ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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गुरुवार, 7 अगस्त 2025

आजादी

 


"अरे रे गाड़ी रोको…रोको !”

"क्यों ?” गाड़ी चलाते शेखर ने पूछा

"गोलगप्पे खाने हैं।”

"इस सड़क पर कितनी धूल- मिट्टी उड़ रही है , छि: गंदी चाट…!”

"अच्छा ? पर पिछले महिने जब विभा दीदी  आई थी तब तुम यहीं खिलाने लाए थे न उनको, तब ये साफ थे ?”

"तुमसे तो हर बात में बहस करवा लो बस।”शेखर ने गाड़ी चलाते हुए कहा।

पूजा चुप होकर बैठ गई परन्तु घर आने पर पूजा ने शेखर से चाबी लेकर गाड़ी स्टार्ट की।

"अरे…अब कहाँ?”

"अभी आई जरा…”, कह कर चली गई।

आधे घन्टे बाद शेखर ने देखा डायनिंग टेबिल पर बैठी पूजा मजे ले लेकर गोलगप्पे खा रही है। हैरानी से उसे खाते देख शेखर चुपचाप बैडरूम में चला गया। पूजा के चेहरे पर मुस्कान थी, आज उसको जरा  ग़ुस्सा नहीं आया…!!

          —उषा किरण 

फाँस


अनुभा बाहर से लगातार साइकिल की घंटी बजा रही थी`अरे थम जरा, आ रही हूँ !’
'रूक, ये दही खाकर जा…प्रवेश पत्र ले लिया न ?’
`हाँ माँ ले लिया, बाय’ लपड़- झपड़ भागती शैलजा ने जल्दी से साइकिल निकाली और दोनों ने सरपट दौड़ाई। रास्ते में शायद कोई एक्सीडेंट होने की वजह से रोड ब्लॉक कर दी गई थी, अत: लम्बे रूट से जाने के कारण दोनों जब तक कॉलेज पहुँचीं तब तक सात बज कर पाँच मिनिट हो चुके थे। सब बच्चों को पेपर मिल चुके थे और तन्मय होकर लिखने में लगे थे । अनुभा ने कॉपी की एन्ट्री भरनी शुरु की ही  थी कि टीचर ने कहा -
"भई मैंने सात  बजने में पाँच मिनिट पर पेपर दिया है आपको, तो दस बजने में पाँच मिनिट पर कॉपी ले ली जाएगी, सब घड़ी मिला लें!’
धड़कते दिल से शैलजा ने लिखने की स्पीड बढ़ाई`ओह दस मिनिट तो बिना बात कम हो गए।’
दस बजने पर पाँच मिनिट पर कॉपी छीन ली गई। शैलजा को रोना आने लगा उसका एक क्वेश्चन रह गया था, जबकि उसे सब आता था लेकिन बाकी लोगों से उसे दस मिनिट कम मिले थे। बुझे मन से बाहर आई तो अनुभा भी रुआँसी खड़ी मिली। 
`कैसा हुआ पेपर ?’
`ज्यादा अच्छा नहीं !’ उसका चेहरा भी उतरा हुआ था। दोनों शैलजा के घर पहुँचीं तो शैलजा उसे खींच कर जबर्दस्ती घर ले गई-'चाय पीकर जाना !’
तभी शैलजा के पापा भी ड्यूटी से आ गए।वे भी उसी कॉलेज में इंगलिश के प्रॉफेसर थे।'बेटा कैसा हुआ पेपर?’
'पापा एक क्वेश्चन छूट गया’ उसने सारी बात बताई।
'किसकी ड्यूटी थी ?’
'हिस्ट्री वाले सरस सर और हिन्दी वाली अनुपमा मैम की!’
शैलजा के पापा तेज गुस्से में दोनों टीचर्स को गाली बकने लगे`बताओ सालों को  पाँच मिनिट पहले पेपर बाँटने की क्या तुक थी ? इसकी शिकायत की जाएगी प्रिंसिपल से, बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ है ये तो सरासर…!’ 
बहुत देर तक वे बड़बड़ाते रहे।
अनुभा सिर झुका कर चुपचाप चाय के सिप लेती रही। आज उसके कमरे में अनुभा के पापा की  ही ड्यूटी थी जो पूरे तीन घन्टे लगातार जोर-जोर से दूसरे टीचर के साथ राजनीतिक बहस कर रहे थे, बच्चों पर चीख रहे थे-
'ए लड़के सामने देख’
`अबे दो झापड़ दूँगा अभी’
`ए मोटू, कॉपी छीन लूँ तेरी’
`ए लड़की सीधी बैठ’
`अबे राजेश दो कप चाय बिस्कुट ला दे जरा!’
`नो चीटिंग…..’
उनके मचाए शोर व पूरे समय हा-हा, ही- ही करने के कारण वो लिखने पर जरा भी ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकी थी, परिणामतः सब कुछ आने पर भी वो आज पेपर ठीक से नहीं लिख सकी।
अनुभा मन ही मन  सोच रही थी, और इनकी शिकायत कौन, किससे करेगा ?
      — उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार 

किस ओर


अल्पना हाथ मुँह मटका कर अनुराधा को खूब खरी-खोटी और भरपूर ताने सुना, भन्ना कर, जहर उगल, पैर पटकती वापिस लौट गईं।शिप्रा ने बीच में बोलने की कोशिश की लेकिन अनुराधा ने इशारे से उसे  रोक दिया।

चाची के जाने के बाद शिप्रा फट पड़ी-

`मम्मी, क्यों सुनती हो आप सबकी इतनी बकवास? आपकी कोई गल्ती भी नहीं है, वो छोटी हैं आपसे और वो कितना कुछ बेबात सुना गईं ? आपको डाँट देना चाहिए था कस के…मतलब ही क्यों रखना ऐसे बत्तमीज लोगों से?’ शिप्रा का गुस्से से गला रुँध गया।

`अरे बेटा कैसी बात कर रही हो तुम ? अपनों को छोड़ा जाता है क्या ? देखो, दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक वो, जो समझदार होते हैं, सबको निभाते हैं, दूसरे वे मूर्ख, जिनको सब निभाते हैं…अब ये हमारे हाथ में है कि हम खुद को किस ओर रखते हैं !’

माँ शान्त-भाव से उठ कर चली गईं और शिप्रा सोचती रही कि, माँ कितनी बड़ी बात सूक्तियों में यूँ ही कह जाती हैं।

               — उषा किरण

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

कीमत ( लघुकथा)


हरे धनिए का डिब्बा खोला तो देखा काफी सड़ा पड़ा था। मेरी त्योरियाँ चढ़ गईं। कल ही तो आया था, गुड्डू से कहा था, जा भागकर एक गड्डी हरा धनिया ले आ।सोचा दस- बीस का होगा , लेकिन सब्जी वाला निकला महाचतुर, बच्चा समझ कर सौ का नोट धरा और मोटी सी गड्डी हरे धनिए की थमा दी।

"बताओ फ्री में  मिलता है, सौ का नोट रख लिया, भाई बड़ा महंगा पड़ा!”

"वो कह रहा था कि बरसात में मंहगा मिलता है “ गुड्डू सकपकाते हुए बोला। गुस्सा तो बहुत आया पर अब हरे धनिए के लिए क्या तो लड़ने जाऊँ मरी कड़ी धूप में , सोचकर बड़बड़ाते हुए दो डिब्बों में खूब सहेज कर फ्रिज में रख दिया। 

"कल ही तो सौ रुपए का मँगाया और आज सड़े पड़े हो?”मैंने झुँझलाकर कहा। 

“गल्ती तुम्हारी है सौ का नोट बच्चे को क्यों दिया, और मुझे क्यों सौ रुपये सुना रही हो , कोई सब्जी तो तुम्हारी मेरे बिना बनती नहीं, पर सब्जी वाले से झिकझिक करके मुझे हमेशा फ्री में ही लेती हो, मेरी कोई कीमत ही नहीं जैसे ” धनिए ने भी अकड़कर कहा।

“ओहो…तो इसीलिए सड़ गए ?”

"हाँ इसीलिए….क्योंकि कुछ लोगों को फ़्री में मिले की क़ीमत समझ नहीं आती, सड़ जाओ तभी समझ आती है।” धनिए ने गर्दन झटककर कहा।

           — उषा किरण 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

गरीब ( लघुकथा)


कोरोना के कारण दो साल तक आर्यन की बर्थडे पर कोई नहीं जा सका था तो मानसी ने इस बार सबको फोन पर जोर देकर कहा कि इस बर्थडे पर सबको  जरूर आना है|

दिन में  आर्यन ने अपने दोस्तों के साथ बर्थडे सेलिब्रेट की और शाम को पारिवारिक पार्टी होटल में थी, तो सब टाइम से तैयार होकर वहीं पहुँच गए। 

केक काट कर हंसी मजाक के बीच खाना- पीना चल रहा था। मेरी दृष्टि सामने की टेबिल पर बार-बार जा रही थी, जहाँ बहुत सुन्दर परिवार के दस-बारह सदस्य और तीन बच्चे बैठे थे ।खूब मंहगे डायमंड के जेवरों में झिलमिलाती व ब्रांडेड कपडों में सजी औरतों से आती इम्पोर्टेड परफ़्यूम की खुशबुओं के झोंकों  से पूरा माहौल गमक रहा था। 

सहसा मेरा ध्यान उनमें से एक बुजुर्ग महिला पर गया।

" अरे ये तो मिसेज चड्ढा  हैं…!” मेरे मुंह से अनायास ही निकला ।

" आप पहचानती हैं इन लोगों को ? “ मानसी ने पूछा। 

" हाँ, कई साल पहले ये हमारे पड़ोसी थे। इनकी तब बहुत  छोटी सी दुकान हुआ करती थी। परन्तु आज सुना है कि दिल्ली के किसी मॉल में खूब बड़ी दुकान है और बड़े बेटे ने रेडीमेट गारमेन्ट्स की फैक्ट्री डाली है …किस्मत से खूब लक्ष्मी जी की कृपा है अब !” 

 उनके साथ प्रैम में छोटे बच्चे को लेकर आई  बारह तेरह साल की एक लड़की भी थी। वेष-भूषा से वो बच्चे की सेविका लग रही थी। बच्चा प्रैम में सो रहा था और वो लड़की दूसरी छोटी मेज पर बैठी उन सबको खाते टुकुर-टुकुर देख रही थी। उसके सूखे होंठ, मुरझाया चेहरा और कातर बड़ी-बड़ी आँखें देख कर मन बहुत बेचैन हो उठा। मेरा मन कर रहा था उसे अपनी टेबिल पर लाकर पेट भरके खिला- पिला दूँ, परन्तु यह संभव नहीं था।उन सबकी प्लेटें मंहगे, लजीज बुफे के पकवानों से भरी थीं, जिसे वे भर-भर कर लाते  और आधा खाते, आधा छोड़ते और फिर दूसरी और  तीसरी प्लेट भर लाते। 

मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था कि उस लड़की को कम से कम पूरा बुफे न भी खिलाते पर डोसा , बर्गर टाइप  कुछ न कुछ तो खिला सकते थे।सब बच्चे-बड़े खा रहे हैं और बच्ची बेचारी  भूखी बैठी उन्हें देख रही है।

सहसा किसी ने मेरे कन्धे को स्पर्श किया तो मैंने पलट कर देखा। मिसेज चड्ढा बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराती हुई खड़ी थीं। 

" अरे आप ? बहुत सालों बाद देखा, आप तो जरा भी  नहीं बदलीं…कैसी हैं?” मैं हैरान थी , वाकई बीस सालों बाद भी उम्र की एक भी लकीर उनको छू तक नहीं गई थी। बल्कि स्वास्थ्य व सुकून की लालिमा ने चेहरे का सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया था।

" तो आप ही कहाँ बदलीं? पहले से ज़्यादा निखर गई हैं।माफ़ कीजिए, आपको देखा तो रुका नहीं गया, मिलने चली आई।” कहते हुए हंस कर गले लग गईं । 

हमने एक- दूसरे की खैर- खबर और फोन नं० लिए। उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे-बहू की मैरिज एनिवर्सरी है आज, वही सेलिब्रेट करने आई थीं पूरे परिवार के साथ। आगे मिलने का वादा लेकर वे अपनी टेबिल पर परिवार के पास लौटने लगीं, तभी शरद फुसफुसा कर मानसी से बोला-

" मम्मी तो कह रही थीं कि बहुत अमीर हो गए हैं अब ये लोग, पर हैं तो अभी भी गरीब ही। देखो न, एक छोटी बच्ची को खिलाने के लिए बेचारों के पास पैसे कम पड़ गए …!” 

उसके लहजे में तीखा  व्यंग्य था। उसकी फुसफुसाहट काफी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मैं समझ गई उसकी मंशा। मैंने आँखें तरेर कर  उसे चुप रहने का इशारा किया…घबड़ा कर मिसेज चड्ढा की तरफ देखा …जाते- जाते उनके कदम कुछ पल  ठिठके …फिर आँखें  झुकाए वे तेजी से अपनी टेबिल पर वापिस लौट गईं।

                        — उषा किरण

भ्रम (लघुकथा)

 

                   

सर्द कोहरे से भरी सुबह…जीवन के खो गए पृष्ठ को तलाशती सी दीपा बयालीस सालों बाद फिर से उसी शहर के, उसी पार्क के, गुलमोहर के नीचे बनी बेंच की तरफ अनमनी सी बढ़ रही है। ना जाने कौन सी कशिश उसे वहाँ लिए जा रही है। 

अरे…वहां तो पहले ही कोई वृद्ध हाथ में गुलमोहर का गुच्छा थामे विचारमग्न बैठे हैं। वह बराबर वाली बेन्च पर आहिस्ता से बैठ गई…!

दोनों ने एक-दूसरे को गौर से पर अजनबी , खोजती निगाहों से कई बार देखा…दोनों की टटोलती सी दृष्टि में कई सवाल थे पर मौन। मन किया पास जाकर नाम पूछ ले , कहीं वही तो नहीं…फिर सोचा कुछ भ्रम भी भले लगते हैं…बने रहने चाहिए।

एक घंटे बाद  शॉल कसकर लपेटते हुए वह बाहर की तरफ चल दी…!!

                           — उषा किरण 

फोटो; गूगल से साभार 


गुरुवार, 2 जनवरी 2025

पितृदोष, पहचान ( लघुकथा)

                       


 'वैश्विक लघुकथा पीयूष’ में दो लघुकथाएं छपी हैं। धन्यवाद ओम प्रकाश गुप्ता जी…आप भी पढ़ कर अपनी राय दीजिए-

                                  पितृदोष 

                                    ~~~~

"हैलो सुगन्धा, बात सुन…कल न ग्यारह बजे तक आ जाना और सुन लन्च भी यहीं मेरे साथ करना है !”

"कल क्या है ? एनिवर्सरी तो तुम्हारी फरवरी में है न, फिर किसका बर्थडे….?”

"अरे नहीं …कल पितृदोष के निवारण का अनुष्ठान है।”

"पितृदोष…?”

"हाँ रे, क्या बताऊँ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा आजकल। सुबोध का प्रमोशन हर बार रुक जाता है, अनन्या का इस बार भी सी पी एम टी में रह गया, ऊपर से आए दिन कोई न कोई बीमार रहता है। हार कर मम्मी के कहने पर सदरवाले पंडित जी को जन्मपत्री दिखाई थी, तो उन्होंने बताया कि पितृदोष है हम दोनों की पत्री में …जब तक उपाय नहीं होगा तब तक सुख-समृद्धि नहीं आएगी घर में।”

" ओह…अच्छा, ठीक है…आ जाऊंगी ।”

दूसरे दिन ऑफिस से हाफ डे की छुट्टी लेकर जैसे ही चित्रा के घर पहुंची तो बाहर से ही विशाल कोठी की सजावट देख दिल ख़ुश हो गया। गेंदे और अशोक के पत्तों के बन्दरवार, रंगों व फूलों की रंगोली, धीमे- धीमे बजता गायत्री मन्त्र और  अगर- धूप की अलौकिक सुगन्ध ने मन मोह लिया। रसोई से पकवानों की मनमोहक सुगन्ध घर के बाहर तक आ रही थी। अन्दर पीले वस्त्रों में सज्जित  दो पंडित पूजा की भव्य तैयारियों में  व्यस्त थे।प्रफुल्लित चित्रा भाग-भागकर उनको जरूरत का सामान लाकर दे रही थी।

"ये लीजिए पंडित जी आपने कहा था नाग का जोड़ा  बनवाने को…!” उसने एक छोटी मखमली लाल डिब्बी पंडित जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, जिसमें नगीने जड़ा , सुन्दर सा सोने का नाग का जोड़ा रखा था।

"आ गईं तुम …बैठो- बैठो बस पूजा शुरु होने ही वाली है…अरे बबली, जरा  आँटी के लिए ठंडाई लाना …” चित्रा ने आगे बढ़ कर स्नेह से मेरे हाथ थाम लिए।

बबली कुल्हड़ में बादाम केसर की  ठंडाई लेकर आई।मेरा गला सूख रहा था। ठंडाई और ए. सी. से राहत पाकर मैंने अनन्या से कहा-"अनन्या बेटे बाथरूम कहाँ है?

"जी आँटी…यहाँ तो बाथरूम की सफाई चल रही है आप ऊपर वाले बाथरूम में चलिए मेरे साथ” अनन्या मुझे अपने साथ ऊपर ले गई। 

जीने के सामने ही एक छोटे से घुटे हुए  कमरे में कोई कमजोर से वृद्ध पुरानी, मैली सी धोती पहने बैड पर बैठे थे। ऊपरी तन पर कुछ नहीं था। गर्मी के कारण बनियान उतार कर पास ही रखी थी। छत पर पुराना सा पंखा खटर- खटर चल रहा था,  जिसमें से आवाज ज्यादा, हवा कम ही आ रही थी।जून की तपती गर्मी से बेहाल लाल चेहरा, टपकता हुआ पसीना…। 

उनकी उजाड़ बेनूर, फटी- फटी ,दयनीय सी आँखें मेरे  चेहरे पर जम गईं, मानो भीड़ में खोया बच्चा मुझसे  अपना पता पूछ रहा हो। 

स्टूल पर रखा अपना खाली गिलास काँपते हाथों से आगे कर  सूखे मुंह से धीमी  आवाज में कहा "पानी…!”

"जी बाबाजी अभी लाई…आँटी वो उधर लेफ्ट में बाथरूम है …मैं जरा पानी लेकर अभी आई।”

उन बेनूर, बेचैन आँखों की तपिश मुझसे झेली नहीं गई…मैं आगे बढ़ गई। नीचे से पितृदोष-निवारणार्थ अनुष्ठान के पावन मन्त्रों की आवाजें तेज-तेज आने लगी थीं…।

                                    **

                                पहचान 

                               ~~~~~                              

राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण          




                         

गुरुवार, 30 मई 2024

इससे पहले

 ज़िंदगी में कुछ हादसे, कुछ लोग या उनसे जुड़ी बातें या कुछ अफ़सोस ऐसे होते हैं जो सालों बाद भी पीछा नहीं छोड़ते।चाह कर भी भुला नहीं पाते और वे हमारी विचारधारा व जीवनधारा को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं।

लगभग बाइस - तेइस साल पहले मेरा एक माली था मोहन, जो बिल्कुल ही चुप रहता था, बस जितना पूछो उतना जवाब दे देता था। पैंतीस , चालीस के बीच का होगा।कई घरों में काम  करता था। बाकी सहायकों ने बताया कि वो शराब पीता है तो कई बार मैंने उसे समझाया भी । वह सिर झुका कर अपना काम करता जवाब नहीं देता था। चुपचाप आता था और क्यारियों व लॉन में जो भी जितना काम बताओ, करके चला जाता था। अब जो इतना चुप्पा हो उससे कोई कहाँ तक सिर मारे ? फिर उसी समय मैं भी कैंसर जैसी असाध्य बीमारी के चंगुल में फँसकर डॉक्टर व हॉस्पिटल के चक्रवात में फंसी जीवन व मृत्यु के बीच कहीं खड़ी थी। सारा  परिवार स्तब्ध व तनावग्रस्त था। तो मुझे खुद अपनी ही खबर नहीं थी और न ही घर परिवार व सहायकों की। 

एक दिन सहसा खबर मिली कि वो सोते - सोते मर गया। मैं हैरान रह गई। ड्राइवर और बाकी सहायकों से पता चला कि वो खाली पेट शराब पीता रहता था जब भूख लगती तो हमारी क्यारी से तोड़ कर भिंडी या मूली खा लेता , या जामुन बीन कर खा लेता था। "अरे ! कच्ची भिंडी ?और  ये बात तुम लोग मुझे अब बता रहे हो ? तब क्यों नहीं बताया ? या तुम ही खाना खिला दिया करते अंदर से लाकर “ मैं गुस्से और ग्लानि से भर गई। पर अब क्या हो सकता था ? मैं खुद को भी मन ही मन कोस रही थी कि घर में रोज  इतना खाना बनता है, और फ्रिज में  भी बचा हुआ रखा रहता है यदि समय पर पता चलता तो मैं ही उसे रोज कम से कम एक वक्त का तो खाना खिला ही सकती थी। मेरा मन मुझे लानतें भेजता कि मेरे यहाँ काम करने वाला एक कर्मचारी भूखे पेट पी- पीकर मर गया और मुझको खबर भी नहीं हुई…डूब मरो  ! उसका गाँव कहीं पटना के पास था। घर पैसे भेजता होगा और  शराब पीने के बाद इतना पैसा बचता ही नहीं होगा कि पेट भर खाना खा सके। 

उसके बाद से मैं बहुत ज़्यादा सजग हो गई। सभी सहायकों को व उनके परिवार, उनकी सेहत, भूख प्यास सबको ज्यादा पूछती हूँ व मदद भी करती हूँ ।पर वो जो अफसोस है वो अब भी मन को कचोटता है। हमें ज़्यादा संवेदनशील व सजग होना ही चाहिए इनके प्रति। ये लोग पूरब से , नेपाल व पहाड़ों और जाने कहाँ- कहाँ के गाँवों से बेहद गरीबी के मारे आते हैं चार पैसे कमाने के लिए। कई तरह की बीमारियों, अभावों व कुंठाओं से ये जूझ रहे होते हैं। अशिक्षित होने के कारण ज़्यादा सोच- विचार की बुद्धि भी नहीं होती। कई बार जघन्य अपराधों में भी संलग्न हो जाते हैं । इनके जीवन  में मनोरंजन का अभाव रहता है तो ये शराब के उन्माद को ही एन्जॉय करने लगते हैं । इनकी सोच- समझ इतनी वीक हो जाती है कि खुद नहीं निकल पाते इस जाल से। 

यहाँ मेरे लिखने का मक़सद सिर्फ़ यही है कि आप बड़ी- बड़ी समाज सेवा बेशक न करें, कम्बल बाँटकर फोटो भले न छपवाएं पर यदि अपने सहायकों को किसी तरह समझाकर, इलाज कर किसी तरह मदद कर सकें तो ये बहुत बड़ी मानव सेवा है। इस तरह आप न सिर्फ़ इनकी बल्कि इनके परिवार की भी मदद कर सकते हैं। हो सकता है ये आपको जवाब दें, बहस करें, बत्तमीजी भी कर दें , काम छोड़कर जाने की धमकी भी देते हैं। तब बहुत क्रोध आता है कि भाड़ में जाओ फिर। लेकिन तब भी विवेकपूर्वक व धैर्य से इनके सुख- दुख पर नजर रखना और उदार होना हमारा फ़र्ज़ है। हम समर्थ हैं और बौद्धिक स्तर पर भी बेहतर सोच सकते हैं  तो इनकी मदद करनी चाहिए ताकि  फिर हमारा या आपका कोई और मोहन यूँ जिंदगी की लड़ाई न हार जाए।

                            —🌸🌿उषा किरण



बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

छोटी देवी (लघुकथा)


 अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ेंगे तो मुझे खुशी होगी 😊_________________


छोटी  देवी 

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सुबह से घर में चहल- पहल है । आज अम्माँ जी के एकादशी का उद्यापन है । पंडित जी आँगन में पूजा की तैयारियों में व्यस्त हैं ।अम्माँ जी भी पास कुर्सी पर बैठी निगरानी कर रही हैं ।

अम्माँ जी ने ठाकुर जी की सेवा ले रखी है। वे ठाकुर जी की दिन- रात सेवा में लगी बुरी तरह थक जाती हैं पर उनका श्रंगार, भोजन, स्नान इत्यादि सब अपने ही हाथ से करती हैं । सारे दिन उनका हाथ में माला पर जाप चलता ही रहता है। 

एक दिन चित्रांगदा से बोलीं- “बहू सोच रही हूँ एकादशी का उद्यापन कर ही  दूँ, न जाने कब गोपाल जी अपने पास बुला लें ।” 

आज उसी अनुष्ठान की तैयारी चल रही है।

" अरी बहू गंगाजल नहीं है, जरा पूजा से उठा लाइयो !” गंगाजल लाने गई चित्रांगदा ने पूजा के कमरे से ही शोर सा सुना। अम्माँ जी गुस्से से चिल्ला रही थीं और पंडित जी का भी ऊँचा स्वर सुनाई दे रहा था।

" हे राम इतनी सी देर में क्या गड़बड़ हो गई…” बड़बड़ाती - हड़बड़ाती हुई चित्रांगदा नीचे भागी। 

जाकर क्या देखती है कि रीना किचिन में खाना बनाने  में व्यस्त थी, इसी बीच न जाने कब  किचिन से निकल कर घुटने चलती हुई उसकी साल भर की बेटी भोग वाले डिब्बे से लड्डू निकाल कर, सारे उपद्रव से बेख़बर गाल भर- भर कर खूब मजे से, हिल- हिल कर लड्डू खाती हुई किलक रही है और अम्माँ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका है । 

पंडित जी भी भ्रष्ट- भ्रष्ट कह कर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।रीना रसोई से भाग कर आई और आटा लगे हाथों से  शर्मिंदा सी नतशिर खड़ी हो गई।अम्माँ जी उसे बुरी तरह से डाँटने लगीं।

चित्रांगदा ने लपक कर बच्ची को गोद में उठा लिया और हंस कर बोली " अरे पंडित जी देखिए तो  ये वही साक्षात देवी मैया तो  हैं, जिनके आप कंजकों में पाँव पूजते हैं। ठाकुर जी से पहले भोली मैया ने भोग लगा लिया तो  क्या हो गया! कुछ नहीं होता, बच्चा है !”

" शैतान कहीं की” बच्चे के गाल पर हंसते हुए एक हल्की सी चपत लगा कर , खिसियाई, नत- शिर खड़ी रीना का  हाथ पकड़कर चित्रांगदा वहाँ से ले गई।

                                  —उषा किरण 

अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी यह लघुकथा दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।

शनिवार, 2 सितंबर 2023

टेढ़ी उंगली ( लघुकथा)

अहा ! ज़िंदगी, मासिक पत्रिका में सितम्बर, 23 अंक में मेरी लघुकथा `टेढ़ी उंगली’ प्रकाशित हुई है। अहा ! ज़िंदगी पत्रि​का दैनिक भास्कर ऐप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।आप भी पढ़िए-


                       ~  टेढ़ी उंगली ~

"बात सुनो,  किचिन में कूलर लगवा दो, बहुत गर्मी लगती है!” दूसरी मंजिल पर खुली छत पर बनी और तीन तरफ़ से खुली होने पर सीधी धूप आने के कारण मई- जून में भट्टी सी तपती थी रसोई।ऊपर से बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं तो उनकी नित नई फरमाइश अलग से । आज ये बनाओ मम्मी , कल वो बनाओ। परेशान होकर शुभा ने आज फिर राघव से कहा।

"अरे कहीं देखा है किचिन में कूलर ? फिर कूलर की हवा गैस पर लगेगी कि नहीं?”राघव ने लापरवाही से कहा।

"हाँ देखा है , खूब देखा है, कूलर क्या ए. सी. भी देखा है। और खिड़की में थोड़ा सा तिरछा करके लगा देंगे…अरे वो सब मेरा सिरदर्द है, मैं मैनेज कर लूँगी न…तुम बस आज छोटा कूलर लेकर आओ। कबसे कह रही हूँ तुम सुनते क्यों नहीं हो ? तुमको खाना बनाना पड़े तो पता चले। बना- बनाया मिल जाता है, तो तुमको क्या पड़ी है….!” 

बहुत देर तक शुभा झुँझला कर छनछनाती रही लेकिन राघव न्यूज पेपर में सिर घुसाए तटस्थ भाव से अनसुना कर बैठे रहे। 

आज शुभा का गुस्सा चरम पर था। चेहरा गर्मी और क्रोध से लाल भभूका हो रहा था। ऐसे काम नहीं चलेगा कुछ करना पड़ेगा । मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराई।

कुकर गैस पर चढ़ा कर राघव से बोली " देखो दो सीटी आ जाएं तो गैस बन्द कर देना मैं नहाने जा रही हूँ ।” बाथरूम में जाकर चुपचाप सीटी आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दो सीटी आईं राघव के रसोई में जाते ही दबे पाँव शुभा ने दौड़ कर रसोई का दरवाजा बन्द करके बाहर से कुँडी लगा दी।

"अरे रे…ये क्या कर रही हो ? खोलो दरवाजा”

" शर्मा जी जरा दस मिनिट तो देखो खड़े होकर, मैं नहा कर आती हूँ , तब तक कश्मीर के मजे लो ।” राघव का गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया। बेतरह गर्मी से बेहाल होकर चीख- पुकार मचाने लगे। 

ऊपर के कमरे में पढ़ रही पूजा पापा की आवाज़ सुनकर दौड़ी आई और किचिन का दरवाजा खोला। बौखलाए से राघव बड़बड़ाते हुए कमरे में कूलर के सामने भागे। माँ की हरकत सुनकर हंस कर पूजा बोली "हा-हा …पापा बिना बात क्यों पंगा लेते हो मम्मी से, सीधी तरह से मान क्यों नहीं लेते उनकी बात !”

शाम को किचिन में गुनगुनाते हुए शुभा कूलर की ठंडी बयार में मुस्कुराते हुए बड़े मन से डोसा बना रही थी।

                                    — उषा किरण🌸🍃




रविवार, 25 सितंबर 2022

शर्मसार ( लघुकथा)

 


"आपका खून लगने से ये नया चाकू एकदमी खुट्टल हो गया!” सब्जी काटते-काटते गीता ने मुझसे कहा।

"क्या मतलब?”मैंने उत्सुकता से पूछा !

"हमारे पहाड़ में कहते हैं कि नई दराँती या चाकू से यदि किसी का हाथ कट जाए तो उसकी धार खत्म हो जाती है !” मैं अविश्वास से हंस पड़ी।

"अरे ऐसा भी होता है कहीं?”

मैंने समझाया उसे पर वो उल्टा मुझे समझाती रही कि "नईं ये बात एकदम सच है।”

शाम को  जब मैं उसी चाकू से प्याज काट रही थी तो हैरान रह गई वाकई उसकी धार भोथरी हो गई थी । सालों पुराने चाकू उससे तेज थे और उसके साथ आया दूसरा चाकू भी बेहद खतरनाक था लेकिन इस वाले से  तो फल भी नहीं काटे जा पा रहे थे।

मुझे बड़ी हैरानी हुई कि जो नया चाकू हफ्ते भर पहले ही इतना तेज था कि उससे मेरी उंगली बहुत गहरी कट गई थी, खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, सारे उपाय करने पर भी बहुत देर बाद बन्द हुआ और बहुत खून बह गया था। आज उसकी धार एकदम ही खत्म हो गई थी।

मैंने हैरानी से गीता से पूछा "अरे ये क्या चक्कर है ? क्या कहते हैं तुम्हारे पहाड़ में, ऐसा क्यों होता है ?”

"हम कहते वो शर्मिंदा हो गया!” 

वो हँस कर बोली ! तब से मैं ने उसका नाम ही शर्मिंदा चाकू रख दिया है।

अक्सर सोचती हूँ  इंसान अपने कर्मों और  बातों से जाने किस- किस को, कब- कब यूँ ही आराम से आहत करता है। इँसान अपने फायदे या गुस्से की खातिर दूसरे का गला काट देता है., अपने कर्मों और जहरीली  बातों से किसी का भी दिल तोड़ते जरा नहीं सोचता। हम शारीरिक, भावनात्मक हर तरह की हिंसा करते हैं, पर जरा शर्मिंदा नहीं होते। किसी की बनी- बनाई साफ- सुथरी इमेज पर डाह, क्रोध व ईर्ष्या की छुरी चला कर उसकी आजन्म सहेजी मर्यादा, गरिमा व सम्मान का पल भर में कत्ल करते जरा नहीं सोचते और ये चाकू जिसका धर्म ही है काटना वो अपनी वजह से किसी का खून बहते देख कितना शर्मिंदा हुआ पड़ा है ...कमाल है ! 

सच मुझे बहुत हैरानी है, अपने उस चाकू की शर्मिंदगी पर ...प्यार आता है उसकी कोमल सम्वेदना पर ।मैं बुदबुदा कर कहती हूँ कि "मैंने माफ किया तुझे, अरे, गल्ती तो मेरी ही थी, हर समय जल्दी रहती है तो लापरवाही से कट गयी उँगली, तुम्हारी क्या गलती है इसमें ?” लेकिन कोई फ़ायदा नहीं होता उसकी शर्मिंदगी नहीं जाती ...धार वापिस नहीं आती। हम इंसानों से तो ये चाकू ही कितना भला और गैरतमन्द है ...नहीं?

—————————————

  —उषा किरण

शनिवार, 2 जुलाई 2022

आधी रोटी ( लघुकथा)



शादी की कई रस्मों में से एक मनभावन रस्म है पग फेरों की।नवब्याहता बेटी शादी के बाद जब पहली बार सजी- धजी दामाद संग मायके आती है तो कुछ अलग ही उल्लास व उछाह मन में व घर भर में छा जाता है।

लॉन में दिसम्बर की  सुनहरी सी धूप में बेटी मनिका और दामाद शेखर बीनबैग में अधलेटे से आराम से चाय पीते बातों में मशगूल थे।चेहरों पर खुशी के साथ थकान भी थी। दबके और पोत की कढाई वाली गुलाबी साड़ी में मनिका का गोरा गुलाबी रंग- रूप खूब दमक रहा था।सिंदूर, बिंदी, मेंहदी , चूड़े से सजी और खुले कमर से नीचे तक लहराते लम्बे बालों में वह कितनी सुन्दर लग रही थी। शेखर की सौम्य व सुन्दर छवि पर तो सुधा पहले ही दिन से  मुग्ध हो गई थी। राम- सीता सी बेटी- दामाद की जोड़ी को निहारती, निहाल सुधा के मन में निरन्तर प्रार्थना चल रही थी…प्रभु बुरी नजर से बचाना मेरे बच्चों को…हे प्रभु, कहीं मेरी ही नजर न लग जाए। मौका देख कर नजर उतार दूँगी , फिर मनिका चाहें कितना ही चिड़चिड़ करे।सोच कर उनसे नजर हटा ली।

मनिका का कल सुबह ही फोन आ गया था।

"मम्मा, हम लोग बाली जाने से पहले एक दिन के लिए आपके पास आ रहे हैं ! बस हल्का ही खाना बनवाना अरहर की दाल,चावल, चटनी, कढ़ी,सूखे आलू की भुजिया वाला….कई दिन से भारी खाना चल रहा है…मन ऊब गया है !”

शादी हंसी- खुशी निबट गई थी। नरेन्द्र के चेहरे पर भी पिता वाली खुशी और सन्तुष्टि खिल रही थी। बच्चों के साथ मिल कर शादी में आए मेहमानों, उनकी बातों, खाने-पीने व सजावट वगैरह पर खूब चर्चा व हंसी- मजाक चल रहा था। क्योंकि दिल्ली से ही शादी हुई थी तो दोनों बच्चों ने ही सारा इंतजाम किया था। शेखर ने हंस कर सुधा को छेड़ा ।

" देखा मम्मी हम दोनों ने कितना अच्छा इंतजाम किया था और मैंने नाक नहीं पकड़ने दी आपको…वैसे कोशिश तो बहुत की आपने !”

" हाँ, आप ही जीते, मैं हारी !” सुधा हंस दी।

"पापा हमने सोचा आप लोगों से मिलते हुए जाएं। परसों हम लोग बाली के लिए निकल रहे हैं। लौट कर फिर आप लोगों से मिलने आएंगे एक दो दिन के लिए… अभी तो हम लोगों की छुट्टियाँ ही चल रही हैं !” शेखर ने कहा।

" बेटा, बहुत अच्छा किया, तुम लोगों ने….!” नरेन्द्र ने खुश होकर कहा।

" अब खाना लगवा दूँ…भूख लगी होगी ? उठते हुए सुधा ने कहा।

"वाह, मम्मी खाना देखते ही सच बहुत जोर से भूख लगने लगी है !” अपनी  प्लेट में सब्जी  परोसते  मनिका खुशी से चहकी। 

" वाह…सच मम्मी खाना बहुत अच्छा बना है !”शेखर ने भी खाते- खाते कहा।

रामू  एक-एक गर्म करारी रोटी सेंक कर, घी लगा कर ला रहा था। मनिका और  शेखर की प्लेटों में अभी रोटी बाकी थी परन्तु सुधा और नरेन्द्र की प्लेटों में रोटी खत्म हो गई थी ।जैसे ही रामू एक रोटी सेंक कर लाया तो नरेन्द्र ने हाथ बढ़ा कर रोटी लेकर दो टुकड़े करके आधी सुधा की प्लेट में और आधी अपनी प्लेट में रख ली। खाना खाते-खाते शेखर ने ये नोटिस किया और चुपचाप खाते रहे।

अगली सुबह वे दोनों नाश्ते के बाद दिल्ली के लिए निकल लिए। बाली से रोज उनका एक बार फोन आता रहता था।दोनों निरन्तर फोटो भेजते रहते। मनिका चहक कर कहती।

"पापा, मम्मा आप लोगों को भी यहाँ का एक ट्रिप जरूर लगाना चाहिए, बाली बहुत ही सुन्दर है ,सच में !”

आज पन्द्रह दिन बाद बाली से लौटे हैं दोनों। मनिका ने सबके लाए गिफ्ट खोल कर दिखाए। नरेन्द्र और शेखर बातों में खूब व्यस्त हैं ।बातों के बीच खाना-पीना भी चल रहा है। मनिका व शेखर दोनों की प्लेट में एक साथ रोटी खत्म होते ही रामू जल्दी से एक गर्म  रोटी लेकर आया और शेखर की तरफ़ बढ़ाईं। शेखर ने हाथ बढ़ा कर रोटी के दो टुकड़े करके आघी- आधी अपनी और मनिका की प्लेट में रखीं और नरेन्द्र की तरफ देख कर मीठी सी अर्थभरी मुस्कान मुस्कुरा दिए।

 सुधा और नरेन्द्र ने  भी  एक दूसरे की तरफ देखा…सहसा  उनके चेहरों पर भी एक सन्तुष्टि भरी मुस्कान तैर गई ।

                                      — उषा किरण

रविवार, 29 मई 2022

वक्त का जवाब ( लघुकथा)


शुभदा की जॉब लगते ही घर में हंगामा हो गया। जिठानियों के ताने शुरु हो गए-" नौकरी करने वाली औरतों के घर बर्बाद हो जाते हैं, बच्चे आवारा हो जाते हैं, पति हाथ से निकल जाते  हैं ….!”
 शुभदा सब सुनती और मुस्कुरा कर टाल जाती 

बाबूजी के सामने पेशी हुई- " अरे बहू , हमारी सात पुश्तों में किसी बहू ने नौकरी नहीं की,क्या कहेंगे सब कि बहू की कमाई खा रहे हैं, नाक कट जाएगी !” शुभदा ने किसी तरह उनको समझाया कि नहीं कटेगी नाक।

पाँच साल के लम्बे संघर्ष व कड़ी मेहनत के बाद आखिर वो आज  यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर के पद परआसीन थी। 

यूनिवर्सिटी लिए तैयार होकर ऊपर से सीढ़ियाँ उतरते अपना नाम सुन कर ठिठक गई।बड़ी जिठानी अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार करते हुए समझा रही थीं- "अरी पढ़ने में मन लगाया कर …चाची की तरह काबिल बन कर नौकरी करना…वर्ना हमारी तरह मूढ़ बन कर सारी  ज़िंदगी चूल्हा ही फूँकेगी !”

शुभदा के होठों पर एक सुकून भरी मुस्कान  आ गई ।
                                              —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

मंगलवार, 24 मई 2022

नेकी ( लघुकथा)

 


सुबह साफ- सफाई के बाद मैं धूप-दीप जला ही रहा था कि मेरे मेडिकल स्टोर के सामने एक कार आकर रुकी और एक बहुत सम्भ्रान्त महिला व एक युवक उतर कर आगे आए।

महिला कुछ देर तक ध्यान से चंदनहार चढ़े फ्रेम में जड़े फोटो को देखती रहीं l

"ये आपके वालिद…..?”

"जी …दो साल पहले ही हम सबको छोड़कर भगवान के घर…!”

"ओह….आप उनके बेटे हैं?” मैंने देखा उनकी आँखें नम हो गईंl

"जी…आप ?”

"बेटा क्या कहूँ, समझ लो कि आज हम माँ - बेटे  तुम्हारे सामने यदि ज़िंदा खड़े हैं तो इनकी ही बदौलत।”

"मतलब…?”        

 कुछ ठहर कर उन्होंने कहा-                

"पच्चीस साल पहले एक दिन मैंने  यहाँ आकर तुम्हारे पापा से बच्चा गिराने की दवा माँगी थी। उन्होंने कहा कि वो ऐसी कोई दवा नहीं दे सकते, तो मैंने रोते हुए कहा फिर तो रेल की पटरियों पर ही अब मेरी मुश्किलों का अन्त होगा। मैं जाने लगी तो वे मेरे पीछे-पीछे आए और हौसला दिया। जब मैंने उन्हें बताया कि मेरे शौहर ने दूसरी शादी कर ली है और मुझे तलाक देकर घर से निकाल दिया है। मैं पेट से हूँ…अब्बू सुनेंगे तो सदमें से मर ही जाएंगे…मैं कैसे जियूँगी, कैसे अपने बच्चे की परवरिश करूँगी ? तो उन्होंने मुझे समझाया कि एक रास्ता बन्द होने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती। तुम्हारे हिस्से में अँधेरा लिखने से पहले भगवान ने एक रोशनी की किरण तुममें रोप दी है और तुम उसी को खत्म कर देना चाहती हो। उनके समझाने से मुझमें उम्मीद जगी और मैं अपने अब्बू के पास लौट गई। सिलाई कढ़ाई का शौक था तो टेलरिंग का कोर्स किया और अपना छोटा सा बुटीक खोल लिया, आज वो शहर का सबसे बड़ा बुटीक है।ये मेरा बेटा डॉक्टर बन गया है।आज पहली कमाई से तुम्हारे पापा के लिए बहुत इज़्ज़त ओर प्यार से गिफ्ट लाया था, पर…!”

उन्होंने आँखें बन्द कर दुआ पढ़ी और डिब्बे से निकाल कर घड़ी मुझे पहनाते हुए कहा- 

"मना मत करना बेटा , इस माँ की दुआ समझ कर रख लो। ये घड़ी तुमको हमेशा नेकी पर विश्वास दिलाती रहेगी ।इंसान तो एक दिन वक्त के परे चला जाता है, लेकिन उसके किए नेक काम ताकयामत जिंदा रहते हैं…सदा सुखी रहो…अल्लाह  निगेहबान रहें…!”

वे दुआएं देती चली गईं और मैं दूर तक उनकी गाड़ी को जाते देखता रहा।

                                      — उषा किरण

फोटो; गूगल से साभार

रविवार, 8 मई 2022

पेस्ट्री ( लघुकथा)




"काव्या, पढ़ने बैठो बेटा !”

"मम्मी, भूख लगी है !”

मम्मी ने पेस्ट्री दी, मैंने गपागप खा ली। परन्तु मेरा मन नहीं भरा।

"मम्मी एक और दो न !”

मम्मी ने एक और दे दी। खाकर मैं पढ़ने बैठ गई थी। भैया खेल कर आया, सहसा उसका ध्यान कूड़े में पड़े पेस्ट्री के डिब्बे पर गया।

"मम्मी आज पेस्ट्री आई थी, मुझे भी दो न !”

"बेटा, कल मंगवा दूँगी, आज मिठाई खा लो !”

 " आपने मेरे लिए नहीं रखी ?”

वो  रोने लगा। मुझे शर्मिंदगी हुई और बेहद दु:ख हुआ।उस समय केक-पेस्ट्री खाने का चलन बहुत कम था। शहर में पेस्ट्री की इक्का- दुक्का ही दुकान होती थीं तब। ये वो वक्त था जब हमारे आसपास माएँ प्राय: बेटों को चुपड़ी और बेटी को सूखी रोटी खाने को देती थीं ।

पचास साल पहले तीन बेटियों में अकेले बेटे के हिस्से की पेस्ट्री, बेटी को देने वाली, मेरी माँ ने उस एक पेस्ट्री से अनजाने ही मेरे व्यक्तित्व में आत्मगौरव व आत्मविश्वास के बीज रोप दिए थे।

                —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

#मातृदिवसकीबधाई 💐💐

शनिवार, 7 मई 2022

सतसंग ( लघुकथा)


                     

चित्रांगदा की दोस्तों का एक ग्रुप बन गया है ।महिने में एक बार किटी- पार्टी होती है और हर इतवार को वे सब किसी न किसी के घर पर सतसंग के लिए एकत्रित होती हैं और वहाँ पर किसी एक ग्रंथ पर आध्यात्मिक चर्चा होती है।

 फ़िलहाल उसी कड़ी में आज का सतसंग चित्रांगदा के घर पर है और श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का अध्ययन करते हुए मीना जी ने जिनको संस्कृत का व शास्त्रों का बहुत ज्ञान है, सधे व शुद्ध उच्चारण से पढ़ा-

"भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इत्तीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।

इसके साथ ही पंचतत्वों की व्याख्या व विचार- विमर्श शुरु हो गया जो एक घन्टे तक चला। उसके बाद वन्दना व मीना जी व चित्रांगदा ने भजन सुनाए ।

 चित्रांगदा ने जलपान की व्यवस्था भी  की थी, तो सब हल्की- फुल्की बातचीत के साथ खाने- पीने में व्यस्त हो गए। तभी दो साल की गोल- मटोल  ठुमकती हुई परी चित्राँगदा के पास आई और गोद में आने के लिए दोनों हाथ उठाकर ऊँ ऊँ करने लगी। चित्रांगदा  लाड़ से उठाकर गोदी में बैठा कर उसे पुचकारने लगी। उसने चित्रांगदा की प्लेट से कटलेट उठाया और मजे से खाने लगी।

" ये कौन है ?” मीना जी ने पूछा।

"ये हैं हमारी नन्ही परी और मैं इनकी दादी”  उसने परी के बालों को सहलाते हुए कहा।

" दादी ? पर आपके बेटे की तो अभी शादी नहीं हुई न ?” लता जी ने कहा।

" हाँ…ये रीना की बेटी है “ उसने सामने किचिन में काम कर रही रीना की तरफ इशारा किया।

" अरे , आपकी मेड की बेटी ? आपने गोद में बैठा लिया और आपकी प्लेट से खा रही है…कैसे कर लेती हैं ये आप ?” मीना जी ने घिनियाते हुए कहा।

" तो क्या हुआ ? देखिए न कितनी तो साफ- सुथरी है। रीना मेरे साथ ही आउटहाउस में रहती है। ये दो बार नहा-धोकर बेबी सोप व पाउडर से हर समय महकती हैं , अभी भी नहा कर आई हैं ।देखिए न कितनी साफ- सुथरी रहती है , तो घिन कैसी ?” चित्राँगदा ने आवाज दबा कर धीरे से कहा जिससे किचिन में काम कर रही रीना न सुन ले।

" हम तो गोद में नहीं बैठा सकते ऐसे,चाहें कुछ भी हो यार, है तो मेड की ही बेटी न ! लेकिन तुम्हारा कमाल है भई !”

"अरे अभी कुछ ही देर पहले आप ही ने सुनाया था न वो भजन-

अव्वल अल्लाह नूर उपाया 

कुदरत के सब बंदे,

एक नूर ते सब जग उपजाया 

कौन भले को मंदे…तो फिर….?”

परन्तु उसकी सातों विदुषी सखियों के मुख- मंडल पर असंतोष व असहमति छायी ही रही ।

सबके जाने के बाद गोदी में सो गई परी के मासूम चेहरे  को देखते हुए वह सोच रही थी क्या इस बच्ची के पंच- तत्वों और हम सबके पंच- तत्वों में कोई भेद है ? जब सबकी मिट्टी , हवा, पानी , सबका नूर सब एक ही है, तो फिर ये भेदभाव क्यूँ , वो भी बच्चे के साथ ?

ये कैसा सतसंग…?

                                —उषा किरण

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

बहरे ( लघुकथा)

 

सीट मिलते ही शुभदा आराम से बैठ गई।डॉक्टर ने पन्द्रह दिन बाद की डिलीवरी डेट दे दी थी। शुभदा छह महिने की मैटरनिटी लीव की एप्लिकेशन देकर कॉलेज से वापिस घर लौट  रही थी।डॉक्टर ने  उसे रैस्ट की सख्त हिदायत दी थी।

ग़ाज़ियाबाद बस स्टॉप पर बस के रुकते ही एक बहुत बूढ़ी माई लाठी के सहारे चढ़ी लेकिन एक भी सीट खाली न देख निराश होकर अपने डंडे और बस की रॉड पकड़ कर जैसे- तैसे खड़ी होने की कोशिश में झुकी पीठ सीधी करती, झकोले खाती बेहाल हो रही थी। शुभदा ने सब तरफ देखा । कई युवक आसपास बैठे थे उसे लगा कि उसकी हालत देखकर कोई तो सीट दे ही देगा।

जब पन्द्रह मिनिट तक भी किसी ने सीट नहीं दी तो उससे नहीं रहा गया। उसने उठ कर उनसे अपनीसीट पर बैठने का आग्रह किया। वो बेचारी उसका पेट और हालत देख कर बोलीं-

"ऐ बिटिया तू तो खुद ही बेहाल है…रहे दे!”

"मैं ठीक हूँ आप बैठ जाओ !” 

कह कर शुभदा ने ज़बर्दस्ती उनको अपनी सीट पर बैठा दिया और खुद खड़ी हो गई, लेकिन बढ़े पेट के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। पर्स से न्यूज-पेपर निकाल कर उसे बिछा नीचे बस के फर्श पर ही बैठ गई।पास खड़े दो किन्नर जो सब देख रहे थे सहसा उनमें से एक ताली बजाकर  जोर-जोर से बोलने लगी-" आय हाय आग लगे ऐसी मर्दानगी और मुई इनकी जवानियों को न बूढ़ी का लिहाज न पेटवाली का। बेचारी बच्ची जमीन पर ही लोट गई।बैठे हैं सारे टाँग चौड़ा कर…शरम नहीं आती…मर जाओ सालों सब चुल्लू भर पानी में …!”

बड़बड़ातीं हुई वह शुभदा के पास आ, उसके सिर पर हाथ रख कर बोली-

"जुग-जुग जियो बेटी, जैसी भोली, प्यारी सूरत है वैसी ही सीरत भी दी मालिक ने तुझे ! भगवान चाँद सा मुन्ना दे…ले बेटी ये रख ले, अनारो का आसीस है तिजोरी में रख देना…हम हिजड़े तुम सबसे हमेशा लेते ही हैं, पर देते कभी-कभी ही हैं , खूब फलेगी हमारी दुआ तुझे !”

हकबकाई सी शुभदा के हाथ पर बीस रुपये का सिक्का और कुछ दाने चावल के रख कर किन्नर  ताली बजाते, दुआ देते, बस वालों की लानत- मलामत करते हुए बस से उतर गए। 

बस में सन्नाटा था। कुछ नौजवान मोबाइल में चेहरा घुसाए तो कुछ असम्पृक्त भाव से बहरे बने खिड़की से बाहर देखते यथावत् बैठे रहे।

                                            — उषा किरण

रविवार, 19 सितंबर 2021

स्थगित ( लघुकथा)


     

रेल की पटरियों पर बदहवास रोती चली जा रही दीप्ति के पीछे एक भिखारिन लग गई।

- ए सिठानी तेरे कूँ मरनाईच न तो अपुन को ये शॉल, स्वेटर और चप्पल दे न…ए सिठानी …!

दीप्ति ने शॉल, स्वेटर और चप्पल उसकी तरफ उछाल दिए।  भिखारिन और तेजी से पीछा करने लगी।

- ऐ सिठानी ये चेन और कंगन भी दे न…भगवान भला करेंगे…!

पल भर सोच कर दीप्ति ने चेन और कंगन भी उसके हवाले किए और तेज कदमों से पटरी के बीच चलने लगी। सहसा उसने मुड़ कर देखा, भिखारिन सब कुछ पहन खुशी से मस्त हो नाच रही थी…ताली बजा रही थी, ठहाके लगा रही थी।


दीप्ति के कदम रुक गए…भिखारिन और तनुजा के चेहरे आपस में गडमड हो रहे थे।पति देवेश और तनुजा के रोमान्टिक मैसेज , बूढ़े पापा- मम्मी के विलाप सब आँखों के आगे फिल्म की तरह घूम गए।भिखारिन की जगह ठहाके लगाता  तनुजा का चेहरा आँखों के आगे घूम गया।


आँसू पोंछ कर, दीप्ति दृढ़ कदमों से वापिस लौट पड़ी।गनीमत थी सब गहरी नींद सोए पड़े थे। उसने देवेश की ओर एक उपेक्षित दृष्टि डाली, उसकी तरफ पीठ कर रजाई ऊपर तक खींच कर आँखें मूँद लीं ।

— उषा किरण 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

लम्पट ( लघुकथा)


ठसाठस भरी बस के आते ही भीड़ उसकी तरफ लपकी। दीपक ने दोनों हाथों  के घेरे में सुलक्षणा को लेकर किसी तरह बस में चढ़ाया और जैसे ही एक सीट खाली हुई सीट घेर कर निश्चिंत हो बहन को बैठा लम्बी साँस ली और खुद रॉड पकड़ कर बीच में खड़ा हो गया।

दोनों भाई-बहन ममेरे भाई की शादी से लौट रहे थे।शादी में सारी रात जागने के कारण सुलक्षणा को कुछ ही देर में झपकी आ गई।सहसा उसकी झपकी टूटी तो सामने दृष्टि पड़ते ही हतप्रभ रह गई। दीपक के ठीक सामने एक लड़की खड़ी थी जो काफ़ी असहज महसूस कर रही थी।बार- बार गुस्से में मुड़ कर दीपक को देख रही थी ।

-आप थोड़ा पीछे हटिए प्लीज !

सुलक्षणा ने हैरानी से देखा कि भैया पीछे हटने की जगह और सट कर खड़े हो गए। उनके चेहरे  के लम्पट-भाव देख वह हैरान थी।ये भैया का कौन सा नया रूप देख रही थी आज ?

उसका मन जुगुप्सा से भर उठा ।

सहसा वो झटके खड़ी हुई और दीपक के सामने खड़ी लड़की से बोली।

- आप यहाँ मेरी सीट पर बैठ जाइए !

- थैंक्यू…कह कर लड़की ने आराम से सीट पर बैठ कर चैन की साँस ली। सुलक्षणा उस लड़की की जगह भाई के सामने रॉड पकड़ कर खड़ी हो गई। दीपक अचकचा कर एक कदम पीछे हट गया। सभी की निगाहें दीपक पर जमी थीं और दीपक की निगाह बस के फर्श पर।

— उषा किरण 

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

शरीफजादा ( लघुकथा)



बस में खिड़की से बाहर देखती चित्रांगदा के चेहरे और लटों से ठंडी हवाएं सरगोशियाँ कर रही थीं । हैडफोन कान से लगा कर वो गुलाम अली की गजलेों में गुम अपनी ही दुनिया में मस्त आँखें मूँद खिड़की से सिर टिकाए थी कि सहसा उसे अपनी कमर पर कुछ स्पर्श महसूस हुआ। पास बैठे लड़के को संदिग्ध दृष्टि से देखा तो निहायत संजीदा सा लड़का चुपचाप बहुत ध्यान से अख़बार पढ़ रहा था।बायाँ हाथ जो उसकी तरफ था उससे अख़बार पकड़ रखा था तो उसके द्वारा टच नहीं किया जा सकता था। लगा उसका वहम है पर जागरूक होकर स्थिर बैठ गई।

थोड़ी देर बाद फिर लगा किसी ने बाँह को छुआ तो उसने झटके से देखा अखबार की ओट से दूसरे दाएँ हाथ की उँगलियाँ साँप सी सरसराती दिखाई दीं। चित्रा के दाँत गुस्से से भिंच गए कुत्ते छेड़खानी के कितने तरीके निकाल कर लाते हैं। 

चित्रा ने एक झन्नाटेदार झापड़ चटाक् से उसके गाल पर रसीद कर दिया।चारों उँगलियाँ गाल पर छप गईं।आसपास बैठे लोगों में हलचल सी हुई।

- अरे मैंने क्या किया ? 

- कुछ नहीं…मच्छर बैठा था, बस मार दिया !

चित्रा का स्टॉपेज आ गया था पर्स उठा कर मुस्कुराते हुए बस से नीचे उतर गई। आसपास के लोगों  के चेहरों पर भी मुस्कान थी। 

शरीफजादा यथावत अख़बार में चेहरा छुपाए पेपर पढ़ता रहा।

Usha Kiran

ॐ श्रीकृष्णः शरणं मम

 सबसे गहरे घाव दिए उन सजाओं ने— जो बिन अपराध, बेधड़क हमारे नाम दर्ज कर दी गईं। किए अपराधों की सज़ाएँ सह भी लीं, रो भी लीं… पर जो बेकसूर भुगत...