँ- जहाँ ट्रांसफ़र होता मैं अपने साथ संभाल कर ले जाती रही।कभी-कभी तानपूरे पर ओम् की चैन्टिंग और सीखे रागों की प्रैक्टिस करती। 

 संस्कृत में एम ए किया और फिर पेंटिंग में एम ए करते बीच में शादी भी हो गई। अम्माँ बोलीं अब इसे तुम अपने साथ ले जाओ हमसे नहीं संभलेगा। तो ले आए ससुराल, बड़े प्यार से गोदी में रखकर। ससुराल हमारी भरा-पूरा कुनबा थी। वहाँ सबके लिए तानपूरा भी एक अजूबा था। सबके हिस्से में एक- एक कमरा बंटा था। पी-एच॰ डी० की पढ़ाई के साथ जॉब, फिर बेटी हुई तो किताबों , खिलौनों और नैपियों  के बीच विराजमान तानपूरे को भी वहीं संभालना होता था। कमरा छोटा लगने लगा। घर तो बड़ा था परन्तु कई शैतान बच्चों के रहते उसे कहीं और नहीं रख सकती थी। तानपूरा बहुत नाजुक होता है तो बहुत संभालने की जरूरत होती है। बहुत संभालने पर भी कुछ डैमेज हो गया।

 मेरे दिल की नाजुक रगों से उसके तार बंधे थे। मेरे गुरुजी की कुछ ही सालों बाद कैंसर से डैथ हो गई थी उस समय तक उनके बच्चे भी सैटिल नहीं हुए थे। पता नहीं क्या हुआ सबका…।गुरुजी जिस तानपूरे को गोद में रखकर लाए थे उसको मैं किसी हाल में खुद से दूर करना नहीं चाहती थी। तानपूरा मुझे यह भी याद दिलाता था कि एक सुप्त पड़ी कला है मुझमें, कभी मौका लगा तो फिर से सुरों से सुरीला होगा जीवन। बेशक अभी जीवन से संगीत दूर हो गया हो। लगता जब गुरूजी की इतनी फेवरिट थी तो कुछ तो प्रतिभा रही ही होगी ?

    फिर एक दिन मजबूर होकर अपना प्रिय तानपूरा मैंने अपनी एक बहुत प्रिय सखी को सौंप दिया क्योंकि वे उन दिनों संगीत सीख रही थीं । कुछ सालों बाद अपना शौक पूरा होने पर उन्होंने मुझसे पूछ कर वह किसी और जरूरतमंद को दे दिया। 

उसके बीस साल बाद मैं बहुत बीमार पड़ी। जब  बीमारी से उभरी तो भैया के जिद करने पर एक गुरुजी से फिर से संगीत सीखना शुरु किया। तब कहीं से एक तानपूरे की व्यवस्था की। लेकिन उसका बेहद डार्क कलर और बृहद बेडौल  तूम्बा होने के कारण मुझे ज़रा नहीं भाता था।पूरे समय अपना सुनहरी आभायुक्त, यलो ऑकर व बर्न्ट साइना कलर का सुन्दर तानपूरा याद आता जो अजन्ता व एलोरा में उकेरी नारी सौन्दर्य की क्षीण कटि और पुष्ट व सन्तुलित अधोभाग वाली सुन्दरियों सा साम्य रखता था।

आज जब भी किसी गायक को तानपूरे संग गाते देखती हूँ, तो अपने  तानपूरे को याद करके मेरे मन में एक हूक सी उठती है, मन विचलित हो उठता है कि काश….!!

      "जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

      कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,

      जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या…

      जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,

      जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,

      जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला…।”

                                      —उषा किरण