ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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सोमवार, 2 जून 2025

जापान मेरे चश्मे से

  



एकदम साफ- सुथरा अनुशासित शहर। न सड़कों पर कूड़ा न सड़कों पर चीख- पुकार मचाते लोग।कई अन्य देशों की यात्राओं में देखा लोग यहाँ तक कि बच्चे भी फल के छिलके या ख़ाली रैपर हाथ में पकड़कर रखते हैं और हर दो कदम पर लगे डस्टबिन में ही कूड़ा डालते हैं । लेकिन यहाँ तो सड़कों पर कहीं दूर- दूर तक डस्टबिन नजर ही नहीं आता तब भी सड़कें एकदम साफ- सुथरी नजर आती हैं, ये तो वाकई कमाल है, पता चलता है लोग कितने अनुशासित हैं, अपने शहर को प्यार करते हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी भी समझते हैं उसके प्रति।हम दो शहरों क्योटो और टोक्यो में रहे। 

जापान को "सूर्योदय का देश" कहा जाता है क्योंकि यह पूर्वी एशिया में स्थित है और पृथ्वी के चारों ओर घूमते समय सूर्य की पहली किरणें जापान में ही पड़ती हैं. इसे "निप्पॉन" (या निहोन) भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "सूर्य की उत्पत्ति". जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है।ये द्वीप एशिया के पूर्वी समुद्रतट, यानी उत्तर पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित हैं।

क्योतो जापान के यमाशिरों प्रांत में स्थित नगर है।क्वामू शासन काल में इसे 'हे यान जो' अर्थात् 'शांति का नगर' की संज्ञा दी गई थी। ११वीं शताब्दी तक क्योतो जापान की राजधानी था और आज भी पश्चिमी प्रदेश की राजधानी है। क्योटो छोटा धार्मिक शहर है जबकि टोक्यो पूरी सजधज सहित महानगर। दोनों शहरों की संस्कृति में साफ़ फर्क नजर आया।वैसा ही जैसे हमारी मुम्बई और मथुरा में नजर आता है। क्योटो में ज्यादातर टैक्सी ड्राइवर काफी बुजुर्ग मिले लेकिन टोक्यो में बनिस्बत यंग। लड़की हमें कहीं भी टैक्सी ड्राइवर नहीं मिलीं जैसी कि सिंगापुर, लंदन या यू एस में आम है। यहाँ पर बुजुर्ग काफी उम्र तक काम करते हैं और प्राय: अकेले ही शॉपिंग करते व घूमते मिल जाएंगे। 

जो प्योर वेजीटेरियन हैं उनको अपने साथ कुछ व्यवस्था करके ही जाना चाहिए । जगह- जगह आपको छोटे- बड़े रेस्टोरेंट खूब मिलेंगे लेकिन हर जगह चिकिन, मटन, बीफ़, फिश, प्रॉन, पोर्क के बेक होने की चिरांध हवा में तैरती मिलेगी।जापान में एक चीज़ का बहुत क्रेज दिखा वह है हरे रंग का माचा। माचा आइसक्रीम, माचा ड्रिंक, माचा चाय, माचा कैंडी क्या नहीं मिलेगा जबकि उसका टेस्ट कुछ कड़वा कसैला सा होता है परन्तु एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होने के कारण बहुत लोकप्रिय है। वैसे तो वीगन फूड के नाम पर आपको राइस विद वेज करी , वेज सुशी, जापानी काँजी, पास्ता, नूडल्स व पित्जा वगैरह मिल ही जाएगा। भूखे तो नहीं ही रहेंगे। मैकडोनल भी सभी जगह हैं पर फ्रैंच फ्रायज के अलावा तो क्या ही मिलेगा। कुछ इंडियन रेस्टोरेंट भी हैं जहाँ बहुत टेस्टी खाना मिला। बेकरी आइटम्स की बहुत वैरायटी होती है और बहुत टेस्टी भी। वैसे भी हम इंडियन विदेशों में थेपले तो ले ही जाते हैं अपने साथ😊

वहाँ के लोगों में एक मासूमियत दिखाई देती है। लोगों का व्यवहार बहुत ही सहयोगात्मक दिखा। किसी से कोई शॉप या रास्ता पूछो तो वह अपने हाथ का काम छोड़कर आपके साथ दूर तक साथ चल देगा।कमर से झुक कर इतनी बार अभिवादन करेंगे कि लगता है इनकी कमर दुख जाती होगी।होटल व रेस्टोरेंट में सभी का व्यवहार बहुत विनम्र व सहयोगी रहा। लेकिन अनुशासन व नियमों के मामले में कुछ ज्यादा ही कड़क ।बस वहाँ ज़्यादातर वोग जापानी लैंग्वेज में ही बात करते हैं , इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ।हमें कई जगह एप का सहारा लेना पड़ा ।प्राय: हर होटल में हरेक के लिए नाइट सूट या कीमोनो रूम में होता था।हमने ठाठ से नाइट गाउन की जगह कीमोनो पहनकर अपना ये शौक पूरा किया। 

वे नियम कायदों को बहुत सख्ती से फॉलो करते हैं, शायद इसी कारण वहां पर क्राइम बहुत कम है। म्यूजियम व आर्ट गैलरी में आप अपने बैग से निकालकर भी पानी नहीं पी सकते, आप रूम से बाहर जाकर ही पी सकते हैं । वर्ना मुस्तैद खड़ा स्टाफ आकर आपको कान में धीरे से मना कर देगा। मार्केट में आप शॉप पर ही आइसक्रीम खाइए चलते- चलते रास्ते में नहीं खा सकते। सड़क पर चलते समय जोर से कोई नहीं बोलता। कोई भी गाड़ी का हॉर्न नहीं बजाता। वे शहर में गाड़ी बहुत इत्मिनान से चलाते हैं , पैदल क्रॉस करने वालों के लिए इंतजार करेंगे, ओवरटेक भी नहीं करते। एक बार हमारे टैक्सी ड्राइवर ने हल्का सा ही हॉर्न बजा दिया तो सब उसको ऐसे घूरकर देखने लगे जैसे जघन्य अपराध कर दिया हो।

जापान की समृद्धि के पीछे जापानियों की अथक मेहनत साफ झलकती है। सुना है कि वहां के युवा अब शादी के बंधन से कतराने लगे हैं। काम व प्रमोशन की होड़ में कौन झंझट में फंसे ? ये भी सुना कि लोग घरों में चूहे पालते हैं और उनको बच्चों की तरह पालते हैं। कई लड़कियों को बेबी कैरियर में खूबसूरत छोटे-छोटे डॉग्स को सीने से लगाकर  दुलारते देखा।क्योटो मे स्टिक लगे फ्रोजन खीरे भी खूब बिकते दिखे।

यह जानकर बेहद दुख हुआ कि जापान में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं, निश्चित ही उनमें युवाओं की संख्या अधिक होगी। क्योटो पर तो धर्म का प्रभाव बहुत अधिक है…तब भी ? वह धर्म कैसा जो साहस , आशा व शक्ति का संचार न करे। वह समृद्धि किस काम की जिससे लोग तनाव, अकेलापन व असुरक्षित महसूस करें ? जीवन में बैलेंस होना बहुत जरूरी है आप सिर्फ भौतिकवादी होकर कैसे सुखी रह सकते हैं । इतना प्यारा देश, इतने प्यारे लोग…दुआ है काश इस काली छाया से बाहर निकल सकें…आमीन!!!

किसी देश की नब्ज पर हाथ रखना है तो इतिहास से ज्यादा जरूरी है वहाँ का साहित्य पढ़ा जाए। मन हुआ कुछ जापानी कविता  पढ़ने का तो गूगल बाबा ने बताया 'Matsuo Basho’की लबसे प्रसिद्ध हाइकु है-'द ओल्ड पॉन्ड’-

Furuike ya 

kawazu tobikomu 

mizu no oto


The old pond- 

a frog jumps in,

sound of water.

(पुराना तालाब...

पानी की आवाज़ में 

एक मेंढक कूदता है।)

क्या सिर्फ इतना भर अर्थ है इसका ? 

या यह कि, पुरानी मान्यताओं के तालाब में कुछ नवीन खुशी की तलाश में भटके हुए लोग पुन: छलांग लगा रहे हैं, यही या कुछ और…कभी भी किसी कृति का एक अर्थ नहीं होता …सोच रही हूँ, खंगाल रही हूँ क्या कारण हो सकता है इस हाइकू को इतना पसंद किए जाने के पीछे…आप भी सोचिए हम भी सोचते हैं…अभी काफी कुछ बाकी है…फिलहाल सायोनारा👋!!







शुक्रवार, 10 मई 2024

जरा सोचिए

    


अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है

क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है

हर समय उधार मांगती रहती है

कामवालों के नखरे बहुत हैं 

पूरी हीरोइन है , चोर है

जब देखो बीमारी का बहाना…

मेरा ड्राइवर बत्तमीज है

जवाब देता है, बेईमानी करता है

सच में, इन लोगों ने नाक में दम कर रखा है…

बिल्कुल सही..!

पर क्या कभी सोचा है कि आपकी मेड, माली, ड्राइवर, धोबी, चौकीदार, बच्चों का रिक्शेवाला…ये सब न हों तो आपका क्या हो ? इनकी बदौलत आप कितनी ऐश करते हैं? कितने शौक पूरे करते हैं, कितना आरामदायक व साधनसम्पन्न जीवन जीते हैं ? 

कोविड के दिनों में इनका महत्व काफी समझ आ गया था वैसे हमको और आपको । अपने ही घर का काम करते कमर दोहरी हो गई और मेनिक्योर, पेडिक्योर का तो बाजा बज गया था…नहीं ? 

आपके सहायक अपना कीमती समय, अपना परिश्रम देकर आपका व हमारा घर, आपके बच्चों को, आपके कपड़े, खाने- पीने को संभालती हैं, मदद करती हैं , आप आराम से सोते हुए या गाने सुनते यात्रा एन्जॉय करते हैं और आपका ड्राइवर एक ही मुद्रा में घन्टों ड्राइव करता है, गर्मी, सर्दी, बरसात घर के बाहर या गाड़ी में बैठा जीवन का कितना मूल्यवान समय आपके आराम व सुरक्षा पर खर्च करता है। हमारे सहायकों के  घर में कोई उत्सव हो, बच्चा या पति या बीवी बीमार हो, खुद बीमार हों किसी की डैथ  हो जाए तो भी आप बहुत अहसान जता कर डाँट- डपट कर एक दो दिन की छुट्टी देते हैं । ज़्यादा छुट्टी होने पर पैसे काट लेते हैं । आपके बच्चों को स्कूल से घर लाने वाले रिक्शे वाले के गर्मियों की छुट्टियों के पैसे नहीं देते जबकि आपको अपनी जॉब में छुट्टियों के पूरे पैसे मिलते हैं ।होली, दीवाली पर या कभी जरा सा कुछ बख़्शीश देकर आप कितनी शान से सबके बीच बखान करते हैं ।आपके सहायक कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों व अपने आराम को देने वाला समय आपको देते हैं । 

आप क्या देते हैं? ? ?

चन्द पैसे ? उतने ही न जितने आप एक बार में एक डिनर या एक ड्रेस या एक ट्रिप , या एक गिफ्ट में उड़ा देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता, फैशन की तो नकल हम करते हैं पर ये भी तो जानिए और नकल करिए कि विदेशों में वे सहायिकाओं को कितनी इज्जत, पैसा व सुविधा भी देते हैं । 

जरा सोचिए कि आप उनको जो कीमत देते हैं वो ज्यादा मूल्यवान  है या वो जो वे आपको देते हैं…कभी सोचा है ? हर चीज की कीमत पैसों से नहीं तोली जा सकती। जितना प्यार और सहानुभूति आप आपने पालतू पशु- पक्षी पर लुटाते हैं क्या उसके पचास प्रतिशत के भी ये हक़दार नहीं हैं?


मेरी बात कड़वी अवश्य लगेगी आपको लेकिन इंसानियत के नाते उनको डाँटने फटकारने, पैसे काटने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर

  — उषा किरण

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

रूढ़ियों के अंधेरे


 कल एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लड़के की माँ ने हल्का सा  यलो व पिंक कलर का बहुत सुन्दर राजस्थानी लहंगा पहना हुआ था और आभूषण व हल्के मेकअप में बेहद खूबसूरत लग रही थीं । आँखों की उदासी छिपा चेहरे पर हल्की मुस्कान व खुशी लेकर वे सबका वेलकम कर रही थीं। दूल्हे के पिता की कुछ वर्ष पहले ही कोविड से डैथ हो गई थी। मैंने गद्गद होकर उनको गले से लगा कर शुभकामनाएँ दीं और मन में दुआ दी कि सदा सुखी रहो बहादुर दोस्त !


ये बहुत अच्छी बात हुई कि पुरानी क्रूर रूढ़ियों को तोड़ कर बहुत सी स्त्रियाँ आगे बढ़ रही हैं । पढ़ी- लिखी , आत्मविश्वास से भरी स्त्री ही ये कर सकती हैं । पिता की मृत्यु के बाद माँ को सफेद या फीके वस्त्रों में बिना आभूषण व बिंदी में देख कर सबसे ज्यादा कष्ट बच्चों को ही होता है। तो अपने बच्चों की खुशी व आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ये जरूरी है कि माँ वैधव्य की उदासी से जितना शीघ्र हो सके निजात पाए और वैसे भी आज की नारी सिर्फ़ पति को रिझाने के लिए ही नहीं सजती है। वो सजती है तो खुद के लिए क्योंकि खुदको सुन्दर व संवरा देखकर उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। समाज में सम्मान व प्रशंसा मिलती है( ध्यान रखें समाज सिर्फ़ परपुरुषों से ही नहीं बना वहाँ स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग सभी हैं ) मेरा मानना है कि आपकी वेशभूषा व बाह्य आवरण का आपकी मन:स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है।


हर समय की उदासी डिप्रेशन में ले जाती है और जीवन ऊर्जा का ह्रास करती है व आस- पास नकारात्मकता फैलाती है।जीवन- मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है और किसी एक के जाने से दुनियाँ नहीं रुकती , एक के मरे सब नहीं मर जाते ….ये समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा है। इंसान के जाने के बाद बहुत सारी अधूरी ज़िम्मेदारियों का बोझ स्त्री पर व परिवार पर आ जाता है जिसके लिए सूझबूझ व दिल दिमाग़ की जागरूकता जरूरी है वर्ना खाल में छिपे भेड़ियों को बाहर निकलते देर नहीं लगती।


देखा गया है कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री के साथ जो भी क्रूरतापूर्ण आडम्बर भरे रिवाज होते हैं जैसे चूड़ी फोड़ना, सिंदूर पोंछना, बिछुए उतारना, सफ़ेद साड़ी पहनाना वगैरह , इस सबमें परिवार की स्त्रियाँ ही बढ़चढ़कर भाग लेती हैं । मेरे एक परिचित की अचानक डैथ हो जाने पर उसकी बहनों ने इतनी क्रूरता दिखाई कि दिल काँप उठा। पहले उसकी माँग में खूब सिंदूर भरा फिर सिंदूरदानी उसके पति के शव पर रख दी। फिर रोती- बिलखती , बेसुध सी उसकी पत्नि पर बाल्टी भर भर कर उसके सिर से डाल कर सिंदूर को धोया व सुहाग की निशानियों को उतारा गया।

कैसी क्रूरता है यह? यदि ये उनकी परम्परा है तो आग लगा देनी चाहिए ऐसी परम्पराओं को। 


क्या ही अच्छा होता यदि बहनें भाभी को दिल से लगाकर इन सड़े- गले  व क्रूर रिवाजों का बहिष्कार करतीं । यही नहीं आते ही उन्होंने बार- बार बेसुध होती भाभी के दूध की चाय व अन्न खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया कि ये सब उठावनी के बाद खा सकती है, बस काली चाय  व फल ही दिए जाएंगे। उसकी सहेलियों को बहुत कष्ट तो हुआ पर मन मसोस कर रह गईं। अगले ही दिन वे उसको व उसकी छोटी बेटी को अपने साथ गाँव ले गईं कि वहाँ पर ही बाकी रीति- रिवाजों का पालन होगा। कई दिन तक सोचकर दिल दहलता  रहा कि न जाने बेचारी के साथ वहाँ क्या-क्या क्रूरतापूर्ण आचरण हुआ होगा?


चाहकर भी हम हर जगह इसका विरोध नहीं कर सकते परन्तु जहाँ- जहाँ भी हमारी सामर्थ्य व अधिकार में सम्भव हो प्रतिकार करना चाहिए। रोने वाले के साथ बैठ कर रोना नहीं, यही है असली शोक- सम्वेदना।

—उषा किरण 

मेरे चश्मे से- अभिमान

                                            *  अभिमान *                                               ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 197...