ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

पुस्तक- समीक्षा ( सात समंदर पार)





पुस्तक—  सात समंदर पार


"दोस्त प्रतिध्वनि की....”


"न जाने कौन रोया है

कि अब तक

गगन का आँगन

क्षितिज का कोर भीगा है

न जाने कौन रोया है....!”


 इस छोटे से गीत की एक प्रतिलिपि पितृतुल्य,श्रद्धेय पन्त जी के पास इस पुस्तक की लेखिका ,उनकी मानस पुत्री श्रद्धेय सरस्वती प्रसाद जी ने लिख कर भेजी थी ।उनका जवाब आया-".....तुम्हारा गीत पढ़ा ।एक बार नहीं कई बार ,किस मनस्थिति में इस गीत को तुमने लिखा था बेटी।धरती ,आकाश को भिगोती आँसू की बूँदें ,कि मेरी भी आँखें भर आईं ।”

हर किसी में ये सामर्थ्य नहीं होती कि वो अपनी पीड़ा व रुदन से कायनात को भिगो दे ...सुमित्रानन्दन पन्त जैसे महान कवि की आँखें नम कर दें !

" सरस्वती प्रसाद घर की इकलौती बेटी ,बड़े से घर के कई खाली कमरों से आवाज देती बन गईं दोस्त प्रतिध्वनि की...!”

" सात समंदर पार” पावन त्रिवेणी है ...इसमें तीन पीढ़ियों का संगम है ,गंगा-यमुना सी बेटियों व नातिन के प्रयासों का और लुप्त-प्राय माँ सरस्वती की ममतामयी स्मृतियों के लहराते आँचल की धारा व उनकी कल्पना से सृजित हुई परतन्त्र राष्ट्र के प्रति भाव भरी कहानी का !

ये पुस्तक नहीं बल्कि बेटियों व नातिन के द्वारा दिया गया भावभीना तर्पण है ...भावभीनी श्रद्धांजलि है ,जिसमें शीतल माहेश्वरी ने भी अपनी अंजुलि जोड़ कर इसे सतरंगी रंगों से सजा धनक सा  मोहक बना अपनी भी भावान्जलि समर्पित की है ।

दो पीढ़ियों के संस्कार व कृतज्ञता जो उन्हें पुण्यात्मा माँ सरस्वती से विरासत में मिले 

और स्व० माँ ने कमाए जो पुण्य, दिव्य भावों व कर्मों से उनको महसूस किया अगली पीढ़ियों ने ...उसी का सुपरिणाम है यह पुस्तक जो बहुत सुन्दर बन पड़ी है ।

मुझे नहीं लगता कि अपनी कविहृदया माँ व नानी को कोई इससे बेहतर श्रद्धांजलि दे सकता है ।माँ जहाँ भी होंगी उनकी आत्मा सुकून पा रही होगी और गौरव मिश्रित संतुष्टि की अनुभूति उनको अवश्य हो रही होगी ।

नातिन `अपराजिता कल्याणी ‘के मानस की परिकल्पना ने `सात समन्दर पार’ की कथा को इसके आवरण- चित्र में उकेरा है तथा बहुमुखी प्रतिभा की धनी `शीतल माहेश्वरी ‘ ने खूबसूरत चित्रों से पुस्तक की रोचकता-ग्राह्यता में वृद्धि की है ।खूब ब्राइट कलर से बने चित्र बहुत कलात्मक हैं और हमारी कल्पना को पंख देते हैं ।

 लाल सुहाग के जोड़े में सिमटी सी  बैठी  नव- वधु के सामने की जमीन को भी लाल सिंदूरी रंग से चित्रित कर शीतल ने अपनी अनोखी कल्पना की कूची से कायनात पर भी सिंदूरी अनुराग छिड़क मानो प्रकृति को भी उसी रंग से रंग दिया है !

इसी तरह बच्चों के खेलते हुए रंग- बिरंगे चित्र 

बेहद बोल्ड रेखाओं से सुंदर बनाए है । सात समंदर पार जाता बादलों से बात करता हवाई जहाज और समन्दर में डूबी- डूबी सपने देखती आँखें चित्रित करते शीतल के चित्र से उनकी कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है। शीतल की सकारात्मकता व क्रिएटिविटी प्रशंसनीय है ।वे विभिन्न क्षेत्रों में नित नूतन प्रयोग व सृजन करती रहती हैं ।

भूमिका लिखी है सरस्वती प्रसाद जी की बड़ी बेटी `नीलम प्रभा’ ने। वे लिखती हैं - 

" दो की एक होकर अपनी दुनिया को बसाना,

फिर उस दुनिया को और सजाने और संवारने का ख्वाब अपनी पलकों पर पालना...वो प्रवासी सपना वापिस नहीं आता...ऐसी लाखों जोड़ी आँखों में देखे गए अन्तहीन कराह का, आँसुओं से तर बयान है `सात समन्दर पार ‘की कथा ।”

पुस्तक हाथ में लेकर  उलटते - पलटते रेशम सा हाथ से फिसलता है ...रंगीन चिकने उम्दा पन्नों पर टंकण-कार्य बहुत उत्तम हुआ है ।तीन पीढ़ियों के भाव- सागर में से गुजरता पाठक का मन भी जैसे अगर- कपूर सा सुवासित हो उठता है ।अक्षर- अक्षर भावान्जलि हो जैसे ! निश्चित ही लिविंग- रूम की बुक- शेल्फ में संजो कर सहेजने लायक है ये कॉफी टेबिल बुक !

लेखिका माँ सरस्वती प्रसाद की दोनों बेटियों को भी विरासत में माँ की अद्भुत, प्रभावशाली काव्यमयी चिन्तनधारा का प्रसाद मिला है ।सिर्फ लेखनी पर ही नहीं स्वरों पर भी अद्भुत पकड़ रखने वाली विलक्षण गायिका व प्रतिभाशाली कवयित्री उनकी छोटी बेटी रश्मिप्रभा भावुक हो कह उठती हैं -

  "यह सब कुछ मेरे लिए त्रिवेणी का जल रहा है

           जिसे छूकर कहती हूँ तर्पण, अर्पण

               निरंतर, हर दिन, हर पल !”

माँ का जीवन, उनका हर पल, हर दिन पावन है बेटी के लिए ...कह उठती हैं -

       " तुम्हारा जन्मदिन

          तुम्हारी शादी का दिन...

           तुम्हारे जाने का दिन

            सब पुण्य है...!”

इस पुस्तक में उकेरी गई कहानी गुलाम भारत की एक तस्वीर प्रस्तुत करती है जब हर भारतवासी का सपना देश की आजादी के सपने के बिना अधूरा था।

अंग्रेजियत और देश- भक्ति की दो धाराएं बहती हैं शुरु में दो बच्चों के संस्कारों में ,जो हमें गुलाम भारत में ले जाती है परन्तु धीरे- धीरे किशोर से युवा हुए युगल  के हर राग- अनुराग में देश-भक्ति शामिल है ...उनके हर सपने में देश की  आजादी का सपना भी शामिल है।

दूसरी पीढ़ी के फिर अपने सपने हैं ...क्या हैं वे,ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेंगे ।

मैं इतनी सुंदर किताब के लिए जो इसमें शामिल हैं उन सभी को बधाई देती हूँ ...और श्रद्धेय माँ को सादर एक भावान्जलि समर्पित मेरी तरफ से-🙏🌺🌿☘️

            

                                       — उषा किरण


पुस्तक- सात समन्दर पार ( लघु उपन्यास)

लेखिका-सरस्वती प्रसाद

प्रकाशन-रुझान 

मूल्य -Rs.195







रविवार, 25 अक्तूबर 2020

पुस्तक समीक्षा- ताना- बाना

  लेखिका—शिखा वार्ष्णेय 




दि. 14 जून 2020 में  स्वदेशन्यूज में मेरे काव्य- संग्रह #ताना_बाना पर शिखा वार्ष्णेय की लिखी समीक्षा छपी ...पढ़ कर प्रोत्साहन तो मिलता ही है ...आप सबसे शेयर करना भी बनता है ...शुक्रिया Shikha Varshney और शुक्रिया Suresh Hindustani जी 😍


https://www.swadeshnews.in/full-page-pdf/epaper/gwalior-weekly/2020-06-14/saptak/261?fbclid=IwAR0eCRggA_vOhJcxzlTFx-90gTn7mPjSClWMBJbQP6R8CbPVkrHf3Os4xoo

पुस्तक -समीक्षा (ताना-बाना)

                             ~   पुनीत राठी~

                               ~~~~~~~~~~~



धन्यवाद मैम इस अमूल्य उपहार के लिये.........

आपका  काव्य संग्रह ताना-बाना सचमुच एक ताना- बाना ही है आपके जीवन का लेकिन जब पाठक इसे पढता है तब आपकी कविताओ मे अपनी संवेदनाओ के धागो को पाता  है और फिर एक ताना -बाना चलता है । जीवन मे एक धागा सुख  तो कही दो धागे दुख और भी न जाने कितने संबन्ध उनसे मिलने वाले अनुभवो के धागो से जो जीवन का ताना - बाना बनता है पूरी किताब को अन्त तक  पढने पर यही धागे बार- बार छुए जाते है और छू जाते है दिल को भी.....

 पुस्तक मे कविताये और उन पर बनाये गये आपके चित्र दोनो है जो नयी कविता के दौर मे शायद एेसा पहली बार है जो पाठक के आनन्द को द्विगुणित करते है ।  माना चित्र कविताओ पर आधारित है लेकिन कविताओ और चित्रो का अपना अलग - अलग अस्तित्व भी है। यदि कविताये बिना चित्रो के पढे तब भी एक चित्रात्मकता है और यदि चित्र ही देखे तब लगता है मानो किसी कला- विथिका मे घूम रहे हो।

" आपकी पुस्तक एक एेसी दीर्घा है जिसमे कला प्रदर्शनी और काव्य पाठ का आनन्द एक व्यक्ति को पाठक और दर्शक बनकर एक साथ मिलता है।"

सभी कविताये मुझे बेहद पसन्द आयी लेकिन कुछ कविताओ ने मन को बान्ध लिया जैसे परिचय , मुक्ति, मिलन , एकलव्य, पथराया पल ,फितरत और थाली का चांद ।

फरियाद , ताता, अभी भी, राखी और मां जैसी कविताये जो पारिवारिक संबन्धो से मिलने वाले सुख-दुख के विषय मे लिखी गयी है दिल को छू जाती है।

धूप, नदी, इन्द्रधनुष,रेत , बारिश चान्द और भी न जाने कितने उपमानो से सजी आपकी कविताये अपने आप मे धरती से लेकर अम्बर तक को समेटे है...!

                                   एक बार पुन: धन्यवाद🙏

 —  पुनीत राठी


पुस्तक समीक्षा ( ताना- बाना)

 

         


                              ~  रन्जु भाटिया~

                                ~~~~~~~~~

ताना बाना ( काव्यसंग्रह )

सुन लो              

जब तक कोई

आवाज देता है

क्यूँ कि...

सदाएं  एक वक्त के बाद

खामोश हो जाती हैं

और ख़ामोशी ....

आवाज नहीं देती!!

   डॉ उषा किरण


कितनी सच्ची पंक्तियां है यह। हम वक़्त रहते अपने ही दुनिया मे रहते हैं बाद में पुकारने वाली आवाज़ों को सुनने की कसक रह जाती है । शब्दों का यह "ताना बाना" ,ज़िन्दगी को आगे चलाता रहता है । यही सुंदर सा शब्दों का" ताना बाना "जब मेरे हाथ मे आया तो घर आ कर सबसे पहले मैने इसमें बने रेखाचित्र देखे ,जो बहुत ही अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे , कुछ रचनाएं भी सरसरी तौर पर पढ़ी ,फिर दुबई जाने की तैयारी में इसको सहज कर रख दिया ।
     यह सुंदर सा "काव्यसंग्रह "मुझे "उषा किरण जी" से इस बार के पुस्तक मेले में भेंटस्वरूप मिली । उषा जी 'से भी मैं पहली बार वहीं मिली ,इस से पहले फेसबुक पर उनका लिखा पढ़ा था और उनके लेखन से बहुत प्रभावित भी थी । क्योंकि उनके लेखन में बहुत सहजता और अपनापन सा है जो सीधे दिल मे उतर जाता है ।
     पहले ही कविता "परिचय " में वह उस बच्ची की बात लिख रही हैं जो कहीं मेरे अंदर भी मचलती रहती है ,
नन्हे इंद्रधनुष रचती
नए ख्वाब बुनती
जाने कहाँ कहाँ ले जाती है
उषा जी ,के इस चित्रात्मक काव्य संग्रह में बेहद खूबसूरत ज़िन्दगी से जुड़ी रचनाएं हैं ।जो स्त्री मन की बात को अपने पूरे भावों के साथ कहती हैं । औरत का मन अपने ही संसार मे विचरण करता है ,जिसमे उसकी वो सभी  भावनाएं हैं जो दिन रात के चक्र में चलते हुए भी उसके शब्दों में बहती रहती है और यहां इन संग्रह में तो शब्दों के साथ रेखांकित चित्र भी है जो उसके साथ लिखी कविता को एक  सम्पूर्ण अर्थ दे देते हैं जिसमे पढ़ने वाला डूब जाता है।
डॉ उषा जी के इस संग्रह को पढ़ते हुए मैंने खुद ही इन तरह की भावनाओं में पाया , जिसमे कुछ रचनाएं प्रकृति से जुड़ी कर मानव ह्रदय की बात बखूबी लिख डाली है ,जैसे सब्र , कविता में
थका मांदा सूरज
दिन ढले
टुकड़े टुकड़े हो
लहरों में डूब गया जब
सब्र को पीते पीते
सागर के होंठ
और भी नीले हो गए

पढ़ते ही एक अजब से एहसास से दिल भर जाता है। ऐसी ही उनकी नमक का सागर ,बड़ा सा चाँद, एक टुकड़ा आसमान, अहम ,आदि बहुत पसंद आई । इन रचनाओं में जो साथ मे रेखाचित्र बने हुए है वह इन कविताओं को और भी अर्थपूर्ण बना देते हैं।
   किसी भी माँ का सम्पूर्ण संसार उनकी बेटियां बेटे होते हैं , इस संग्रह में उनकी बेटियों पर लिखी रचनाएं मुझे अपने दिल के बहुत करीब लगी
बेटियां होती है कितनी प्यारी
कुछ कच्ची
कुछ पक्की
कुछ तीखी
कुछ मीठी
वाकई बेटियां ऐसी ही तो होती है ,एक और उनकी कविता मुनाफा तो सीधे दिल मे उतर गई ,जहां बेटी को ब्याहने के बाद मुनाफे में एक माँ बेटा पा लेती है। जो रचनाएं आपके भी जीवन को दर्शाएं वह वैसे ही अपनी सी लगती है । लिखने वाला मन और पढ़ने वाला मन  कभी कभी शायद एक ही हालात में होते हैं । कल और आज शीर्षक से इस संग्रह की एक और रचना मेरे होंठो पर बरबस मुस्कान ले आयी जिसमे हर बेटी छुटपन में माँ की तरह खुद को संवारती सजाती है ,कभी माँ के सैंडिल में ,कभी उसकी साड़ी में , और इस रचना की आखिरी पँक्तियाँ तो कमाल की लगी सच्ची बिल्कुल
आज तुम्हारी सैंडिल
मेरी सैंडिल से बड़ी है
और .....
तुम्हारे इंद्रधनुष भी
मेरे इंद्रधनुष से
बहुत बड़े हैं !
इस तरह कभी बेटी रही माँ जब खुद माँ बनती है तो मन के किसी कोने में छिपी आँचल में मुहं दबा धीमे धीमे हंसती है  ( माँ कविता )
बहुत सहजता से उनके लिखे इस संग्रह में रोज़मर्रा की होने वाली बातें , शरीरिक दर्द जैसे रूट कैनाल में बरसों से पाले दर्दों से मुक्ति का रास्ता सिखला देती है ।
इस संग्रह की हर रचना पढ़ने पर कई नए अर्थ देती है । मुझे तो हर रचना जैसे अपने मन की बात कहती हुई लगी । पढ़ते हुए कभी मुस्कराई ,कभी आंखे नम हुई । सभी रचनाओं को यहां लिखना सम्भव नहीं पर जिस तरह एक चावल के दाने से हम उनको देख लेते है वैसे ही उनकी यह कुछ चयनित पँक्तियाँ बताने के लिए बहुत है कि यह संग्रह कितना अदभुत है और इसको पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता है ।
"ताना बाना "डॉ उषा जी का यह संग्रह  इसलिए भी संजोने लायक है ,क्योंकि इसमें  बने रेखाचित्रों से भी पढ़ने वाले को बहुत जुड़ाव महसूस होगा  ।
  डॉ उषा जी से मिलना भी बहुत सुखद अनुभव रहा । जितनी वो खुद सरल और प्यारी है उनका लिखा यह संग्रह भी उतना ही बेहतरीन है । अभी एक ग्रुप में जुड़ कर उनकी आवाज़ में गाने सुने ,वह गाती भी बहुत सुंदर  हैं । ऐसी प्रतिभाशाली ,बहुमुखी प्रतिभा व्यक्तित्व के लिखे इस संग्रह को जरूर पढ़ें ।
धन्यवाद उषा जी इस शानदार काव्यसंग्रह के लिए और आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं
                       ~ रन्जु भाटिया
ताना बाना
डॉ उषा किरण
शिवना प्रकाशन
मूल्य 450 rs

पुस्तक-समीक्षा ( ताना- बाना)

                                    ~रश्मि कुच्छल~

                                  ~~~~~~~~~~~

                               ~ ताना- बाना~

                              ~~~~~~~~~~~~

 इस सफरनामे का आवरण ही लेखिका यानी  Dr . उषाकिरण दी का व्यक्तित्व है ,घनी कालिमा को चीरकर उभरता सुनहरा सूरज ।

रेखाओं की चितेरी जादू भरी उंगलियां कब इन रेखाओं को शब्द बना देती हैं और कब ये कवितायों की भावभूमि के उड़ते मेघ से कागज पर चित्र बनकर उतर आते हैं ,ये अद्भुत संयोजन और कारीगिरी इस किताब को विशेष बनाती है व दीदी को एक विशिष्ट गरिमामयी काव्यचित्र संकलन "ताना - बाना " की जननी ।

स्त्री मन की नजर से जीवन के हर रंग को छूती , विषाद, विसंगति और विडंबनाओं पर तंज करती , कभी निरुपाय तो कभी दृढ़ होकर राह बनाती हर कविता उनके नजरिये से मिलवाती है ।

आज कुछ कविताओं से रूबरू होते हुए एक कविता पर रुक गयी हूँ ।

आप सबके लिए ---🙏😊

                                 ~~   रश्मि कुच्छल 

                                  


पुस्तक - समीक्षा (ताना- बाना)

डॉ०

सीमा शर्मा


   



   सुप्रसिद्ध समीक्षक डॉ ० सीमा शर्मा ने मेरी पुस्तक 'ताना- बाना’ की बहुत सुँदर समीक्षा Shivna Sahityiki में लिखी है ... सीमा जी आप किताब की रूह तक पहुँचीं ...शुक्रिया...प्लीज आप सब भी पढ़ें 🥰


मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी, संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक, शहरयार, सह संपादक शैलेन्द्र शरण Shailendra Sharan , पारुल सिंह Parul Singh के संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 5 अंक : 17 त्रैमासिक : अप्रैल-जून 2020 का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- आवरण चित्र / नीरज गोस्वामी, आवरण कविता / अजंता देव Ajanta Deo , संपादकीय / शहरयार Shaharyar Amjed Khan , व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar । पिछले दिनों पढ़ी गई किताबें- निष्प्राण गवाह, क़तार से कटा घर AnilPrabha Kumar , बंद मुट्ठी, प्रवास में आसपास, वारिसों की ज़ुबानी Geeta Shreee - सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra । शोध-आलेख- सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक / जुगेश कुमार गुप्ता Zugesh Mukesh Gupta , जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था / दिनेश कुमार पाल Dinesh Pall , खिड़कियों से झाँकती आँखें / अफ़रोज़ ताज Afroz Taj , बंद मुट्ठी / डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह । पुस्तक समीक्षा- ताना-बाना / डॉ. सीमा शर्मा / डॉ. उषा किरण Usha Kiran , कुबेर / दीपक गिरकर Deepak Girkarr / डॉ. हंसा दीप Hansa Deep , धर्मपुर लॉज / राजीव कार्तिकेय @rajiv kartikey / प्रज्ञा Pragya Rohini , सच कुछ और था / रेखा भाटिया @Rekha Bhatia / सुधा ओम ढींगरा, भूत भाई साहब और अन्य कहानियाँ / डॉ. सीमा शर्मा / प्रियंका कौशल Priyanka Kaushal , ख़ुद से गुज़रते हुए / पंकज मित्र Pankaj Mitra / संगीता कुजारा टाक Dolly Tak , निन्यानवे का फेर / पंकज सुबीर / ज्योति जैन, सुबह अब होती है तथा अन्य नाटक / पंकज सोनी Pankaj Sonii / नीरज गोस्वामी, दसवीं के भोंगा बाबा / डॉ. हंसा दीप / गोविंद सेन Govind Sen , बारह चर्चित कहानियाँ / प्रो. अवध किशोर प्रसाद / सुधा ओम ढींगरा, पंकज सुबीर, कुछ दुख, कुछ चुप्पियाँ / शहंशाह आलम Shahanshah Alam / अभिज्ञात Abhigyat Hridaya Narayan Singh , परछाइयों का समयसार / कादम्बरी मेहरा / कुसुम अंसल Dr. Kusum Ansall , राम की शक्ति पूजा और कामायनी का नाट्य रूपांतरण / अशोक प्रियदर्शी Ashok Priyadarshii / कुमार संजय Kumar Sanjay , हरी चिरैया / मनीष वैद्य Manish Vaidya / संजय कुमार शर्मा, होली / प्रो. अवध किशोर प्रसाद / पंकज सुबीर, विचार और समय / पंकज सुबीर / सुधा ओम ढींगरा। पुस्तक चर्चा- मेरी दस रचनाएँ / डॉ. प्रेम जनमेजय, आशना / डॉ. योगिता बाजपेई ‘कंचन’ @Yogita Bajpai , मेरी दस रचनाएँ / लालित्य ललित Lalitya Lalitt , ग़ज़ल जब बात करती है / डॉ. वर्षा सिंह Varsha Singh , दिलफ़रेब / राजकुमार कोरी ‘राज़’ Rajkumar Kori , साँची दानं / मोतीलाल आलमचन्द्र Motilal Ahirwar , मैं किन सपनों की बात करूँ / श्याम सुन्दर तिवारी @shyam sunder । केन्द्र में पुस्तक- पुस्तक : प्रेम की उम्र के चार पड़ाव / समीक्षक : शैलेन्द्र शरण Shailendra Sharan , नीलिमा शर्मा Neelima Sharrma / लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, पुस्तक : प्रवास में आसपास / समीक्षक : नीलोत्पल रमेश Neelotpal Ramesh , दीपक गिरकर / लेखक : डॉ. हंसा दीप, पुस्तक : खिड़कियों से झाँकती आँखें / समीक्षक : दीपक गिरकर, रेनू यादव Renu Yadav/ लेखक : सुधा ओम ढींगरा, पुस्तक : निष्प्राण गवाह / समीक्षक : शन्नो अग्रवाल @shanno agarwal , डॉ. मधु संधु Madhu Sandhu / लेखक : कादम्बरी मेहरा Kadam Mehra , पुस्तक : रात नौ बजे का इन्द्र धनुष / समीक्षक : धर्मपाल महेन्द्र जैन Dharm Jain , दीपक गिरकर / लेखक : ब्रजेश कानूनगो Brajesh Kanungoo , पुस्तक : यायावर हैं, आवारा हैं, बंजारे हैं / समीक्षक : अशोक प्रियदर्शी, धर्मपाल महेन्द्र जैन / लेखक : पंकज सुबीर, पुस्तक : जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था / समीक्षक : डॉ. प्रज्ञा रोहिणी, डॉ. सीमा शर्मा, कैलाश मण्डलेकर Kailash Mandlekarr / लेखक : पंकज सुबीर। आवरण चित्र नीरज गोस्वामी, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami , सुनील पेरवाल Sonu Perwal , शिवम गोस्वामी Shivam Goswami । आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा। 

ऑन लाइन पढ़ें-

https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-april-june-2020

https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_april_june_2020


साफ़्ट कॉपी पीडीऍफ यहाँ से डाउनलोड करें 

http://www.vibhom.com/shivnasahityiki.html

डॉ० सीमा शर्मा -



पुस्तक -समीक्षा ( ताना- बाना)


   सुप्रसिद्ध लेखिका   " कविता वर्मा “—
 



~सभ्य औरतें चुप रहती हैं~

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सभ्य औरतें शिकायत नहीं करतीं वे ढोलक की थाप पर सोहर गाते ननद सास को ताने देते विदाई गीत और गारी गाते अपने दुखों को पिघला कर कतरा कतरा निकालती रहती हैं लेकिन शिकायत नहीं करतीं। बगल के पृष्ठ पर एक पेड़ की शाख के ऊपर चमकते चाँद की मद्धिम रोशनी में एक औरत ढोलक की थाप पर अपने दुखों को थपकी दे रही है।

अश्वत्थामा को क्षमा करती पांचाली और उसे श्राप देकर अजर-अमर रहने को छोड़ देने वाले श्रीकृष्ण से लेखिका सवाल पूछती है। कवयित्री जो एक माँ है उसके लिये पुत्रवध करने वाले को माफ करना असहनीय है और ऐसे नफरत और प्रतिशोध से भरे लोगों के संसार में जीवित रहने से शिशुओं पर पड़ने वाले खतरे से भयभीत वह स्वयं अस्त्र उठाने की इच्छुक है। दो डरावनी आँखें एक हथेली और एक पंजे से बना प्रतीकात्मक चित्र माँ के भय और अश्वत्थामा के प्रतिशोध को व्यक्त करता है।

माँ - सारे दिन खटपट करती /लस्त पस्त हो /तुम कहतीं एक दिन ऐसे ही मर जाऊँगी /और कहीं मन के किसी कोने में छिपी /आँचल में मुँह दबा /तुम धीमे-धीमे हँसती हो माँ।

गान्धारी से सवाल करती इस कविता में कवयित्री पूछती है

बोलो! क्यों नहीं दी पहली सजा तब /जब दहलीज के भीतर औरत को दी थी पहली गाली? यह सवाल बहुत पहले पूछा जाना चाहिए था हर उस गांधारी से जिसने अपने बेटे भाई पति के जुर्म को अनदेखा कर आँखों पर पट्टी बाँध ली है और शुक्र है कि अब यह पूछा जा रहा है और एक आशा दिखाई देने की उम्मीद है।

ताना बाना उषा किरण जी का कविता संग्रह जो सिर्फ कविताओं से ही नहीं बल्कि इन्हें और मुखर करती लकीरों से भी सजा है। हर कविता के साथ एक रेखाचित्र भावों को परिवेश का साथ देकर और गहन और विस्तृत बनाता है। जितनी अद्भुत उषा किरण जी की वैचारिक क्षमता है उससे कहीं बेहद आगे उनकी उन भावनाओं परिवेश और उनकी उलझन को रेखांकित करने की उनकी क्षमता है। शब्दों और रेखाओं के इस ताने-बाने में पाठक खो जाता है। वह समझ नहीं पाता कि पहले शब्द पढ़कर उसके भाव चित्रों में ढूँढे या पहले रेखाओं को पढ़कर शब्दों को बूझे।

101 कविताओं और उनके रेखांकन से सजे इस संग्रह में स्त्री मन उसके दुख सुख उसका अकेलापन खुद में सिमटे रहने की बाध्यता समाज की वर्जनाएं विडंबना प्रेम विरह धोखा आस उम्मीद समझ कर नासमझ बने रहने का भोलापन स्त्री पुरुष संबंध सुनहरी यादें दोस्ती वादे के साथ ही जीवन के दर्शन को न सिर्फ शब्द दिये गये हैं बल्कि उन्हें रेखाओं में खूबसूरती से उकेरा गया है।

ताना बाना पाठक के मन में भावनाओं और समझ का एक ऐसा अद्भुत वस्त्र बुनता है जिसकी मुलायमियत देर तक महसूस की जा सकती है।

डाॅ उषा किरण को इस अद्भुत संग्रह के लिए हार्दिक बधाइयाँ और उनकी लेखनी और तूलिका के लिए अशेष शुभकामनाएं।

ताना बाना

डाॅ उषा किरण

शिवना प्रकाशन

मूल्य 450/-







बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

रिटायरमेंट के साइड इफ़ेक्ट



#रिटायरमेन्ट_के_साइड_इफैक्ट

लेट निशाचर सोने वाले
हम लेट सवेरे उठते
जाने कैसे छै बजे बस
आज सवेरे उठ गए
सोचा चलो बहुत हुआ 
अब सूर्योदय दर्शन कर लें !

हरी चाय का कप ले हम
फौरन छत के ऊपर पहुँचे
इधर- उधर देखा लेकिन
सूर्यदेव कहीं न दिखते
आँख बन्द कर नाक दबा 
अनुलोम- विलोम करते
तब`इनकी’ओर हम पलटे
थे ये बेहद हैरान -परेशाँ
आज सुबह-सुबह ही कैसे
ये कयामत ऊपर आयी 
राम ही जाने आज सूरज 
जाने किधर से निकले भाई ?

अकड़ के पूछा इनसे हमने
कहाँ है सूरज साढ़े छै हैं
देखो अब तक गैरहाजिर हैं
एक आँख से देख हमें तब
ये धीरे से कुछ बुदबुदाए
`पॉल्यूशन के कारण भाई’
हैं ! ये भी कोई बहाना है
पॉल्यूशन से बोलो कोई
गायब  कैसे हो सकता है
साढ़े छह तक भी कोई 
इस तरह पड़ा सोता है?

दोनों आँखें बन्द किए फिर
झट चुप्पी इनने साधी
जल्दी जल्दी छत पर हमने  
दो चार फिरकियाँ काटीं
इतने में मुँह लाल किए
प्राची  से आँखें मलते
दिखे वे धीरे - धीरे आते !

ये भी कोई वक्त भला है
जब सारी दुनिया जागे
और तब तुम भरी दुपहरी
अब धीरे- धीरे आते ?
देख हमारी शकल सलोनी
वे जल्दी- जल्दी भागे
दस मिनिट में ठीक हमारे
सिर ऊपर आ विराजे !

अरे भई,पहले देर से उठते 
फिर जल्दी- जल्दी भगते
सारी छत पर धूप बिखेरी
अब जल्दी क्या है इतनी
अब तुम ही भला बताओ
हम वॉक कैसे कर पाएं
कुछ तो ढंग की बात करो
क्यूँ चाल बेढंगी चलते !

नाक उठा सूरज से जब
यूँ  हमको भिड़ते देखा
झट बीच में कूद पड़े ये
सूरज पे दिखाते ममता
अरे नाहक इतनी जल्दी
उठ कर क्यों ऊपर  आईं 
कुछ देर और सो लेतीं
सुबह- सुबह क्यों तुमने
इतनी तकलीफ़ उठाई 
सूर्योदय का तो रोज
बस यही वक्त है भाई !

जब उठ ही गईं तो आओ 
मिल कर प्राणायाम करें
देखो तितली भंवरे चिडिएं
कैसा मीठा गुनगुन गान करें 
हम नाक दबा बैठे बेशक थे
पर आँख हमारी ऊपर थी 
अनुशासन-पाठ पढ़ाने की
बस आज हमने ठानी थी !

कल से वक्त पर आना तुम 
वर्ना अनुपस्थिति लगाएंगे
ठीक सुबह के पाँच बजे तुम
सूर्योदय कल से लाओगे!’
हमने आँख निकाली जमकर
उनने धीरे से मुँडिया हिलाई
इनने हमसे चोरी छुप कर 
उसे एक आँख दबाई !

अगली सुबह उठे आठ पर
हड़बड़ कर छत पर भागे
अटेंडेंस का ले रजिस्टर 
छत के ऊपर जा बिराजे
जाकर पूछा सख्ती से
तुम कितने बजे थे जागे
अरे,ठीक पाँच बजे थे
जब ये आए भागे-भागे 
बोले धीरे से पति हमारे
उधर सूरज बगलें झाँके !

चलो तुम आ जाओ नीचे
हम चाय बनाने जाते हैं
रिटायरमेन्ट के बाद अब
ज़िम्मेदारी हम पर भारी है
सूरज-चाँद जगें समय पर
और समय पर जा सोएँ
दसों दिशाएं चौबस्त रहें
नदिएं व सागर ठीक बहें !

कल से तुमको इन सब पर 
करनी निगरानी जारी है
हम ही दोनों पर अब देखो
बस ज़िम्मेदारी भारी है !
बिल्कुल सही कहा मैडम
ऐसा ही होगा बस अब
कपालभाती थोड़ा कर
पीछे-पीछे आते  हम !

आँख तरेर घूरा तब हमने
अबके थी इनकी बारी 
बूढ़े हो गए तुम फिर भी
कपालभाती न कर पाते
पेट अंदर साँस हो बाहर
स्वामी रामदेव बतलाते
बेवकूफ न हमको समझो 
हम भी हैं चतुर -सयाने 

और खूब बिगाड़ो तुम इनको  
सब कारिस्तानी तुम्हारी है
इतने भोले तुम न बनो
सब हरकत मनमानी है
पहले तुमने बिगाड़े बच्चे
अब चाँद सूरज की बारी है...!’

                                  — उषा किरण




                                  


मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

तो सुनो...!


 पार्क, स्टेशन, सड़क हो 

या बाजार

ये जो तुम हर जगह मुझसे 

बीस कदम आगे चलते हो न

नाक की सीध में एकदम

सीना तान कर

सतर कन्धे

हथेली पर सूरज उगाए

और सोचते हो कि 

आगे हो मुझसे...?


गलत सोचते हो तुम

बिल्कुल गलत

मैं और बीस कदम 

अपनी मर्जी से पीछे होकर

कहीं छिप जाऊँ अगर

तो क्या हो 

सोचा है कभी ?


अपनी हथेलियों में ये जो तुम

सूरज की दिपदिपाहट लिए

दर्प से घूमते हो ,

तुम्हारे आँगन में ओस से भीगे

चाँदनी में नहाए महकते 

प्रार्थनारत ये हरसिंगार ,

पिंजड़े में चहकती मैना,

द्वारे चटकते गुलमोहर

और अमलतास की धमक

नाते-रिश्तों की सरगोशियाँ 

ये महफिलों और

उत्सवों की रौनकें 

आंगन में सजे इन्द्रधनुष 

खान - पान के वैभव

और सुकून की नीदें ...

ये सब भी छिप जाएंगी 

उसी पल !


लम्बे डग भरते

तुम जो ये सोचते हो न कि

तुमने मुझे पीछे छोड़ा हुआ है 

तो सुनो -

गलतफहमी है तुम्हारी 

सच तो ये है कि 

पीछे तुमने नहीं छोड़ा 

बल्कि...

मैंने ही अपने माथे का सूरज

तुम्हारी हथेली में रोप

तुमको आगे किया हुआ है ...!!

                                — उषा किरण 

फोटो : प्रणान सिंह की वॉल से साभार

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