ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 14 जुलाई 2025

कुछ हट कर ….

 


दो तरह के सोचने के तरीके हैं-
कन्वर्जेन्ट थिंकर और डाइवर्जेंट थिंकर, जो लोगों की समस्या-समाधान और रचनात्मकता में अलग-अलग दृष्टिकोण को दिखाते हैं-

कन्वर्जेन्ट थिंकर:
कन्वर्जेन्ट थिंकर वे लोग होते हैं जो एक ही सही उत्तर या समाधान की तलाश में रहते हैं। वे तर्कसंगत और विश्लेषणात्मक तरीके से सोचते हैं और समस्याओं का समाधान करने के लिए स्थापित नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करते हैं। कन्वर्जेन्ट थिंकर आमतौर पर सटीकता और दक्षता पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

डाइवर्जेंट थिंकर:
डाइवर्जेंट थिंकर वे लोग होते हैं जो कई संभावित समाधानों और विचारों की तलाश में रहते हैं। वे रचनात्मक और कल्पनाशील तरीके से सोचते हैं और समस्याओं का समाधान करने के लिए नए और अनोखे तरीके ढूंढते हैं। डाइवर्जेंट थिंकर आमतौर पर रचनात्मकता और नवाचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

इन दोनों तरह के सोचने के तरीकों के अपने फायदे और नुकसान होते हैं। कन्वर्जेन्ट थिंकर समस्याओं का समाधान करने में अधिक सटीक और कुशल हो सकते हैं, जबकि डाइवर्जेंट थिंकर नए और रचनात्मक समाधानों की तलाश में अधिक सफल हो सकते हैं।वे साहसी होते हैं, रिस्क ले सकते हैं। टॉप के कलाकार , साहित्यकार, वैज्ञानिक , फिलॉस्फर, मनोवैज्ञानिक , शैफ आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

कभी-कभी लीक से हटकर  सोचिए, रिस्क तो है इस रास्ते पर लेकिन हो सकता है आपकी किसी समस्या का आसानी से हल मिल जाए या आप नई बुलंदियों को छू लें…!!

'रॉबर्ट फ्रॉस्ट’ की बहुत सुन्दर पोएम याद आती है 'द रोड नॉट टेकन’  - "…जंगल में दो रास्ते अलग हो गए; मैंने वह रास्ता चुना जिस पर कम लोग जाते थे और इसी से सारा फ़र्क़ पड़ा…!”
अर्थात् मैंने भीड़ का अनुसरण नहीं किया—मैंने कम-चलने वाला रास्ता चुना क्योंकि मैं एक गैर-अनुरूपतावादी हूँ, और इसी बात ने मेरे जीवन को अलग बना दिया है।

`The Road Not Taken’

Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;

Then took the other, as just as fair,
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,

And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.

I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I—
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
- `Robert Frost’

                               — उषा किरण 




मंगलवार, 8 जुलाई 2025

कीमत ( लघुकथा)


हरे धनिए का डिब्बा खोला तो देखा काफी सड़ा पड़ा था। मेरी त्योरियाँ चढ़ गईं। कल ही तो आया था, गुड्डू से कहा था, जा भागकर एक गड्डी हरा धनिया ले आ।सोचा दस- बीस का होगा , लेकिन सब्जी वाला निकला महाचतुर, बच्चा समझ कर सौ का नोट धरा और मोटी सी गड्डी हरे धनिए की थमा दी।

"बताओ फ्री में  मिलता है, सौ का नोट रख लिया, भाई बड़ा महंगा पड़ा!”

"वो कह रहा था कि बरसात में मंहगा मिलता है “ गुड्डू सकपकाते हुए बोला। गुस्सा तो बहुत आया पर अब हरे धनिए के लिए क्या तो लड़ने जाऊँ मरी कड़ी धूप में , सोचकर बड़बड़ाते हुए दो डिब्बों में खूब सहेज कर फ्रिज में रख दिया। 

"कल ही तो सौ रुपए का मँगाया और आज सड़े पड़े हो?”मैंने झुँझलाकर कहा। 

“गल्ती तुम्हारी है सौ का नोट बच्चे को क्यों दिया, और मुझे क्यों सौ रुपये सुना रही हो , कोई सब्जी तो तुम्हारी मेरे बिना बनती नहीं, पर सब्जी वाले से झिकझिक करके मुझे हमेशा फ्री में ही लेती हो, मेरी कोई कीमत ही नहीं जैसे ” धनिए ने भी अकड़कर कहा।

“ओहो…तो इसीलिए सड़ गए ?”

"हाँ इसीलिए….क्योंकि कुछ लोगों को फ़्री में मिले की क़ीमत समझ नहीं आती, सड़ जाओ तभी समझ आती है।” धनिए ने गर्दन झटककर कहा।

           — उषा किरण 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

गरीब ( लघुकथा)



कोरोना के कारण दो साल तक आर्यन की बर्थडे पर कोई नहीं जा सका था तो मानसी ने इस बार सबको फोन पर जोर देकर कहा कि इस बर्थडे पर सबको  जरूर आना है|

दिन में  आर्यन ने अपने दोस्तों के साथ बर्थडे सेलिब्रेट की और शाम को पारिवारिक पार्टी होटल में थी, तो सब टाइम से तैयार होकर वहीं पहुँच गए। 

केक काट कर हंसी मजाक के बीच खाना- पीना चल रहा था। मेरी दृष्टि सामने की टेबिल पर बार-बार जा रही थी, जहाँ बहुत सुन्दर परिवार के दस-बारह सदस्य और तीन बच्चे बैठे थे ।खूब मंहगे डायमंड के जेवरों में झिलमिलाती व ब्रांडेड कपडों में सजी औरतों से आती इम्पोर्टेड परफ़्यूम की खुशबुओं के झोंकों  से पूरा माहौल गमक रहा था। 

सहसा मेरा ध्यान उनमें से एक बुजुर्ग महिला पर गया।

" अरे ये तो मिसेज चड्ढा  हैं…!” मेरे मुंह से अनायास ही निकला ।

" आप पहचानती हैं इन लोगों को ? “ मानसी ने पूछा। 

" हाँ, कई साल पहले ये हमारे पड़ोसी थे। इनकी तब बहुत  छोटी सी दुकान हुआ करती थी। परन्तु आज सुना है कि दिल्ली के किसी मॉल में खूब बड़ी दुकान है और बड़े बेटे ने रेडीमेट गारमेन्ट्स की फैक्ट्री डाली है …किस्मत से खूब लक्ष्मी जी की कृपा है अब !” 

 उनके साथ प्रैम में छोटे बच्चे को लेकर आई  बारह तेरह साल की एक लड़की भी थी। वेष-भूषा से वो बच्चे की सेविका लग रही थी। बच्चा प्रैम में सो रहा था और वो लड़की दूसरी छोटी मेज पर बैठी उन सबको खाते टुकुर-टुकुर देख रही थी। उसके सूखे होंठ, मुरझाया चेहरा और कातर बड़ी-बड़ी आँखें देख कर मन बहुत बेचैन हो उठा। मेरा मन कर रहा था उसे अपनी टेबिल पर लाकर पेट भरके खिला- पिला दूँ, परन्तु यह संभव नहीं था।उन सबकी प्लेटें मंहगे, लजीज बुफे के पकवानों से भरी थीं, जिसे वे भर-भर कर लाते  और आधा खाते, आधा छोड़ते और फिर दूसरी और  तीसरी प्लेट भर लाते। 

मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था कि उस लड़की को कम से कम पूरा बुफे न भी खिलाते पर डोसा , बर्गर टाइप  कुछ न कुछ तो खिला सकते थे।सब बच्चे-बड़े खा रहे हैं और बच्ची बेचारी  भूखी बैठी उन्हें देख रही है।

सहसा किसी ने मेरे कन्धे को स्पर्श किया तो मैंने पलट कर देखा। मिसेज चड्ढा बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराती हुई खड़ी थीं। 

" अरे आप ? बहुत सालों बाद देखा, आप तो जरा भी  नहीं बदलीं…कैसी हैं?” मैं हैरान थी , वाकई बीस सालों बाद भी उम्र की एक भी लकीर उनको छू तक नहीं गई थी। बल्कि स्वास्थ्य व सुकून की लालिमा ने चेहरे का सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया था।

" तो आप ही कहाँ बदलीं? पहले से ज़्यादा निखर गई हैं।माफ़ कीजिए, आपको देखा तो रुका नहीं गया, मिलने चली आई।” कहते हुए हंस कर गले लग गईं । 

हमने एक- दूसरे की खैर- खबर और फोन नं० लिए। उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे-बहू की मैरिज एनिवर्सरी है आज, वही सेलिब्रेट करने आई थीं पूरे परिवार के साथ। आगे मिलने का वादा लेकर वे अपनी टेबिल पर परिवार के पास लौटने लगीं, तभी शरद फुसफुसा कर मानसी से बोला-

" मम्मी तो कह रही थीं कि बहुत अमीर हो गए हैं अब ये लोग, पर हैं तो अभी भी गरीब ही। देखो न, एक छोटी बच्ची को खिलाने के लिए बेचारों के पास पैसे कम पड़ गए …!” 

उसके लहजे में तीखा  व्यंग्य था। उसकी फुसफुसाहट काफी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मैं समझ गई उसकी मंशा। मैंने आँखें तरेर कर  उसे चुप रहने का इशारा किया…घबड़ा कर मिसेज चड्ढा की तरफ देखा …जाते- जाते उनके कदम कुछ पल  ठिठके …फिर आँखें  झुकाए वे तेजी से अपनी टेबिल पर वापिस लौट गईं।

                        — उषा किरण

भ्रम (लघुकथा)

 

                   

सर्द कोहरे से भरी सुबह…जीवन के खो गए पृष्ठ को तलाशती सी दीपा बयालीस सालों बाद फिर से उसी शहर के, उसी पार्क के, गुलमोहर के नीचे बनी बेंच की तरफ अनमनी सी बढ़ रही है। ना जाने कौन सी कशिश उसे वहाँ लिए जा रही है। 

अरे…वहां तो पहले ही कोई वृद्ध हाथ में गुलमोहर का गुच्छा थामे विचारमग्न बैठे हैं। वह बराबर वाली बेन्च पर आहिस्ता से बैठ गई…!

दोनों ने एक-दूसरे को गौर से पर अजनबी , खोजती निगाहों से कई बार देखा…दोनों की टटोलती सी दृष्टि में कई सवाल थे पर मौन। मन किया पास जाकर नाम पूछ ले , कहीं वही तो नहीं…फिर सोचा कुछ भ्रम भी भले लगते हैं…बने रहने चाहिए।

एक घंटे बाद  शॉल कसकर लपेटते हुए वह बाहर की तरफ चल दी…!!

                           — उषा किरण 

फोटो; गूगल से साभार 


रविवार, 8 जून 2025

मन के अंधेरे


पिछले दिनों जापान जाना हुआ तो पता चला कि सबसे ज्यादा सुसाइड करने वाले देशों में जापान भी है।डिप्रेशन एक बेहद खतरनाक बीमारी है।

पिछले दिनों इससे हमारा भी सामना हुआ ।हमारे साथ एक फ़ैमिली रहती है, जिन्होंने मेरा उपन्यास 'दर्द का चंदन’ पढ़ा है वो समझ जाएंगे। उनके छोटे बेटे को एक्यूट डिप्रेशन हो गया। सुन्दर, स्मार्ट और ब्रिलियंट बच्चे की हालत देखकर हम शॉक्ड रह गए। 

कई डॉक्टर्स का ट्रीटमेंट करवाया। काउन्सलिंग अलग से करवाई। हजारों रुपये खर्च करके भी ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। बार-बार सुसाइड करने की कोशिश करता, उसे बचाना मुश्किल हो रहा था। मुझे खुद डिप्रेशन होने लगा। हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। उसकी टीचर से मिलकर डिस्कस किया। और सबने मिलकर उसको चारों तरफ से अपने दुलार के घेरे में ले लिया।

पहले तो वो हमसे कारण छुपाता रहा। मैं उसको लेकर एक- एक घंटे बैठी रहती। उसे मुझे सुनना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे वह खुलकर अपनी सारी बातें बताने लगा। मेरी बेटी और बेटा भी समझाते थे। लेकिन बेटा थोड़ी सख्ती से समझाता था , ताज्जुब ये कि उसे उसी की  डाँट से बहुत अच्छा फील होता था, कहता सबसे अच्छा तो भैया और बुआ ही समझाते हैं । 

-मैंने सबसे पहले उसको खूब लाड़ किया और समझाया कि तुम जैसे भी हो हमारे लिए बहुत कीमती हो।दुनिया में कोई भी तुमको तुम्हारे मम्मी पापा भैया और हम लोगों से ज्यादा प्यार नहीं कर सकता।और ये एक बीमारी है इलाज से ठीक हो जाएगी , इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। उसको खुलकर सब बताया। 

-मैंने उसको धर्म व आध्यात्म के सहारे थामने की कोशिश की जिसमें भगवद्गीता और पौराणिक कहानियों का सहारा लिया। रेकी दी।उसके मम्मी पापा को भी समझाया कि झाड़-फूंक के चक्कर में मत पड़ना । वो हनुमान जी का भक्त है तो कहा उनका ध्यान करो, मन करे तो हनुमान चालीसा पढ़ लिया करो। 

-जिंदगी कितनी कीमती है , बताया।और कहा वक्त तो तेजी से भाग रहा है , ये वक्त भी निकल जाएगा। कुछ समय बाद तुमको खुद लगेगा कि तुम कितने बुद्धू थे। बस तुम हौसला रखो।कई बार मजाक करती, गुदगुदी करके हँसाती। 

-मैंने उसे कहा चाहें मैं कितनी भी बिजी हूँ, चाहें कहीं भी रहूँ बस एक कॉल पर हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी, मुझे बुला लेना, जब भी मन परेशान हो। चाहें आधी रात ही क्यों न हो। और वह मुझे बेझिझक कह देता अम्मा बात करनी है आपसे। मैं अपने सब काम छोड़कर उसे सुनने बैठ जाती। कभी मन परेशान होता तो कहता अम्मा घूमने चलें ? मैं गाड़ी निकलवा कर घुमा लाती, कुछ शॉपिंग करवा देती, खिला- पिला लाती तो उसका मूड चेंज हो जाता। कई बार आधी रात को नींद में उसकी मिस्ड कॉल सुनकर  तीसरी मंजिल तक भाग कर गई और संभाला। मैं जितना वक़्त बात करती सामने बैठाकर उसकी दोनों हथेलियों को थामे रहती। मैं साइकियोलॉजिस्ट तो हूँ नहीं पर अपनी सम्वेदना और समझ से जितना सँभाल सकती थी संभालने की कोशिश करती थी।

-अक्सर स्टारमेकर्स पर उसके साथ गाने गाती, साथ वॉक करती। स्कैच बनाने को प्रेरित करती। लूडो, ताश, बैडमिंटन खेलती। जब वो पढ़ता था तो मैं भी साथ में ही चुपचाप अपनी कोई किताब लेकर बैठ जाती। कभी-कभी उसे कुछ सब्जेक्ट पढ़ा भी देती।

-उसकी क्लास टीचर ने भी उसका बहुत साथ दिया। जब भी वो स्कूल में डिप्रेशन में जाता तो उसको लेकर एकांत में जाकर बात करतीं। क्योंकि जब भी उसको स्कूल में पैनिक अटैक आता तो वो टॉयलेट में जाकर हिचकियों से रोता , काँपता और पसीने से भीग जाता था। बल्कि सबसे पहले उन्होंने ही मुझे इसके बारे में बताया था।

-इस सबको अब ढाई साल बीत गए हैं । दवाइयों की डोज कम हो गई है। आजकल उसे गिटार सिखवा रहे हैं । दवाओं से ओवरवेट हो गया है तो जिम भी भेजते है। और अब लगभग ठीक है। टैन्थ में 80% मार्क्स लाया है । हम सबने बहुत शाबाशी दी तो अब खोया आत्मविश्वास लौट आया है। करियर को लेकर बड़े- बड़े सपने देखने लगा है।

-उसका ट्रीटमेंट दिल्ली के मशहूर , काबिल साइकियाट्रिस्ट से चल रहा है । वे प्राय: उससे फोन पर ही बात करते हैं । वे उससे बात करने के बाद हमसे बात करते थे। और कई बार बहुत खुश होकर थैंक्यू बोलते थे कि आप उसको बहुत अच्छी तरह संभाल रही हैं।

-टीन एज बहुत ही नाजुक उम्र होती है। इस उम्र में हार्मोन्स ऊधम मचाते हैं । जिंदगी यथार्थ, कल्पना व भावनाओं के झंझावात में घिरी महसूस होती है। जरा सी भी दिल पर लगी चोट से मानसिक सन्तुलन बिगड़ सकता है। इस समय एक्स्ट्रा अटेंशन, केयर व साथ की जरूरत होती है बच्चों को।

तो यह कहानी शेयर करने के पीछे यही मकसद था कि आजकल के बच्चों के हाथों में मोबाइल है और सब कुछ एवेलेबिल है आज उनको। आप कितने फिल्टर लगाएंगे ? बच्चों को अब डाँटना फटकारना छोड़कर दोस्त बनने का वक्त है। आपसे बेहतर आपके बच्चे को कोई नहीं समझ सकता तो जो काउन्सलिंग आप कर सकते हैं कोई थेरेपिस्ट, काउन्सलर नहीं कर सकता। उसको ज्यादा प्यार और अटेंशन दीजिए। अपने आस-पड़ोस में, क्लास में, रिश्तेदारों में यदि कोई बच्चा दिखे ऐसा तो उसकी मदद करिए, सुनिए उसको। सबसे ज़रूरी है सुनना।इस तरह आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं , क्योंकि डिप्रेशन बहुत जानलेवा बीमारी है।इंसान को लगता है जैसे उसे एक अंधेरी गुफा में बन्द कर दिया है और निकलने का कोई रास्ता सूझता नहीं। तो जागरूक रहिए, सतर्क रहिए बच्चों के लिए और खुद के लिए भी। ऐसा हो तो कोई दोस्त, कोई हमदर्द जरूर होता है हमारे पास जिसके कन्धों पर हम अपना सिर टिका सकें…!!

अपनी एक कविता पहले भी शेयर कर चुकी हूँ आज फिर शेयर कर रही हूँ-

—————————-

-इससे पहले-


इससे पहले कि फिर से

तुम्हारा कोई अज़ीज़

तरसता हुआ दो बूँद नमी को

प्यासा दम तोड़ दे

संवेदनाओं की गर्मी को

काँपते हाथों से टटोलता

ठिठुर जाए और

हार जाए  जिंदगी की लड़ाई

कि हौसलों की तलवार

खा चुकी थी जंग...


इससे पहले कि कोई

अपने हाथों चुन ले

फिर से विराम

रोक दे अपनी अधूरी यात्रा

तेज आँधियों में

पता खो गया जिनका

कि काँपते थके कदमों को रोक

हार कर ...कूच कर जाएँ

तुम्हारी महफिलों से

समेट कर

अपने हिस्सों की रौनक़ें...


बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ

बोझ बन गईं जो

कान दो थके कदमों की

उन ख़ामोश आहटों  पर

तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं

और लौट गईं चुपचाप

सुन लो वे सिसकियाँ

जो घुट कर रह गईं गले में ही

सहला दो वे धड़कनें

जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में

काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो

सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...


मत रखो समेट कर बाँट लो

अपने बाहों की नर्मी

और आँचल की हमदर्द हवाओं को

रुई निकालो कानों से

सुन लो वे पुकारें

जो अनसुनी रह गईं

कॉल बैक कर लो

जो मिस हो गईं तुमसे...


वो जो चुप हैं

वो जो गुम हैं

पहचानों उनको

इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़

एक दर्दनाक खबर बन जाए

इससे पहले कि फिर कोई

सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए

इससे पहले कि तुम रोकर कहो -

"मैं था न...”

दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से

गले लगा कर कह दो-

" मैं हूँ न दोस्त….मैं हूँ !!”

                          — डॉ० उषा किरण

( संकोच के साथ लिखी ये पोस्ट। अम्मा कहती थीं कि कुछ अच्छा काम करो तो बताना चाहिए जिससे औरों को भी प्रेरणा मिलती है🙏)

चित्र; गूगल से साभार

सोमवार, 2 जून 2025

जापान मेरे चश्मे से

  



एकदम साफ- सुथरा अनुशासित शहर। न सड़कों पर कूड़ा न सड़कों पर चीख- पुकार मचाते लोग।कई अन्य देशों की यात्राओं में देखा लोग यहाँ तक कि बच्चे भी फल के छिलके या ख़ाली रैपर हाथ में पकड़कर रखते हैं और हर दो कदम पर लगे डस्टबिन में ही कूड़ा डालते हैं । लेकिन यहाँ तो सड़कों पर कहीं दूर- दूर तक डस्टबिन नजर ही नहीं आता तब भी सड़कें एकदम साफ- सुथरी नजर आती हैं, ये तो वाकई कमाल है, पता चलता है लोग कितने अनुशासित हैं, अपने शहर को प्यार करते हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी भी समझते हैं उसके प्रति।हम दो शहरों क्योटो और टोक्यो में रहे। 

जापान को "सूर्योदय का देश" कहा जाता है क्योंकि यह पूर्वी एशिया में स्थित है और पृथ्वी के चारों ओर घूमते समय सूर्य की पहली किरणें जापान में ही पड़ती हैं. इसे "निप्पॉन" (या निहोन) भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "सूर्य की उत्पत्ति". जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है।ये द्वीप एशिया के पूर्वी समुद्रतट, यानी उत्तर पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित हैं।

क्योतो जापान के यमाशिरों प्रांत में स्थित नगर है।क्वामू शासन काल में इसे 'हे यान जो' अर्थात् 'शांति का नगर' की संज्ञा दी गई थी। ११वीं शताब्दी तक क्योतो जापान की राजधानी था और आज भी पश्चिमी प्रदेश की राजधानी है। क्योटो छोटा धार्मिक शहर है जबकि टोक्यो पूरी सजधज सहित महानगर। दोनों शहरों की संस्कृति में साफ़ फर्क नजर आया।वैसा ही जैसे हमारी मुम्बई और मथुरा में नजर आता है। क्योटो में ज्यादातर टैक्सी ड्राइवर काफी बुजुर्ग मिले लेकिन टोक्यो में बनिस्बत यंग। लड़की हमें कहीं भी टैक्सी ड्राइवर नहीं मिलीं जैसी कि सिंगापुर, लंदन या यू एस में आम है। यहाँ पर बुजुर्ग काफी उम्र तक काम करते हैं और प्राय: अकेले ही शॉपिंग करते व घूमते मिल जाएंगे। 

जो प्योर वेजीटेरियन हैं उनको अपने साथ कुछ व्यवस्था करके ही जाना चाहिए । जगह- जगह आपको छोटे- बड़े रेस्टोरेंट खूब मिलेंगे लेकिन हर जगह चिकिन, मटन, बीफ़, फिश, प्रॉन, पोर्क के बेक होने की चिरांध हवा में तैरती मिलेगी।जापान में एक चीज़ का बहुत क्रेज दिखा वह है हरे रंग का माचा। माचा आइसक्रीम, माचा ड्रिंक, माचा चाय, माचा कैंडी क्या नहीं मिलेगा जबकि उसका टेस्ट कुछ कड़वा कसैला सा होता है परन्तु एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होने के कारण बहुत लोकप्रिय है। वैसे तो वीगन फूड के नाम पर आपको राइस विद वेज करी , वेज सुशी, जापानी काँजी, पास्ता, नूडल्स व पित्जा वगैरह मिल ही जाएगा। भूखे तो नहीं ही रहेंगे। मैकडोनल भी सभी जगह हैं पर फ्रैंच फ्रायज के अलावा तो क्या ही मिलेगा। कुछ इंडियन रेस्टोरेंट भी हैं जहाँ बहुत टेस्टी खाना मिला। बेकरी आइटम्स की बहुत वैरायटी होती है और बहुत टेस्टी भी। वैसे भी हम इंडियन विदेशों में थेपले तो ले ही जाते हैं अपने साथ😊

वहाँ के लोगों में एक मासूमियत दिखाई देती है। लोगों का व्यवहार बहुत ही सहयोगात्मक दिखा। किसी से कोई शॉप या रास्ता पूछो तो वह अपने हाथ का काम छोड़कर आपके साथ दूर तक साथ चल देगा।कमर से झुक कर इतनी बार अभिवादन करेंगे कि लगता है इनकी कमर दुख जाती होगी।होटल व रेस्टोरेंट में सभी का व्यवहार बहुत विनम्र व सहयोगी रहा। लेकिन अनुशासन व नियमों के मामले में कुछ ज्यादा ही कड़क ।बस वहाँ ज़्यादातर वोग जापानी लैंग्वेज में ही बात करते हैं , इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ।हमें कई जगह एप का सहारा लेना पड़ा ।प्राय: हर होटल में हरेक के लिए नाइट सूट या कीमोनो रूम में होता था।हमने ठाठ से नाइट गाउन की जगह कीमोनो पहनकर अपना ये शौक पूरा किया। 

वे नियम कायदों को बहुत सख्ती से फॉलो करते हैं, शायद इसी कारण वहां पर क्राइम बहुत कम है। म्यूजियम व आर्ट गैलरी में आप अपने बैग से निकालकर भी पानी नहीं पी सकते, आप रूम से बाहर जाकर ही पी सकते हैं । वर्ना मुस्तैद खड़ा स्टाफ आकर आपको कान में धीरे से मना कर देगा। मार्केट में आप शॉप पर ही आइसक्रीम खाइए चलते- चलते रास्ते में नहीं खा सकते। सड़क पर चलते समय जोर से कोई नहीं बोलता। कोई भी गाड़ी का हॉर्न नहीं बजाता। वे शहर में गाड़ी बहुत इत्मिनान से चलाते हैं , पैदल क्रॉस करने वालों के लिए इंतजार करेंगे, ओवरटेक भी नहीं करते। एक बार हमारे टैक्सी ड्राइवर ने हल्का सा ही हॉर्न बजा दिया तो सब उसको ऐसे घूरकर देखने लगे जैसे जघन्य अपराध कर दिया हो।

जापान की समृद्धि के पीछे जापानियों की अथक मेहनत साफ झलकती है। सुना है कि वहां के युवा अब शादी के बंधन से कतराने लगे हैं। काम व प्रमोशन की होड़ में कौन झंझट में फंसे ? ये भी सुना कि लोग घरों में चूहे पालते हैं और उनको बच्चों की तरह पालते हैं। कई लड़कियों को बेबी कैरियर में खूबसूरत छोटे-छोटे डॉग्स को सीने से लगाकर  दुलारते देखा।क्योटो मे स्टिक लगे फ्रोजन खीरे भी खूब बिकते दिखे।

यह जानकर बेहद दुख हुआ कि जापान में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं, निश्चित ही उनमें युवाओं की संख्या अधिक होगी। क्योटो पर तो धर्म का प्रभाव बहुत अधिक है…तब भी ? वह धर्म कैसा जो साहस , आशा व शक्ति का संचार न करे। वह समृद्धि किस काम की जिससे लोग तनाव, अकेलापन व असुरक्षित महसूस करें ? जीवन में बैलेंस होना बहुत जरूरी है आप सिर्फ भौतिकवादी होकर कैसे सुखी रह सकते हैं । इतना प्यारा देश, इतने प्यारे लोग…दुआ है काश इस काली छाया से बाहर निकल सकें…आमीन!!!

किसी देश की नब्ज पर हाथ रखना है तो इतिहास से ज्यादा जरूरी है वहाँ का साहित्य पढ़ा जाए। मन हुआ कुछ जापानी कविता  पढ़ने का तो गूगल बाबा ने बताया 'Matsuo Basho’की लबसे प्रसिद्ध हाइकु है-'द ओल्ड पॉन्ड’-

Furuike ya 

kawazu tobikomu 

mizu no oto


The old pond- 

a frog jumps in,

sound of water.

(पुराना तालाब...

पानी की आवाज़ में 

एक मेंढक कूदता है।)

क्या सिर्फ इतना भर अर्थ है इसका ? 

या यह कि, पुरानी मान्यताओं के तालाब में कुछ नवीन खुशी की तलाश में भटके हुए लोग पुन: छलांग लगा रहे हैं, यही या कुछ और…कभी भी किसी कृति का एक अर्थ नहीं होता …सोच रही हूँ, खंगाल रही हूँ क्या कारण हो सकता है इस हाइकू को इतना पसंद किए जाने के पीछे…आप भी सोचिए हम भी सोचते हैं…अभी काफी कुछ बाकी है…फिलहाल सायोनारा👋!!







बुधवार, 14 मई 2025

 


आप घर का कोना- कोना सँवारते हैं 

रोज झाड़- पोंछ करते हैं 

कपड़े-गहने सहेजते हैं 

कार- स्कूटर की हवा चैक करते हैं ….

लेकिन क्या पारिवारिक संबंधों, पड़ोसी और दोस्ती के रिश्तों को भी…सहेजते हैं, संभालते हैं , चिंतन करते हैं, उनमें ऑक्सीजन भरते हैं …नहीं या हाँ ???🤔


कुछ हट कर ….

  दो तरह के सोचने के तरीके हैं- कन्वर्जेन्ट थिंकर और डाइवर्जेंट थिंकर, जो लोगों की समस्या-समाधान और रचनात्मकता में अलग-अलग दृष्टिकोण को दिखा...