ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 26 जनवरी 2025

रजनीगंधा, फिल्म समीक्षा


                               रजनीगंधा

                                       ———

- निर्देशक :  बासु चटर्जी 

- पटकथा:  बासु चटर्जी 

- कहानी: मनु भंडारी;  'यही सच है’ कहानी पर आधारित 

- मुख्य कलाकार:  विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर, दिनेश ठाकुर 

- छायांकन:  के. के. महाजन

- संगीत:  सलिल चौधरी

- गीत के बोल:  योगेश       

- पुरस्कार : सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक( पुरुष) के लिए मुकेश को राष्ट्रीय पुरस्कार 

- 1975 में फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ क्रिटिक अवार्ड    

बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म रजनीगंधा की रिलीज़ को 50 साल पूरे हो गए हैं। बासु चटर्जी को कुछ हटकर फ़िल्में बनाने के लिए  जाना जाता है।उनकी फ़िल्मों का विषय प्राय: भारतीय मध्यम वर्ग ही होता था। सन् 1974 में बनी मसाला फ़िल्मों की तड़क-भड़क से परे, एक सीधी-सादी मिडिल क्लास लड़की की सर्वथा अनछुए विषय को चित्रित करती फ़िल्म`रजनीगंधा’ सुप्रसिद्ध लेखिका मन्नु भंडारी की कहानी`यही सच है’ पर आधारित है।इस मनोवैज्ञानिक प्रेम कहानी पर बनी इस फ़िल्म में बासु चटर्जी ने सर्वथा दो नवीन कलाकारों अमोल पालेकर व विद्या सिन्हा को लेकर यह फ़िल्म बनाई थी। 

70 के दशक में हिंदी सिनेमा का मिडिल क्लास की तरफ़ लौटना सुखद था, क्योंकि इस दौर में  फ़िल्में आम मानव के मानस व ज़िंदगी से ज़्यादा जुड़ीं। जितनी खूबसूरत मनु भंडारी की ' यही सच है’ कहानी थी उतना ही लाजवाब बासु चटर्जी ने इस फ़िल्म का निर्माण किया है।कथानक में कुछ परिवर्तन व्यावहारिक दृष्टि से उन्होंने किए हैं, परन्तु उससे मूल कहानी का सौंदर्य कहीं भी नष्ट नहीं होता है।यह फ़िल्म इतनी सादगी से बनी है कि सीधे दर्शकों के दिल में उतर जाती है।

यह फ़िल्म बन तो गई लेकिन इसे कोई डिस्ट्रीब्यूटर न मिलने के कारण छह महिनों तक डिब्बे में बन्द पड़ी रही। फिर ताराचन्द बड़जात्या ने इसको ख़रीद कर रिलीज़ किया।पहले तो यह कुछ ख़ास नही चली परन्तु बाद में  सिल्वर जुबली हिट रही और फ़िल्मफ़ेयर  सर्वश्रेष्ठ  क्रिटिक्स फिल्म का अवार्ड मिला।

यह फ़िल्म अपने समय से आगे की बात कहती है। फ़िल्म की कहानी दो पुरुषों के प्रेम के मध्य  नायिका दीपा की डाँवाडोल मन:स्थिति को  दर्शाती है। एक पुरुष का दो प्रेमिकाओं या पत्नियों के बीच की उलझन, खटपट या चयन को लेकर कई फ़िल्में बनी हैं परन्तु हमारी संस्कृति में एक स्त्री का दो पुरुषों को एक साथ प्रेम करना जैसे सम्वेदनशील विषय पर फ़िल्म बनाने का साहस बासु चटर्जी जैसे प्रयोगधर्मी व  मंजे हुए  निर्देशक के लिए ही संभव था। नायिका प्रधान इस फ़िल्म में एक स्त्री की इस उलझी हुई मानसिकता को पहली बार  मनोवैज्ञानिक तरीक़े से फ़िल्माया गया है; जहाँ नायिका पूर्व प्रेमी को सहसा पाकर कभी सोचती है कि `सत्रह साल की उम्र में किया प्यार निरा बचपना होता है’, तो कभी सोचती है कि `पहला प्यार ही सच्चा प्यार है’।कई बार हम खुद को ही नहीं पढ़ पाते और हमारा मन व बुद्धि, भावना व व्यावहारिकता के मध्य या वर्तमान व अतीत के बीच डोलता रहता है। फ़िल्म में विद्या सिन्हा ने इस उलझन को उम्दा अभिनय से जीवंत कर दिया है।

दीपा मनोविज्ञान में एम.ए. के बाद रिसर्च कर रही है।संजय ( अमोल पालेकर) से प्यार करती है जो बहुत सीधा- सादा, मस्त स्वभाव का भला सा इंसान है।दोनों भविष्य में शादी की योजना बना रहे हैं, लेकिन संजय अपने प्रमोशन को लेकर ऑफिस की राजनीति से हर समय परेशान रहता है और दीपा को पूर्ण समय व ध्यान न देकर, अपनी धुन में उसकी उपेक्षा कर जाता है; जिसके कारण वह प्राय: उदास हो जाती है। स्त्री जिससे प्रेम करती है, चाहती है कि उसका प्रेमी भी उसको वरीयता दे। अपना पूरा समय, सुरक्षा व प्यार का इज़हार करे।यह वह समय था जब स्त्री मात्र पुरुष की अनुगामिनी न रह कर अपनी अस्मिता व भावनाओं के प्रति भी जागरूक हो गई थी। 

इसी बीच दीपा जॉब के इंटरव्यू के लिए मुंबई जाती है, जहाँ उसका पूर्व प्रेमी नवीन मिलता है, जो उसकी हर तरह से मदद करता है वह दीपा को खूब समय व ध्यान देता है। उसकी प्रत्येक ज़रूरत के लिए सजग रहकर प्रयासरत रहता है। उसमें महानगर वाली स्मार्टनेस है, दीपा उसके स्टाइल व व्यवहार से प्रभावित होकर  पुन: नवीन की तरफ़ खिंचने लगती है। उसका मन प्रतीक्षारत है कि नवीन पुन: उससे अपने प्रेम का इज़हार करे, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं कहता जिससे प्रतीत हो कि वह भी पुन: खोए हुए प्रेम में वापिस लौटना चाहता है।दिल्ली से लौटते समय नवीन से बिछड़ते हुए दीपा के मन का अनुराग व तड़प उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता है।

दीपा के मन में वर्तमान प्रेमी व पूर्व प्रेमी को लेकर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। इसी उलझन में वह खुदको तर्क देती है कि 'पहला प्यार ही सच्चा प्यार होता है’ और दिल्ली लौटते हुए फ़ैसला कर लेती है कि वह नवीन को ही चुनेगी। संजय कुछ दिनों के लिए कहीं शहर से बाहर गया है। वह नवीन को पत्र लिखकर अपने प्यार का इज़हार करती है और व्याकुल होकर उसके उत्तर की प्रतीक्षा करती है।लेकिन उत्तर में नवीन के पत्र में मात्र  चार पंक्तियों में जॉब लगने की बधाई पढ़कर वह निराशा में डूब कर सोचती है कि `क्या यह उसका मात्र भ्रम था, नवीन के मन में  क्या उसके लिए कोई कोमल अनुभूति नहीं है?’, उसका स्वाभिमान आहत होता है। वह हाथ में पत्र थामे स्तब्ध सी खड़ी हुई है, इसी बीच संजय खिले हुए रजनीगंधा के  फूलों के साथ  प्रसन्नता व उत्साह से आकर अपने प्रमोशन की सूचना देता  है तो उसकी निश्चल हंसी देख दीपा के मन में उसके लिए पुनः प्रेम का संचार होता है, वह दौड़कर उसको गले से लगा लेती है।

प्रेम के कई रूप हैं। प्रेम की उलझी गुत्थियों पर न जाने कितना साहित्य रचा गया और अनगिनत फ़िल्में भी बनी हैं । मनु भंडारी की इस कहानी में भी प्रेम के अनोखे रूप को दर्शाया गया है।दो में से एक प्रेमी को चुनने का द्वन्द्व जिस तरह दर्शाया गया है वह अद्भुत है।इसी कहानी पर बनी यह फ़िल्म एक सवाल छोड़ जाती है कि क्या यह संभव है कि कोई एक साथ, एक ही समय में दो व्यक्तियों के साथ प्रेम कर सकता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो यदाकदा उठता रहा है।

फ़िल्म के प्रारंभ में ही दीपा सपना देखती है कि वह ट्रेन से जा रही है और सहसा उतर जाती है, स्टेशन पर कोई नज़र नहीं आने पर डरकर पुन: ट्रेन के पीछे भागती है और गिर जाती है। ट्रेन से उसे देखकर लोग हंस रहे हैं।वह  प्राय: यह सपना भी देखती है कि वह चलती टैक्सी से गिर गई है।यह दृश्य बासु चटर्जी ने दीपा के मनोवैज्ञानिक पहलू को ध्यान में रखकर बहुत सोच समझकर समझदारी से जोड़ा है। ये सपने उसके अवचेतन में व्याप्त असुरक्षा की भावना को दर्शाते हैं।

 दीपा अपने करियर को लेकर बहुत सजग है।वह अपने जीवन में सैटिल हो जाना चाहती है। संजय की लापरवाही के कारण उसकी प्रतीक्षा में बेचैन होने पर झुँझलाकर सोचती है कि मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।वह नौकरी हेतु इंटरव्यू देने मुंबई भी जाती है। परन्तु अन्त में वह पत्र में नवीन  की तटस्थ प्रतिक्रिया  से आहत होकर निश्चय करता है कि 'मुझे मुंबई नहीं जाना है।’ वह जीवन-यात्रा में नौकरी व नवीन जैसे प्रेमी की अपेक्षा संजय जैसे साथी को चुनती है क्योंकि प्राय: लड़किएं अपने पति व प्रेमी में मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा चाहती हैं।

 आज से पचास वर्ष पूर्व सत्तर के दशक में दर्शक या पाठक की मानसिकता को ध्यान में रखकर आदर्श पारंपरिक भारतीय स्त्री की छवि के अनुरूप ही अन्त दिखाया है। लेकिन यदि आज के सन्दर्भ में  देखा जाए तो शायद आज की दीपा नौकरी को वरीयता देती। लेकिन फिर भी फ़िल्मकार के साहस की सराहना करनी होगी कि उन्होंने उस दौर में ऐसे बोल्ड विषय को चुना।

मन्नु भंडारी की कहानी कानपुर व कोलकाता इन दो शहरों में डायरी शैली में लिखी गई है। जबकि फ़िल्म में इन शहरों की जगह दिल्ली व मुंबई कर दिया है, निशीथ का नाम बदल कर भी नवीन कर दिया है।फ़िल्म में दीपा की सखी के व्यक्तित्व में भी मुंबई शहर के हिसाब से परिवर्तन किया गया है।कहानी की इरा की तुलना में फ़िल्म की इरा ज्यादा खुले ख़्यालों की है। वह कामकाजी है, बच्चे के पक्ष में नहीं है जबकि मन्नू भंडारी की इरा एक बच्चे की माँ व घरेलू स्त्री है। बासु चटर्जी ने उसके माध्यम से महानगरीय सोच व संस्कृति का स्त्री के जीवन में पड़ते दबाव को दिखाया है।

 नवीन विज्ञापन फ़िल्में बनाता है।उसके जीवन में मॉडलिंग की दुनियाँ का ग्लैमर व आधुनिक संस्कृति की चमक- दमक की छाप है, जिससे भी दीपा उसकी तरफ़ आकर्षित होती है।लेकिन 

बाद में जब नवीन उसके प्रेम का प्रतिकार न देकर उपेक्षा करता है तो वह संजय को चुनती है।

साहित्यिक कृति पर जब कोई फ़िल्म बनती है तो मूल कृति से सदा उसको तुलना के तराज़ू में तौला जाता है।हालाँकि मूल कहानी से फ़िल्म में कुछ बदलाव किए गए हैं क्योंकि दोनों अलग-अलग विधा हैं। सिनेमा में आम दर्शकों की रुचि व मनोरंजन का भी ध्यान रखना होता है। यह बदलाव उचित ही प्रतीत होता है; उससे कहानी की मूल सम्वेदना पर प्रभाव नहीं पड़ा है।

अमोल पालेकर की यह प्रथम हिन्दी फ़िल्म थी।अपने किरदार की मासूमियत व सादगी को उन्होंने बहुत अच्छी तरह निभाया है। वे अपने प्रमोशन पर फ़ोकस्ड और ईमानदार मगर लापरवाह प्रेमी की भूमिका में खूब जमे हैं। वहीं विद्या सिन्हा की भी यह प्रथम फ़िल्म होने पर भी मध्यमवर्गीय लड़की के उदासी, हर्ष, प्रेम, अन्तर्द्वन्द्व आदि भावों को बहुत सहजता से निभाया है। उनकी सादगी व चेहरे की मोहकता बाँध लेती है।ख़ासकर तब, जब वे उदास होती हैं तो चेहरे पर लावण्य निखर आता है। कहीं- कहीं संवाद अदायगी में उनकी हड़बड़ाहट दिखाई देती है ,जैसे जब वे संजय से फ़ोन पर बात करती हैं। यह कहीं निर्देशन की कमी है, अभिनय में कमी नहीं है।और भी  कहीं- कहीं मामूली सी निर्देशन की कमियाँ नज़र आती हैं, जैसे अमोल पालेकर का डार्क पिंक शर्ट व दिनेश ठाकुर का चटक औरेंज शर्ट को कई दृश्यों में कई बार पहनना, जो कि उनकी पर्सनालिटी से मैच भी नहीं खाती हैं। एक दो दृश्य में विद्या सिन्हा की साड़ी के नीचे से बिना मैच का पेटिकोट का दिखाई देना अखरता है, परन्तु इतनी सारी खूबियों के बीच उनकी अवहेलना की जा सकती है। दिनेश ठाकुर भी लगातार सिगरेट फूंकते, गॉगल्स लगाए, चुस्ती भरे हाव-भाव से अपने रोल के हिसाब से सही अभिनय कर गए हैं।

फ़िल्म में मात्र दो ही गाने हैं। लता मंगेशकर द्वारा गाया-

`रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन में…’ इस गाने के बोल व धुन दोनों ही बहुत सुन्दर हैं। यह गीत दीपा के मन में महकते प्रेम के भावों को बहुत सुन्दर तरीक़े से अभिव्यक्त करता है। मुकेश द्वारा गाया दूसरा गीत-

`कई बार यूँ भी देखा है,ये जो मन की सीमा रेखा है 

मन तोड़ने लगता है,  अनजानी प्यास के पीछे, 

अनजानी आस के पीछे मन दौड़ने लगता है…’

यह पूरा गीत नायिका के मन की डाँवाडोल स्थिति को बाखूबी दर्शाता है। दीपा, नवीन के साथ टैक्सी में जा रही है और पार्श्व में यह गीत बजता है। कभी वह मन में संजय को याद करती है तो कभी अतीत में नवीन के साथ बिताए पलों को याद करती है। दीपा का आँचल नवीन के हाथ को छू रहा है और उसकी खोई- खोई आँखें उसके मन की उलझन को  बयाँ कर रही हैं। 

    `…जानूँ ना, जानूँ ना, उलझन ये जानूँ ना

         सुलझाऊँ कैसे, कुछ समझ न पाऊँ 

         किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ…’

योगेश के लिखे दोनों ही गीत फ़िल्म की कहानी का एक अनिवार्य अंग प्रतीत होते हैं। म्यूज़िक सलिल चौधरी का है।इस गाने के लिए मुकेश को वर्ष 1974 के  सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।

पूरी फ़िल्म में कभी खिलते तो कभी मुरझाते, दीपा के मन में पलते प्रेम के प्रतीक रजनीगंधा के फूलों की सुगन्ध छाई  रहती है।कहीं अव्यक्त रूप से कहानी कहती है कि एक साथ दो लोगों को चाहना वैसे ही है जैसे एक साथ दो फूलों की सुगन्ध व सौंदर्य को चाहना। 

मुझे ध्यान है कि इस फ़िल्म के बाद रजनीगंधा के फूलों के प्रति लड़कियों का आकर्षण बहुत बढ़ गया था।सालों बाद भी यह फ़िल्म दर्शकों के मन में रजनीगंधा की सुगन्ध के रूप में छाई रही। 

                                                                                        — —उषा किरण

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

यादों के गलियारों से

 


बचपन में ख़ुशमिज़ाज बच्ची तो कभी नहीं थे…घुन्नी कहा जा सकता था…पर मजाल कोई कह कर तो देखता ,फिर तो सारे दिन रोते…फैल मचाते।

याद है …जब नौ - दस बरस के होंगे मुन्नी जिज्जी,हमारी फुफेरी बहन बड़े चाव से हम भाई- बहनों को अपने गाँव ले गईं …खूब आम के बाग थे, हवेलीनुमा बड़ा सा घर आंगन, खूब सारे लोग…और बीच आँगन में ठसकदार उनकी मोटी सी सास खटिया पर बैठी पंखा झलते हुए सबको निर्देश दे रही थीं । 

खूब प्लानिंग हुई कि नदी पर जाकर पहले नहाएंगे, फिर गाँव का फेरा लेंगे, फिर आलू की कचौड़ी के साथ आम खाए जाएंगे। जिज्जी के पाँच बच्चे और उनकी देवरानी के चार…सब हम लोगों के आगे- पीछे खुशी व उत्साह से भागे फिर रहे थे। 

तभी कयामत हो गई…हम किचिन की जगह टॉयलेट में गल्ती से घुस गए। ख़ुशमिज़ाज जिज्जी के तो वैसे ही हर समय दाँत बाहर ही रहते थे, वो बड़ी जोर से ही- ही करके हंस दीं और उनके साथ पला भर बच्चे भी हंस पडे़…हम घक्क…इतनी बेइज्जती ! भाग कर कमरे में जाकर  बैड पर उल्टे लेट कर  रोने लगे और ज़िद पकड़ ली घर जाना है। सारा घर मना कर थक गया …जिज्जी, जीजाजी ने बहुत मनाया चलो बाग घूम कर आते हैं, नदी में नहाते हैं पर मजाल जो तकिए से मुँह बाहर निकाला हो …न खाया कुछ न पिया । जिज्जी की सास लगातार जिज्जी को डाँट रही थीं कि-

"ऐसी कैसी है हंसी तुम्हारी …हर समय खी-खी…बेचारी बच्ची…!” 

दूसरे दिन बहुत भारी मन से जीजाजी हम लोगों को वापिस छोड़ आए। बड़ी बहन ने जितना हो सकता था खूब दाँत किटकिटाए…सालों उनका कोप - भाजन बनना पड़ा, पीठ पर घूँसा भी पड़ा…खुद को भी खुद ने बहुत लताड़ा। 

जिज्जी के गाँव फिर कभी जाना नहीं हुआ । जो कान्ड कर आए थे फिर शर्म के कारण हिम्मत ही नहीं पड़ी दुबारा जाने की । सुना है जिज्जी की सास ने हमको सालों याद किया और हम उनको बहुत भाए…कमाल है ? 

ऐसा नहीं था कि खुद रुकना नहीं चाहते थे , पर जिद रुपी शैतान ने बचपन में हमेशा हमारे मन पर कब्जा किया …जकड़ कर रखा। जैसे - जैसे बड़े  हुए अपने मन के अड़ियल घोड़े की लगाम कसी, उस पर क़ब्ज़ा किया और कई बार मन की न सुन कर जीवन में बहुत कुछ खोया…हार दोनों  तरह से हमारी  ही…!

खैर अब तो बहुत ही सयाने हो गए हैं…कोई शक ????? 😂



गुरुवार, 9 जनवरी 2025

'The Scream’





 एक ऐसा शहर जिसमें पूरा बाजार तो सजा है पर एक भी इंसान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है, ना हि कोई आवाज है। मैं अपनी बड़ी बहन का हाथ पकड़कर उन रास्तों से गुजर रही हूँ, सहसा दूर से किसी के भागते कदमों की आहट आती सुनाई देती है। मुड़कर देखती हूँ तो कोई शख्स हमारी ओर तेजी से दौड़ कर आता दिखाई देता है। हम दोनों भी अनायास डरकर भागने लगते हैं और मैं शहर के बाहरी गेट के बाहर गाड़ी के पास खड़े अपने ड्राइवर को जोर-जोर से आवाज लगाने लगती हूँ…वह आदमी पास आता है, और पास…मैं आँखें बन्द कर लेती हूँ, वह भागता हुआ गेट के बाहर चला जाता है…झटके से मेरी आँखें खुल गईं । उफ्…दोपहर की झपकी लेते न जाने किन दहशतों के गलियारों से गुजर गई…


न जाने क्यों तुरन्त मेरे जेहन में नार्वे के  आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch की पेंटिंग चीख The Scream  उससे जुड़ गई। इसीतरह जीवन के कई भाव, कई दृश्य व कई घटनाएं प्राय: मुझे किसी न किसी पेंटिंग से मानसिक व भावनात्मक रूप से अनायास जोड़ देते हैं…


नार्वेजियन आर्टिस्ट ‘एडवर्ड मंख’ Adward Munch एक शापित कलाकार…जिसने मृत्यु की दहशत में जीवन गुजारा और उसको अपने रंगों व रेखाओं में ताउम्र ढाल कर उन भावनाओं को ही अमर कर गया। एक कलाकार के ही अख़्तियार में होता है किसी याद, भावना, अहसास, व्यक्ति या घटना को चित्र में ढाल कर अमर कर देना…


एडवर्ड मंख नॉर्वे में जन्मे अभिव्यन्जनावादी चित्रकार हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति, The Scream विश्व कला की सबसे प्रतिष्ठित पेंटिंग में से एक है। 20वीं सदी के उत्तरार्ध में, उन्होंने जर्मन अभिव्यक्तिवाद और उसके बाद के कला रूपों में एक महान भूमिका निभाई; खास तौर पर इसलिए क्योंकि उनके द्वारा बनाए गए कई कामों में गहरी मानसिक पीड़ा दिखाई देती थी।


मूलतः 'द स्क्रीम’ आत्मकथात्मक पेंटिंग है, जो Munch के वास्तविक अनुभव पर आधारित  रचना है। मंख ने याद किया कि वह सूर्यास्त के समय टहलने के लिए बाहर गये थे जब अचानक डूबते सूरज की रोशनी ने बादलों को खूनी लाल  कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि "प्रकृति के माध्यम से एक अनंत चीख गुजर रही है", …प्रकृति के साथ मिलकर कलाकार ने अपने अन्दर की डर व दहशत भरी चीख को कैनवास पर साकार कर अमर कर दिया। प्रकृति केवल वह ही नहीं है जो आंखों से दिखाई देती है, इसमें आत्मा के आंतरिक चित्र भी सम्मिलित होते हैं। सम्भवतः यह आवाज़ उस समय सुनी गई होगी जब उनका  दिमाग असामान्य अवस्था में था, तभी Munch ने इस चित्र को एक अलग शैली में प्रस्तुत किया।


20वीं सदी की शुरुआत में  उनकी इस पेंटिंग्स को आधुनिक आध्यात्मिक पीड़ा के प्रतीक के रूप में देखा गया।


मंख का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो बीमारियाँ झेल रहा था। जब वे पाँच साल के थे, तब उसकी माँ की तपेदिक से मृत्यु हो गई, जब वह 14 साल के थे, तब उनकी सबसे बड़ी बहन की मृत्यु हो गई, दोनों ही क्षय रोग से पीड़ित थे। इसके बाद मंख के पिता और भाई की भी मृत्यु हो गई जब वे अभी भी छोटे ही थे, कि एक और बहन मानसिक बीमारी से पीड़ित हो गई । "बीमारी, पागलपन और मृत्यु," जैसा कि उन्होंने कहा, "वे काले स्वर्गदूत थे जो मेरे पालने पर नज़र रखते थे और मेरे पूरे जीवन में मेरे साथ थे।"


माँ की मृत्यु के बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता ने किया। एडवर्ड के पिता मानसिक बीमारी से पीड़ित थे और इसने उनके और उनके भाई-बहनों के पालन-पोषण पर भी बुरा प्रभाव डाला। उनके पिता ने उन्हें गहरे डर के साए में पाला, यही कारण है कि एडवर्ड मंख के काम में एक गहरा अवसाद का स्वर दिखाई देता है।

छोटी उम्र में ही मंख को चित्रकारी में रुचि थी, जबकि उन्हें बहुत कम औपचारिक प्रशिक्षण मिला। 


1917th में न्यूयार्क प्रवास के दौरान मुझे आधुनिक कला संग्रहालय, ( MoMA ) में कुछ समय के लिए खास पहरेदारी में बतौर मेहमान आई इस पेंटिंग को सामने से देखने का मौका मिला और जब आप पेंटिंग के आमने-सामने  होते हैं, तो आप हर छोटी-छोटी बात पर ध्यान देने लगते हैं, जैसे कि हर एक ब्रशस्ट्रोक, चित्रकार द्वारा इस्तेमाल किए गए रंगों के अलग-अलग शेड्स, रेखाएं…आप कलाकृति की आँखों में आँखें डाल संवाद स्थापित कर सकते हैं…उससे ज़्यादा आत्मीयता स्थापित कर पाते हैं। शायद उसी का परिणाम है कि इस पेंटिंग से मेरे अपने भय व दहशत के पलों व भावों के तार कहीं गहरे तक जुड़ गए….!!


- उषा किरण 



गुरुवार, 2 जनवरी 2025

लघुकथा

                       


 'वैश्विक लघुकथा पीयूष’ में दो लघुकथाएं छपी हैं। धन्यवाद ओम प्रकाश गुप्ता जी…आप भी पढ़ कर अपनी राय दीजिए-

                                  पितृदोष 

                                    ~~~~

"हैलो सुगन्धा, बात सुन…कल न ग्यारह बजे तक आ जाना और सुन लन्च भी यहीं मेरे साथ करना है !”

"कल क्या है ? एनिवर्सरी तो तुम्हारी फरवरी में है न, फिर किसका बर्थडे….?”

"अरे नहीं …कल पितृदोष के निवारण का अनुष्ठान है।”

"पितृदोष…?”

"हाँ रे, क्या बताऊँ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा आजकल। सुबोध का प्रमोशन हर बार रुक जाता है, अनन्या का इस बार भी सी पी एम टी में रह गया, ऊपर से आए दिन कोई न कोई बीमार रहता है। हार कर मम्मी के कहने पर सदरवाले पंडित जी को जन्मपत्री दिखाई थी, तो उन्होंने बताया कि पितृदोष है हम दोनों की पत्री में …जब तक उपाय नहीं होगा तब तक सुख-समृद्धि नहीं आएगी घर में।”

" ओह…अच्छा, ठीक है…आ जाऊंगी ।”

दूसरे दिन ऑफिस से हाफ डे की छुट्टी लेकर जैसे ही चित्रा के घर पहुंची तो बाहर से ही विशाल कोठी की सजावट देख दिल ख़ुश हो गया। गेंदे और अशोक के पत्तों के बन्दरवार, रंगों व फूलों की रंगोली, धीमे- धीमे बजता गायत्री मन्त्र और  अगर- धूप की अलौकिक सुगन्ध ने मन मोह लिया। रसोई से पकवानों की मनमोहक सुगन्ध घर के बाहर तक आ रही थी। अन्दर पीले वस्त्रों में सज्जित  दो पंडित पूजा की भव्य तैयारियों में  व्यस्त थे।प्रफुल्लित चित्रा भाग-भागकर उनको जरूरत का सामान लाकर दे रही थी।

"ये लीजिए पंडित जी आपने कहा था नाग का जोड़ा  बनवाने को…!” उसने एक छोटी मखमली लाल डिब्बी पंडित जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, जिसमें नगीने जड़ा , सुन्दर सा सोने का नाग का जोड़ा रखा था।

"आ गईं तुम …बैठो- बैठो बस पूजा शुरु होने ही वाली है…अरे बबली, जरा  आँटी के लिए ठंडाई लाना …” चित्रा ने आगे बढ़ कर स्नेह से मेरे हाथ थाम लिए।

बबली कुल्हड़ में बादाम केसर की  ठंडाई लेकर आई।मेरा गला सूख रहा था। ठंडाई और ए. सी. से राहत पाकर मैंने अनन्या से कहा-"अनन्या बेटे बाथरूम कहाँ है?

"जी आँटी…यहाँ तो बाथरूम की सफाई चल रही है आप ऊपर वाले बाथरूम में चलिए मेरे साथ” अनन्या मुझे अपने साथ ऊपर ले गई। 

जीने के सामने ही एक छोटे से घुटे हुए  कमरे में कोई कमजोर से वृद्ध पुरानी, मैली सी धोती पहने बैड पर बैठे थे। ऊपरी तन पर कुछ नहीं था। गर्मी के कारण बनियान उतार कर पास ही रखी थी। छत पर पुराना सा पंखा खटर- खटर चल रहा था,  जिसमें से आवाज ज्यादा, हवा कम ही आ रही थी।जून की तपती गर्मी से बेहाल लाल चेहरा, टपकता हुआ पसीना…। 

उनकी उजाड़ बेनूर, फटी- फटी ,दयनीय सी आँखें मेरे  चेहरे पर जम गईं, मानो भीड़ में खोया बच्चा मुझसे  अपना पता पूछ रहा हो। 

स्टूल पर रखा अपना खाली गिलास काँपते हाथों से आगे कर  सूखे मुंह से धीमी  आवाज में कहा "पानी…!”

"जी बाबाजी अभी लाई…आँटी वो उधर लेफ्ट में बाथरूम है …मैं जरा पानी लेकर अभी आई।”

उन बेनूर, बेचैन आँखों की तपिश मुझसे झेली नहीं गई…मैं आगे बढ़ गई। नीचे से पितृदोष-निवारणार्थ अनुष्ठान के पावन मन्त्रों की आवाजें तेज-तेज आने लगी थीं…।

                                    **

                                पहचान 

                               ~~~~~                              

राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण          




                         

रजनीगंधा, फिल्म समीक्षा

                               रजनीगंधा                                        ——— - निर्देशक :  बासु चटर्जी  - पटकथा:  बासु चटर्जी  - कहानी...