ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

मेरे चश्मे से- अभिमान

            


                               * अभिमान *                                             

ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अभिमान

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ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अन्तरदेश पत्रिका में प्रकाशित, मार्च 2023




गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

ताना बाना : पुस्तक समीक्षा- ताना बाना

ताना बाना : पुस्तक समीक्षा- ताना बाना: मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -   ~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~ जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ल...

शनिवार, 20 सितंबर 2025

यूँ गुज़री है अब तलक, आत्मकथा



 प्रिय सीमा जी🌺

   'यूँ गुज़री है अब तलक ‘ पढ़कर अभी समाप्त की है। मन इतना अभिभूत व आन्दोलित है कि कह नहीं सकती। बहुत सालों बाद किसी किताब ने मुझे ऐसा जकड़ा कि 307 पेज लगातार दो दिन तक सब कुछ भूल कर एक साँस में पढ़ गई।सोचिए मैं इतना खो गई कि परिवार का एक-एक रोटी का संघर्ष पढ़ते-पढ़ते ज़ोर की भूख लगी तो शाम को पाँच बजे ही दो पूड़ी सब्जी बनाकर खाने बैठ गई। 

किसी के व्यक्तित्व के बारे में पढ कर या सुनकर हम जजमेन्टल हो जाते हैं , परन्तु सच तो सौ पर्दों में छिपा  होता है। यह आत्मकथा एक दस्तावेज़ है आपके साधनापूर्ण जीवन का, आपकी सच्चाई का , एक सम्वेदनशील, क्रिएटिव, स्वाभिमानी , जुझारू व्यक्तित्व के संघर्ष की आग में तपकर धीरे-धीरे आध्यात्मिक पथ की साधिका के रूप में रूपान्तरित हो जाने का। करुणा व प्रेम को अपना कर स्वयं बुद्ध हो जाने का। जहाँ न कोई चाह बाकी रहे न लोभ, न क्रोध है न घृणा, न ईर्ष्या है और न हि प्रतिशोध। कुछ है तो बस करुणा , क्षमा और प्रेम। जो न ऊंच- नीच देखता है और न हि हानि लाभ। जो भी, जैसा सामने आया सहजता से सिर माथे लिया और चल पड़ीं। जो नहीं मिला या किसी ने छीन लिया तो उसे भी सहजता से , बिना झगड़ा- झंझट सब त्याग कर आगे बढ़ गईं, आसान नहीं है ऐसा सबके लिए कर पाना। 

ओमपुरी जी ने आपके साथ जैसा छल किया उसके बाद भी उनके दुःख की साथी बनीं, उनके प्रेम का तिरस्कार कभी नही किया, भले ही बदले में तमाम मुसीबतें व तोहमतें झेलती रहीं । हमेशा उनके मासूम कलाकार मन को समझा व सम्मान किया। किसी के सामने न शिकायत की न ही अपनी कैफ़ियत पेश की। किसी सामान्य स्त्री के लिए यह कर पाना असम्भव है। 

लोग कहते होंगे आपको मूर्ख तो कहते रहें आपकी अन्तर्रात्मा तो करुणा व प्रेम की रोशनी से सराबोर रही।सच तो ये है कि मुझे भी कई बार लगा कि आप क्यों नहीं सब बंधन को एक झटके से तोड़ देती हैं । बाद में समझ आता है कि ये गहरी आत्मा से किया प्रेम था , 'मैत्री ‘थी। जहाँ मैं तुम का भेद नहीं रह जाता। बहुत अभागे रहे वे , जिन्होंने इस अमूल्य निधि को पाकर बेकद्री से ठुकराया और फिर ताउम्र तरसते रहे। जिस अजन्मे अपने शिशु को ही अपमानित व  लाँछित किया  फिर अन्तिम साँस तक  पुत्र व पत्नि के प्यार व सम्मान को तरसते हुए ही प्राण त्यागे, यही प्रारब्ध  है जो इस जन्म में या अगले जन्म में भोगना ही पड़ता है….पर ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वे फिर नहीं आते…!’

ये आत्मकथा लिखकर आपने प्रतिपक्ष के सारे दावों व कुटिल चालों  को एक पल में नेस्तनाबूत कर दिया और सच्चाई की रोशनी में अपने दाग़ों को धोकर आलोकित प्रकाश में अपनी जगह बनाकर अपनी गरिमा को  मजबूती से स्थापित किया है। ये एक बहुत मार्मिक श्रद्धांजलि भी है अपने माता-पिता व पुरी साहब व अन्य के प्रति। ये पुस्तक हर उस व्यक्ति के प्रति आभार भी है जो दो कदम भी साथ चला। साथ ही जिनके प्रति कुछ भी अप्रिय हुआ उनसे क्षमायाचना भी है। कुल मिलाकर आपने खुद को उलीच कर खाली किया है। 

यह पुस्तक उन सभी लोगों को तो जरूर ही पढ़नी चाहिए जो बड़े मजे से प्रेमिल पत्नि या पति के होते हुए भी इधर-उधर पोखरों  में डुबकियाँ मारना अपना अधिकार मानते है। वे पुरुष जो अनेक औरतों के प्रति लोलुप रहकर , काम- वासना के वशीभूत होकर अपनी प्रेयसी या पत्नि को अपमानित करते है, लेकिन जब किसी के जालिम फन्दे में फंस जाते हैं तब छटपटाते हैं, उसी वापिस ममतामयी ठंडी छाँव के लिए…पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

पुरी साहब के बारे में जो कुछ न्यूज में पढ़ा व सुना था उससे उनके प्रति जुगुप्सा हो गई थी। अब आपको पढ़कर उनके प्रति वाकई दया व करुणा का भाव उपजता है।इस जगत में हम मानव शरीर लेकर आए हैं कुछ सबक लेने के लिए, आत्मोन्नति के लिए , लेकिन मोह- माया, राग- विराग, मन व इन्द्रियों के झिलमिल कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध में , तामसिक निद्रा में लीन अपना गन्तव्य भूल जाते हैं । जो ईश्वर के प्रिय हैं, जो पिछली साधना करके आए हैं परमात्मा उनको फिर कुछ न कुछ ठोकर देकर जगाए रखते हैं । 

सीमा जी, आपने अब प्रकृति की छाँव तले बुद्ध की शरण में ध्यान, करुणा व शान्ति का मार्ग चुना है। मन की वही बचपन वाली अबोध अवस्था को जी रही हैं यह बहुत शुभ संकेत है।जी चाह रहा है और बहुत कुछ लिखूँ परन्तु मन इतना भरा हुआ है कि अभी पढ़े हुए को मनन करना चाहता है।

विभा रानी का बहुत शुक्रिया। उनके यूट्यूब चैनल 'बोले विभा’ पर उनकी वीडियो देखी जिसमें वे डाकू माधोसिंह वाला प्रकरण पढ़ रही थीं तो उत्सुकतावश इतनी अच्छी किताब मंगवा कर पढ़ी ।आपकी अब जितनी मिलेंगी वे मूवी यूट्यूब पर देखूँगी । मेरी आदत है रियल लाइफ का हो या कहानी क़िस्सों का,  हर किरदार को डूब कर पढ़ती हूँ ।

इतनी सुन्दर प्रेरणादायी किताब लिखने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।मेरी दुआ है आप पर अब कोई मुसीबत कभी न आए। आप इसी तरह निरन्तर साधना पथ पर चलकर परमात्मा को प्राप्त करें…आमीन…धन्यवाद!!

- उषा किरण 🌿

सोमवार, 8 सितंबर 2025

मन बैरागी…🍁


तन की गणना में मत बाँधो मन को…

बेशक वह ताउम्र उंगली थाम

साथ चलता हो, लेकिन सच तो यह है

कि वह अजन्मा, जाने कितनी बार

मरता है और फिर-फिर जन्म लेता है

तुम्हारी ही निस्तब्ध गहराइयों से…!


सत्तर के पड़ाव पर भी

मन सात का हो सकता है,

या सत्रह का, सत्ताइस का—

या किसी और अनकहे अंक पर

अड़ा हो जिद्दी बच्चे सा…


क्या पता कब सहसा उंगली छुड़ा

गहरी डुबकी मारने के बाद

अबकी बाहर आना ही न चाहता हो—

बैठा हो कहीं भीतर के कुहासों में,

कुंडली मार,  धूनी रमाए,

नागा साधु सा नग्न, उन्मुक्त…!


हैरान-परेशान, कब से बैठी हूँ मैं भी

बाहरी मुंडेर पर इंतज़ार में

आए, पहने ये फुँदने वाले

रंग-बिरंगे झालरदार झबले,

लगाए कोई मनपसंद मुखौटा

और चल पड़े उँगली थाम

हाट में हठीला बच्चा बनकर…


उधर आकाश में चाँद राहु से घिरकर रोया

धुला…निखरा और फिर मुस्कराते हुए

ओट से झाँकने लगा है…!


पर क्या करें…इस मन बैरागी को अब

कोई भी गेंद लुभाती नहीं

मेरा नन्हा बच्चा ज़रा बड़ा हो गया है,

भीड़ में आने से अब कतराने लगा है…!!!


— उषा किरण🌿

फोटो: गूगल से साभार 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

रज्जो

                  


 जगत में जैसे किरदारों में विविधता होती है वैसे ही प्यार के भी रंग इतने अनोखे , अबूझ होते हैं  कि शख्स ही कई बार नफरत और प्यार के बीच के अन्तराल को खुद ही नहीं समझ पाता। रज्जो के अनोखे प्यार की दास्तान के लिए पाखी के अगस्त अंक में प्रकाशित यह कहानी  'रज्जो ‘ …पढ़िये और बताइए कि आपको कैसी लगी? 


: और एक बात…रज्जो की भाषा के लिए मैं पहले ही माफी माँगती हूँ  😊🙏

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                            रज्जो

 ​मैंने अभी मुश्किल से दो ही पेशेन्ट देखे होंगे कि अन्दर से रज्जो और बीना के लड़ने की आवाजें आने लगीं। सोच रही थी कि सामने बैठे पेशेन्ट को देखने के बाद अन्दर जाकर देखूँगी कि क्या मामला है? शहर में फ्लू के कहर के चलते बच्चे भी चपेट में आ रहे थे, जिसके कारण क्लीनिक पर काफ़ी भीड़ थी। 

तभी तान्या का कॉल आ गया। वो आधी नींद आधे गुस्से में भरी झुँझला कर चीख  रही थी-"ममा ये कहाँ-कहाँ से जाहिलों की फ़ौज इकट्ठा कर रखी है आपने? कितना शोर मचा रखा है, सोने भी नहीं दे रहे…रोको जल्दीईईईईईई…”

"एक मिनिट…” सामने बैठे  पेशेन्ट से कह कर जल्दी से  कुर्सी पीछे खिसका  गुस्से से भरी अन्दर गई तो देखा रज्जो और बीना में घमासान मचा हुआ है। दोनों गाली-गलौज के साथ-साथ  एक दूसरे से हाथापाई कर रही थीं। 

"अरे ये क्या शोर मचा रखा है तुम लोगों ने? बाहर पेशेन्ट बैठे हैं और अन्दर बेबी सो रही है, एग्ज़ाम दे कर आई है, कई रातों की जगी है और तुम लोगों ने ये गंवारपना मचा रखा है, बिल्कुल शर्म नहीं आती न दोनों को?  क्या आफत आ गई आखिर?”

मैंने  दबी पर कड़क आवाज में डाँट कर दोनों को अलग किया। 

"डागदर दीदी आप ही देखो इस कुलटा को, हमें देख कर मुँह टेढ़ा करके हंस री और कै रई ओहो चरित्तर तो देखो सती सावितरी का!” आज करवाचौथ है तो इसीलिए रज्जो ने भर-भर हाथ लाल चूड़ी पहन रखी थीं, मेंहदी, चौड़ी सी मांग में पाव भर सिंदूर, नई पायल, बिछुए पहने थे, सुर्ख़ आलता भी लगा रखा था और नई चटक नारंगी धोती पहने छनक रही थी। उसी को देख कर बीना उसकी हंसी उड़ा रही थी। 

मन ही मन उसकी सज्जा पर मुझे भी हंसी आ गई पर मैंने होंठ दबा लिए। गलत तो बीना भी नहीं थी। कल की ही तो बात है ड्राइवर मनोज भागता आया था "मैडम-मैडम रज्जो फिर मार रही है डुकरे को।” 

मैं जल्दी से आउट हाउस में गईं तो देखा बंसी बिस्तर पर हाथों से सिर पकड़े बैठा था और रज्जो उसे दोनों हाथों से दबादब  कूट रही थी। 

"अरे, रज्जो पागल हो गई है क्या? पता नहीं बीमार है वो,जान लेगी क्या उसकी?” मैंने  जोर से फटकार लगाई। रज्जो ने हाथ तो रोक दिये पर अब गालियों  पर उतारू थी -" मुंहझौंसा…मरा…हरामखोर कहीं से पीकर आया है  दीदी …और उस साली कुतिया बीना से हंसी ठट्ठा कर रिया था..मरती भी तो नहीं रंडी साली …ये भी डोरे डाले है उसपे।”

"रज्जो…ख़बरदार जो गाली निकाली मुँह से …निकल जाओ दोनों के दोनों अभी। जब देखो आए दिन तमाशा होता रहता है तुम्हारा…रज्जो सामान बाँधो तुरन्त और निकलो यहाँ से …बहुत तमाशाा हो चुका, अब बस…मनोज सुबह ही इन्हें इनके गाँव छोड़ कर आओ!” 

गुस्से से  जैसे ही मैं जाने को पलटी, तभी रज्जो पल्लू में मुँह छिपा जोर-जोर से विलाप करने लगी। "ओ री मैया…. मो अनाथ को कौन है आपेके बगैर डागदर दीदी, हम तो कतई मर जावेंगे…!” और बस मेरा दिल पिघल जाता उसकी नौटंकियों पर। सच में बीमार पति को लेकर कहाँ जाएगी बेचारी? दोनों के परिवार में भी कोई नज़दीकी नहीं है अब। 

 बच्चे और सुबोध भी कई बार ग़ुस्सा होते कि "इस जाहिल को निकालो घर से। कितना फसाद मचाती रहती है।”

महिने में दो तीन बार तो रज्जो की ये नौटंकी चलती ही रहती। मैं जब रोज-रोज के बाइयों के नाटक से दुखी हो चुकी थी, तभी ड्राइवर मनोज ही दोनों को अपने गाँव से दस साल पहले साथ लिवा लाया था। मनोज को उन पर बहुत भरोसा था और पन्द्रह साल से गाड़ी चला रहे मनोज पर मेरा। 

बंसी रिक्शा चलाता था, लेकिन दमे का मरीज होने के कारण अब रिक्शा चलाना उसके बस का नहीं था। मनोज के कहने पर मैंने  दोनों को आउट हाउस  में रख लिया था। रज्जो ने घर का काम संभाला और बन्सी ने गार्डन का और बाजार से सब्जी-सौदा लाने का काम अच्छी तरह से संभाल लिया था। रज्जो और बंसी की मनोज से अच्छी बनती थी, तो मिलजुल कर मार्केट व घर का सब काम तीनों संभाल लेते। मुझे भी सुकून मिला। 

 रज्जो वैसे बंसी से पन्द्रह साल छोटी थी इसीलिए उसे डुकरा बोलती थी। उसे देख कर घर के सभी और लोग भी डुकरा ही बोलने लगे थे, सिवाय मेरे और सुबोध के। 

दोनों के रोज के झगड़ों ने मेरी नाक में दम कर रखा था। रज्जो का पारा हर समय सातवें आसमान पर रहता। बात-बेबात उसे गाली देती, पीट देती, "मेरे हरामखोर बाप को पैसे देकर, शराब पिला कर पटा लिया मुए ने, वर्ना तो मेरी जूती बराबर भी न था मरा। करमजला पन्द्रह साल बड़ा है मुझसे डागदर दीदी…!” फिर एक लम्बी उसाँस भरती उठ जाती " सब किस्मत का खेला है…वर्ना कहाँ मैं और कहाँ ये? गाँव के सारे जवान छोरे मेरी कोठरी का चक्कर काटे करे हे। कम से कम बीस पच्चीस की तो मेरे बाप-भाई ने मिल के कुटम्मस की थी दीदी। गाँव के लौंडे मुझे हेमामानिली कैते थे, पर जाने कहाँ से आके ये मरा बूढ़ा, काला कौआ मोए चोंच में दबाए ले उड़ा…!”

रज्जो ने आते ही घर का सारा काम बड़ी कुशलता से संभाल कर मेरा  दिल जीत लिया था। उसके रहते मैं घर-गृहस्थी से निश्चिंत रहती। इसीलिए मैं उसकी बदतमीज़ी बर्दाश्त कर रही थी। जानती थी कि उस जैसी सुघड़, साफ-सुथरी, होशियार, ईमानदार और कोई कामवाली बाई दूसरी मिलनी मुश्किल है। 

हर तरह के खाने बनाने में जवाब नहीं था उसका। कैसी भी, कोई भी डिश हो वो चखकर एकदम वैसी ही बना देती और अब तो यूट्यूब चलाना भी  सीख लिया था तो वहाँ से सीखकर भी कुछ न कुछ बनाती रहती। तान्या को कुछ नया खाने का मन हो तो वो भी उसे वीडियो भेज देती और वो बड़े मनोयोग से थोड़ा अपना भी दिमाग लगा कर बढ़िया-बढिया सूप, सलाद, स्नैक्स, मिष्ठान्न बना कर सजा कर सर्व कर  देती। 

कपड़े धोने और झाड़ू पोंछे के लिए बीना आती थी बाकी सारा काम व रसोई  रज्जो के हवाले था। 

किस बच्चे को नाश्ते में ऑमलेट टोस्ट चाहिए किसको गार्लिक ब्रैड या पोहा उसे याद रहता। डागदर दीदी लन्च में मोटा अनाज खाती हैं तो भैया को प्रोटीन वाला खाना चाहिए, ट्यूज डे नॉनवेज नहीं पकेगा तो साहेब को नाश्ते में जूस और खाने में प्लेट भरके सलाद और नाश्ते में फल जरूरी चाहिए, डागदर  दीदी बिना दही के लन्च नहीं खातीं। इसीलिए कभी खत्म हो जाए तो तुरन्त मनोज  को मार्केट दौड़ा कर  मंगवा लेती। 

 तीज-त्योहारों की तैयारी हफ्ते भर पहले ही पूरी हो जाती। होली पर कहाँ से, कितना मावा आएगा, किस दिन गुझिया बनेंगी? दीवाली पर दिए, खील-बताशे, कब, कितने, कहाँ से मंगवाने हैं? कब पर्दे, सोफा ड्राईक्लीन करवाना है, कौन सा कपड़ा धुलेगा और कौन सा ड्राईक्लीनिंग के लिए जाएगा, उसे सब पता रहता। 

तान्या, आर्यन हॉस्टल से सूटकेस भर मैले कपड़े लाते तो अगले ही दिन धोकर, प्रैस करवा सूटकेस में जमा देती। ऐसे  सारे कामों को बहुत मुस्तैदी से करती, जिसकी वजह से मैं निश्चिंत होकर अपनी डॉक्टरी कर पा रही थी। 

 बेशक शहर की जानी-मानी मशहूर पीडियाटीशियन डॉक्टर राधिका का शहर में अपना ही रुतवा होगा, लेकिन रज्जो की नाटकबाजी के आगे सब फेल थे, मैं भी अब  हार मान चुकी थी। 

 

वैसे तो बंसी से जनम का बैर था रज्जो का लेकिन कोई कामवाली, सब्जीवाली, धोबिन या लेडी पेशेन्ट से मजाल है जो बंसी बात कर ले, तो पगला जाती। मारपीट पर उतारू हो जाती। चप्पल,बर्तन जो हाथ आता, उसी से उसकी धुनाई शुरु कर देती। खासकर बीना की तो परछाई भी नहीं पड़ने देती थी बंसी पर। हमारे सामने तो बंसी चुप लगा जाता लेकिन अपने कमरे में कई बार शेर हो जाता…तब खूब बजती दोनों की। 

उनके झगड़ों को सुलटाते देख सुबोध हंसकर जब कहते "सुनो, तुम न एक रैफरी वाली सीटी ले लो राधिका, बस क्लीनिक से ही बजाती रहा करो!” तब बुरी तरह चिढ़ जाती मैं " एक तो मेरा दिमाग खा रखा है इन सबने, तुमसे तो कुछ होता नहीं। आज इसे निकाल भी दूँ तो तुम ढूँढ पाओगे दूसरी या संभाल लोगे किचिन, घर-गृहस्थी…जबकि तुम्हारे और बच्चों के खाने-पीने के ही इतने नखरे हैं…?”

 व्हाइटवॉश के समय घर का सारा स्टाफ़ सफाई और सामान लगाने में लगा था। रज्जो की गिद्ध-दृष्टि रसोई से काम करते भी खिड़की से बंसी पर ही लगी रहती। यदा-कदा बंसी और बीना काम करते-करते  टकरा जाते या कोई काम से संबंधित भी बात कहते, तो रज्जो जहाँ भी होती वहाँ से ही चील सी झपटती

 " ज़्यादा नैन मटक्का मति न करै बीना, ससुरी अपने खसम ने तो छोड़ दी अब दूसरों के पे डोरे डाल री तू…खूब जानूं!” 

उसकी इस बदहवासी का मनोज और बाकी सब  खूब मजे लेते। झूठी अफ़वाहें फैलाते और पिटता बेचारा बंसी। मैंने कई बार समझाया कि "गाली-गलौज न किया कर और हाथ न उठाया कर, दमें का रोगी है किसी दिन दम निकल जाएगा!” लेकिन उस पर कुछ असर नहीं होता। इसीलिए बीना उसकी करवाचौथ पर किए साज-शृँगार का सती सावितरी कह कर मजाक उड़ा रही थी। 

रज्जो के कोई बच्चा नहीं हुआ। मैंने उसका बहुत इलाज करवाया, परन्तु कोई फ़ायदा नहीं। रज्जो हताश हो आँखों में आँसू भर कहती "दीदी हमारे भाग में ही न है बाल-बच्चों का सुख…रहे दो और कित्ता इलाज कराओगी आप भी?”

 

इधर कोरोना महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। सब जगह हाहाकार मच गया। मनोज भी किसी तरह अपने गाँव चला गया। जाते समय मैंने कहा "लॉकडाउन खुलने के बाद ही आना मनोज, बच्चों का और अपना ध्यान रखना। चिन्ता मत करना… कोई परेशानी हो तो बताना…” कह कर दो महिने की तनख़्वाह एडवांस में दी,  तो हाथ जोड़कर रो पड़ा। 

 

 घर-घर में कामवाली बाइयों के न आने से महिलाओं पर अचानक काम का बोझ आ पड़ा। शुक्र है कि रज्जो और बंसी के चलते मुझे घर के काम की कोई परेशानी नहीं हुई। 

लॉकडाउन लगने से मैने भी क्लीनिक बन्द कर दिया। सारे दिन फोन पर ही मरीजों का हालचाल पूछ कर या वीडियोकॉल के ज़रिए बच्चों को देखकर दवाइयाँ बता देती थी। लोग फीस ऑनलाइन जमा करने को कहते तो मैं "अभी रहने दीजिए…” कह कर मना कर देती। 

तान्या और आर्यन  भी हॉस्टल से घर आ गए थे। सुबोध का ऑफिस भी घर से ही ऑनलाइन चल रहा था। घर के चारों सदस्य चार कमरों में सारे दिन कम्प्यूटर के सामने बैठे रहते और रज्जो सबके कमरों में चाय-नाश्ता, फल, जूस, काढ़ा बिना अनखनाए पहुँचाती रहती। लेकिन मेरा  सख्त ऑर्डर था कि लन्च व डिनर सब एक साथ डायटिंग टेबिल पर ही करेंगे। बीना के न आने से रज्जो पर काम का बोझ बढ़ गया था तो सब किचिन में और टेबिल लगाने, समेटने में उसकी मदद करते, अपने कपड़े खुद प्रैस करते। 

अजीब नजारा रहता, सुबोध शर्ट, टाई, चश्मा लगा ऊपर से चिकने चुपड़े होकर ऑफिस की मीटिंग में जब बिजी होते तो प्राय: नीचे लोअर और बाथरूम स्लीपर में होते। 

 मैं भी प्राय: सलवार या लोअर पर ही साड़ी लपेट लैपटॉप पर पेशेन्ट निबटाती। तान्या और आर्यन की क्लास के बच्चे तो अपनी अजीबोग़रीब भेषभूषा में ही ऑनलाइन क्लास में उपस्थित रहते। प्राय: कुछ खाना-पीना भी चलता रहता। एक दिन आर्यन की टीचर ने कस कर सबकी डाँट लगाई "ये क्या तमाशा बना रखा है तुम सबने? लगता है बैड से ही  सीधे क्लास में चले आए हो…कम से कम ब्रश करके मुँह तो धो लिया करो!” सारे बच्चे ढीठ होकर एक-दूसरे की तरफ़ उंगली से इशारा करके हंसने लगे तो टीचर ने और कस कर डाँट लगाई। 

 

हम  सभी एक दूसरे की हुलिया पर खूब हंसते और चुपके-चुपके फोटो खींच कर इधर-उधर फ़ॉरवर्ड करते। 

 तान्या और आर्यन कभी-कभी ताश, लूडो, बैडमिंटन खेलते, लेकिन हर बात पर  सारे दिन उनकी भी नोंक-झोंक चलती रहती। सारे दिन`देखो मम्मी…देखो मम्मी…’ से मैं झुंझला जाती। 

कमाल तो ये भी हुआ कि रज्जो से बुरी तरह चिढ़ने वाली तान्या  की अचानक से रज्जो से बहुत दोस्ती हो गई। तान्या नई-नई रेसिपी  यूट्यूब से ढूँढ कर लाती और फिर तान्या के निर्देशन में रज्जो बड़ी लगन से बनाती। जलेबी, गुलाबजामुन, तरह-तरह के केक, कुकीज और न जाने कौन-कौन सी रेसिपी ट्राई की गईं उस दौरान। 

घर का हर सदस्य टी वी से चिपका रहता। न्यूज पर आँखें टिकी रहतीं। मज़दूरों का रेलमपेल शहरों से गाँवों की ओर पलायन, दुनिया भर से लोगों की धड़ाधड़ मरने की खबरों में लाशों के ढेर देख-देख कर रूह काँप जाती। हर शख्स दहशत में था। कब किसकी बारी आ जाए कुछ पता नहीं। 

हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सिलेंडर व दवाइयों की कालाबाज़ारी, बैड की छीना-झपटी जैसी घटनाओं से मानवता पर से विश्वास उठ जाता, लेकिन कई लोग देवदूत बनकर जान हथेली पर रख जिस तरह लोगों की मदद के लिए सामने आए उसने यह विश्वास बनाए रखा कि -`इंसानियत अभी जिंदा है!’

सबकुछ सहम-सहम कर ठीक ही चल रहा था, लेकिन कोरोना की चपेट से मैं और मेरा परिवार भी नहीं बच सका। खुद को और बाकी सबको तो घर पर ही कोरेन्टाइन किया। दवाइयों के साथ-साथ काढ़े और भाप का दौर भी चलता रहता। सब एक दूसरे को संभाल रहे थे, हौसला दे रहे थे। रज्जो पर क्योंकि कोरोना का असर काफी हल्का था तो मना करने पर भी वो सबकी सेवा में यथासंभव तब भी  तत्पर रहती। 

लेकिन बंसी के लन्ग्स वीक होने के कारण उसकी हालत ज़्यादा खराब थी इसलिए उसको हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा। जब उसे एम्बुलेंस लेने आई तो बंसी रोने लगा। रज्जो खिड़की से ही उसे डाँट रही थी "ओ बावले,अपनी डागदर दीदी के होते कुछ नहीं हो सकता …ठीक हो जाएगा…काहे कूँ छोकरियों की माफिक रोता है रे…?”

रज्जो का विश्वास कायम रखता बंसी लम्बी सी मुस्कान सहित सही-सलामत वापिस लौट आया। रज्जो रानी बड़ी धमक से सेवा-टहल करतीं-

-"ओए महाराजा काट के दे गई, तब भी मूँ में नहीं चला सेब? बाप दादों ने भी खाए थे कभी, जो नखरा दिखाता…?”

-"पड़ा-पड़ा टी वी देखे है, टैम पे दवा नईं खा सकता मुए!”

-ओए शहजादे रौब न चला, जिन्दा रे के कोई अहसान न कर रा मुझपे।”

उसकी जली-कटी सुनकर मैं कई बार झुंझला जाती " कैसा तो दिल है रज्जो तेरा? बेचारा मरता बचा है पर तेरी जुबान और अकड़ को लगाम ही नहीं, दो मीठे बोल सुन कर तो मरते आदमी  में भी प्राण आ जाते हैं और एक तू है कि…!” 

परन्तु कमाल की बात तो ये थी कि जबसे बंसी हॉस्पिटल से लौटा था तबसे बड़ा ही खुश रहता था। रज्जो कुछ भी चिड़चिड़ाती, बड़बड़ाती, किटकिटाती वह दाँत चियार कर हंस पड़ता। 

बड़ी मुश्किल से कोरोना का प्रकोप शान्त होते-होते वापिस जिंदगी पटरी पर आ गई। मनोज भी गाँव से सही-सलामत वापिस आ गया। 

बंसी बच तो गया लेकिन उसकी सेहत दिनोंदिन ख़राब होती जा रही थी। एक साल बाद ही उसे सीवियर निमोनिया हुआ। मैंने इलाज में और भागदौड़ में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन आखिर में बंसी ज़िंदगी की लड़ाई हार गया। पाँचवें  दिन हॉस्पिटल में उसने आख़िरी साँस ली। 

एम्बुलेंस से जब उसकी बॉडी बाहर बरामदे में लाकर लिटाई गई और रोते हुए बीना ने स्तब्ध रज्जो को पकड़ कर उसके पास बैठाया, तो वो बिना रोए-धोए उसको चुपचाप देखती बैठी रही। मेरे इशारा करने पर बीना उसे जोर से चिपटा कर रोने लगी, लेकिन रज्जो न हिली न डुली, बस पथराई सी बैठी रही। 

मैं अन्दर आकर क्रिमेशन की तैयारियों के लिए फोन पर बात कर ही रही थी कि बीना जोर से चीखी, "रज्जो…रज्जो…!’’

 मैं जल्दी से बाहर भागी। देखा रज्जो जमीन पर पड़ी थी और बीना रो-रोकर उसे हिला रही थी। 

भागकर स्टैथेस्कोप  से चैक किया हैरान-परेशान होकर जल्दी से दोनों हाथों से सी पी आर दिया, बीना उसकी हथेलियों को हाथों से मलने लगी,परन्तु कुछ फ़ायदा नहीं…रज्जो जा चुकी थी बंसी के पीछे-पीछे। 

रज्जो ने मरने के बाद भी बंसी का पीछा नहीं छोड़ा, जरूर धमकाती जा रही होगी 

"ए रुक जा मुए…मैं भी आती…!!”

—उषा किरण🍁

बुधवार, 20 अगस्त 2025

नचिकेता



नींद नहीं आती जबतब

बेचैनी में तकिया दूसरी दिशा में रख पैर दक्षिणदिशा में कर लेती हूँ 

और पल भर में गहरी नींद सो जाती हूँ


माँ कहती थीं-दक्षिण में पैर करके नहीं सोते

यमराज की दिशा है

पर मेरी नीदों के मन में  तो मानो कोई नचिकेता समा गया है 

बारबार वहीं का पता पूँछता

उधर ही चल पड़ना चाहता है


मैं भी गई थी यम-देहरी तक,

जहाँ मृत्यु खामोश खड़ी थी।

कैसी दुस्तर गाँठें थीं 

जो ढीली पड़ी नहीं 

प्रश्नों की पोटली खुलीं नहीं..,


तो फिर

लौट आई हूँ खाली हाथ

जवाब भी छूट गए

जैसे आधी अधूरी धुन

खामोश हवा में बिखर जाए


पैरों की झनझनाहट अकुलाती है

मन की गाँठें सिर पटकती हैं 

नचिकेता …नचिकेता

तुम सा तो मन नहीं 

दृढ़ता भी नहीं… जिद भी नहीं


कहते हैं कि

यदि बनी रहे प्यासतो एक दिन

पानी भी मिल ही जाता है 

बस प्यास को सहेजे रखना होगा,

और अपना कुआँ

स्वयं ही खोदना होगा


हाँजानती हूँ

किसी एक का प्रश्न

सबका प्रश्न तो हो सकता है,

परन्तु उत्तरहर किसी को

स्वयं अपना खोजना होगा।


अपना नचिकेता स्वयं

आप ही बनना होगा…!!

—उषा किरण 


फोटो; गूगल से साभार 

मेरे चश्मे से- अभिमान

                                            *  अभिमान *                                               ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 197...