ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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मंगलवार, 19 नवंबर 2024

खुशकिस्मत औरतें

 



ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें

जो जन्म देकर पाली गईं

अफीम चटा कर या गर्भ में ही

मार नहीं दी गईं,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पढ़ाई गईं

माँ- बाप की मेहरबानी से,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो ब्याही गईं

खूँटे की गैया सी,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो माँ बनीं पति के बच्चों की,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जिन्हें घर- द्वार सौंपे गये

पति के नाम वाली तख्ती के,

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पर्स टाँग ऑफिस गईं

पति की मेहरबानी से..!


जमाना बदल गया है

बढ़ रही हैं औरतें 

कर रही हैं तरक्की

देख रही हैं बाहरी दुनिया

ले रही हैं साँस खुली हवा में 

खुली हवा...खुला आकाश...!

क्या वाकई ?

कौन सा आकाश ?

जहाँ पगलाए घूम रहे हैं

जहरीली हवा में 

दृष्टि से ही नोच खाने वाले

घात लगाए गिद्ध-कौए !


कन्धे पर झूलता वो पर्स

जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं

ऊँची एड़ी पर

वो निकलती है घर से

बेटी के बुखार और

बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता

पति की झुँझलाहट कि

नहीं दिखती कटरीना सी

मोटी होती जा रही हो...!

सास की शिकायतों 

और तानों का पुलिन्दा

फिर चल दी महारानी

बन-ठन के...!


ऑफिस में बॉस की हिदायत

टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए

चेहरे पे मुस्कान चिपकाइए मोहतरमा

शॉपिंग की लम्बी लिस्ट

जीरा खत्म,नमक खत्म, तेल भी

कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी

लौट कर क्या पकेगा किचिन में 

घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर

कल टेस्ट है मुन्ना का...

सोच को ठेलती ट्रेन में पस्त सी 

ऊँघती रहती है !


ख़ुशक़िस्मत औरतें

महिनों के आखिर में लौटती हैं 

रुपयों की गड्डी लेकर

उनकी सेलरी

पासबुक, चैकबुक

सब लॉक हो जाती हैं

पति की सुरक्षित अलमारियों में !


खुश हैं बेवकूफ औरतें

सही ही तो है

कमाने की अकल तो है

पर कहाँ है उनमें

खरचने की तमीज !


पति गढ़वा  तो देते हैं 

कभी कोई जेवर

ला तो देते हैं

बनारसी साड़ी

जन्मदिवस पर 

लाते तो हैं केक

गाते हैं ताली बजा कर

हैप्पी बर्थडे टू यू

मगन हैं औरतें

निहाल हैं 

भागोंवाली  हैं 

वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!


सुन रही हैं दस-दस कानों से

ये अहसान क्या कम है कि

परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं

उनके चरणों में पड़ी हैं 

पाली जा रही हैं

नौकरी पर जा रही हैं 

पर्स टांग कर 

लिपिस्टिक लगा कर

वर्ना तो किसी गाँव में

ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर

फूँक रही होतीं चूल्हा

अपनी दादी, नानी 

या माँ की तरह...!


बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं 

ख़ुशक़िस्मत औरतें कि...

सबको खिला कर

चूल्हा ठंडा कर

माँ या दादी की तरह

आँगन में अमरूद की 

सब्ज छाँव में बैठ

दो जून की इत्मिनान की रोटी भी

अब नहीं रही उसके हिस्से !


घड़ी की सुइयों संग 

पैरों में चक्कर बाँध 

सुबह से रात तक भागती

क्या वाकई आज भी

ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??

                         उषा किरण -

फोटो: गूगल से साभार

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

तेरी रज़ा

 

कुछ छूट गए 

कुछ रूठ गए

संग चलते-चलते बिछड़ गए


छूटे हाथ भले ही हों

दूरी से मन कब छूटा है 

कुछ तो है जो भीतर-भीतर

चुपके से, छन्न से टूटा है


साजिश ये रची  तुम्हारी है

सब जानती हूँ मनमानी है

सबसे साथ छुड़ा साँवरे

संग रखने की तैयारी है


हो तेरी ही अभिलाषा पूरी 

रूठे मनाने की कहाँ अब

जरा भी हिम्मत है बाकी 

सच कहूँ तो अब बस

गठरी बाँधने की तैयारी है

अब सफर ही कितना बाकी है


वे हों न हों अब साथ मेरे

न ही सही वे पास मेरे

हर दुआ में हृदय बसे 

वे मेरे दुलारे प्यारे सभी

वे न सुनें, वे ना दीखें

पर उन पर मेरी ममता के 

सब्ज़ साए तो तारी हैं…


थका ये तन औ मन भी है

तपती धरती औ अम्बर है

टूटे धागों को जोड़ने की 

हिम्मत न हौसला बाकी है


न मेरे किए कुछ होता है

न मेरे चाहे से होना है

न कुछ औक़ात हमारी है

ना कुछ सामर्थ्य ही बाकी है

जो हुआ सब उसकी मर्ज़ी 

जो होगा सब उसकी मर्ज़ी 

रे मन फिर क्यूँ  तड़पता है

मन ही मन में क्यूँ रोता है


संभालो अपनी माया तुम

ले लो वापिस सब छद्म-बन्ध

अब मुक्त करो है यही अरज

ना बाँधना फिर फेरों का बन्ध


हो तेरी इच्छा पूर्ण प्रभु

तेरी ही रज़ा अब मेरी रज़ा 

जो रूठ गए या बिछड़ गए

खुद से न करना दूर कभी

बस पकड़े रहना हाथ सदा

संग-साथ ही रहना उनके प्रभु…!!!


                        — उषा किरण 🍁

फोटो; गूगल से साभार 

सोमवार, 22 जुलाई 2024

असुर

 



बहुत मुश्किल था 

एकदम नामुमकिन 

वैतरणी को पार करना 

पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से

उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी

हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!


हताश- निराश हो 

मैंने आह्वान किया दैत्यों का

हे असुरों विराजो

थोड़ा सा गरल

थोड़ी दानवता उधार दो मुझे 

वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !


वे खुश हुए

तुरन्त आत्मसात किया

अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को

मुझमें उतार दिया 

परास्त कर हर बाधा 

बहुत आसानी से

पार उतर आई हूँ मैं !

अब...


मुझे आगे की यात्रा पर जाना है

कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

हे असुरों आओ

जा न सकूँगी आगे 

तुम्हारी इन अमानतों सहित

ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त

ये आर - पार चीरती कटार

मुक्त करो इस दानवता से

पर नदारद हैं असुर !


ओह ! नहीं जानती थी

जितना मुमकिन है 

असुरों का आना

डेरा डाल देना अन्तस में

उतना ही नामुमकिन है 

उनका फिर वापिस जाना

मुक्त कर देना ...!


बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई

हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

आओ हे असुरों आओ

मुक्त करो

आओ......मुक्त करो मुझे

परन्तु....!


—उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 


                 

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

मौन




सुनो तुम-

एक ही तो ज़िंदगी है 

बार- बार

और कितनी बार 

उलट-पलट कर 

पढ़ती रहोगी उसे

तुम सोचती हो कि

बोल- बोल कर 

अपनी नाव से

शब्दों को उलीच 

बाहर फेंक दोगी

खाली कर दोगी मन

पर शब्दों का क्या है

हहरा कर 

आ जाते हैं वापिस

दुगने वेग से….

देखो जरा 

डगमगाने लगी है नौका

जिद छोड़ दो

यदि चाहती हो 

इनसे मुक्ति तो

कहा मानो 

चुप होकर बैठो और

गहरे मौन में उतर जाओ अब…!

                               —


उषाकिरण

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

नहीं है स्वाभिमान मुझमें…


 हाँ, नहीं है स्वाभिमान मुझमें


बेवकूफ बनती हूँ ,ताने-बातें सुनती हूँ 

ध्यान नहीं देती आड़ी- तिरछी बातों पर

अनदेखा करती हूँ चालबाज़ियाँ 


ऐसा नहीं कि समझ नहीं आती  

देर- सबेर सब समझ आती हैं 

पर अनजान बन, चुप रहती हूँ 

चुपचाप अपने अन्दर  बैठ 

देखती हूँ डुगडुगी वाले तमाशे


क्या सोचते हो

ये तिकड़में, होशियारी,ये शातिर चालें 

मक्कारी से भरे झूठ, छलावे

समझ नहीं आते, बौड़म हूँ….

सब समझ आते हैं, फिर भी

तुमको ताली बजाकर हंसने देती हूँ 

खुश होने देती हूँ 


कहते हो-

भलमानस-पना  दिखाती हूँ 

हाँ, तो भला मानुष और क्या दिखाएगा

नहीं है दुष्टता तो कहाँ से लाएगा ?


थे मेरी पिटारी में भी कभी तुम्हारी तरह 

पैने , जहरबुझे तीर

तरह- तरह के अस्त्र

भाँति- भाँति के मुखौटे

जब, जो चाहती , लगा 

दुनियादारी खूब निभाती 

फिर नहीं संभाले गए तो एक दिन

सौंप दिए लहरों के हवाले

बह जाने दिए दरिया में…


बदलते मौसम के साथ

फिर- फिर लौटेगा मेरा विश्वास 

सौ बार करूँगी प्यार 

क्योंकि सोचूँगी शायद 

अबके बदल गई होगी फिज़ाँ

हालाँकि जानती हूँ कि फितरत नहीं बदलती 

कभी भी, किसी की

जैसे नहीं बदलती मेरी भी…


खैर…..

अब खड़ी हूँ खुले मुँह, खाली हाथ

नीले आसमान के तले 

दे सकते हो तो दो खुलकर गाली, 

हँस सकते हो तुम ताली बजा कर तो हंसो

कर सकते हो उपेक्षा, अपमानित …


हाँ…नहीं है स्वाभिमान मुझमें…!!!


—उषा किरण

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

तीन तेरह



तीन मेरे तेरे तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तेरा तेरा

तेरा तेरा 

तेरा तेरा

तेरा

तेरा

तेरा 

तेरा 

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा….🌸🌼

                    —उषा किरण

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

दौड़



सुनो,

तुम मुझसे जैसे चाहो वैसे 

जब चाहो तब और जहाँ चाहो वहाँ 

आगे जा सकते हो 

तुमको जरा भी ज़रूरत नहीं कि

तुम मुझे कोहनी से  पीछे धकेलो या कि

धक्का मार कर या टंगड़ी अड़ा कर 

गिराओ या ताबड़तोड़ आगे भागो 

या अपने नुकीले नाखूनों से

मेरा मुँह नोचने की कोशिश करो या 

जहरीले पंजों से मेरी परछाइयों की ही

जड़ों को खोदने की कोशिश करो


तुमको ये सब करने की 

बिल्कुल ज़रूरत ही नहीं 

क्योंकि मैं तुमको बता दूँ कि 

मैं तो तुम्हारी अंधी दौड़ में 

कभी शामिल थी ही नहीं 

मैं हूँ ही नहीं तुममें से कोई एक नम्बर 

मुझे चाहिए नहीं तुम्हारा वो

चमकीला सतरंगी निस्सीम वितान

तुम्हारी जयकारों से गूँजता जहान

वेगवती आँधियाँ, तूफानी आवेग

आँखों, मनों में दहकती द्रोह-ज्वालाएं,दंभ


तुम हटो यहाँ से , 

मुझे कोसने काटने में 

अपना वक्त बर्बाद न करो वर्ना देखो

वे जो पीछे हैं आज, कल आगे बढ़ जाएंगे

तुमसे भी बहुत और आगे

पैरों में तूफान और साँसों में आँधियाँ भरे

वे दौड़े आ  रहे हैं…तुम भी भागो…


सुनो, मुझसे तो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा या 

विवाद होना ही नहीं चाहिए 

बिल्कुल भी नहीं 

मैं तो एक कोने में खड़ी हूँ कबसे

दौड़ने वाले बहुत आगे निकल गए 

दूर बुलंदी पर फहरा रही हैं पताकाएँ 

गा रही हैं उनका  यशगान ….जय हो 


मैं भी खुश हूँ बहुत सन्तुष्ट 

अपनी बनाई  इक छोटी सी धरती और 

छतरी भर आकाश से

साँसें चलने भर हवाएं और 

दो घूँट पानी  भी हैं पल्लू में 

आँखें बन्द कर सुन रही हूँ 

अपने अन्तर्मन में बजता सुकून भरा नाद

इससे ज्यादा सुन नहीं सकती

सह नहीं सकती वर्ना मेरे माथे की शिराओं में  

बहने लगता है लावा और

तलवों से निकलने लगती हैं ज्वालाएं


बहती नदी से एक दिन चुराया था जो

हथेलियों में थामा वो  फूल

कभी का मुरझा कर झर चुका…

बस चन्द बीज बाकी हैं 

देखूँ,रोप दूँ इनको भी  कहीं, 

किसी शीतल सी ठौर…

तो फिर चलूँ  मैं भी …!!

                               —उषा किरण🌼🍃

फोटो: गूगल से साभार 

बुधवार, 24 मई 2023

कोकून



क्या कभी सोचा है ?

वे जो अपने कोकून में बन्द हो बुनते रहते हैं गुपचुप रेशमी ताना- बाना

ताकि हम दो पल मिलजुल बैठ सकें सुकून से  रेशमी अहसास के तले

वे जुटाते रहते हैं अपनी ममता, अपना वक्त, अपनी कोमल सम्वेदनाएं

वे गुपचुप तुम्हारी धूप चुरा कर शीतल फुहार में बदल देना चाहते हैं 

उनका मकसद ही है कुछ रेशम-रेशम बुनना, रेशम-रेशम हो जाना…

क्यों डालना है उनको आजमाइश में ?

रहने दो न उनको अपने रेशमी कोकून में गुम


पर नहीं…तुम तो तुम हो 

तुम उनके बुने रेशमी धागों को आजमाते हो…तोड़ते हो….चटाक्

क्योंकि हक है तुम्हारे प्यार का…!

प्यार ? तुम भूल जाते हो कि कोई भी बुनावट ताने-बाने से ही बनती है शक या जोर आजमाइश से नहीं 

याद है न बचपन में रटते थे- 

"रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए 

टूटे से फिर न जुड़े जुडे गाँठ पड़ जाय…!”


इससे पहले कि वे आहत हो समेट लें अन्दर अपने ही अहसासों के 

रेशमी गुच्छे और उनमें मुँह छिपा खुद ही का दम घोंट लें

सुनो आजमाइश करने वालों…

समझो तड़ाक- फड़ाक करने वालों 

ये कोई भवन नहीं जो ईंट गारे से बनता हो

जिसमें लकड़ी सरिए लोहा खपता हो

कोमल रश्मियों से बुना बेहद नाज़ुक वितान है ये

सम्भल जाओ… रुक जाओ…!


रेशम बुनने वाले मन बहुत कोमल होते हैं  

कान लगा कर सुनो ध्यान से उनके मधुर रागिनी में बजते अन्तर्नाद में छिपे विलाप को 

बेशक वे तुम्हारी धूप चुराने का हौसला रखते हों पर धूप से झुलसते वे भी हैं 

पाँव उनके भी  लहुलुहान होते हैं ?

जिन रास्तों से गुजर कर वे तुम तक आए 

बेशक वे फूलों भरे तो न होंगे 

कोई भी रास्ता सिर्फ़ फूलों भरा कब होता है भला ?


तो यदि तुमको प्यार है रेशमी छाँव से तो

रेशम बुनने वाले उनके हाथों को थमने मत देना

इससे पहले कि वे गुम  हो जाएं अपने ही घायल जज़्बातों के बियाबान में 

रुक जाना, थाम लेना बढ़ कर उनके थके  हाथों को 

सहला देना लहुलुहान हुए पैरों को…!

                   —उषा किरण 🍂🌱



मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

साँझ

 


उतर रही है साँझ 

क्षितिज से

गालों पे 

फिर तिरे  दामन पे

पाँव रख 

हौले से 

बिखर गई गुलशन में

रक्स-ए-बहाराँ बन के….

                 - उषा किरण 🌸🍃🌱

रविवार, 12 मार्च 2023

छपाक






शाँत, सुन्दर, सौम्य , सजी-संवरी

नदी को देखते ही ये जो अकुला कर 

शीतल निर्मल जल में गहरे पैठ

तुम बहा देते हो अपनी मलिनता

डुबोते हो अपना ताप

बुझाते हो तृष्णा

फिर जब चाहते हो 

अपनी ठोकर से 

मस्ती में उछाल देते हो कंकड़ और

लहरों की हलचल से पुलकित 

मस्त चाल चल देते हो बेफिक्र

हंसते, गुनगुनाते… 


क्या तुमने कभी सोचा है

ये है जो शाँतमना-मन्थर-गति प्रवाहित 

उसके सीने में ज़ब्त हैं 

कितने तूफानों की स्मृतियाँ 

कितनी ताप की ऊष्मा

कितनी सर्द रातों की ठिठुरन

कितने कुहासे

कितने गहरे भँवर

कितनी दलदल

कितनी उलझी गाँठें 

और कितने गहरे काले अँधेरे….


तुम तो बस उठाते हो एक कंकड़ और 

पूरे जोर से उछाल देते हो उसके सीने में

छपाक….!!

                  — उषा किरण

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

स्वीकार




 स्वीकार

———-


धराआकाशजल,पवन को

हाजिरनाजिर मान

ऐलान करती हूँ आज

जाओ माफ कियामुक्त किया तुम्हें…!


ताउम्र उलझतीझगड़ती रही

तोहमतें लगाईंकलपती रही कि-

बोलो जरा

तुम्हारी मर्जी बिना जब

हिल सकता नहीं पत्ता भी तो

भला मेरी क्या बिसात 

फिर मेरे किए मेरे कैसे 

सब तेरेसब तेरे…!


फिर क्यूँ प्रारब्ध के चक्रवात में फंसी

जन्म जन्मान्तर से अनवरत भटक रही 

मेरा क्या है मुझमें जो भुगत रही हूँ 


थक गई हूँ अब और नहीं लड़ सकती

प्राण-शक्ति शिथिल और

दृष्टि धुँधला रही है

दूर क्षितिज पर टिमटिमाती मद्धिम लौ 

धीरे-धीरे निकट  रही है


पद भ्रमित हैंमन विकल

ढलती जाती है साँझ 

श्वास अवरुद्ध है और कण्ठ शुष्क 

हे प्रियबहुत हुआ.. बस

स्वीकार करो मेरा सर्वस्व 

अब तो खोलो काराअंगीकार करो


उड़ने दो उन्मुक्त मेरे राजहंस को

हाथ बढ़ाओसमा लो अब

अपनी निस्सीम बाहों में कि

भटकती यात्रा को मंजिल मिले

और बेचैन रूह सुकून पाए…!!!


                 — उषा किरण


रविवार, 11 सितंबर 2022

मायका

 



मायके जाने का  प्रोग्राम बनते ही उन दिनों

बेचैनी से कलैंडर पर दिन गिनते

बदल जाती थी चाल- ढाल

चमकती आँखों में पसर जाता सुकून,मन में ठंडक…!


मायके की देहरी पर गाड़ी रुकते ही पैर कब रुकते

गेट पर लटकती छोटी बहन, भाई को देख 

दौड़ पड़ती…भींच लेती छाती में जोर से

होंठ हँसते बेशक पर आँखें बरसतीं 

धूप और बारिशें एक साथ सजतीं…!


अम्माँ का नेह धीरे से आँखों से छलकता 

तो ताता का दुलार मुखर हो उठता

आ गई….आ गई बेटी…कह लाड़ भरा हाथ

सिर पर रख हँस पड़ते उछाह से

भूल जाते उम्र के दर्दों और थकान को…!


भैया साथ लग जाता तो छुटकी तुरन्त

पर्स की तलाशी में लग जाने क्या राज ढूँढती

उस दिन डॉक्टर का पर्चा पढ़ 

खुशी से उछलती- कूदती भागी थी

मैं पकड़ती तब तक तो वो शोर मचा चुकी थी…

अम्माँ ने बहुत ममता से मुस्कुरा कर 

धीरे से आँचल से आँखें पोंछीं 

उस बार विदा में अम्माँ ने खूब अचार, और नसीहतें 

साथ बाँधीं थीं…!!


जाने क्या था अम्माँ के आँचल और 

उस आँगन की हवा में 

साँसें जैसे खुल कर पूरी छाती में भर जाती थीं 

चौगुनी भूख सीधे चौके में खींच ले जाती

क्या पकाया,क्या बनाया कह बेसब्री से कढ़ाई से सीधे 

चम्मच भर खाते, आँखें बंद कर चटखारा लेते  

आत्मा तृप्त-मगन हो जाती…!


फिर चकरघिन्नी सी घूमती हर कमरे की

हर अलमारी को खोल उसकी खुशबू साँसों में उतारती 

अपनी संगिनी किताबों, डायरियों को 

छाती से लगा चूम लेती

नए लिए कपों, सामानों पर बहुत ममता से हाथ फेरती 

अरे वाह, ये कब लिया…कितना सुन्दर है

देखना, ये साड़ी अबके मैं ले जाऊँगी…!

अम्माँ कहतीं हाँ- हाँ और अबके अपना तानपूरा और बाकी सब भी साथ ले जाना…!


फिर मुड़ जाती अपने प्यारे से बगीचे में 

तितली सी थिरकती…चिड़िया सी चहकती

हर फूल, हर पत्ती पर हाथ फेर दुलारती

करौंदे, नीबू, जामुन, अमरूद जो मिलता 

गप से मुँह में डाल तृप्ति से मुस्काती…!


नहा- धोकर आँगन की सुनहरी धूप में 

कोई किताब ले गीले बाल फैला चारपाई पर 

इत्मिनान  से पसर कर भर आँख आसमान देखती

रात को तारों की झिलमिल में खोकर सोचती

अरे, तारे तो शायद वहाँ भी झिलमिलाते होंगे,कभी गौर नहीं किया

लम्बी साँसें भरती सोचती

यहाँ धूप कितनी सुनहरी है और हवा कितनी हल्की …!


यूँ तो काल के अंधेरे गर्भ में समय के साथ 

बिला चुका है वो सब कुछ 

लेकिन जब भी मेरी  बेटी अपने मायके आती है

मायके की धूप-हवा को तरसती मेरी रूह 

उसके उछाह और सुकून में समा कर 

गहरी- लम्बी साँसें चुपचाप भरती है…!!

—————————

—उषा किरण

शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

अफसोस


 

जाकर मिल भी लो दिल के करीब हैं जो

आजकलपरसों पर टालते ही मत रहो

निकालो कुछ वक्तहाथों में हाथ थाम 

प्यार की फुहारों में भीग  लो कुछ वक्त


क्या पता कल फिर वक्त मिले  मिले

हो सकता है किसी को तुम्हारा इंतजार हो

हो सकता है तुमको किसी का इंतज़ार है

पर वक्त तो तुम्हारा इंतजार नहीं करता


उसका तो फंदा अपने वक्त पर तैयार है

तुम टाल सकते हो,वक्त कभी नहीं टलता 

और तुम दिल में टीस दबाए हाथ मलते

एक दिन शामिल होगे उसकी शोक सभा में 

और बुदबुदाओगे भारी मन और भरे गले से 


माफ करना दोस्त  नहीं सका बस

अफसोस से भरे बेचैनी में तड़पते हुए 

इसके सिवा और क्या बचेगा कहने को-

ॐशान्तिॐशान्तिॐशान्ति 🙏💐

—————————————-

-उषा किरण 

सोमवार, 29 अगस्त 2022

वटवृ़क्ष

                   

                          


                      कैसे थक कर हार जाऊँ

                           उम्मीदों से बँधा

                     मन्नतों के धागों से लिपटा

                             वटवृक्ष हूँ मैं…!!


—————————

-उषा किरण

रविवार, 21 अगस्त 2022

वे

 


         

दो विपरीत  बहते छोरों को अचानक गठबंधन में बाँध दिया गया

ऐसे, जैसे कोई हादसा अचानक हो जाए


न प्यार था न परिचय

बस दो अजनबी…

न वो सूरज था न वो किरन 

न वो दिया था न वो बाती। 

न वो चाँद था और न वो चाँदनी

एकदम विपरीत थे वे दोनों…


एक शान्त तो दूसरी बेचैन

एक जमीनों पर पैर जमा कर रखता

तो दूसरी आसमानों में ऊँचाइयाँ नापती

तब भी चलते- चलते 

एक दूसरे के रास्तों में आ जाते

यूँ ही भिड़ जाते…


पर साथ चलना तो तय था

धीरे-धीरे महसूस हुआ वे विरोधी नहीं 

परस्पर पूरक थे एक दूजे के, तो फिर…

उसने जमीनें बाँटी थोड़ी 

तो उसने भी अपने आकाश के 

कुछ हिस्से उसके नाम कर दिए…


अब आख़िरी पड़ाव है

साँझ होने को है…

हैं तो आज भी वे बिल्कुल विपरीत 

लेकिन लोग कहते हैं कि उनकी शक्लें अब 

कुछ- कुछ मिलने लगी हैं…!

                      — उषा किरण

बुधवार, 17 अगस्त 2022

तुम कौन


 हटो तुम सब, यदि नहीं भाता मेरा तरीका तुमको, मत सिखाओ मुझे-

ये करो, ये न करो

ऐसे बोलो, ऐसा न बोलो

वहाँ जाओ, यहाँ मत जाओ

ये देखो, वो मत देखो

इससे बोलो, उससे मत बोलो

ये खाओ, वो न खाओ

से पहनो , ये न पहनो

ये लिखो, ये न लिखो

शऊर नहीं…ये क्या बेहूदगी

उम्र का लिहाज़ नहीं, बड़ी बन रहीं 

मुँह लटका है, जाने क्या गम है

जाने किस ख़ुशी में , उड़ी जा रहीं

बाल तो देखो, सफेदी आ गईं 

बुद्धि न आई...!

हाँ तो नहीं आई, क्या करें तो ?

ये मेरी जिंदगी, तुम कौन ?

सबकी पुड़िया बना रखो न अपनी जेब में

और हटो एक तरफ, आने दो जरा

कुछ ताजी हवा , कुछ खुशबू

सतरंगी किरणें, कुछ उजास

भरने दो लम्बी साँस…!

चन्द दिन, कुछ पंख ओस से भीगे  

ये जो हैं न मेरी मुट्ठी में

जी लेने दो, उड़ने दो मुझे

अब उन्मुक्त....!!

             —उषा किरण 


रविवार, 14 अगस्त 2022

वसीयत

 



     अगस्त पन्द्रह, उन्नीस सौ सैंतालिस 

        उस रात भी चाँद सोया नहीं था

           चाँद ! जब तुम कल आना 

                तो चाँदनी में नहाए

              ओस का  श्रृंगार किए

              बर्फानी रंग के ढेर सारे

                 आसमानी फूल भी

                 साथ में लेते आना

          मुझे नमन करना है शहीदों को

       मुझे नमन करना है उन योगियों को

          नींद से बोझिल मुँदी पलकों में

                सारी रात भटका किए

                     सपनों के हिरन-

                      हाँफता सूरज

                       कराहती नदी

                    टुकड़ा- टुकड़ा चाँद

                       काला आसमाँ

                    सिर पर कफन बाँधे

                        जुनूनी हौसले

                   गोलियों से भरी राहें

                      खून से रंगे सीने…

                    घबड़ा कर उठ बैठी

                       नतशिर बैठी हूँ 

                     नम आँखों से देखा

           पसीजी हथेलियों में एक वसीयत थी

                         वतन के नाम-

          "जो खून से है सींचा, वो चमन बचा के        

                          रखना…!”

                                          — उषा किरण 

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...