शनिवार, 16 अगस्त 2025

ॐ श्रीकृष्णः शरणं मम



 सबसे गहरे घाव दिए

उन सजाओं ने—

जो बिन अपराध, बेधड़क

हमारे नाम दर्ज कर दी गईं।


किए अपराधों की सज़ाएँ

सह भी लीं, रो भी लीं…

पर जो बेकसूर भुगतीं,

अवाक कर गईं,

उनका क्या…


नतशिर हूँ…

स्तब्ध, निश्शब्द, आहत !


तोहमतों का कोई उत्तर नहीं 

कहा उससे जाता है जो सुनना चाहे,

सुना उसे जाता है जो कहना चाहे…

बस बेकल सा कोलाहल है

इसलिए सारे कपाट

लो आज बन्द कर दिए…!


काँच पर पत्थरों से आई तरेड़ें

कभी शिकायत कहाँ लिखती हैं!

बस मौन में डूबकर

मौन हो जाना ही चुनती हैं।


नफ़रतों की आरी की

किरकिराहट नहीं सही जाती,

थकाता है शोर।


हे मुरारी! जानती हूँ—

ये चोटें भी तुम्हारी थीं,

हमें अपने और निकट लाने को।

तुम ही रचते हो लीला,

तुम ही हो कारण।


तो सारे उपालम्भ, अपमान, तोहमतें

थाल में सजाकर

तुम्हें अर्पित कर दीं

पुष्प, पात, अर्घ्य बनाकर।


कान्हा…

अब सम्भाल लो, मुक्त करो।

जन्मदिन तुम्हारा मुबारक हमें।


ॐ श्रीकृष्णः शरणं मम 🙏🌼

- उषा किरण 🌱🍃

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

आजादी

 


"अरे रे गाड़ी रोको…रोको !”

"क्यों ?” गाड़ी चलाते शेखर ने पूछा

"गोलगप्पे खाने हैं।”

"इस सड़क पर कितनी धूल- मिट्टी उड़ रही है , छि: गंदी चाट…!”

"अच्छा ? पर पिछले महिने जब विभा दीदी  आई थी तब तुम यहीं खिलाने लाए थे न उनको, तब ये साफ थे ?”

"तुमसे तो हर बात में बहस करवा लो बस।”शेखर ने गाड़ी चलाते हुए कहा।

पूजा चुप होकर बैठ गई परन्तु घर आने पर पूजा ने शेखर से चाबी लेकर गाड़ी स्टार्ट की।

"अरे…अब कहाँ?”

"अभी आई जरा…”, कह कर चली गई।

आधे घन्टे बाद शेखर ने देखा डायनिंग टेबिल पर बैठी पूजा मजे ले लेकर गोलगप्पे खा रही है। हैरानी से उसे खाते देख शेखर चुपचाप बैडरूम में चला गया। पूजा के चेहरे पर मुस्कान थी, आज उसको जरा  ग़ुस्सा नहीं आया…!!

          —उषा किरण 

फाँस


अनुभा बाहर से लगातार साइकिल की घंटी बजा रही थी`अरे थम जरा, आ रही हूँ !’
'रूक, ये दही खाकर जा…प्रवेश पत्र ले लिया न ?’
`हाँ माँ ले लिया, बाय’ लपड़- झपड़ भागती शैलजा ने जल्दी से साइकिल निकाली और दोनों ने सरपट दौड़ाई। रास्ते में शायद कोई एक्सीडेंट होने की वजह से रोड ब्लॉक कर दी गई थी, अत: लम्बे रूट से जाने के कारण दोनों जब तक कॉलेज पहुँचीं तब तक सात बज कर पाँच मिनिट हो चुके थे। सब बच्चों को पेपर मिल चुके थे और तन्मय होकर लिखने में लगे थे । अनुभा ने कॉपी की एन्ट्री भरनी शुरु की ही  थी कि टीचर ने कहा -
"भई मैंने सात  बजने में पाँच मिनिट पर पेपर दिया है आपको, तो दस बजने में पाँच मिनिट पर कॉपी ले ली जाएगी, सब घड़ी मिला लें!’
धड़कते दिल से शैलजा ने लिखने की स्पीड बढ़ाई`ओह दस मिनिट तो बिना बात कम हो गए।’
दस बजने पर पाँच मिनिट पर कॉपी छीन ली गई। शैलजा को रोना आने लगा उसका एक क्वेश्चन रह गया था, जबकि उसे सब आता था लेकिन बाकी लोगों से उसे दस मिनिट कम मिले थे। बुझे मन से बाहर आई तो अनुभा भी रुआँसी खड़ी मिली। 
`कैसा हुआ पेपर ?’
`ज्यादा अच्छा नहीं !’ उसका चेहरा भी उतरा हुआ था। दोनों शैलजा के घर पहुँचीं तो शैलजा उसे खींच कर जबर्दस्ती घर ले गई-'चाय पीकर जाना !’
तभी शैलजा के पापा भी ड्यूटी से आ गए।वे भी उसी कॉलेज में इंगलिश के प्रॉफेसर थे।'बेटा कैसा हुआ पेपर?’
'पापा एक क्वेश्चन छूट गया’ उसने सारी बात बताई।
'किसकी ड्यूटी थी ?’
'हिस्ट्री वाले सरस सर और हिन्दी वाली अनुपमा मैम की!’
शैलजा के पापा तेज गुस्से में दोनों टीचर्स को गाली बकने लगे`बताओ सालों को  पाँच मिनिट पहले पेपर बाँटने की क्या तुक थी ? इसकी शिकायत की जाएगी प्रिंसिपल से, बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ है ये तो सरासर…!’ 
बहुत देर तक वे बड़बड़ाते रहे।
अनुभा सिर झुका कर चुपचाप चाय के सिप लेती रही। आज उसके कमरे में अनुभा के पापा की  ही ड्यूटी थी जो पूरे तीन घन्टे लगातार जोर-जोर से दूसरे टीचर के साथ राजनीतिक बहस कर रहे थे, बच्चों पर चीख रहे थे-
'ए लड़के सामने देख’
`अबे दो झापड़ दूँगा अभी’
`ए मोटू, कॉपी छीन लूँ तेरी’
`ए लड़की सीधी बैठ’
`अबे राजेश दो कप चाय बिस्कुट ला दे जरा!’
`नो चीटिंग…..’
उनके मचाए शोर व पूरे समय हा-हा, ही- ही करने के कारण वो लिखने पर जरा भी ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकी थी, परिणामतः सब कुछ आने पर भी वो आज पेपर ठीक से नहीं लिख सकी।
अनुभा मन ही मन  सोच रही थी, और इनकी शिकायत कौन, किससे करेगा ?
      — उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार 

किस ओर


अल्पना हाथ मुँह मटका कर अनुराधा को खूब खरी-खोटी और भरपूर ताने सुना, भन्ना कर, जहर उगल, पैर पटकती वापिस लौट गईं।शिप्रा ने बीच में बोलने की कोशिश की लेकिन अनुराधा ने इशारे से उसे  रोक दिया।

चाची के जाने के बाद शिप्रा फट पड़ी-

`मम्मी, क्यों सुनती हो आप सबकी इतनी बकवास? आपकी कोई गल्ती भी नहीं है, वो छोटी हैं आपसे और वो कितना कुछ बेबात सुना गईं ? आपको डाँट देना चाहिए था कस के…मतलब ही क्यों रखना ऐसे बत्तमीज लोगों से?’ शिप्रा का गुस्से से गला रुँध गया।

`अरे बेटा कैसी बात कर रही हो तुम ? अपनों को छोड़ा जाता है क्या ? देखो, दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक वो, जो समझदार होते हैं, सबको निभाते हैं, दूसरे वे मूर्ख, जिनको सब निभाते हैं…अब ये हमारे हाथ में है कि हम खुद को किस ओर रखते हैं !’

माँ शान्त-भाव से उठ कर चली गईं और शिप्रा सोचती रही कि, माँ कितनी बड़ी बात सूक्तियों में यूँ ही कह जाती हैं।

               — उषा किरण

बुधवार, 6 अगस्त 2025

दिल तो पागल है



 आपका बॉस ‘मन’ है या ‘दिमाग’?

ये तो आप जानते ही हैं कि दिल, गुर्दे और दिमाग की तरह “मन” हमारे शरीर का कोई अंग नहीं है। दिल न सोच सकता है, न अनुभव कर सकता है — वह तो बस एक मांसपेशी है, एक पम्प।

“मन” असल में विचारों का निरंतर प्रवाह है — एक चलायमान धारा, जो कभी ठहरती नहीं। फिर भी हम अक्सर दिल को ही “मन” मान बैठते हैं, और उसे ही अपनी भावनाओं का केंद्र बना लेते हैं। शास्त्रों में वृत्तियों के निरन्तर प्रवाह को ही मन कहा है।

हममें से अधिकतर लोग मन की ही सुनते हैं — और कई लोग तो उम्रभर मन के हाथ का खिलौना बने रहते हैं।

कुछ लोगों के जीवन में मन (अर्थात् दिल) बॉस होता है, और कुछ के जीवन में दिमाग। समझदार लोग दिल और दिमाग दोनों का संतुलन बनाए रखते हैं।

इस संतुलन में हमारे संस्कार, माहौल और परवरिश की अहम भूमिका होती है। हमारे अंदर IQ (बौद्धिक बुद्धिमत्ता) और EQ (भावनात्मक बुद्धिमत्ता) का अनुपात यही तय करता है कि हम किसके इशारे पर चलते हैं — दिल या दिमाग के।

आपने देखा होगा — कई युवा भावनाओं में बहकर प्यार में घर से भाग जाते हैं, अपराध कर बैठते हैं, हत्या तक कर देते हैं।

दरअसल, वे मन के जाल में उलझ जाते हैं। मन उन्हें सुख का लालच देता है, भावनाओं में डुबो देता है — और वे सोच नहीं पाते कि इसका परिणाम क्या होगा।

मन तो क्षणिक होता है — आज इसे कुछ अच्छा लगता है, कल वही चीज़ उबाऊ लगने लगती है।

इसलिए जरूरी है कि अंतिम निर्णय “दिमाग” ले — मन नहीं।

अपने जीवन का बॉस “बुद्धि” को बनाइए, “मन” माने दिल को नहीं — क्योंकि दिल तो…

दिलतोपागलहै ❤️

रविवार, 27 जुलाई 2025

तो अभी…!!


 

यदि तुमको मुझे कुछ कहना है 
तो कह लो अभी
जो भी नफरत, प्यार या लड़ाई 
लानत- मलामत चाहते हो 
तो कह डालो, कर डालो 
सब कुछ
जो भी शिकायतें हैं
दिल में मत रखो
सुना दो मुझे जो चाहो

कुछ चाहिए मुझसे तो
वह भी तुम अब कह ही दो…
क्योंकि 
कल का क्या भरोसा
रहूँ ना रहूँ 
ये नाव किस पल घाट छोड़ दे
कौन जाने….

अलविदा कहने के बाद
और किसी की तो पता नहीं 
परन्तु
मैं तो वापिस नहीं ही आने वाली
बता रही हूँ अभी 
फिर न कहना बताया नहीँ …!!

—उषा किरण 🍃

चित्र: गूगल से साभार




सोमवार, 14 जुलाई 2025

कुछ हट कर ….

 


दो तरह के सोचने के तरीके हैं-
कन्वर्जेन्ट थिंकर और डाइवर्जेंट थिंकर, जो लोगों की समस्या-समाधान और रचनात्मकता में अलग-अलग दृष्टिकोण को दिखाते हैं-

कन्वर्जेन्ट थिंकर:
कन्वर्जेन्ट थिंकर वे लोग होते हैं जो एक ही सही उत्तर या समाधान की तलाश में रहते हैं। वे तर्कसंगत और विश्लेषणात्मक तरीके से सोचते हैं और समस्याओं का समाधान करने के लिए स्थापित नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करते हैं। कन्वर्जेन्ट थिंकर आमतौर पर सटीकता और दक्षता पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

डाइवर्जेंट थिंकर:
डाइवर्जेंट थिंकर वे लोग होते हैं जो कई संभावित समाधानों और विचारों की तलाश में रहते हैं। वे रचनात्मक और कल्पनाशील तरीके से सोचते हैं और समस्याओं का समाधान करने के लिए नए और अनोखे तरीके ढूंढते हैं। डाइवर्जेंट थिंकर आमतौर पर रचनात्मकता और नवाचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

इन दोनों तरह के सोचने के तरीकों के अपने फायदे और नुकसान होते हैं। कन्वर्जेन्ट थिंकर समस्याओं का समाधान करने में अधिक सटीक और कुशल हो सकते हैं, जबकि डाइवर्जेंट थिंकर नए और रचनात्मक समाधानों की तलाश में अधिक सफल हो सकते हैं।वे साहसी होते हैं, रिस्क ले सकते हैं। टॉप के कलाकार , साहित्यकार, वैज्ञानिक , फिलॉस्फर, मनोवैज्ञानिक , शैफ आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

कभी-कभी लीक से हटकर  सोचिए, रिस्क तो है इस रास्ते पर लेकिन हो सकता है आपकी किसी समस्या का आसानी से हल मिल जाए या आप नई बुलंदियों को छू लें…!!

'रॉबर्ट फ्रॉस्ट’ की बहुत सुन्दर पोएम याद आती है 'द रोड नॉट टेकन’  - "…जंगल में दो रास्ते अलग हो गए; मैंने वह रास्ता चुना जिस पर कम लोग जाते थे और इसी से सारा फ़र्क़ पड़ा…!”
अर्थात् मैंने भीड़ का अनुसरण नहीं किया—मैंने कम-चलने वाला रास्ता चुना क्योंकि मैं एक गैर-अनुरूपतावादी हूँ, और इसी बात ने मेरे जीवन को अलग बना दिया है।

`The Road Not Taken’

Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;

Then took the other, as just as fair,
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,

And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.

I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I—
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
- `Robert Frost’

                               — उषा किरण 




मंगलवार, 8 जुलाई 2025

कीमत ( लघुकथा)


हरे धनिए का डिब्बा खोला तो देखा काफी सड़ा पड़ा था। मेरी त्योरियाँ चढ़ गईं। कल ही तो आया था, गुड्डू से कहा था, जा भागकर एक गड्डी हरा धनिया ले आ।सोचा दस- बीस का होगा , लेकिन सब्जी वाला निकला महाचतुर, बच्चा समझ कर सौ का नोट धरा और मोटी सी गड्डी हरे धनिए की थमा दी।

"बताओ फ्री में  मिलता है, सौ का नोट रख लिया, भाई बड़ा महंगा पड़ा!”

"वो कह रहा था कि बरसात में मंहगा मिलता है “ गुड्डू सकपकाते हुए बोला। गुस्सा तो बहुत आया पर अब हरे धनिए के लिए क्या तो लड़ने जाऊँ मरी कड़ी धूप में , सोचकर बड़बड़ाते हुए दो डिब्बों में खूब सहेज कर फ्रिज में रख दिया। 

"कल ही तो सौ रुपए का मँगाया और आज सड़े पड़े हो?”मैंने झुँझलाकर कहा। 

“गल्ती तुम्हारी है सौ का नोट बच्चे को क्यों दिया, और मुझे क्यों सौ रुपये सुना रही हो , कोई सब्जी तो तुम्हारी मेरे बिना बनती नहीं, पर सब्जी वाले से झिकझिक करके मुझे हमेशा फ्री में ही लेती हो, मेरी कोई कीमत ही नहीं जैसे ” धनिए ने भी अकड़कर कहा।

“ओहो…तो इसीलिए सड़ गए ?”

"हाँ इसीलिए….क्योंकि कुछ लोगों को फ़्री में मिले की क़ीमत समझ नहीं आती, सड़ जाओ तभी समझ आती है।” धनिए ने गर्दन झटककर कहा।

           — उषा किरण 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

गरीब ( लघुकथा)


कोरोना के कारण दो साल तक आर्यन की बर्थडे पर कोई नहीं जा सका था तो मानसी ने इस बार सबको फोन पर जोर देकर कहा कि इस बर्थडे पर सबको  जरूर आना है|

दिन में  आर्यन ने अपने दोस्तों के साथ बर्थडे सेलिब्रेट की और शाम को पारिवारिक पार्टी होटल में थी, तो सब टाइम से तैयार होकर वहीं पहुँच गए। 

केक काट कर हंसी मजाक के बीच खाना- पीना चल रहा था। मेरी दृष्टि सामने की टेबिल पर बार-बार जा रही थी, जहाँ बहुत सुन्दर परिवार के दस-बारह सदस्य और तीन बच्चे बैठे थे ।खूब मंहगे डायमंड के जेवरों में झिलमिलाती व ब्रांडेड कपडों में सजी औरतों से आती इम्पोर्टेड परफ़्यूम की खुशबुओं के झोंकों  से पूरा माहौल गमक रहा था। 

सहसा मेरा ध्यान उनमें से एक बुजुर्ग महिला पर गया।

" अरे ये तो मिसेज चड्ढा  हैं…!” मेरे मुंह से अनायास ही निकला ।

" आप पहचानती हैं इन लोगों को ? “ मानसी ने पूछा। 

" हाँ, कई साल पहले ये हमारे पड़ोसी थे। इनकी तब बहुत  छोटी सी दुकान हुआ करती थी। परन्तु आज सुना है कि दिल्ली के किसी मॉल में खूब बड़ी दुकान है और बड़े बेटे ने रेडीमेट गारमेन्ट्स की फैक्ट्री डाली है …किस्मत से खूब लक्ष्मी जी की कृपा है अब !” 

 उनके साथ प्रैम में छोटे बच्चे को लेकर आई  बारह तेरह साल की एक लड़की भी थी। वेष-भूषा से वो बच्चे की सेविका लग रही थी। बच्चा प्रैम में सो रहा था और वो लड़की दूसरी छोटी मेज पर बैठी उन सबको खाते टुकुर-टुकुर देख रही थी। उसके सूखे होंठ, मुरझाया चेहरा और कातर बड़ी-बड़ी आँखें देख कर मन बहुत बेचैन हो उठा। मेरा मन कर रहा था उसे अपनी टेबिल पर लाकर पेट भरके खिला- पिला दूँ, परन्तु यह संभव नहीं था।उन सबकी प्लेटें मंहगे, लजीज बुफे के पकवानों से भरी थीं, जिसे वे भर-भर कर लाते  और आधा खाते, आधा छोड़ते और फिर दूसरी और  तीसरी प्लेट भर लाते। 

मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था कि उस लड़की को कम से कम पूरा बुफे न भी खिलाते पर डोसा , बर्गर टाइप  कुछ न कुछ तो खिला सकते थे।सब बच्चे-बड़े खा रहे हैं और बच्ची बेचारी  भूखी बैठी उन्हें देख रही है।

सहसा किसी ने मेरे कन्धे को स्पर्श किया तो मैंने पलट कर देखा। मिसेज चड्ढा बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराती हुई खड़ी थीं। 

" अरे आप ? बहुत सालों बाद देखा, आप तो जरा भी  नहीं बदलीं…कैसी हैं?” मैं हैरान थी , वाकई बीस सालों बाद भी उम्र की एक भी लकीर उनको छू तक नहीं गई थी। बल्कि स्वास्थ्य व सुकून की लालिमा ने चेहरे का सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया था।

" तो आप ही कहाँ बदलीं? पहले से ज़्यादा निखर गई हैं।माफ़ कीजिए, आपको देखा तो रुका नहीं गया, मिलने चली आई।” कहते हुए हंस कर गले लग गईं । 

हमने एक- दूसरे की खैर- खबर और फोन नं० लिए। उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे-बहू की मैरिज एनिवर्सरी है आज, वही सेलिब्रेट करने आई थीं पूरे परिवार के साथ। आगे मिलने का वादा लेकर वे अपनी टेबिल पर परिवार के पास लौटने लगीं, तभी शरद फुसफुसा कर मानसी से बोला-

" मम्मी तो कह रही थीं कि बहुत अमीर हो गए हैं अब ये लोग, पर हैं तो अभी भी गरीब ही। देखो न, एक छोटी बच्ची को खिलाने के लिए बेचारों के पास पैसे कम पड़ गए …!” 

उसके लहजे में तीखा  व्यंग्य था। उसकी फुसफुसाहट काफी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मैं समझ गई उसकी मंशा। मैंने आँखें तरेर कर  उसे चुप रहने का इशारा किया…घबड़ा कर मिसेज चड्ढा की तरफ देखा …जाते- जाते उनके कदम कुछ पल  ठिठके …फिर आँखें  झुकाए वे तेजी से अपनी टेबिल पर वापिस लौट गईं।

                        — उषा किरण

भ्रम (लघुकथा)

 

                   

सर्द कोहरे से भरी सुबह…जीवन के खो गए पृष्ठ को तलाशती सी दीपा बयालीस सालों बाद फिर से उसी शहर के, उसी पार्क के, गुलमोहर के नीचे बनी बेंच की तरफ अनमनी सी बढ़ रही है। ना जाने कौन सी कशिश उसे वहाँ लिए जा रही है। 

अरे…वहां तो पहले ही कोई वृद्ध हाथ में गुलमोहर का गुच्छा थामे विचारमग्न बैठे हैं। वह बराबर वाली बेन्च पर आहिस्ता से बैठ गई…!

दोनों ने एक-दूसरे को गौर से पर अजनबी , खोजती निगाहों से कई बार देखा…दोनों की टटोलती सी दृष्टि में कई सवाल थे पर मौन। मन किया पास जाकर नाम पूछ ले , कहीं वही तो नहीं…फिर सोचा कुछ भ्रम भी भले लगते हैं…बने रहने चाहिए।

एक घंटे बाद  शॉल कसकर लपेटते हुए वह बाहर की तरफ चल दी…!!

                           — उषा किरण 

फोटो; गूगल से साभार 


रविवार, 8 जून 2025

मन के अंधेरे


पिछले दिनों जापान जाना हुआ तो पता चला कि सबसे ज्यादा सुसाइड करने वाले देशों में जापान भी है।डिप्रेशन एक बेहद खतरनाक बीमारी है।

पिछले दिनों इससे हमारा भी सामना हुआ ।हमारे साथ एक फ़ैमिली रहती है, जिन्होंने मेरा उपन्यास 'दर्द का चंदन’ पढ़ा है वो समझ जाएंगे। उनके छोटे बेटे को एक्यूट डिप्रेशन हो गया। सुन्दर, स्मार्ट और ब्रिलियंट बच्चे की हालत देखकर हम शॉक्ड रह गए। 

कई डॉक्टर्स का ट्रीटमेंट करवाया। काउन्सलिंग अलग से करवाई। हजारों रुपये खर्च करके भी ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। बार-बार सुसाइड करने की कोशिश करता, उसे बचाना मुश्किल हो रहा था। मुझे खुद डिप्रेशन होने लगा। हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। उसकी टीचर से मिलकर डिस्कस किया। और सबने मिलकर उसको चारों तरफ से अपने दुलार के घेरे में ले लिया।

पहले तो वो हमसे कारण छुपाता रहा। मैं उसको लेकर एक- एक घंटे बैठी रहती। उसे मुझे सुनना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे वह खुलकर अपनी सारी बातें बताने लगा। मेरी बेटी और बेटा भी समझाते थे। लेकिन बेटा थोड़ी सख्ती से समझाता था , ताज्जुब ये कि उसे उसी की  डाँट से बहुत अच्छा फील होता था, कहता सबसे अच्छा तो भैया और बुआ ही समझाते हैं । 

-मैंने सबसे पहले उसको खूब लाड़ किया और समझाया कि तुम जैसे भी हो हमारे लिए बहुत कीमती हो।दुनिया में कोई भी तुमको तुम्हारे मम्मी पापा भैया और हम लोगों से ज्यादा प्यार नहीं कर सकता।और ये एक बीमारी है इलाज से ठीक हो जाएगी , इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। उसको खुलकर सब बताया। 

-मैंने उसको धर्म व आध्यात्म के सहारे थामने की कोशिश की जिसमें भगवद्गीता और पौराणिक कहानियों का सहारा लिया। रेकी दी।उसके मम्मी पापा को भी समझाया कि झाड़-फूंक के चक्कर में मत पड़ना । वो हनुमान जी का भक्त है तो कहा उनका ध्यान करो, मन करे तो हनुमान चालीसा पढ़ लिया करो। 

-जिंदगी कितनी कीमती है , बताया।और कहा वक्त तो तेजी से भाग रहा है , ये वक्त भी निकल जाएगा। कुछ समय बाद तुमको खुद लगेगा कि तुम कितने बुद्धू थे। बस तुम हौसला रखो।कई बार मजाक करती, गुदगुदी करके हँसाती। 

-मैंने उसे कहा चाहें मैं कितनी भी बिजी हूँ, चाहें कहीं भी रहूँ बस एक कॉल पर हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी, मुझे बुला लेना, जब भी मन परेशान हो। चाहें आधी रात ही क्यों न हो। और वह मुझे बेझिझक कह देता अम्मा बात करनी है आपसे। मैं अपने सब काम छोड़कर उसे सुनने बैठ जाती। कभी मन परेशान होता तो कहता अम्मा घूमने चलें ? मैं गाड़ी निकलवा कर घुमा लाती, कुछ शॉपिंग करवा देती, खिला- पिला लाती तो उसका मूड चेंज हो जाता। कई बार आधी रात को नींद में उसकी मिस्ड कॉल सुनकर  तीसरी मंजिल तक भाग कर गई और संभाला। मैं जितना वक़्त बात करती सामने बैठाकर उसकी दोनों हथेलियों को थामे रहती। मैं साइकियोलॉजिस्ट तो हूँ नहीं पर अपनी सम्वेदना और समझ से जितना सँभाल सकती थी संभालने की कोशिश करती थी।

-अक्सर स्टारमेकर्स पर उसके साथ गाने गाती, साथ वॉक करती। स्कैच बनाने को प्रेरित करती। लूडो, ताश, बैडमिंटन खेलती। जब वो पढ़ता था तो मैं भी साथ में ही चुपचाप अपनी कोई किताब लेकर बैठ जाती। कभी-कभी उसे कुछ सब्जेक्ट पढ़ा भी देती।

-उसकी क्लास टीचर ने भी उसका बहुत साथ दिया। जब भी वो स्कूल में डिप्रेशन में जाता तो उसको लेकर एकांत में जाकर बात करतीं। क्योंकि जब भी उसको स्कूल में पैनिक अटैक आता तो वो टॉयलेट में जाकर हिचकियों से रोता , काँपता और पसीने से भीग जाता था। बल्कि सबसे पहले उन्होंने ही मुझे इसके बारे में बताया था।

-इस सबको अब ढाई साल बीत गए हैं । दवाइयों की डोज कम हो गई है। आजकल उसे गिटार सिखवा रहे हैं । दवाओं से ओवरवेट हो गया है तो जिम भी भेजते है। और अब लगभग ठीक है। टैन्थ में 80% मार्क्स लाया है । हम सबने बहुत शाबाशी दी तो अब खोया आत्मविश्वास लौट आया है। करियर को लेकर बड़े- बड़े सपने देखने लगा है।

-उसका ट्रीटमेंट दिल्ली के मशहूर , काबिल साइकियाट्रिस्ट से चल रहा है । वे प्राय: उससे फोन पर ही बात करते हैं । वे उससे बात करने के बाद हमसे बात करते थे। और कई बार बहुत खुश होकर थैंक्यू बोलते थे कि आप उसको बहुत अच्छी तरह संभाल रही हैं।

-टीन एज बहुत ही नाजुक उम्र होती है। इस उम्र में हार्मोन्स ऊधम मचाते हैं । जिंदगी यथार्थ, कल्पना व भावनाओं के झंझावात में घिरी महसूस होती है। जरा सी भी दिल पर लगी चोट से मानसिक सन्तुलन बिगड़ सकता है। इस समय एक्स्ट्रा अटेंशन, केयर व साथ की जरूरत होती है बच्चों को।

तो यह कहानी शेयर करने के पीछे यही मकसद था कि आजकल के बच्चों के हाथों में मोबाइल है और सब कुछ एवेलेबिल है आज उनको। आप कितने फिल्टर लगाएंगे ? बच्चों को अब डाँटना फटकारना छोड़कर दोस्त बनने का वक्त है। आपसे बेहतर आपके बच्चे को कोई नहीं समझ सकता तो जो काउन्सलिंग आप कर सकते हैं कोई थेरेपिस्ट, काउन्सलर नहीं कर सकता। उसको ज्यादा प्यार और अटेंशन दीजिए। अपने आस-पड़ोस में, क्लास में, रिश्तेदारों में यदि कोई बच्चा दिखे ऐसा तो उसकी मदद करिए, सुनिए उसको। सबसे ज़रूरी है सुनना।इस तरह आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं , क्योंकि डिप्रेशन बहुत जानलेवा बीमारी है।इंसान को लगता है जैसे उसे एक अंधेरी गुफा में बन्द कर दिया है और निकलने का कोई रास्ता सूझता नहीं। तो जागरूक रहिए, सतर्क रहिए बच्चों के लिए और खुद के लिए भी। ऐसा हो तो कोई दोस्त, कोई हमदर्द जरूर होता है हमारे पास जिसके कन्धों पर हम अपना सिर टिका सकें…!!

अपनी एक कविता पहले भी शेयर कर चुकी हूँ आज फिर शेयर कर रही हूँ-

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-इससे पहले-


इससे पहले कि फिर से

तुम्हारा कोई अज़ीज़

तरसता हुआ दो बूँद नमी को

प्यासा दम तोड़ दे

संवेदनाओं की गर्मी को

काँपते हाथों से टटोलता

ठिठुर जाए और

हार जाए  जिंदगी की लड़ाई

कि हौसलों की तलवार

खा चुकी थी जंग...


इससे पहले कि कोई

अपने हाथों चुन ले

फिर से विराम

रोक दे अपनी अधूरी यात्रा

तेज आँधियों में

पता खो गया जिनका

कि काँपते थके कदमों को रोक

हार कर ...कूच कर जाएँ

तुम्हारी महफिलों से

समेट कर

अपने हिस्सों की रौनक़ें...


बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ

बोझ बन गईं जो

कान दो थके कदमों की

उन ख़ामोश आहटों  पर

तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं

और लौट गईं चुपचाप

सुन लो वे सिसकियाँ

जो घुट कर रह गईं गले में ही

सहला दो वे धड़कनें

जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में

काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो

सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...


मत रखो समेट कर बाँट लो

अपने बाहों की नर्मी

और आँचल की हमदर्द हवाओं को

रुई निकालो कानों से

सुन लो वे पुकारें

जो अनसुनी रह गईं

कॉल बैक कर लो

जो मिस हो गईं तुमसे...


वो जो चुप हैं

वो जो गुम हैं

पहचानों उनको

इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़

एक दर्दनाक खबर बन जाए

इससे पहले कि फिर कोई

सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए

इससे पहले कि तुम रोकर कहो -

"मैं था न...”

दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से

गले लगा कर कह दो-

" मैं हूँ न दोस्त….मैं हूँ !!”

                          — डॉ० उषा किरण

( संकोच के साथ लिखी ये पोस्ट। अम्मा कहती थीं कि कुछ अच्छा काम करो तो बताना चाहिए जिससे औरों को भी प्रेरणा मिलती है🙏)

चित्र; गूगल से साभार

सोमवार, 2 जून 2025

जापान मेरे चश्मे से

  



एकदम साफ- सुथरा अनुशासित शहर। न सड़कों पर कूड़ा न सड़कों पर चीख- पुकार मचाते लोग।कई अन्य देशों की यात्राओं में देखा लोग यहाँ तक कि बच्चे भी फल के छिलके या ख़ाली रैपर हाथ में पकड़कर रखते हैं और हर दो कदम पर लगे डस्टबिन में ही कूड़ा डालते हैं । लेकिन यहाँ तो सड़कों पर कहीं दूर- दूर तक डस्टबिन नजर ही नहीं आता तब भी सड़कें एकदम साफ- सुथरी नजर आती हैं, ये तो वाकई कमाल है, पता चलता है लोग कितने अनुशासित हैं, अपने शहर को प्यार करते हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी भी समझते हैं उसके प्रति।हम दो शहरों क्योटो और टोक्यो में रहे। 

जापान को "सूर्योदय का देश" कहा जाता है क्योंकि यह पूर्वी एशिया में स्थित है और पृथ्वी के चारों ओर घूमते समय सूर्य की पहली किरणें जापान में ही पड़ती हैं. इसे "निप्पॉन" (या निहोन) भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "सूर्य की उत्पत्ति". जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है।ये द्वीप एशिया के पूर्वी समुद्रतट, यानी उत्तर पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित हैं।

क्योतो जापान के यमाशिरों प्रांत में स्थित नगर है।क्वामू शासन काल में इसे 'हे यान जो' अर्थात् 'शांति का नगर' की संज्ञा दी गई थी। ११वीं शताब्दी तक क्योतो जापान की राजधानी था और आज भी पश्चिमी प्रदेश की राजधानी है। क्योटो छोटा धार्मिक शहर है जबकि टोक्यो पूरी सजधज सहित महानगर। दोनों शहरों की संस्कृति में साफ़ फर्क नजर आया।वैसा ही जैसे हमारी मुम्बई और मथुरा में नजर आता है। क्योटो में ज्यादातर टैक्सी ड्राइवर काफी बुजुर्ग मिले लेकिन टोक्यो में बनिस्बत यंग। लड़की हमें कहीं भी टैक्सी ड्राइवर नहीं मिलीं जैसी कि सिंगापुर, लंदन या यू एस में आम है। यहाँ पर बुजुर्ग काफी उम्र तक काम करते हैं और प्राय: अकेले ही शॉपिंग करते व घूमते मिल जाएंगे। 

जो प्योर वेजीटेरियन हैं उनको अपने साथ कुछ व्यवस्था करके ही जाना चाहिए । जगह- जगह आपको छोटे- बड़े रेस्टोरेंट खूब मिलेंगे लेकिन हर जगह चिकिन, मटन, बीफ़, फिश, प्रॉन, पोर्क के बेक होने की चिरांध हवा में तैरती मिलेगी।जापान में एक चीज़ का बहुत क्रेज दिखा वह है हरे रंग का माचा। माचा आइसक्रीम, माचा ड्रिंक, माचा चाय, माचा कैंडी क्या नहीं मिलेगा जबकि उसका टेस्ट कुछ कड़वा कसैला सा होता है परन्तु एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होने के कारण बहुत लोकप्रिय है। वैसे तो वीगन फूड के नाम पर आपको राइस विद वेज करी , वेज सुशी, जापानी काँजी, पास्ता, नूडल्स व पित्जा वगैरह मिल ही जाएगा। भूखे तो नहीं ही रहेंगे। मैकडोनल भी सभी जगह हैं पर फ्रैंच फ्रायज के अलावा तो क्या ही मिलेगा। कुछ इंडियन रेस्टोरेंट भी हैं जहाँ बहुत टेस्टी खाना मिला। बेकरी आइटम्स की बहुत वैरायटी होती है और बहुत टेस्टी भी। वैसे भी हम इंडियन विदेशों में थेपले तो ले ही जाते हैं अपने साथ😊

वहाँ के लोगों में एक मासूमियत दिखाई देती है। लोगों का व्यवहार बहुत ही सहयोगात्मक दिखा। किसी से कोई शॉप या रास्ता पूछो तो वह अपने हाथ का काम छोड़कर आपके साथ दूर तक साथ चल देगा।कमर से झुक कर इतनी बार अभिवादन करेंगे कि लगता है इनकी कमर दुख जाती होगी।होटल व रेस्टोरेंट में सभी का व्यवहार बहुत विनम्र व सहयोगी रहा। लेकिन अनुशासन व नियमों के मामले में कुछ ज्यादा ही कड़क ।बस वहाँ ज़्यादातर वोग जापानी लैंग्वेज में ही बात करते हैं , इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ।हमें कई जगह एप का सहारा लेना पड़ा ।प्राय: हर होटल में हरेक के लिए नाइट सूट या कीमोनो रूम में होता था।हमने ठाठ से नाइट गाउन की जगह कीमोनो पहनकर अपना ये शौक पूरा किया। 

वे नियम कायदों को बहुत सख्ती से फॉलो करते हैं, शायद इसी कारण वहां पर क्राइम बहुत कम है। म्यूजियम व आर्ट गैलरी में आप अपने बैग से निकालकर भी पानी नहीं पी सकते, आप रूम से बाहर जाकर ही पी सकते हैं । वर्ना मुस्तैद खड़ा स्टाफ आकर आपको कान में धीरे से मना कर देगा। मार्केट में आप शॉप पर ही आइसक्रीम खाइए चलते- चलते रास्ते में नहीं खा सकते। सड़क पर चलते समय जोर से कोई नहीं बोलता। कोई भी गाड़ी का हॉर्न नहीं बजाता। वे शहर में गाड़ी बहुत इत्मिनान से चलाते हैं , पैदल क्रॉस करने वालों के लिए इंतजार करेंगे, ओवरटेक भी नहीं करते। एक बार हमारे टैक्सी ड्राइवर ने हल्का सा ही हॉर्न बजा दिया तो सब उसको ऐसे घूरकर देखने लगे जैसे जघन्य अपराध कर दिया हो।

जापान की समृद्धि के पीछे जापानियों की अथक मेहनत साफ झलकती है। सुना है कि वहां के युवा अब शादी के बंधन से कतराने लगे हैं। काम व प्रमोशन की होड़ में कौन झंझट में फंसे ? ये भी सुना कि लोग घरों में चूहे पालते हैं और उनको बच्चों की तरह पालते हैं। कई लड़कियों को बेबी कैरियर में खूबसूरत छोटे-छोटे डॉग्स को सीने से लगाकर  दुलारते देखा।क्योटो मे स्टिक लगे फ्रोजन खीरे भी खूब बिकते दिखे।

यह जानकर बेहद दुख हुआ कि जापान में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं, निश्चित ही उनमें युवाओं की संख्या अधिक होगी। क्योटो पर तो धर्म का प्रभाव बहुत अधिक है…तब भी ? वह धर्म कैसा जो साहस , आशा व शक्ति का संचार न करे। वह समृद्धि किस काम की जिससे लोग तनाव, अकेलापन व असुरक्षित महसूस करें ? जीवन में बैलेंस होना बहुत जरूरी है आप सिर्फ भौतिकवादी होकर कैसे सुखी रह सकते हैं । इतना प्यारा देश, इतने प्यारे लोग…दुआ है काश इस काली छाया से बाहर निकल सकें…आमीन!!!

किसी देश की नब्ज पर हाथ रखना है तो इतिहास से ज्यादा जरूरी है वहाँ का साहित्य पढ़ा जाए। मन हुआ कुछ जापानी कविता  पढ़ने का तो गूगल बाबा ने बताया 'Matsuo Basho’की लबसे प्रसिद्ध हाइकु है-'द ओल्ड पॉन्ड’-

Furuike ya 

kawazu tobikomu 

mizu no oto


The old pond- 

a frog jumps in,

sound of water.

(पुराना तालाब...

पानी की आवाज़ में 

एक मेंढक कूदता है।)

क्या सिर्फ इतना भर अर्थ है इसका ? 

या यह कि, पुरानी मान्यताओं के तालाब में कुछ नवीन खुशी की तलाश में भटके हुए लोग पुन: छलांग लगा रहे हैं, यही या कुछ और…कभी भी किसी कृति का एक अर्थ नहीं होता …सोच रही हूँ, खंगाल रही हूँ क्या कारण हो सकता है इस हाइकू को इतना पसंद किए जाने के पीछे…आप भी सोचिए हम भी सोचते हैं…अभी काफी कुछ बाकी है…फिलहाल सायोनारा👋!!







बुधवार, 14 मई 2025

 


आप घर का कोना- कोना सँवारते हैं 

रोज झाड़- पोंछ करते हैं 

कपड़े-गहने सहेजते हैं 

कार- स्कूटर की हवा चैक करते हैं ….

लेकिन क्या पारिवारिक संबंधों, पड़ोसी और दोस्ती के रिश्तों को भी…सहेजते हैं, संभालते हैं , चिंतन करते हैं, उनमें ऑक्सीजन भरते हैं …नहीं या हाँ ???🤔


बुधवार, 30 अप्रैल 2025

केसरी फाइल-2

                     

                

         केसरी फाइल-2                       

रक्तरंजित इतिहास का वह काला पन्ना जिस पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के कितने ही शहीदों का बलिदान दर्ज है की पृष्ठभूमि पर बनी 'केसरी फाइल-2’ मूवी शहीदों को दी गई एक सच्ची श्रद्धांजलि है।  जरूरी है कि अंग्रेजों के जुल्म और देशभक्ति के ऐसे इतिहास के दस्तावेजों को हम आने वाली पीढ़ी के सामने पुरज़ोर तरीके से रखते रहें ताकि ये विस्मृति के गर्त में दफ़्न न हो जाए, इन पर चढ़े श्रद्धा सुमन कभी भी मुरझा न पाएं। हमारे अन्दर वह जोश व होश हमेशा कायम रहे कि फिर कोई आक्रांता हम पर यूँ अंधाधुंध गोलियाँ बरसाकर न चला जाए।


करण सिंह त्यागी द्वारा निर्देशित और करण जौहर और अदार पूनावाला द्वारा निर्मित, जलियांवाला बाग हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में सी शंकरन नायर द्वारा लड़े गए ऐतिहासिक केस को दिखाया गया  है।


सी. शंकरन नायर के पोते रघु पलात और पुष्पा पलात की लिखी किताब 'द केस दैट शुक द एम्पायर' से प्रेरित इस फिल्‍म की कहानी करण सिंह त्यागी और अमृतपाल बिंद्रा ने लिखी है। करण सिंह त्यागी क्योंकि स्वयं पेशे से वकील रहे हैं तो कानून की भाषा, दाँव पेच, द्वन्द फंद  से खूब परिचित होने के कारण उन्होंने इस फ़िल्म की कहानी  बहुत खूबसूरती व रोचकपूर्ण तरीके से बुनी है। पूरी फिल्म में कथानक में कसावट है।दो घंटे पन्द्रह मिनिट तक फिल्म की कहानी करुणा, क्रोध और रोमांच , देशभक्ति के जज़्बे को बनाए रखने में कामयाब होती है। एक मिनिट को भी बोर नहीं होने देती और शनैः- शनै: अन्याय के ख‍िलाफ दर्शकों का क्रोध बढ़ता जाता है।


सी. शंकरन नायर के किरदार को अक्षय कुमार ने निस्संदेह बखूबी निभाया है। लगातार देशभक्ति के सशक्त रोल निभाने के कारण पूर्व इमेज से  अक्षय कुमार बाहर निकले हैं । दूसरी ओर, आर माधवन ने भी ब्रिटिश वकील नेविल मैककिनले की भूमिका में बहुत दमदार अभिनय किया है।। शंकरन की साथी वकील दिलरीत गिल की भूमिका में अनन्या पांडे भी प्रभावशाली लगी हैं।अनन्या पान्डे की अभिनय प्रतिभा पहली बार इस फिल्म में उभर कर आई है। वे हमेशा की तरह मात्र सजावटी गुड़िया नहीं लगीं अपितु चेहरे व बडी़- बडी़ आँखों से उनके आन्तरिक भावों के उतार-चढ़ाव खूबसूरती से दर्ज हुए हैं ।फिल्म की शुरुआत में जलियांवाला बाग में पर्चे बांटता नजर आने वाला बच्चा परगत सिंह का रोल करने वाले कृष राव का किरदार एवम्  एक्टिंग दिल को छू गई। आप उसको कभी भी भूल नहीं पाएंगे।वह अपने छोटे से किरदार से पूरी फिल्म पर छा गया है।


कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस  चुस्त-दुरुस्त , खूबसूरत फिल्म के निर्देशक करण सिंह त्यागी काबिले तारीफ हैं कि उन्होंने सभी किरदारों को सही जगह पर फिट ही नहीं किया है  अपितु कब किस किरदार को कहां और कैसे उपयोग में लाना है इसका भी खूब ध्यान रखा है।

कम्‍पोजर शाश्वत सचदेव ने 'ओ शेरा- तीर ते ताज' गाने से फिल्म में रोमांच व देशभक्ति के जज़्बे को बढ़ाने का काम किया है। फिल्म का एक और खूबसूरत गाना 'खुमारी' - (बेक़रारी ही बेक़रारी है…) जिसे  परंपरागत और आधुनिकता को जोड़ने वाले संगीत को बनाने के लिए लोकप्रिय मशहूर गायिका कविता सेठ और उनके बेटे कनिष्क सेठ ने बनाया है।'खुमारी' ट्रैक में आधुनिकता और क्लासिक दोनों के फ्यूजन का अद्भुत जादू रचा है। इस गाने में मसाबा गुप्ता की पहली बार ऑन स्क्रीन म्यूजिकल परफॉर्मेंस चौंका देती है।


तो जाइए  बच्चों के साथ सिनेमा हॉल में जाकर देखने लायक मूवी है , क्योंकि इसकी सिनेमैटोग्राफी बेहद शानदार है और हर दृश्य दिल को छूता है 


अक्षय कुमार ने सही कहा है शुरू के दस मिनिट की मूवी मिस मत करिएगा, टाइम से  जाइएगा और मेरा सुझाव है कि आखिर तक रुकिएगा आखिर तक यानि कि आखिरी शब्द स्क्रीन पर आने तक…।वैसे भी इसका अन्त बहुत दमदार है, जो आपको जोश से भर देगा। 


 यह फिल्म अंदर तक झकझोर देती है और हमें दर्द में डूबी देशभक्ति की भावना से रंग जाती है। कुछ दर्द बहुत पावन होते है। हमें अपने देश, उसके इतिहास, आज की आजादी और शहीदों पर गर्व करने की वजह देती है यह फिल्म। 


करन सिंह त्यागी की स्वतंत्र रूप से बनाई यह पहली फ़िल्म है। उनमें  अपार संभावनाएं नजर आती हैं। यू एस में लगी अच्छी खासी जॉब छोड़कर उनका फिल्म निर्माण का रिस्क लेना जाया नहीं गया। उनसे उम्मीद है कि वे आगे भी इसी तरह की सार्थक फिल्में बना कर स्वस्थ व सार्थक मनोरंजन समाज को देते रहेंगे। उनको बधाई देते हुए मैं उनके उज्वल भविष्य की कामना करती हूँ ।

               — डॉ. उषा किरण 

मंगलवार, 18 मार्च 2025

दुआ की ताकत



एक धन्ना सेठ था। बड़ी मन्नतों से उसका एक बेटा हुआ। भारी जश्न हुआ। हवन के बाद विद्वान पंडितों ने जन्मपत्री बनाई तो स्तब्ध । सेठ जी ने जब पूछा  तो पंडितों ने काफी संकोच से बताया कि इसकी कुल आयु सत्रह वर्ष ही है। सेठ- सिठानी के मन में चिन्ता की लहर व्याप गई।पूछा कोई उपाय कोई पूजापाठ, अनुष्ठान है ? तो उन्होंने कहा नहीं कोई इस अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता, यह उसका प्रारब्ध है, अवश्यम्भावी है। 

खैर बहुत लाड़- चाव से बेटे का लालन- पालन हुआ और सेठ ने सोचा इसकी शादी जल्दी कर देनी चाहिए अत: सत्रहवें वर्ष में एक सुयोग्य कन्या से उसकी शादी कर दी। तब तक जो घड़ी मृत्यु की बताई थी वह घड़ी आ पहुँची थी। पंडितों को बैठाकर पूजा- पाठ निरन्तर चल रहा था। सारे घर के सदस्य भी हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे। नववधु का किसी को ध्यान ही नहीं था।


विदा होकर आई नव-वधू इस सब चिन्ताओं से अनभिज्ञ ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में अकेली बैठी खिड़की से बाहर झांक रही थी। सहसा उसकी दृष्टि बाहर खेत में गई तो देखा खेत में घास काट रही एक गरीब स्त्री प्रसव पीड़ा से जमीन पर पड़ी छटपटा रही है, उसका मन विचलित हो गया पर आसपास कोई नहीं, नया घर, किसी को जानती नहीं तो संकोचवश विवश होकर चुपचाप देखती रही। 


किसी तरह प्रसव के बाद उस स्त्री ने बच्चे को गोद में लिया तो वधू ने अपनी ओढ़नी खिड़की से नीचे गिरा दी, जिसमें स्त्री ने बच्चे को लपेट लिया। श्रांत- क्लांत स्त्री को जोर की भूख- प्यास लग रही थी तो उसने इशारे से कुछ खाने पीने के लिए माँगा। नव-वधू ने माँ ने साथ में जो टिफिन में कुछ मिठाइयाँ रखी थीं वह और पानी किसी तरह अपनी साड़ी में बाँध कर नीचे पहुँचा दीं। खा-पीकर स्त्री के तन में ताकत आई तो उसने तृप्त होकर दोनों हाथ उठाकर डबडबाई आँखों से आशीर्वाद दिया  और धीरे-धीरे बच्चे को लेकर गाँव की तरफ चली गई। 


उधर सेठ के बेटे की मौत की घड़ी आ गई, पंडितों की पूजापाठ चालू थी, सहसा पूजा में जहाँ बेटा बैठा था वहीं पर खम्बा टूटकर उसे छूता हुआ गिरा। सब व्याकुल हो हाय- हाय करते खड़े हो गए, परन्तु उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ। मृत्यु छूकर निकल गई। पंडितों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, बेशक वे पूजापाठ कर रहे थे पर जानते थे कि मृत्यु निश्चित है।फिर ये कैसे संभव हुआ?बहुत सोच- विचार कर सबसे वृद्ध पंडित जी ने पूछा, बहू कहाँ है ? उसे बुलाओ। वधू से जब पूछा गया कि वह क्या कर रही थी उस समय, तो उसने सारी बात बताई। पंडित जी ने कहा इसके पुण्य प्रताप ने इसके सुहाग की रक्षा की है। जो काम पूजा अनुष्ठान से नहीं हो सकता था वह सत्कर्म से मिली गरीब, दुखी की आत्मा से निकली दुआ ने कर दिखाया 


हरेक की मृत्यु का पल तय है, परन्तु कई बार अच्छे कर्म, दान- पुण्य, प्रार्थनाएं, आशीर्वाद के फलस्वरूप वह संकट की घड़ी टल सकती है। निःस्वार्थभाव से सेवा करते रहिए , पता नहीं कब किसकी दुआ आपके कौन से अंधेरे कोने को प्रकाशित कर दे…हरि ॐ 🙏

फोटो; गूगल से साभार 


शनिवार, 8 मार्च 2025

यूँ भी….



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं


किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...


दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?


कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो


स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

#अन्तर्राष्ट्रीयमहिलादिवस

पेंटिंग- लक्ष्मण रेखा( उषा किरण , मिक्स मीडियम, 30”x30”

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

सरेराह चलते-चलते

 



राहों से गुजरते कुछ दृश्य आँखों व मन को बाँध लेते हैं । जैसे सजी- धजी , रंग- बिरंगी सब्ज़ियों या फलों की दुकान या ठेला, झुंड में जातीं गाय या बकरियाँ, सरसों के खेत हों या फिर सिर पर घास का गट्ठर ले जाती , एक हाथ में हँसिया पकड़े रंग- बिरंगे परिधान पहने ग्रामीण महिलाएं। कोयल की कूक, सरेराह झगड़ते लोग…। 

कभी - कभी कुछ झगड़े देख कर मन करता है गाड़ी रोक उतर जाऊँ और उनको झगड़ने से रोक दूँ या क्यों न मजा ही लूँ कि झगड़े की क्या वजह थी और आखिर हल क्या निकला ? देर तक फिर मेरे कल्पना के घोड़े दौड़ते रहते हैं ।कई बार तो घर आकर भी वही सब दिमाग में घूमता रहता है।

कुछ दिन पहले गुड़गाँव से लौटते समय टोल पर अपनी बारी का इंतजार करती खड़ी एक नई- नवेली चमचमाती गाड़ी को दूसरी गाड़ी ने लापरवाही से पीछे से ठोंक दिया। गाड़ी अच्छी खासी डैमेज हो गई। गाड़ी इतनी नई थी कि उसकी सजावट भी नहीं उतरी थी। मेरा ही जी धक् से रह गया। लगा अब जम कर झगड़ा, गाली-गलौज व मारपीट तो होनी निश्चित ही है। मैं चूँकि दूसरी लाइन में थी तो दम साधे देख रही थी। 

गाड़ी से दो सज्जन पुरुष ( जो वाकई सज्जन ही थे) उतरे और पीछे वाली से हड़बड़ाता एक ड्राइवर नुमा कोई व्यक्ति उतरा। वे आराम से बात करने लगे। गाड़ी कितनी डैमेज हुई ये भी देखते जा रहे थे। उनके मुंह उतरे हुए थे पर बहुत शान्त भाव से बातें करते रहे। उनकी मुखमुद्रा या भाव भंगिमा में जरा भी ग़ुस्सा नज़र नहीं आ रहा था इसी बीच हमारी गाड़ी चल पड़ी और मेरा मन हुआ यहीं उतर जाऊं बल्कि पास जाकर बात सुनूँ बल्कि पूछ ही लूँ कि भाईसाहब आप कौन सी साधना , योग करते हैं? कैसे उतरा ये बुद्धत्व , ये समभाव ? अमूमन तो ऐसे हादसों का अगला दृश्य सात पुश्तों को कोसते व माँ बहन के लिए बकौती करती गाली- गलौज व मार पीट का ही होता है । ये ऐसे हादसे के बाद इतनी शान्ति से कौन बात करता है भाई…कुछ तो लड़ लो …थोड़ा सा तो शोर मचाओ भई। बच्चे का खिलौना तक टूटने पर लड़ने वाले तो एक दूसरे का खून तक कर देते हैं और एक तुम हो कि…..पर कहाँ…हमारी गाड़ी चल पड़ी, जीवन तो चलने का नाम है तो चल कर आ गए घर।कौन किसी के लिए रुकता है जो हम ही रुक जाते। 

इस बात को एक महिना हो चुका है और मेरे मन ने प्रश्नों की बौछार से परेशान कर रखा है-

- वे लड़े क्यों नहीं?

- क्या वे आधुनिक लिबास में साधु थे ?

- क्या वे पूर्व परिचित थे ?

- क्या मालिक कोअपनी गाड़ी खुद पसन्द नहीं थी कि ठुक गई तो ठुकने दो …!

- तगड़ा इन्श्योरेंस होगा ?

-क्या वो दब्बू व डरपोक आदमी थे जो लड़ने में डर रहे थे ? 

- क्या वे सज्जन किसी दुश्मन की गाड़ी उधार पर लाए थे ?……वगैरह…वगैरह…!


    अच्छा, चलें कुछ काम देखें…बकौल मेरे पति के  …खाली दिमाग शैतान का घर”😊

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

आस्था की डुबकी

 


आस्था की डुबकी 🙏

बेशक हम सब धर्मों का दिल से सम्मान करते हैं, लेकिन  हैं पक्के सनातनी; तो कुम्भ ना नहाएं ये हो नहीं सकता था। हालाँकि हमें इस पर जरा भी विश्वास नहीं कि सब कुम्भ नहनियाँ लोगों की स्वर्ग में सीट पक्की हो गई और कुछ उत्साही तो मोक्ष तक का दावा कर रहे हैं । तो भोले सन्तों, भगवान इतने मूर्ख नहीं कि तुम्हारे कर्मों की गठरी को भी तुम्हारी डुबकी के संग संगम में डुबो दें। वो तो पाप- पुण्य भोगने ही पड़ेंगे, भगवान तक प्रारब्ध के नियमों से नहीं बच सके, राम भगवान के पिता नहीं बच सके तो भई तुम तो हो किस खेत की मूली ? रही मुक्ति की बात तो कई जन्मों की साधना से भी जिस मुक्ति के लिए कठिनतम साधना के बाद भी जो साधु सन्तों को भी मिलनी मुश्किल है , उसका दावा शॉर्टकट की दो डुबकी से तो न हि ठोंको तो बढ़िया है। 


सोच रहे होंगे कि उषा किरण तो तुम क्या वहाँ पर लहरें गिनने गई थीं? हाँ वही …. आस्था के पावन सैलाब की लहरों संग बहने गए थे,  समष्टि के सैलाब में व्यष्टि को कुछ पल के लिए डुबोने गए थे, असंख्य भक्तों के बीच एक भक्त की हैसियत से शामिल होने गए थे। 


सुना है सामूहिक भक्ति में बहुत शक्ति होती है तो उस समूह में शामिल होने गए थे। तुमको कहना है भेड़चाल तो कहते रहो, हमें क्या फर्क पड़ता है…हमने देखा वहाँ जाकर अपार सकारात्मक ऊर्जा का सैलाब, जाग्रत चेतना का प्रकाश, भक्ति, तप, समानता का माहौल , जहाँ न कोई अमीर था न गरीब, न जात न पाँत , उत्साह, सनातन की ताकत, तप की प्रबलता। दूर शहरों, गांव देहात से पधारे अनगिनत लोग। न थकन , न कमजोरी, न भूख न प्यास बस एक ही धुन चरैवेति…चरैवेति…हर हर गंगे…हर हर महादेव का जयघोष …🙏


स्टेशन से काफी दूर तक हम भी जन सैलाब का हिस्सा बनकर कुछ देर तक पैदल चले तो  मन में जो थोड़ा सा भय था वह भी भय दूर हो गया। बल्कि मन इतना प्रफुल्लित, इतना भावविभोर था कि बार-बार आँखें भर आ रही थीं। आमजन के साथ कदम मिलाकर चलते हुए भारत बहुत दिल के करीब नजर आया।चेहरों पर एक सा निर्लिप्त सा भाव लिए लक्ष्य की तरफ आराम- आराम से सिर पर पोटलियाँ रखे, कंधों पर छोटे बच्चे बैठाए , मेहमतकश लचीले शरीर से एक लय में चलते भक्त लोग। चलते-चलते थक गए तो सड़कों के  किनारे लगे टैंट में ही पोलीथीन या चादर बिछा कर घर से लाई रोटी खा ली और पोटली का तकिया लगा कर झपक लिए या स्टेशन पर ही किसी कोने में या घाट पर ही किसी कोने में कुछ देर को पीठ सीधी कर ली और फिर चल दिए। जहाँ मौका मिला वहीं से डुबकी लगा ली और खरामा- खरामा वापिस । न होटल बुकिंग की चिन्ता न लन्च- डिनर का टेंशन, न हि किसी वी आई पी घाट के जुगाड़ की चिन्ता। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने पुल पर जा रहे सैकड़ों लोगों की तरफ इशारा कर बताया कि यह नैनी पुल है, इस पर भी वाहन न मिलने पर  कई किलोमीटर पैदल ही चलके कुम्भ में पहुंच रहे हैं लोग।

खैर हम भी अपनी आधी-अधूरी व्यवस्था की डोर थाम बढिया स्नान कर आए तो अब सोच रहे हैं कि जिस प्रकार की बाकी सुंदर व्यवस्था सहसा हुई, वो कैसे संभव हो सका ? फिर उसने एक बार अहसास कराया कि ' तू चल तो, मैं हूँ तेरे पीछे…..’ तब अनायास हाथ असीम श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।और हाँ, एक जरूरी बात बता दें , पानी एकदम साफ था, कहीं गंदगी नहीं मिली हमें।


पहले भी  हरिद्वार कुम्भ में 'कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन’ के साथ मिलकर वर्कशॉप में पेंटिंग बनाकर हम लोगों ने घाट पर ही चित्र प्रदर्शनी लगाई थी, उसका अपना आनन्द था और परिवार के साथ का अपना अलग आनन्द रहा…!!! 

—उषा किरण 

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

दादी



मैंने अपने बाबा दादी को नहीं देखा । बाबा को तो ताता जी( पापा) ने भी नहीं देखा जब वे कुछ महिने के थे तभी उनका स्वर्गवास हो गया था। ताताजी की परवरिश दादी ने ही की। सारी उम्र उनकी अलमारी में सामने ही दादी की फोटो रहती थी। उनका जिक्र होते ही ताता की आँखें नम हो जाती थीं ।

सुना है कि वे बहुत दबंग व बुद्धिमान थीं। घर में और गाँव में भी सब उनसे डरते थे या कहें लिहाज करते थे। गाँव में यदि कोई मसला होता था तो लोग उनको बुला ले जाते थे और वे जो फैसला करती थीं वो सर्वमान्य होता था। हमारे ताता जी भाइयों में सबसे छोटे थे। गाँव में अम्माँ पहली बहू थीं जो पढ़ी लिखी थीं और अफसर की बेटी थीं । हारमोनियम पर गाने गाती थीं और बहुत सुन्दर थीं। सुना है तब बहुत लम्बे बाल और सुर्ख गाल थे उनके और हमारी दादी की सबसे प्यारी बहुरिया थीं वे।

दादी जब बीमार हुईं तो उन्होंने बता दिया था कि वे पूर्णमासी को चली जाएंगी क्योंकि सपने में बाबा बता गए थे बेटों की सेवा का थोड़ा सुख और ले लो फिर पूर्णमासी को हम साथ ले जाएंगे।

पूर्णमासी वाले दिन सुबह से दादी की तबियत में बहुत सुधार था। सब चैन की साँस ले रहे थे। लेकिन दादी ने शोर मचा दिया कि जल्दी खाना बनाओ और सब लोग जल्दी खा लो। खाना बनते ही सबसे पहले जो युवा सेवक घर के काम के लिए नियुक्त था कहा पहले इसे खिलाओ। बोलीं मैं चली गई तो तुम सब तो रोने-धोने में लगे रहोगे ये बेचारा भूखा रह जाएगा। वो मना करता रहा पर अपने  सामने बैठा कर उसे खूब प्रेम से खिलाया -पिलाया फिर सबको कहा तुम सब भी जल्दी खाओ।

सबके खाना खाने के कुछ देर बाद ही साँस उखड़ने लगी और उन्होंने सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं । ऐसी पुण्यात्मा थीं हमारी दादी। बेशक मैंने उनको नहीं देखा परन्तु ताउम्र मेरे मन में उनके लिए विशेष सम्मान रहा। उनको मेरा शत- शत नमन🙏

********

अभी मीरा ( मेरी पोती) ने दादी कहना सीखा है …ये सम्बोधन मुझे अन्दर तक तृप्त करता है। मुझे दादी नहीं मिलीं पर मैं बनी मीरा की दादी…भगवान का लाख शुक्रिया 🙏😊

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

प्रेम



कह देना

इतना आसान होता है क्या ?

किसी से कह देने से पहले 

जरूरी होता है खुद से कहना

और जब दिल सुनना ही न चाहे

बार- बार एक ही जिद-

प्रेम कहा नहीं,जिया जाता है

प्रेम कहा नहीं,ओढ़ा जाता है

प्रेम कह देने से मर जाता है 

प्रेम पा लेने से सड़ जाता है

प्रेम है तो उसे बहने दो

गुप्तगोदावरी सा अन्तस्थल में…

और यदि तुमको प्रेम है मुझसे 

तो तुम भी न कहना 

प्रेम यदि है तो मौन रहो

कुछ न कहो 

प्रेम में हो जाना चाहता  है मन 

खुद गुलमोहर 

या कि अमलतास !

बस उसे चुपचाप 

खुद पर बीत जाने दो

बिल्कुल किसी मौसम की तरह...!!

    —उषा किरण 🌼🌿

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

चेहरा




अचानक से जब मिलकर कोई

परिचित सा  मुस्कुराता है 

बतियाता है…

तो चौंक जाती हूँ 

उलझन में सोचती हूँ 

कैसे …कैसे पहचाना मुझे 

तब धीरे से याद दिलाती हूँ 

एक चेहरा भी है तुम्हारे पास

मैं हैरानी से शीशे के सामने जाकर

खड़ी हो जाती हूँ 

बादलों की धुंध में डूबे उस चेहरे को

देर तक घूरती हूँ 

और पूछती हूँ खुद से 

क्या वाकई….??

      **

— उषा किरण 🍃

फोटो; गूगल से साभार

रविवार, 26 जनवरी 2025

रजनीगंधा, फिल्म समीक्षा


                               रजनीगंधा

                                       ———

- निर्देशक :  बासु चटर्जी 

- पटकथा:  बासु चटर्जी 

- कहानी: मनु भंडारी;  'यही सच है’ कहानी पर आधारित 

- मुख्य कलाकार:  विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर, दिनेश ठाकुर 

- छायांकन:  के. के. महाजन

- संगीत:  सलिल चौधरी

- गीत के बोल:  योगेश       

- पुरस्कार : सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक( पुरुष) के लिए मुकेश को राष्ट्रीय पुरस्कार 

- 1975 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ क्रिटिक अवार्ड    

बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म रजनीगंधा की रिलीज़ को 50 साल पूरे हो गए हैं। बासु चटर्जी को कुछ हटकर फ़िल्में बनाने के लिए  जाना जाता है।उनकी फ़िल्मों का विषय प्राय: भारतीय मध्यम वर्ग ही होता था। सन् 1974 में बनी मसाला फ़िल्मों की तड़क-भड़क से परे, एक सीधी-सादी मिडिल क्लास लड़की की सर्वथा अनछुए विषय को चित्रित करती फ़िल्म`रजनीगंधा’ सुप्रसिद्ध लेखिका मन्नु भंडारी की कहानी`यही सच है’ पर आधारित है।इस मनोवैज्ञानिक प्रेम कहानी पर बनी इस फ़िल्म में बासु चटर्जी ने सर्वथा दो नवीन कलाकारों अमोल पालेकर व विद्या सिन्हा को लेकर यह फ़िल्म बनाई थी। 

70 के दशक में हिंदी सिनेमा का मिडिल क्लास की तरफ़ लौटना सुखद था, क्योंकि इस दौर में  फ़िल्में आम मानव के मानस व ज़िंदगी से ज़्यादा जुड़ीं। जितनी खूबसूरत मनु भंडारी की ' यही सच है’ कहानी थी उतना ही लाजवाब बासु चटर्जी ने इस फ़िल्म का निर्माण किया है।कथानक में कुछ परिवर्तन व्यावहारिक दृष्टि से उन्होंने किए हैं, परन्तु उससे मूल कहानी का सौंदर्य कहीं भी नष्ट नहीं होता है।यह फ़िल्म इतनी सादगी से बनी है कि सीधे दर्शकों के दिल में उतर जाती है।

यह फ़िल्म बन तो गई लेकिन इसे कोई डिस्ट्रीब्यूटर न मिलने के कारण छह महिनों तक डिब्बे में बन्द पड़ी रही। फिर ताराचन्द बड़जात्या ने इसको ख़रीद कर रिलीज़ किया।पहले तो यह कुछ ख़ास नही चली परन्तु बाद में  सिल्वर जुबली हिट रही और फ़िल्मफ़ेयर  सर्वश्रेष्ठ  क्रिटिक्स फिल्म का अवार्ड मिला।

यह फ़िल्म अपने समय से आगे की बात कहती है। फ़िल्म की कहानी दो पुरुषों के प्रेम के मध्य  नायिका दीपा की डाँवाडोल मन:स्थिति को  दर्शाती है। एक पुरुष का दो प्रेमिकाओं या पत्नियों के बीच की उलझन, खटपट या चयन को लेकर कई फ़िल्में बनी हैं परन्तु हमारी संस्कृति में एक स्त्री का दो पुरुषों को एक साथ प्रेम करना जैसे सम्वेदनशील विषय पर फ़िल्म बनाने का साहस बासु चटर्जी जैसे प्रयोगधर्मी व  मंजे हुए  निर्देशक के लिए ही संभव था। नायिका प्रधान इस फ़िल्म में एक स्त्री की इस उलझी हुई मानसिकता को पहली बार  मनोवैज्ञानिक तरीक़े से फ़िल्माया गया है; जहाँ नायिका पूर्व प्रेमी को सहसा पाकर कभी सोचती है कि `सत्रह साल की उम्र में किया प्यार निरा बचपना होता है’, तो कभी सोचती है कि `पहला प्यार ही सच्चा प्यार है’।कई बार हम खुद को ही नहीं पढ़ पाते और हमारा मन व बुद्धि, भावना व व्यावहारिकता के मध्य या वर्तमान व अतीत के बीच डोलता रहता है। फ़िल्म में विद्या सिन्हा ने इस उलझन को उम्दा अभिनय से जीवंत कर दिया है।

दीपा मनोविज्ञान में एम.ए. के बाद रिसर्च कर रही है।संजय ( अमोल पालेकर) से प्यार करती है जो बहुत सीधा- सादा, मस्त स्वभाव का भला सा इंसान है।दोनों भविष्य में शादी की योजना बना रहे हैं, लेकिन संजय अपने प्रमोशन को लेकर ऑफिस की राजनीति से हर समय परेशान रहता है और दीपा को पूर्ण समय व ध्यान न देकर, अपनी धुन में उसकी उपेक्षा कर जाता है; जिसके कारण वह प्राय: उदास हो जाती है। स्त्री जिससे प्रेम करती है, चाहती है कि उसका प्रेमी भी उसको वरीयता दे। अपना पूरा समय, सुरक्षा व प्यार का इज़हार करे।यह वह समय था जब स्त्री मात्र पुरुष की अनुगामिनी न रह कर अपनी अस्मिता व भावनाओं के प्रति भी जागरूक हो गई थी। 

इसी बीच दीपा जॉब के इंटरव्यू के लिए मुंबई जाती है, जहाँ उसका पूर्व प्रेमी नवीन मिलता है, जो उसकी हर तरह से मदद करता है वह दीपा को खूब समय व ध्यान देता है। उसकी प्रत्येक ज़रूरत के लिए सजग रहकर प्रयासरत रहता है। उसमें महानगर वाली स्मार्टनेस है, दीपा उसके स्टाइल व व्यवहार से प्रभावित होकर  पुन: नवीन की तरफ़ खिंचने लगती है। उसका मन प्रतीक्षारत है कि नवीन पुन: उससे अपने प्रेम का इज़हार करे, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं कहता जिससे प्रतीत हो कि वह भी पुन: खोए हुए प्रेम में वापिस लौटना चाहता है।दिल्ली से लौटते समय नवीन से बिछड़ते हुए दीपा के मन का अनुराग व तड़प उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता है।

दीपा के मन में वर्तमान प्रेमी व पूर्व प्रेमी को लेकर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। इसी उलझन में वह खुदको तर्क देती है कि 'पहला प्यार ही सच्चा प्यार होता है’ और दिल्ली लौटते हुए फ़ैसला कर लेती है कि वह नवीन को ही चुनेगी। संजय कुछ दिनों के लिए कहीं शहर से बाहर गया है। वह नवीन को पत्र लिखकर अपने प्यार का इज़हार करती है और व्याकुल होकर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करती है।लेकिन उत्तर में नवीन के पत्र में मात्र  चार पंक्तियों में जॉब लगने की बधाई पढ़कर वह निराशा में डूब कर सोचती है कि `क्या यह उसका मात्र भ्रम था, नवीन के मन में  क्या उसके लिए कोई कोमल अनुभूति नहीं है?’, उसका स्वाभिमान आहत होता है। वह हाथ में पत्र थामे स्तब्ध सी खड़ी हुई है, इसी बीच संजय खिले हुए रजनीगंधा के  फूलों के साथ  प्रसन्नता व उत्साह से आकर अपने प्रमोशन की सूचना देता  है तो उसकी निश्चल हंसी देख दीपा के मन में उसके लिए पुनः प्रेम का संचार होता है, वह दौड़कर उसको गले से लगा लेती है।

प्रेम के कई रूप हैं। प्रेम की उलझी गुत्थियों पर न जाने कितना साहित्य रचा गया और अनगिनत फ़िल्में भी बनी हैं । मनु भंडारी की इस कहानी में भी प्रेम के अनोखे रूप को दर्शाया गया है।दो में से एक प्रेमी को चुनने का द्वन्द्व जिस तरह दर्शाया गया है वह अद्भुत है।इसी कहानी पर बनी यह फ़िल्म एक सवाल छोड़ जाती है कि क्या यह संभव है कि कोई एक साथ, एक ही समय में दो व्यक्तियों के साथ प्रेम कर सकता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो यदाकदा उठता रहा है।

फ़िल्म के प्रारंभ में ही दीपा सपना देखती है कि वह ट्रेन से जा रही है और सहसा उतर जाती है, स्टेशन पर कोई नज़र नहीं आने पर डरकर पुन: ट्रेन के पीछे भागती है और गिर जाती है। ट्रेन से उसे देखकर लोग हंस रहे हैं।वह  प्राय: यह सपना भी देखती है कि वह चलती टैक्सी से गिर गई है।यह दृश्य बासु चटर्जी ने दीपा के मनोवैज्ञानिक पहलू को ध्यान में रखकर बहुत सोच समझकर समझदारी से जोड़ा है। ये सपने उसके अवचेतन में व्याप्त असुरक्षा की भावना को दर्शाते हैं।

 दीपा अपने करियर को लेकर बहुत सजग है।वह अपने जीवन में सैटिल हो जाना चाहती है। संजय की लापरवाही के कारण उसकी प्रतीक्षा में बेचैन होने पर झुँझलाकर सोचती है कि मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।वह नौकरी हेतु इंटरव्यू देने मुंबई भी जाती है। परन्तु अन्त में वह पत्र में नवीन  की तटस्थ प्रतिक्रिया  से आहत होकर निश्चय करता है कि 'मुझे मुंबई नहीं जाना है।’ वह जीवन-यात्रा में नौकरी व नवीन जैसे प्रेमी की अपेक्षा संजय जैसे साथी को चुनती है क्योंकि प्राय: लड़किएं अपने पति व प्रेमी में मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा चाहती हैं।

 आज से पचास वर्ष पूर्व सत्तर के दशक में दर्शक या पाठक की मानसिकता को ध्यान में रखकर आदर्श पारंपरिक भारतीय स्त्री की छवि के अनुरूप ही अन्त दिखाया है। लेकिन यदि आज के सन्दर्भ में  देखा जाए तो शायद आज की दीपा नौकरी को वरीयता देती। लेकिन फिर भी फ़िल्मकार के साहस की सराहना करनी होगी कि उन्होंने उस दौर में ऐसे बोल्ड विषय को चुना।

मन्नु भंडारी की कहानी कानपुर व कोलकाता इन दो शहरों में डायरी शैली में लिखी गई है। जबकि फ़िल्म में इन शहरों की जगह दिल्ली व मुंबई कर दिया है, निशीथ का नाम बदल कर भी नवीन कर दिया है।फ़िल्म में दीपा की सखी के व्यक्तित्व में भी मुंबई शहर के हिसाब से परिवर्तन किया गया है।कहानी की इरा की तुलना में फ़िल्म की इरा ज्यादा खुले ख़्यालों की है। वह कामकाजी है, बच्चे के पक्ष में नहीं है जबकि मन्नू भंडारी की इरा एक बच्चे की माँ व घरेलू स्त्री है। बासु चटर्जी ने उसके माध्यम से महानगरीय सोच व संस्कृति का स्त्री के जीवन में पड़ते दबाव को दिखाया है।

 नवीन विज्ञापन फ़िल्में बनाता है।उसके जीवन में मॉडलिंग की दुनियाँ का ग्लैमर व आधुनिक संस्कृति की चमक- दमक की छाप है, जिससे भी दीपा उसकी तरफ़ आकर्षित होती है।लेकिन 

बाद में जब नवीन उसके प्रेम का प्रतिकार न देकर उपेक्षा करता है तो वह संजय को चुनती है।

साहित्यिक कृति पर जब कोई फ़िल्म बनती है तो मूल कृति से सदा उसको तुलना के तराज़ू में तौला जाता है।हालाँकि मूल कहानी से फ़िल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं क्योंकि दोनों अलग-अलग विधा हैं। सिनेमा में आम दर्शकों की रुचि व मनोरंजन का भी ध्यान रखना होता है। यह बदलाव उचित ही प्रतीत होता है; उससे कहानी की मूल सम्वेदना पर प्रभाव नहीं पड़ा है।

अमोल पालेकर की यह प्रथम हिन्दी फ़िल्म थी।अपने किरदार की मासूमियत व सादगी को उन्होंने बहुत अच्छी तरह निभाया है। वे अपने प्रमोशन पर फ़ोकस्ड और ईमानदार मगर लापरवाह प्रेमी की भूमिका में खूब जमे हैं। वहीं विद्या सिन्हा की भी यह प्रथम फ़िल्म होने पर भी मध्यमवर्गीय लड़की के उदासी, हर्ष, प्रेम, अन्तर्द्वन्द्व आदि भावों को बहुत सहजता से निभाया है। उनकी सादगी व चेहरे की मोहकता बाँध लेती है।ख़ासकर तब, जब वे उदास होती हैं तो चेहरे पर लावण्य निखर आता है। कहीं- कहीं संवाद अदायगी में उनकी हड़बड़ाहट दिखाई देती है ,जैसे जब वे संजय से फ़ोन पर बात करती हैं। यह कहीं निर्देशन की कमी है, अभिनय में कमी नहीं है।और भी  कहीं- कहीं मामूली सी निर्देशन की कमियाँ नज़र आती हैं, जैसे अमोल पालेकर का डार्क पिंक शर्ट व दिनेश ठाकुर का चटक औरेंज शर्ट को कई दृश्यों में कई बार पहनना, जो कि उनकी पर्सनालिटी से मैच भी नहीं खाती हैं। एक दो दृश्य में विद्या सिन्हा की साड़ी के नीचे से बिना मैच का पेटिकोट का दिखाई देना अखरता है, परन्तु इतनी सारी खूबियों के बीच उनकी अवहेलना की जा सकती है। दिनेश ठाकुर भी लगातार सिगरेट फूंकते, गॉगल्स लगाए, चुस्ती भरे हाव-भाव से अपने रोल के हिसाब से सही अभिनय कर गए हैं।

फ़िल्म में मात्र दो ही गाने हैं। लता मंगेशकर द्वारा गाया-

`रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन में…’ इस गाने के बोल व धुन दोनों ही बहुत सुन्दर हैं। यह गीत दीपा के मन में महकते प्रेम के भावों को बहुत सुन्दर तरीक़े से अभिव्यक्त करता है। मुकेश द्वारा गाया दूसरा गीत-

`कई बार यूँ भी देखा है,ये जो मन की सीमा रेखा है 

मन तोड़ने लगता है,  अनजानी प्यास के पीछे, 

अनजानी आस के पीछे मन दौड़ने लगता है…’

यह पूरा गीत नायिका के मन की डाँवाडोल स्थिति को बाखूबी दर्शाता है। दीपा, नवीन के साथ टैक्सी में जा रही है और पार्श्व में यह गीत बजता है। कभी वह मन में संजय को याद करती है तो कभी अतीत में नवीन के साथ बिताए पलों को याद करती है। दीपा का आँचल नवीन के हाथ को छू रहा है और उसकी खोई- खोई आँखें उसके मन की उलझन को  बयाँ कर रही हैं। 

    `…जानूँ ना, जानूँ ना, उलझन ये जानूँ ना

         सुलझाऊँ कैसे, कुछ समझ न पाऊँ 

         किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ…’

योगेश के लिखे दोनों ही गीत फ़िल्म की कहानी का एक अनिवार्य अंग प्रतीत होते हैं। म्यूज़िक सलिल चौधरी का है।इस गाने के लिए मुकेश को वर्ष 1974 के  सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।

पूरी फ़िल्म में कभी खिलते तो कभी मुरझाते, दीपा के मन में पलते प्रेम के प्रतीक रजनीगंधा के फूलों की सुगन्ध छाई  रहती है।कहीं अव्यक्त रूप से कहानी कहती है कि एक साथ दो लोगों को चाहना वैसे ही है जैसे एक साथ दो फूलों की सुगन्ध व सौंदर्य को चाहना। 

मुझे ध्यान है कि इस फ़िल्म के बाद रजनीगंधा के फूलों के प्रति लड़कियों का आकर्षण बहुत बढ़ गया था।सालों बाद भी यह फ़िल्म दर्शकों के मन में रजनीगंधा की सुगन्ध के रूप में छाई रही। 

                                                                                        — —उषा किरण

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

यादों के गलियारों से

 


बचपन में ख़ुशमिज़ाज बच्ची तो कभी नहीं थे…घुन्नी कहा जा सकता था…पर मजाल कोई कह कर तो देखता ,फिर तो सारे दिन रोते…फैल मचाते।

याद है …जब नौ - दस बरस के होंगे मुन्नी जिज्जी,हमारी फुफेरी बहन बड़े चाव से हम भाई- बहनों को अपने गाँव ले गईं …खूब आम के बाग थे, हवेलीनुमा बड़ा सा घर आंगन, खूब सारे लोग…और बीच आँगन में ठसकदार उनकी मोटी सी सास खटिया पर बैठी पंखा झलते हुए सबको निर्देश दे रही थीं । 

खूब प्लानिंग हुई कि नदी पर जाकर पहले नहाएंगे, फिर गाँव का फेरा लेंगे, फिर आलू की कचौड़ी के साथ आम खाए जाएंगे। जिज्जी के पाँच बच्चे और उनकी देवरानी के चार…सब हम लोगों के आगे- पीछे खुशी व उत्साह से भागे फिर रहे थे। 

तभी कयामत हो गई…हम किचिन की जगह टॉयलेट में गल्ती से घुस गए। ख़ुशमिज़ाज जिज्जी के तो वैसे ही हर समय दाँत बाहर ही रहते थे, वो बड़ी जोर से ही- ही करके हंस दीं और उनके साथ पला भर बच्चे भी हंस पडे़…हम घक्क…इतनी बेइज्जती ! भाग कर कमरे में जाकर  बैड पर उल्टे लेट कर  रोने लगे और ज़िद पकड़ ली घर जाना है। सारा घर मना कर थक गया …जिज्जी, जीजाजी ने बहुत मनाया चलो बाग घूम कर आते हैं, नदी में नहाते हैं पर मजाल जो तकिए से मुँह बाहर निकाला हो …न खाया कुछ न पिया । जिज्जी की सास लगातार जिज्जी को डाँट रही थीं कि-

"ऐसी कैसी है हंसी तुम्हारी …हर समय खी-खी…बेचारी बच्ची…!” 

दूसरे दिन बहुत भारी मन से जीजाजी हम लोगों को वापिस छोड़ आए। बड़ी बहन ने जितना हो सकता था खूब दाँत किटकिटाए…सालों उनका कोप - भाजन बनना पड़ा, पीठ पर घूँसा भी पड़ा…खुद को भी खुद ने बहुत लताड़ा। 

जिज्जी के गाँव फिर कभी जाना नहीं हुआ । जो कान्ड कर आए थे फिर शर्म के कारण हिम्मत ही नहीं पड़ी दुबारा जाने की । सुना है जिज्जी की सास ने हमको सालों याद किया और हम उनको बहुत भाए…कमाल है ? 

ऐसा नहीं था कि खुद रुकना नहीं चाहते थे , पर जिद रुपी शैतान ने बचपन में हमेशा हमारे मन पर कब्जा किया …जकड़ कर रखा। जैसे - जैसे बड़े  हुए अपने मन के अड़ियल घोड़े की लगाम कसी, उस पर क़ब्ज़ा किया और कई बार मन की न सुन कर जीवन में बहुत कुछ खोया…हार दोनों  तरह से हमारी  ही…!

खैर अब तो बहुत ही सयाने हो गए हैं…कोई शक ????? 😂



गुरुवार, 9 जनवरी 2025

'The Scream’





 एक ऐसा शहर जिसमें पूरा बाजार तो सजा है पर एक भी इंसान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है, ना हि कोई आवाज है। मैं अपनी बड़ी बहन का हाथ पकड़कर उन रास्तों से गुजर रही हूँ, सहसा दूर से किसी के भागते कदमों की आहट आती सुनाई देती है। मुड़कर देखती हूँ तो कोई शख्स हमारी ओर तेजी से दौड़ कर आता दिखाई देता है। हम दोनों भी अनायास डरकर भागने लगते हैं और मैं शहर के बाहरी गेट के बाहर गाड़ी के पास खड़े अपने ड्राइवर को जोर-जोर से आवाज लगाने लगती हूँ…वह आदमी पास आता है, और पास…मैं आँखें बन्द कर लेती हूँ, वह भागता हुआ गेट के बाहर चला जाता है…झटके से मेरी आँखें खुल गईं । उफ्…दोपहर की झपकी लेते न जाने किन दहशतों के गलियारों से गुजर गई…


न जाने क्यों तुरन्त मेरे जेहन में नार्वे के  आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch की पेंटिंग चीख The Scream  उससे जुड़ गई। इसीतरह जीवन के कई भाव, कई दृश्य व कई घटनाएं प्राय: मुझे किसी न किसी पेंटिंग से मानसिक व भावनात्मक रूप से अनायास जोड़ देते हैं…


नार्वेजियन आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch एक शापित कलाकार…जिसने मृत्यु की दहशत में जीवन गुजारा और उसको अपने रंगों व रेखाओं में ताउम्र ढाल कर उन भावनाओं को ही अमर कर गया। एक कलाकार के ही अख़्तियार में होता है किसी याद, भावना, अहसास, व्यक्ति या घटना को चित्र में ढाल कर अमर कर देना…


एडवर्ड मंख नॉर्वे में जन्मे अभिव्यन्जनावादी चित्रकार हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति, The Scream विश्व कला की सबसे प्रतिष्ठित पेंटिंग में से एक है। 20वीं सदी के उत्तरार्ध में, उन्होंने जर्मन अभिव्यक्तिवाद और उसके बाद के कला रूपों में एक महान भूमिका निभाई; खास तौर पर इसलिए क्योंकि उनके द्वारा बनाए गए कई कामों में गहरी मानसिक पीड़ा दिखाई देती थी।


मूलतः 'द स्क्रीम’ आत्मकथात्मक पेंटिंग है, जो Munch के वास्तविक अनुभव पर आधारित  रचना है। मंख ने याद किया कि वह सूर्यास्त के समय टहलने के लिए बाहर गये थे जब अचानक डूबते सूरज की रोशनी ने बादलों को खूनी लाल  कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि "प्रकृति के माध्यम से एक अनंत चीख गुजर रही है", …प्रकृति के साथ मिलकर कलाकार ने अपने अन्दर की डर व दहशत भरी चीख को कैनवास पर साकार कर अमर कर दिया। प्रकृति केवल वह ही नहीं है जो आंखों से दिखाई देती है, इसमें आत्मा के आंतरिक चित्र भी सम्मिलित होते हैं। सम्भवतः यह आवाज़ उस समय सुनी गई होगी जब उनका  दिमाग असामान्य अवस्था में था, तभी Munch ने इस चित्र को एक अलग शैली में प्रस्तुत किया।


20वीं सदी की शुरुआत में  उनकी इस पेंटिंग्स को आधुनिक आध्यात्मिक पीड़ा के प्रतीक के रूप में देखा गया।


मंख का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो बीमारियाँ झेल रहा था। जब वे पाँच साल के थे, तब उसकी माँ की तपेदिक से मृत्यु हो गई, जब वह 14 साल के थे, तब उनकी सबसे बड़ी बहन की मृत्यु हो गई, दोनों ही क्षय रोग से पीड़ित थे। इसके बाद मंख के पिता और भाई की भी मृत्यु हो गई जब वे अभी भी छोटे ही थे, कि एक और बहन मानसिक बीमारी से पीड़ित हो गई । "बीमारी, पागलपन और मृत्यु," जैसा कि उन्होंने कहा, "वे काले स्वर्गदूत थे जो मेरे पालने पर नज़र रखते थे और मेरे पूरे जीवन में मेरे साथ थे।"


माँ की मृत्यु के बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता ने किया। एडवर्ड के पिता मानसिक बीमारी से पीड़ित थे और इसने उनके और उनके भाई-बहनों के पालन-पोषण पर भी बुरा प्रभाव डाला। उनके पिता ने उन्हें गहरे डर के साए में पाला, यही कारण है कि एडवर्ड मंख के काम में एक गहरा अवसाद का स्वर दिखाई देता है।

छोटी उम्र में ही मंख को चित्रकारी में रुचि थी, जबकि उन्हें बहुत कम औपचारिक प्रशिक्षण मिला। 


1917th में न्यूयार्क प्रवास के दौरान मुझे आधुनिक कला संग्रहालय, ( MoMA ) में कुछ समय के लिए खास पहरेदारी में बतौर मेहमान आई इस पेंटिंग को सामने से देखने का मौका मिला और जब आप पेंटिंग के आमने-सामने  होते हैं, तो आप हर छोटी-छोटी बात पर ध्यान देने लगते हैं, जैसे कि हर एक ब्रशस्ट्रोक, चित्रकार द्वारा इस्तेमाल किए गए रंगों के अलग-अलग शेड्स, रेखाएं…आप कलाकृति की आँखों में आँखें डाल संवाद स्थापित कर सकते हैं…उससे ज़्यादा आत्मीयता स्थापित कर पाते हैं। शायद उसी का परिणाम है कि इस पेंटिंग से मेरे अपने भय व दहशत के पलों व भावों के तार कहीं गहरे तक जुड़ गए….!!


- उषा किरण 



गुरुवार, 2 जनवरी 2025

पितृदोष, पहचान ( लघुकथा)

                       


 'वैश्विक लघुकथा पीयूष’ में दो लघुकथाएं छपी हैं। धन्यवाद ओम प्रकाश गुप्ता जी…आप भी पढ़ कर अपनी राय दीजिए-

                                  पितृदोष 

                                    ~~~~

"हैलो सुगन्धा, बात सुन…कल न ग्यारह बजे तक आ जाना और सुन लन्च भी यहीं मेरे साथ करना है !”

"कल क्या है ? एनिवर्सरी तो तुम्हारी फरवरी में है न, फिर किसका बर्थडे….?”

"अरे नहीं …कल पितृदोष के निवारण का अनुष्ठान है।”

"पितृदोष…?”

"हाँ रे, क्या बताऊँ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा आजकल। सुबोध का प्रमोशन हर बार रुक जाता है, अनन्या का इस बार भी सी पी एम टी में रह गया, ऊपर से आए दिन कोई न कोई बीमार रहता है। हार कर मम्मी के कहने पर सदरवाले पंडित जी को जन्मपत्री दिखाई थी, तो उन्होंने बताया कि पितृदोष है हम दोनों की पत्री में …जब तक उपाय नहीं होगा तब तक सुख-समृद्धि नहीं आएगी घर में।”

" ओह…अच्छा, ठीक है…आ जाऊंगी ।”

दूसरे दिन ऑफिस से हाफ डे की छुट्टी लेकर जैसे ही चित्रा के घर पहुंची तो बाहर से ही विशाल कोठी की सजावट देख दिल ख़ुश हो गया। गेंदे और अशोक के पत्तों के बन्दरवार, रंगों व फूलों की रंगोली, धीमे- धीमे बजता गायत्री मन्त्र और  अगर- धूप की अलौकिक सुगन्ध ने मन मोह लिया। रसोई से पकवानों की मनमोहक सुगन्ध घर के बाहर तक आ रही थी। अन्दर पीले वस्त्रों में सज्जित  दो पंडित पूजा की भव्य तैयारियों में  व्यस्त थे।प्रफुल्लित चित्रा भाग-भागकर उनको जरूरत का सामान लाकर दे रही थी।

"ये लीजिए पंडित जी आपने कहा था नाग का जोड़ा  बनवाने को…!” उसने एक छोटी मखमली लाल डिब्बी पंडित जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, जिसमें नगीने जड़ा , सुन्दर सा सोने का नाग का जोड़ा रखा था।

"आ गईं तुम …बैठो- बैठो बस पूजा शुरु होने ही वाली है…अरे बबली, जरा  आँटी के लिए ठंडाई लाना …” चित्रा ने आगे बढ़ कर स्नेह से मेरे हाथ थाम लिए।

बबली कुल्हड़ में बादाम केसर की  ठंडाई लेकर आई।मेरा गला सूख रहा था। ठंडाई और ए. सी. से राहत पाकर मैंने अनन्या से कहा-"अनन्या बेटे बाथरूम कहाँ है?

"जी आँटी…यहाँ तो बाथरूम की सफाई चल रही है आप ऊपर वाले बाथरूम में चलिए मेरे साथ” अनन्या मुझे अपने साथ ऊपर ले गई। 

जीने के सामने ही एक छोटे से घुटे हुए  कमरे में कोई कमजोर से वृद्ध पुरानी, मैली सी धोती पहने बैड पर बैठे थे। ऊपरी तन पर कुछ नहीं था। गर्मी के कारण बनियान उतार कर पास ही रखी थी। छत पर पुराना सा पंखा खटर- खटर चल रहा था,  जिसमें से आवाज ज्यादा, हवा कम ही आ रही थी।जून की तपती गर्मी से बेहाल लाल चेहरा, टपकता हुआ पसीना…। 

उनकी उजाड़ बेनूर, फटी- फटी ,दयनीय सी आँखें मेरे  चेहरे पर जम गईं, मानो भीड़ में खोया बच्चा मुझसे  अपना पता पूछ रहा हो। 

स्टूल पर रखा अपना खाली गिलास काँपते हाथों से आगे कर  सूखे मुंह से धीमी  आवाज में कहा "पानी…!”

"जी बाबाजी अभी लाई…आँटी वो उधर लेफ्ट में बाथरूम है …मैं जरा पानी लेकर अभी आई।”

उन बेनूर, बेचैन आँखों की तपिश मुझसे झेली नहीं गई…मैं आगे बढ़ गई। नीचे से पितृदोष-निवारणार्थ अनुष्ठान के पावन मन्त्रों की आवाजें तेज-तेज आने लगी थीं…।

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                                पहचान 

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राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण