ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 30 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग 1 )





      सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।

उसे सहसा याद अाया--- जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी।
संयोगिता को सहसा खिसियानी-सी हंसी आ गयी अपनी बेबसी पर। तोंद पर बनियान चढाये आराम से हाथ फिराते, दियासलाई की  तीली से अन्तिम दाढ को मुंह फाडकर कुरेदते विनय ने अधमुंदी  आंखों से उसकी ओर एकटक ताकते तीली सामने कर गौर से देखते हुए पूछा, `क्यों क्या याद आ गया, क्यों हंस रही हो ‘?
वह हडबडा गयी। उसे पता था, जब तक विनय जवाब नहीं पा लेंगे, पूछते जायेंगे।
'क्या बात है आखिर ?'   
'बात क्या है?'
'आखिर पता तो चले ?'
'फिर भी' 
इससे पहले कि यह सिलसिला शुरू होता, वह प्लेट उठाकर चल दी, 'कुछ नहीं काफी देर तक रसोई में  खटर-पटर करती रही। जैसे सभी आम औरतें रात में थके लस्त-पस्त शरीर घसीटती, पसीने, प्याज और मसाले से गंधाती करती है।
कमरे के दरवाजे पर खडे होकर एक पल को दहशत फिर उभरी । पर्दे से झांककर देखा, विनय सो चुके थे। आश्वस्त हाेकर वह धीरे-धीरे कमरे में जाकर आराम-कुर्सी पर पसर गयी। क्या पता यदि विनय जाग रहे होते तो फिर हांक लगाते शायद।
'तुमने बताया नहीं, तुम क्यों हंसी थीं ?'
एक पल को संयोगिता को लगा शायद आज वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती, पर तुरन्त ही वह एक व्यंग्य भरे अाश्चर्य से दग्ध हो उठी कि दस-बारह वर्षों बाद भी आज तक खुद से ऐसे किसी साहस या उत्तेजना की आशा रखती हैं ?
सच ! यह अनुभव उसके लिए एकदम आकस्मिक था और किसी हद तक रोमांचक भी..
                                                                                                                                क्रमश:

मंगलवार, 29 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग २ )


सोच लेने भर से ही सहमकर उसने खाट की तरफ देखा, पर विनय मजे में छाती पर हाथ बांधे टांगें फैलाये सो रहे थे । गले से मोटे पेट तक और पेट से पैर तक फैली चादर का आरोह-अवरोह देखती रही। तनी हुर्इ चादर पंखे की हवा से लगातार कांप रही थी। 
जाने क्यों उसे बडी जोर की इच्छा हुई कि वह शीशा देखे। डरती-डरती सी वह शीशे के सामने जाकर आंखें बंद कर खडी हो गयी । आंखें खोली तो उसे लगा, वह किसी अजनबी जिस्म को देख रही है। किसी दूसरी औरत के शरीर को।
शीशे की तरफ हाथ बढाकर उसने अपने अक्स को छूना चाहा तो उसकी तर्जनी शीशे के पथरीलेपन से टकराकर अटक गयी। उसे एक क्षण के लिए यह अपनी देह का ही सत्य लगा कि हृदय  में कोई स्पन्दन  न था। न जाने क्यों जब उसने वापस हाथ अपने सीने पर रख धुकधुकी महसूस की तो वह एक अचरज से भर उठी। 
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? बार-बार उठ रहे इस अचरज को कहां छुपा दे ? चकले-बेलन के बीच पीस डालेअचार का इमर्तबान खोल उसमें झोंक दे या फिर दूध में जामन की जगह डाल आराम से सो जाये।
         उसने कितना चाहा, वह सो जाये, परन्तु पैरों में न जाने कैसी हठीली पायजेब पड गयी थी। न चाहने पर भी अवश होकर दृष्टि उठाकर उसने शीशे में खड़ी औरत को देखा।छोटे से हेयरपिन की सहायता से ठोंका गया गुठली सा जूडा। गले की अवश दो उभरी हड्डियां और असहाय सा गले की दोनाें हड्डियों के बीच का अबोध गड्ढा । अचानक उसे ख्याल आया, क्या आज भी मधु उसे देखकर कह सकती है- 'तेरा यह नन्हा सा गड्ढा ही बस इतना प्यारा है कि..... ' शरारत से आंख झपकाती मीनू जैसे कल्पना से भी आंख चुरा कर उड गयी। सहसा उसका ध्यान आंखों पर गया तो वह चौंक पडी। अरे, कब ‍वे लम्बी-घनी बरौनियां झड गयीं ? उसके चेहरे पर इतनी झांइयां कब पडी ? वह कब इतनी निचुड गयी ?
  कॉलेज में भी वह कभी मेकअप करके नहीं जाती थी। उसे पता था, उसके रूप में वह कुछ है जो उसे औरों से अलग खड़ा कर हर क्षण नवीनता से भर देता है । मनु उसके कान पर झुक कर किस कदर गुनगुनी आवाज में मदालस भ्रमर-सा गुनगुनाता था तो वह नखशिखान्त लाल पड जाती थी। उसे लगा अब तक की आधी उम्र उसने लाल पड़ कर लाज की गुडिया बनने में काटी और अब बाकी उम्र वह हल्दी घोलती पीली ही पडती रहेगी।
  उस दिन वह पढने के लिए अपनी मेज पर गयी भी, तो लिफाफा उत्सुकता से खोल एक फोटो देख अचकचा गयी थी। फिर सहसा कुछ कौंध गया। पलटकर देखा, फोटो पर 'इलाहबाद' के फोटो स्टूडियो की छाप थी। उसे समझते देर न लगी, कई दिनों  से घर में 'इलाहाबाद वाले लडके' के बारे में उसके कानों में पडता रहा था। 
  मम्मी ने उसकी राय जाननी चाही होगी। क्रोध व झुंझलाहट में उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं। क्या दोनों बहनें या मम्मी कोई भी उसके उसके हाथ में  यह फोटो देकर साफ बात नहीं कर सकती थीं  ? 
  धुंधली दृष्टि में भी परख ली गयी कपडों की कीमती सिलाई से  उधार मांगी स्मार्टनेस उसे तिलमिला गयी थी। छोटी आंखें, भरे पुष्ट गाल, मंझोला-कद और मांसल होठों का वह सांवला सा नजर आने वाला व्यक्तित्व निश्चय ही व्यापारी होगा। 
  उसने मुक्के मार-मारकर तकिये को धुन डाला। उसका जी चाहा वह तानपूरे से सिर फोड़ ले। तबलों को टन्न से सडकपर दे मारे। ऑयल-कलर्स के सारे ट्यूब निचोडकर उन्हें खा जाये। आर्ट पेपर्स के टुकडे-टुकडे कर दे। कैनवास जला दे, पर वह ऐसा नहीं कर पायी। 
  दूसरे दिन मम्मी उसे सुना-सुनाकर चड्ढा आंटी से कह रही थीं। 'लाखों रूपया है, पढे-लिखे सभ्य लोग हैं। लडका भी ठीक और फिर लडके की खूबसूरती देखता ही कौन है, गुण देखते हैं।'
  'मतलब संयोगिता को पसन्द है लडका ?' उन्होंने थूक सुडक कर बडी बुजुर्गी से मजा लेकर पूंछा। 
  'अरे हमने पसन्द किया था क्या ? हमारे मां-बाप ने पसन्द किया था। मां-बाप भला ही करते हैं।' दीदी जल्दी-जल्दी धूप में चटाई  पर पसरी चैन से सलाइयां चलाये जा रही थीं। 
  'सो तो है ही ? पर आजकल की लडकियाें को तो आप जानती ही हैं, दिखा लेना ठीक रहता है बहन जी ।' 
हमारी संयोगिता ऐसी नहीं है, बहुत ही सीधी है। बेचारी को यह तक तो पता नहीं ठीक से कि उसकी उम्र कितनी है, वह क्या जांचेगी?' 
  एक तो उसे मम्मी, दीदी पर गुस्सा आ रहा था जिन्हें चड्ढा आंटी ही मिली ‍थीं बताने काे, जो मोहल्ले भर में अभी पूर आएंगी  दूसरे जबरदस्ती लादी गयी 'समझदारी' के बोझ के नीचे लद्दू घोडे-सी वह पिस कर रह गयी।
  चड्ढा आंटी को तो वह जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कभी। थूक सुडक-सुडक कर हर बात के बीच में फूहड तरीके से मतलब-मतलब कहती बातें करतीं तो लगता 'दो-एकम -दो' का पहाडा रट रही हैं । 
  बहुत बार दीदी ने घुमा-फिरा कर उससे फोटो के बारे में राय जाननी चाही, परन्तु वह मौन ही रही । न समझने का ढोंग कर तटस्थ बनी रही। 
  उसे लगा काश वह अभी, इसी क्षण से कई सालों  को सो जाये और चाराें तरफ घनी कंटीली झाडियां उग आयें , रास्ते पथरीले हो जायें और वह कई सालों  तक न जागे। तब उसकी कल्पना का राजकुमार झाडियां काटता आये और उसे जगा ले। अगले रोज कॉलेज में मीनू के सामने बहुत देर चुप रहने के बाद वह फिर खोयी-खोयी सी बोली थी, 'कभी-कभी' मैं भी सोचती हूं मेरी इतनी उम्र, इतनी शिक्षा सब व्यर्थ है, यदि मैं खुद की अनाथ मांगों को पूरा नहीं कर सकती। मुझे तो हर तरफ घोर अंधेरा ही दिखाई देता  है.....' कैसी विवशता थी वह, भोगते जाना अनाम पीडाओं को और फिर तडपना। 
  उसने किसी से कोई शिकायत  नहीं की, परन्तु बहनों को, पडोसियों और नातेदारनियों, यहां तक कि धोबिन, महरी  तक को यह देखकर कि वह विदा में जरा भी नहीं रोयी, उसने घूंघट नहीं किया, बडा ही सदमा लगा। पर दरवाजे पर आरता करने से पहले ही सास ने जब हाथ बढाकर कठोर चेहरा बना आंचल खींच कर मुख ढांप दिया था, तो वह कुछ भी नहीं कर पायी थी। फिर, कुछ दिन बाद तो उसे यह बडा ही मजेदार लगा था कि लम्बा घूंघट काढ कर सारी दुनिया से अलग एक पर्दे में अपनी आंखों के सारे रंग  छुपा लो। 

   जब वह पहली बार विनय के पत्र का उत्तर लिखने बैठी थी, तो घंटों कोशिश करने पर भी एक शब्द तक नहीं लिख सकी थी। सस्ती, रोमांटिक, उपाधियों से भरी उन पढ-पढकर चुरायी गयी पंक्तियों का क्या उत्तर दे, वह समझ नहीं पायी।

लाल पीली लड़की --(भाग 3 समापन किश्त)




 खिड़की  से उडते मेघों को देख मेघदूत के कई श्लोकों को याद कर वह 'यक्षप्रिया' की भांति विह्वल हो जाने के लिए सिर्फ एक बार ही मचली, फिर कागज की चिन्दी-चिन्दी कर उड़ा दी थीं। कुछ सोचकर फिर मीनू को लिखने बैठी-आज मन छटपटाता है मीनू काश मैं पुरूष होती ! बचपन में कभी-कभी कल्पना करती कि यदि भगवान ने कहीं हमें लडका बनाया होता तो ? फिर हम सोचते नहीं-नहीं  लडकियों के मजे हैं। मजे में घर रहती हैं, खाती हैं, पीती हैं। न कमाना, न धमाना । सजी-धजी बढिया इन्द्रधनुषी साडियां पहनों, सपने देखो, सितारों -से जेवर पहनों और कोमलता-कोमलता में मजे से रही। लडकों को तो न जेवर मिलते हैं, न बढिया शोख रंग । वे ही उबाऊ  सिलेटी ,बादामी रंग। सारे दिन जी-तोड कर कमाओ और धूल फांकते फिरो। न बाबा, लडका होना बडा बुरा है। 
  परन्तु आज लगता है, लडकी होना बहुत बडा अभिशाप है। पीडाएं झेलना, झेल-झेल कर कर्कश-कठोर हो जाना, यही भाग्य में है उसके। लडकी के बड़े सुन्दर पंख होते हैं, पर उड़ने के लिए नहीं, छटपटाने के लिए।
  कभी सोचती हूं , क्या एक दिन मैं भी और औरतों की तरह महिला-मण्डली में बैठकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में दिन बिताया करूंगी ? दाेनों समय जानवरों की तरह पेट ठूंसकर क्रोशिया या सिलाइयां चलाती, झुंझलाती जीवन बिता सकूंगी ?जाने कितना अनमोल समय मुझे बेमोल-सा करता छूकर गुजर जाता है।
रंग -ब्रश सब उसने मीनू को दे दिये थे और 'ऊपर वाली आंटी' के पास गयी थी।
'क्यों संयोगिता कैसी हो  भई ? तुम्हारे कैनवास तो मैं मंगवा नहीं पायी, कोई  गया ही नहीं आगरा । अबकी बार मंगवा दूंगी। अभी तो तुम ससुराल नहीं जा रही हो न ?
  'जाने का तो कुछ पता नहीं अभी आंटी, पर आप कैनवास मत मंगवाइएगा अभी।' 
 'कोई नई  पेटिंग बना रही हो आजकल? 
 'नहीं, कोई भी  नहीं बना सकी ।' उसने आंख चुरा लीं ।
 'अच्छा आंटी चलूं, देर हो रही है।' 
 'अच्छा, जाओ तो मिलकर जाना। इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो तुम? 
  उसे बड़ी उलझन हुई  नजरों ही में खोद-खोद कर सब जानें क्या जानना चाहते हैं? 
   टी ०वी ० से देख कर, तो कभी और ढेरों कुकरी-बुक्स तथा मेगजीन से पढकर चौके में ठेठ गृहस्थिन के अन्दाज में कमर में आंचल खोंस रोज ही कुछ न कुछ बनाती हुई उसे  देख मां बहुत ही खुश हुई थीं क्यों कि उनके  अनुसार 'मरद-जात' बढिया भाेजन से ही खुश की जा सकती है। इस दृष्टि से विनय की जाति मां के अनुसार खरी उतरती थी। सोचकवह मुस्कुरा पड़ी थी। 
  परन्तु ससुराल में जाकर वे पनीर के कोफ्ते, बिरयानी, रोगन -जोश, शामी कबाब, स्पेनिश-राइस,चाइनीज़ ,इटैलियन रेसिपीज  सब डायरी तक ही सीमित रह गयी  थीं, पन्द्रह-बीस लोगों का खाना-नाश्ता तैयार करते-करते  ही वह इतनी अधमरी हो जाती कि सूखी सब्जी, दाल, रसेदार सब्जी, कढी, रायता, बडियों से आगे कुछ और की सीमा वह असम्भव मान बैठी थी। चाइनीज  बनाने की एक बार इच्छा हाेने पर जब तामझाम जुड़ाने लगी  तो सबके सवालोँ और उत्सुकता भरे सवालों से ही पस्त  हो गई ऊपर से किसी को खास पसंद भी नहीं आया। छोटी-छाेटी कलात्मक, कागजी, हल्की, मुलायम अपनी बनायी रोटियों पर उसे कितना नाज था। पर इतनी 'भारी-रसोई में  यदि तीन-तीन बार परथन लगाकर वह फूल-सा बेलन नजाकत से घुमाती तो क्या इतने सारे लोगों को एक समय की भी रोटी शाम तक दे पाती।
  एक बार सब्‍जी के लिए भिंडी काटते समय मम्‍मी बोली थीं, 'ऐसे काटी जाती है सब्जी? कोई छोटा टुकडा तो कोई बडा?ऐसी कला से क्‍या फायदा कि दो चार पेन्टिंग बनाकर दीवार पर लीं, और चीजों में भी कलात्‍मक-रूचि होनी चाहिए '! 
  लेकिन कहां रह पायी है अब कलात्‍मक अभिरूचि ? कमरे की सजावट में चाहे वह कितनी ही कलात्‍मकता उडेलती, कभी जेठानी का बिन्‍नी पर्दे को नन्‍ही घण्टियां नोच बिल्‍ली की पूंछ में बांध देता, तो कभी देवरानी की टुन्‍नी फूलदान से फूल निकाल अपनी मैडम को पेश कर आती । 
  खुद विनय ही कौन कम थे ? सारे कमरे में सामान छितरा देते, कभी शेविंग का, तो कभी कपडों का । ताम -झाम  समेटती वह थकान से पस्त, गुजली -मुजली  चादर पर ही निढाल होकर सो जाती ।
  कई बार  उसने जीवन को जीना चाहा पूरी आस्था और पकड़ से । कई बार चाहा, वह अपने हाथों अपने आप, अपने चारों ओर का बिखरापन, अस्त-व्यस्तता कुछ सुव्यस्थित करे, तब बडे जोर-शोर से कपडों की अलमारी या किताबों से शुरुआत करती और अन्त होता जूते-चप्पलों की कतार पर और बस इसके आगे सब ठंडा ।
  अपने से थक कर, पस्त होकर जब वह बाहर देखती है तो कई बार आश्चर्य- चकित हो उठती है। सब ओर, सब कुछ कितना क्षणिक है । कोई  एक दिन मरा, दूसरे दिन, तीसरे दिन तक मातम रहा और फिर सब सामान्य, वे ही संवरे- संभले, व्यस्त लोग ! 
  फिर कैसे उसके जीवन में ही सब बदसूरती, ऊब शाश्वत सत्य  होकर कुण्डली मार बैठ गयी है? शुरू - शुरू में उसे अपना आप और भी बेढंगा, अनचाहा, अनचीह्ना लगता था। अब तो फिर भी काफी अभ्यस्त हो गयी थी। 
  वो  भी प्लेटें अब साफ तौलिये से साफ करने की अपेक्षा कूल्हे पर साड़ी से रगड कर या पल्ले से चम्मच पोंछ लेने में सहूलियत महसूस करने लगी थी ।
  अब उसे पड़ोस की औरतें इतनी फूहड नहीं लगती थीं ।दो-दो दिन तक चोटी न होने पर भी समय से सबको खाना खिला देने पर सन्तोष हो जाता है। उसे पता  होता था जेठानियों की शातिर चालों का, अक्सर सास के कानों में मंत्र फूंके जाते थे यह और बात है कि उसका असर नहीं होता था।
  फिर भी वह ऊपर से शांत, सहज थी। उसे लगता था जरूरत के हिसाब से उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमताएं रबड़ की भांति खिंच जाती हैं ।  वह आश्वस्त थी महान कलाकारों, दार्शनिकों कवियों का आदर्श, उनके पद-चिह्नों पर चलने का स्वप्न सब कुछ उसके लिए अतीत की झक हो गये थे। 
  उसकी कोमल, सूक्ष्म अनुभूतियां मर गयी थीं। व्यक्तित्व की पर्तों से कविताओं का जादू उतर गया था, स्वप्नों के पंख नुच गये थे पर मां सन्तुष्ट थीं। सुबह-शाम पूजा घर में महाशान्ति से  माला जपतीं  चन्दन घिसतीं मुक्ति की साधना में लीन थीं। पापा जिम्मेदारियों से मुक्त थे। सास को आदर्श बहु मिली थी और विनय को दो स्वस्थ बच्चों वाली सुघड, सहनशील पत्नी । सब ही तो सुखी थे। 
  लम्बी सांस लेकर वह बच्चों के कमरे में गयी। मनीषा पढते-पढते छाती पर किताब रखे-रखे ही सो गयी थी। लैम्प जल रहा था। उसने किताब उठाकर देखी । सिंड्रेला का पाठ खुला हुआ था। सोती हुई नन्हीं -सुकुमार बिटिया को देख वह करूणा विगलित हो उठी, जिसकी नन्हीं-नन्हीं पलकों पर सिंड्रेला  बनने का सपना महक रहा था। होंठ नाजुक-स्पन्दन से मुस्कुराते थोडे से खुल गये थे। रूआंसे होकर उसने सोचा, वह उसे जगा दे ताकि वह यह सपना भूल कर कोई दूसरा  सपना देखने लगे। कोई वास्तविक  या ठोस सपना । पर फिर उसे लगा वह सपनों के साथ दौड़ नहीं सकती। वे सपने जो पहले आगे दौडते हैं और फिर सहसा बहुत पीछे छूट जाते हैं ।
  हाथ में थामी किताब का पन्ना न जाने कब उसके हाथों-मसल कर अधफटा हो गया था। किताब रखकर उसने बहुत करूणा से बेटी का  माथा चूम लैंप  बुझा दिया और सपनों को उसकी पलकों पर छोड़ कमरे से बाहर निकल आयी।
 उसे लगा आज शायद वह बहुत दिनों बाद सोती राजकुमारी, संयोगिता या सिंड्रेला  का प्यारा सा सपना देखेगी। कुछ भयभीत सी कुछ उत्तेजित सी वह जाकर अपने बैड पर लेट गयी।  बगल से विनय के खर्राटों को सुनती संयोगिता न जाने कब सो गयी।
                                                       समाप्त




                                         यह मेरी  कहानी 1979 में सर्वप्रथम सारिका  में छपी थी |         

                                  फिर '' कथा -वर्ष1980 '' के लिए डॉ .देवेश ठाकुर द्वारा  चुनी गई 

                                         पंजाबी तथा उर्दू भाषा में भी छप चुकी है 

                                        आज फिर से ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रही हूँ 

जब तक


सुन लो               
जब तक कोई 
आवाज देता है
क्यूँ कि...  
सदाएं  एक वक्त के बाद 
खामोश हो जाती हैं 
और ख़ामोशी .... 
आवाज नहीं देती!!
                  -----उषा किरण 













शनिवार, 26 मई 2018

इन दिनों...

इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच बैठ
खेलने लग जाती हूं घंटो
कैंडी-क्रश
रास्ते में गाड़ी रोक
टिक्की- गोलगप्पों के चटखारे ले
कुल्फी चूसती घर आती हूं
नाक सिकोड़ कहती हूं दाल चावल से
`नहीं भूख नहीं अभी’!
रात के दो बजे तक इयरफोन की आड़ में
सुनती हूं गीत...गजल...कहानियां
भटकती रहती हूं फेसबुक
ब्लॉग या इन्स्टाग्राम की गलियों में
लगभग सारी रात
जब तक एक भी रेशा बाकी है
नींद का पलकों पर
सोती रहती हूं
चादर तान कर लम्बी
आठ...नौ...या दस
कितने भी बजे तक
`हुंह बजते रहें...
रोज ही तो बजते हैं ...’
बाथरूम में बन्द हो घंटों
करती हूं गाने रेकॉर्ड...
अपने मोबाइल पर
कमरा बंद कर याद करती हूं
बचपन में सीखे
कत्थक के स्टैप
और...तलाश जारी है
एक सितार टीचर की
आदि की चॉकलेट कुतर लेती हूं
थोड़ी सी
लड़ता है वो..`नानी गंदी हैं ’
सुबह...दोपहर...रात कभी भी
जब मन हो नहाती हूं
ठाकुर जी झांकते रहते हैं पूजाघर से
स्नान-भोग के इंतजार में
जब मन होता है भाग जाती हूं
बैग उठा कर
दिल्ली...मुरादाबाद...गुड़गांव
या कहीं भी...
मन होता खिलखिलाती हूं
मन होता है रोती हूं
कोई नॉवेल लेकर घंटों
पड़ी रहती हूं औंधे
तकिए पर
या टी०वी० पर देखती हूं लगातार
दो मूवी एक साथ...
सालों साल घड़ी की सुइयों पर सवार
भागी हूं बेतहाशा
पर अब
चल रही हूं मैं
अपनी घड़ी के हिसाब से
सच...
इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं
मैं !!!







बहादुर लड़की


एक नन्हे से पौधे की ओट में
मीलों चली है वो
आसमान पर तपता सूरज
नीचे जलती जमीन
एक पग धरती है
दूसरा उठा लेती
दूसरा धरती है तो
तिलमिला कर
पहला उठा लेती है
पैर छालों से भरे हैं
मन भी...
कुछ छायादार पेड़
दिखते हैं दूर-दूर
मन करता है दौड़ जाए
टिक जाए कुछ देर
या हमेशा को....
फिर देखती है हाथ में पकड़े
उस नन्हे पौधे को
नहीं ! अभी नहीं....
बुदबुदाती है होठों में
अभी चलना ही होगा
दूर क्षितिज के पास
हरियाली की गोद में
रोपना है इसे
सूरज ढलने से पहले...
और...
वो बहादुर बेटी
निरन्तर
चल रही है मीलों
तपती बंजर जमीन पर...!!!
                        ___उषा किरण

मंगलवार, 22 मई 2018

सच कहना !




ए चाँद सच कहना
देखो ,झूठ न बोलना
कल
छिटकी देखी तुम्हारी 

चांदनी से बुनी चूनर 

तारों की पायल

 मैंने भी उठ 

एक दीप जलाया 

मेरा नन्हा सा मन 

हुलसा उठा  

बस तभी से 

गुम हो तुम 

सच कहना 

तुम जल गए न

हाँ चाँद 

जल गए हो तुम !
                          __ उषा किरण 










सोमवार, 14 मई 2018

मुनाफा

विदा के बाद 
समेट रही थी घर, 
दोने, पत्‍तल, कुल्‍हड 
ढोलक, घुंघरू, मंजीरे 
सब ठिकाने पहुंचाए 
सौगातें बांटी 
भाजी सबके साथ बांधी 
फुर्सत से
डायरी उठा 
हिसाब लेकर बैठी 
कितना खर्चा 
कितना आया 
हैरान थी 
घटा कुछ भी नहीं था 
बेटी तो आज भी 
उतनी ही 
अपनी थी 
ब्‍याज में 
एक अपना सा 
बेटा भी
पीछे
मुस्‍कुराता खडा था।

सलीका

घिरे आते तिमिर को उसने
डर कर धूरते कहा
“क्या होगा कल बच्चों का”
उसके कमजोर कांपते हाथों को
अपनी पसीजी हथेली में थाम
सजल नयन मैंने कहा-
“वही... जो होना है 
क्‍या सोचते हो तुम
क्‍या ये तुमसे पलते हैं “!
उंगली उठाकर मैंने अनंत को देखा
फिर, थोडा सा हंसकर कहा
“यह सब पहली बार तो नहीं 
न जाने कितनी नावों में
कितनी बार... “?
उसने आसमानी उंचाइयों को
अदब से देखा
अाश्‍वस्‍त हो मुस्‍कुराया
और इस तरह
सारी उम्र जीने का सलीका तुमसे सीख कर भाई
तुम्‍हें मरने का सलीका 
सिखा रही थी
मैं !!!




मन्नत

एक रोटी बनाऊं 
चांद जितनी बडी 
जिसमें सब भूखों की 
भूख समाए, 
चरखे पर कोई
ऐसा सूत कातूं 
कि सब नंगों का 
तन ढक जाए 
मेरी छत हो 
इतनी विशाल
जो सभी बेसहारों की
गुजर हो जाए 
कुछ ऐसा करो प्रभु 
कि आज
ये सारे सपने 
सच हो जाएं।


एकलव्य

एकलव्‍य 
वे भी थे 
एकलव्‍य ये भी हैं 
फर्क सिर्फ इतना है
वो अंगूठा काट देते थे 
ये अंगूठा
काट लेते हैं।



अहम्

लहर बार-बार आकर 
लडती है, झगडती है 
मैं हूं... मैं हूं... 
पर- 
सागर मौन रहकर 
बस माैन ही रहता है।



सोच का स्वेटर

सोच का स्‍वेटर

बचपन से बुना
बडा बेढब 
इतना बडा 
नहीं किसी काम का 
पर करें क्‍या ?
सोच की सिलाइयों की
आदत है बुनने की
रूकती ही नहीं, बस... 
बुने ही जाती है

राखी




लो बांध लिए बहनों ने
भाइयों की कलाइयों पर
प्यार के ,आशीष के
रंग -बिरंगे धागे...
मना कर उत्सव पर्व
लौट गए हैं सब
अपने-अपने घर
रोकी हुई उच्छवास के साथ
हृदय की गहराइयों में संजोई
प्यार,स्नेह के सतरंगी रंगों से रंगी
आशीष के ,दुआओं के
धागों से बुनी...
तारों की छांव में
विशाल गगन तले
खड़ी हूं बांह फैलाए
तुम्हारे असीम भाल पर
लाओ तो
लगा कर तिलक दुलार का
बांध देती हूं मैं भी
राखी अब...
अपनी कलाई बढाओ तो
भैया !

तुम होते तो




जब भी
अटक गई चलते-चलते
अब ....?
कोई रास्ता
नजर नहीं आता जब
छा जाते हैं बादल
घाटियों में
मन पाखी फड़फड़ाता है
आंखें ढूंढ़ने लगती हैं तुम्हें
चहुं ओर...
ऐसा नहीं कि
खुशियां छूती न हों अब
ऐसा भी नहीं
कि गीत नहीं जीवन में...
पर क्या करूं
वो जो अन्तर्गोह है न
पहुंचती नहीं वहां
कोई एक किरन भी कभी
घना कुहासा छाया है वहां
तुम्हारे जाने के बाद से ही
सारी किरणें जो ले गए तुम
अपनी बंद मुट्ठी में
.........
फूल तो आज भी खिलते हैं
गीत आज भी गूंजते हैं
पहले की तरह
पर तुम होते आज तो
रंग ,राग,सुवास
कुछ और ही होते

रविवार, 13 मई 2018

मॉं

सारे दिन खटपट करतीं 
लस्‍त- पस्‍त हो 
जब झुंझला जातीं 
तब 
तुम कहतीं- 
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी 
कभी कहतीं- 
देखना मर कर भी चैन कहां? 
एक बार तो उठ ही जाऊंगी 
कि चलो
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते
तुम्‍हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्‍यों कि
हम अच्‍छी तरह जानते थे 
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम 
आज... 
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं 
तो कहीं
मन के कोने में छिपी 
आंचल में मुंह दबा 
तुम धीमे-धीमे 
हंसती हो मां!

बोंसाई


जब से
घने जंगलों को छोड़
ड्रॉइंगरूम के कोने में सिमट गए हो
जरूरत के हिसाब से
हंसते हो
इंचों में नाप के
मुस्कुराते हो
बरगद !
तुम कितने मॉडर्न हो गए हो
आधुनिकता तो सीखे कोई तुमसे
तुमने अपने कद को देखो
कितना छोटा कर लिया है
जब तुम जंगल में थे लोग  कहते हैं-
तुम विस्तृत थे
उन्मुक्त थे
झूमते थे
हंसते थे
हवाओं के साथ सुर मिला कर
गाते थे
पंछी के पंखों के नीचे
अपनी गुनगुनी उंगलियों से
गुदगुदाते थे
तुम्हारी छाया में
कुछ श्रम विश्राम पाते थे
उन लोगों को कहने दो
अपनी तरफ देखो
कितने साफ हो तुम
और कितने सलीकेदार
आखिर
सभी को हक है
अपना स्टैंडर्ड सुधारने का
आज तुम्हारी कीमत है
तुम खरीदे तो जा सकते हो
नहीं, तुम फिक्र न करो
बरगद !
जब मन करे
तभी तुम गाओ
और भूल जाओ सारी आवाजें
मत देखो वे इशारे
जो कह रहे हैं
बरगद ....
अब तुम बौने हो गए हो !
...............................
- उषा किरण


शनिवार, 12 मई 2018

नटखट- चॉंद


रात बारिश की
नन्हीं उंगली पकड़
नीचे उतर आया
नटखट-चॉंद
चलो 
नाव में बिठा कर
वापिस पहुंचाएं .

बेटियाँ

बेटियां होती हैं कितनी प्यारी
कुछ कच्ची
कुछ पक्की
कुछ तीखी
कुछ मीठी
पहली बारिश से उठती
सोंधी सी महक सी
दूर क्षितिज पर उगते
सतरंगी वलय सी
आंखों में झिलमिलाते तारे
पैरों में तरंगित लहरें
उड़ती फिरती हैं तितली सी
बरसती हैं बदली सी
फिर एक दिन-
आँचल में सूरज-चॉंद
ऑंगन की धूप छॉंव लेकर
कोमल सी पलकों से रचातीं
सुर्ख बेल-बूटे
फिर उजले से आंगन में 
रोपती हैं जाकर
बड़े चाव से
कुछ अंकुरित बीज
समर्पण के
संस्कार के
ममता के 
दुलार के
और बेटियां इस तरह 
रचती हैं
क्षितिज के अरुणाभ भाल पर
आगाज
एक नन्हीं सुबह का !!!

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (समापन किश्त)



हमारी प्राचीन मान्यताएं हैं कि जो जैसा करता है वो वैसा भरता है वो इहलोक या परलोक में अवश्य ही उसके फल का भुक्तभोगी होता है...बिट्टा बुआ को गुजरे एक वर्ष भी नहीं बीता था कि जवान बेटे की मृत्यु का दुख बिट्टा बुआ के भाई मंगल सिंह को हिला गया था...कभी बिट्टा बुआ की मृत्यु पर उनकी बहन के रोने पर जो उनकी भाभी बहुत दर्प से कह रही थीं..`जाने लोग कैसे रो लेत हैं हमको तो भाई रुलाई आउत ही नाय है...’नहीं जानती थीं कि नियति तब मुस्कुरा रही थी...और जब जवान बेटे की लाश पर वे अपने बाल नोंच कर पछाड़ें खा कर रो रही थीं तब वही नियति ठठा कर हंस रही होगी...`देखा ऐसे रोना आता है...’ ।
बिट्टा बुआ की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात जब हम लोग गांव गए तो देखा मंगल सिंह खूब बाल्टी भर-भर कर बिट्टा बुआ के कुंए के पानी से नहा रहे थे...घर जाने पर ताऊ जी ने बताया कि मंगल सिंह पागल हो गए हैं बस सर्दी -गर्मी जब देखो नहाने लगते हैं कई -कई बाल्टियों से और आठ-दस बार लोटा मांज कर मानो बुआ की तड़पती-अतृप्त आत्मा को तर्पण देते रहते हैं...उनकी पत्नि किवाड़ के पीछे खड़ी उनकी हालत देख विवश सी रोती रहती हैं...सर्वशक्तिमान से भी पहले कई बार अपनी अन्तर्रात्मा ही हमें सजा दे देती है । गांव के सब लोग कहते हैं कि हर रात मंगल सिंह के लोटे की जलधार के नीचे अंजुलि-बद्ध बिट्टा बुआ की तृषित आत्मा वह जल पीती है...परन्तु मेरा मन यह बात कभी भी स्वीकार नहीं करता जो भाई प्राय: उन पर हाथ तक उठा देता था उसके हाथों दिए तर्पण को स्वीकार करने की अपेक्षा वे प्यासा तड़पना ही स्वीकार करेंगी...भले ही मंगल सिंह का लोटा मांजते घिस जाए या कुंए का जल समाप्त हो जाए ।
मेरा अबोध मन इस विश्वास को भी नहीं झुठला पाता कि रात को वे फरिश्ते का हाथ पकड़ जरूर आती होंगी अपनी क्यारियों के लाल गुलाबों को खिलता देखने के लिए...और भोर से पहले असंख्य झिलमिल तारों के बीच अनन्त गहराइयों के पार स्थित स्वर्ग लोक की ओर उड़ जाती होंगी
—समाप्त 

बिट्टा बुआ (भाग 5)






शनै:-शनै: अनियमित आहार एवं उम्र के तकाजों से उनकी कमर बहुत झुक गई थी...झुर्रियां तो मैंने बचपन से लेकर आखिर तक उतनी ही देखीं...मृत्यु सेछै: -सात माह पूर्व तक उनका स्वास्थय बहुत गिर गया था ठीक से उपचार भी नहीं हो रहा था...उनके जीने की आकांक्षा ही किसे थी ?
अपने बड़े कमरे और आधे आंगन में वे भाई और भाभी को पैर भी नहीं रखने देती थीं...अत: पूरे घर पर कब्जे का स्वप्न पूरा होता देख वे दोनों बहुत पुलकित थे ...और इधर जीवन के अस्त होते सूर्य की किरणें उन्हें निस्तेज करती जा रही थीं...बस तीन चीजों का मोह उन्हें अभी भी जकड़े हुए था कभी घिसट -घिसट कर क्यारी से ढ़ेरों लाल गुलाब तोड़ कर तकिए के पास सजा लेतीं और कभी गिरती-पड़तीं चौपाल पर जाकर कुंए को तृप्त आंखों से देखती रहतीं ...तो कभी जूते चप्पल के ढ़ेर को कृपण की संपत्ति की भांति कांपते हाथों से सहलाती रहतीं ।
एक दिन उनकी तबियत बहुत खराब थी अंत निकट था...बोल नहीं पा रही थीं...गांव वालों ने मिल कर उनकी खाट चौपाल पर निकाली...सब नम आंखों से चारों तरफ घेर कर बैठ गए ...ताई जी तुलसी,गंगाजल उनके मुंह में डाल रही थीं..राम-राम का जाप चल रहा था...सभी का मन भारी था भले ही उनकी तीखी जुबान से कोई न बचा हो पर उनका कोई बैरी भी तो नहीं था...एक पल यदि किसी से झगड़ आतीं तो दूसरे ही पल फिर मेल कर लेतीं..गांव की बेटियों ने भले ही उनकी गाली खाई हो पर विवाह मंडप में कौन ऐसी बेटी थी जिसके दूल्हे को और उसको लाल गुलाब का आशीष न मिला हो जब तक उनके शरीर में ताकत थी भला कौन नवजात -शिशु या कौन नवेली बहू होगी जिसे लाल -गुलाब का तोहफा और ढ़ेरों आशीष न मिले हों...उनके पास और था ही क्या बस यही एक सम्पदा थी और था प्यार और आशीषों से भरा हृदय...सारा गांव ही उनका अपना था और वे सबकी...अन्तिम समय पूरा गांव ही उनकी खाट के चारों तरफ सिमट आया था ।
जब उनकी सांसें अटक-अटक कर गिनती पूरी कर रही थीं तभी अचानक उनके भाई ने बिट्टा बुआ के कमरे से जूते चप्पल निकाल कर बाहर गली में फेंकने शुरू कर दिए...गांव वालों ने रोकने की कोशिश भी की पर उसने किसी की भी नहीं सुनी...बिट्टा बुआ सब देख रही थीं उनकी दोनों आंखों की कोरों से आंसू टपक रहे थे...मानो कह रहे हों कुछ देर और रुक जाओ हमारे प्राण पखेरू उड़ने ही वाले हैं ...जिस घोंसले पर इतने दिन हमारा बसेरा रहा उसे और थोड़ी देर मत उजाड़ो ...पर दुष्टों की आत्माएं भी बहरी ही होती हैं...अंतिम समय जान सबने मिल कर बिट्टा बुआ को धरती पर उतारा...पूरी ताकत से उन्होंने बड़े दर्द से आंख खोल बाहर पड़े जूते -चप्पलों के ढ़ेर को देखा और एक हिचकी के साथ सारे बंधन तोड़ कर प्राण- पखेरू उड़ चले जहां न उन्हें कोई माया थी न मोह का बंधन ।
क्रमश:

बिट्टा बुआ (भाग 4)






जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने हमारे घर आना छोड़ कर अभी भी हृदय के किसी जीर्ण कोने में शेष स्वाभिमान की झलक दिखा ही दी थी।
उन दिनों हमारे घर को विपत्ति के काले पंजों ने जकड़ रखा था...यमराज हमारे घर आकर जैसे जाने का रास्ता भूल गए थे...ताई जी की बीच वाली बहू का मुरादों से मांगा इकलौता बेटा,ताऊ जी की बड़ी बेटी का तीन बेटियों के बाद हुआ प्यारा बेटा,खानदान की और दो बेटियों के प्राण और हमारी सबसे दुलारी ,हंसती -खिलखिलाती तरला बुआ की नाजुक गर्दन अपने लौह-पाश में बांध कर न सिर्फ ताई जी के अपितु हम सभी के हृदय पर दो माह की मेहमानी खाकर लात जमा कर झूमते -झामते चल दिए थे ।
दुर्भाग्य से एक शाम ताई जी बेदम सी,आंगन की चारपाई पर बेसुध सी पड़ी थीं ...तभी बिट्टा बुआ शोर करतीं आंगन में आकर ताई जी से खाना मांगने लगीं जब ताई जी नहीं उठीं तो खाली कटोरी लेकर तरला बुआ को ही आवाजें दे -दे कर ढूंढ़ने लगीं...सब भीगी आंखों से इधर-उधर हो गए...जो तरला बुआ , बिट्टा बुआ को खाली पेट और खाली कटोरी लेकर कभी भी नहीं जाने देती थीं आज इतनी दूर छिप गई थीं कि उनके लाख पुकारने पर भी घर के किसी कोने से निकल कर नहीं आ रही थीं ...जो घर तरला बुआ की खिलखिलाहटों और हंसी-मजाक से चहकता रहता था आज भुतहा सा लग रहा था...ताई जी की नकल करता जो मिट्ठू सारे दिन छुटकी-छुटकी की टेर लगाता रहता था उदास पिंजरे के कोने में सिकुड़ा सा चुपचाप इधर -उधर देखता रहता ...बिट्टा बुआ ताई जी का आंचल खींचने लगीं ...छोटी ताई जी आंखें पोंछती उनके लिए खाना ला ही रही थीं कि तभी बड़ी ताई जी विद्युत गति से उठीं और सन्निपात- पीड़ित सी चिल्ला कर ऊंची आवाज में उनको बहुत कुछ कह गईं ...और दरवाजे की ओर उंगली कर `जाओ बाबा जाओ यहां से’ कह कमरे में चली गईं हमेशा ही बड़बड़ा कर शोर मचा कर जाने वाली बिट्टा बुआ अवाक् सिर झुकाए चुपचाप जाने लगीं...छोटी ताई जी ने खाने को कहा...ताऊ जी ने बहुत रोका,मनाया पर वो बिना खाए ही चुपचाप चली गईं...बस वही हमारे आंगन में बिताया उनका आखिरी दिन था ।
आदमी भूले न तो जीना मुश्किल हो जाता है...और वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है ..पर बातों के जख्म कभी -कभी उम्र भर नहीं भरते ।दो साल में ही ईश्वरेच्छा से भाभी और बड़ी दीदी की गोद स्वस्थ,सुंदर बेटों से भर गई तो ताऊ जी ने गांव भर को दावत दी पर ताऊ जी ,ताई जी के लाख मनाने पर भी बिट्टा बुआ ने एक टुकड़ा भी मिठाई का मुंह में नहीं डाला और घर में एक बार झांका तक नहीं ...ताई जी का वह महोत्सव बिट्टा बुआ के लाल महकते गुलाब के अभाव में अधूरा ही रह गया...ताई जी मन मसोस कर रह गईं ...ताई जी का कोई भी उत्सव आज तक बिट्टा बुआ को खिलाए -पिलाए बिना पूर्ण नहीं होता था परन्तु इस बार बिट्टा बुआ ने बड़े ही स्वाभिमान-पूर्वक उनका यह उत्सव फीका कर दिया था ताई जी बहुत दुखी और शर्मिंदा थीं ।
बिट्टा बुआ अक्सर पापा और ताऊ जी से दुखी स्वर में ताई जी की शिकायत करती थीं परन्तु परम आश्चर्य यह था कि तिल को ताड़ बना कर गाने वाली बिट्टा बुआ गांव में किसी के भी सामने ताई जी के खिलाफ मुंह नहीं खोलती थीं सम्भवत: यही ताई जी द्वारा किए गए पूर्व उपकारों का प्रत्युत्तर था...वर्ना इस तरह की घटना पर उनका इस तरह चुप रह जाना कितना आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया थी ....और वे ताई जी को कितना स्नेह करती थीं ये हम सब जानते थे.

क्रमश:-

बिट्टा बुआ (भाग 3)




उस दिन उनकी उस स्नेहमयी भंगिमा ने मेरा सारा डर भगा दिया उनके कर्कश रूप की पर्तों में छिपे उस स्नेह-पूरित नवीन रूप तले तो मैं अचम्भित रह गई थी..अभिभूत होकर उनकी ऊल -जलूल बातें सुनते फिर कितना वक्त निकल गया पता ही नहीं चला । हम लोग जब लौटने लगे तो फिर रास्ता रोक कर खड़ी हो गईं और अपनी एकमात्र संपत्ति कुंए की महिमा बखानने लगीं कि सब जानते हैं कि उनके कुंए का जल कितना मीठा है..दाल तो मिनटों में घुट जाती है । कभी-कभी वे पापा और ताऊ जी का भी रास्ता रोक कर खड़ी हो जातीं और जब तक अपने कुंए के गुणगान न सुन लेतीं एक कदम भी न हिलने देतीं ...ताऊ जी अक्सर उनको खुश करने के लिए बड़ी गंभीरता से समझाते `बिट्टा तुम अपने कुंए पर अपना नाम लिखवा लो ...’तो वो पुलकित हो जातीं और पुरस्कार में अमृत -स्वरूप कुंए का लोटा भर पानी ताई जी को दे आतीं और बदले में बड़े अधिकार से उसी लोटे में लबालब दूध या छाछ भर कर छलकती बूंदों को जीभ से चाटतीं ले आतीं।
अब तक का उनका वर्तमान देख कर मुझे ऐसा लगता था कि झुकी कमर,झुर्रियों से भरे कठोर चेहरे और बेतहाशा गालियों के पीछे कोई इतिहास नहीं ..कोई अतीत की छाया नहीं...जो कुछ है बस यही भावहीन उनका वर्तमान है परन्तु उस दिन घर वापिस लौट कर बुआ से उनकी कहानी सुन कातर हो उठी ।
बिट्टा बुआ का विवाह कभी बहुत ही अच्छे घर खानदान में हुआ था ,पति भी फौज में थे परन्तु विवाह के साल भर भीतर ही सोलह वर्षीया बिट्टा बुआ विधि-विडम्बना से आहत,स्तब्ध अपार रूप राशि ,सूनी मांग पेंशन की डोर थामे पुन: पीहर की देहरी पर आ खड़ी हुईं तो भाई-भाभी के ताने और अपमान भरे स्वागत से हतप्रभ हो अधर में झूल कर रह गईं ...ससुराल वालों ने तो पहले ही डायन,
कुलक्षिणी,मनहूस जैसी उपाधियां देकर सदा को धक्का दे दिया था और अब पीहर की देहरी भी उनके घायल हृदय पर कस कर लात जमा रही थी..बगल में पोटली दबाए वे चुपचाप सारा मान-अपमान पीती हुई कोने में मुंह छिपा सिसक उठीं।
धीरे-धीरे हिम्मत कर संभाला खुद को गहने बेच कर और पेंशन के पैसों को जोड़ उन्होंने भाई के कच्चे सीलन भरे मकान को पक्का बनवाया साथ ही बड़ी लगन से चौपाल पर बनवाया प्यासे राहगीरों के लिए एक पक्का कुंआ।
धीरे-धीरे भाई -भाभियों के तानों ,गांव वालों की उपेक्षा -तिरस्कार और उससे भी बढ़ कर विधि-विडम्बना से आहत होकर बिट्टा बुआ अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं...निर्दयी भाई ने पेंशन हड़पनी शुरु कर दी और वे दाने-दाने को मोहताज हो पेट की ज्वाला से आहत होकर घर-घर के चूल्हे झांकने लगीं...सारा स्वाभिमान तो मानसिक विकार ने धो ही दिया था ।गांव वालों ने भी कुछ स्वेच्छा से और कुछ अनिच्छा से उनके इस हक को अपना लिया था...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ वे मान-अपमान को परे कर जुड़ा ही लेतीं...कभी न भी मिलती तो रास्ते में पड़ा कोई फटा जूता चप्पल ही उठा लातीं और पहन कर पुलकित हो अपने कमरे में पड़े जूते चप्पल के ढ़ेर पर उसी संतोष से सो जातीं जैसे कोई नन्हा बालक अपने खिलौने से खेलता हुआ थक कर उसी को सीने से लगाए सो जाता है...होठों पर मीठी मुस्कान लिए...उसी के सपने देखता हुआ ...परन्तु सारे दिन के ताने उलाहने,मान-अपमान को जागने पर ऐसे भूल जातीं जैसे रूठ के सोया बालक उठने पर सब भूल कर पुन: खेल में मस्त हो जाता है ।
मुझे याद है एक बार बुआ और बुआ की चुलबुली सहेलियों की चहकती टोली छत पर खूब चहक रही थीं ...बिट्टा बुआ ने उन्हें देखते ही अपनी चौपाल से उसी `पावन-ग्रन्थ’ का पाठ अभिनय सहित ऊंचे स्वर में करना प्रारम्भ कर दिया ...बुआ का मुंह क्रोध से तमतमा उठा परन्तु इस सबसे बेखबर बिट्टा बुआ तो बस बुआ की काल्पनिक बेचारी सास के कर्मों को ठोंकती लगातार मातमी स्वर में पृथ्वी मैया के रसातल में चले जाने की दुआ माग रही थी क्यों कि भले घर की लरिकिनी होकर भी तरला बुआ छत्ता लगाए सुहानी शाम का आनन्द ले रही थीं और वो भी बिट्टा बुआ के होते ?
...झटकती-पटकती धमधम करतीं तरला बुआ बड़बड़ाती नीचे उतर आईं ...ताई जी ने पूंछा `...`क्या हुआ’ बुआ रुंआसी होकर चिनचिनाईं...`और क्या ? वो खड़ी हैं न चौपाल पर जगत सास..जब तक हैं सारी लड़किएं हमारे गांव की आवारा ही रहेंगी...मेरा नाम लेकर पता है हमारे कुल का नाम रौशन कर रही हैं...’।
उसी दिन शाम को जब बिट्टा बुआ अचार मांगनें आईं तो अनसुना कर तरला बुआ आंगन में बैठी सब्जी काटती रहीं...हवाओं का रुख भांपते ही बिट्टा बुआ ने उनके हाथ से चाकू छीन सब्जी काटते- काटते न जाने किस जादुई छड़ी से मंत्र मार कर बुआ की नाक पर बैठी मक्खी क्षण भर में उड़ा दी थी...आधे घंटे बाद ही वही बिट्टा बुआ हमारी `बुआ महान ‘का यशगान करतीं कागज में छै: सात आम के अचार की फांकें हाथ में दबाए चली जा रही थीं.
क्रमश: -

बिट्टा बुआ (भाग 2)






मिष्ठान्न को ललचाती आंखों से तौलती , संभल कर गिरगिट सा रंग बदलतीं बिट्टा बुआ क्रमश: मिष्ठान्न का चूर्ण फांकतीं..खींसें निपोर बड़े ही दुलार में होंठ आगे निकाल धीमे-धीमे मम्मी को ही समझाने लगीं ...' अबहिं नाय बहू..लरकिनी है ..बड़ी सुलक्छिनी बिटिया है...हम तो बिज बिहारी की लरकिनी को कै रहे हते..तुम्हारी तो साक्षात् लक्षमिनी है...कहां है बिटिया तनिक आसीस दे दें’ ...पर दीदी ‘रिस्क’ लेने वाली कहां थीं ? जब बिट्टा बुआ गद्गद् कंठस्वर के आरोह -अवरोह में आशीषों के फूल बर्सातीं अपनी चौपाल पर जाकर जूते और चुन्नी साबुन से धोने लगीं तब दीदीहाथ झाड़ कर निकलीं...बहुत हंस कर मटक कर बोलीं..’ चलो टली चुड़ैल बुआ....’ मम्मी त्यौरियां माथे तक चढ़ा कर कुछ कहतीं तब तक तो वे बाहर भाग गईं और चटापट ताऊ जी से एकदम भोली-भाली बन मुंह लटका कर ,आंखें झपका कर सफाई देने लगीं...`सच्ची मुच्ची में ताऊ जी बाई गॉड हम तो नाक का पसीना पोंछ रहे थे..चिढ़ा थोड़े ही रहे थे...बिल्कुल भी नहीं...’और दो दिन बाद वो ही लपड़-झपड़ भागती दीदी और पीछे- पीछे रणचण्डी सी बिट्टा बुआ ।मैं बहुत डरती थी उनसे अत: सामने पड़ने से भी कतराती थी कभी हमारे घर आतीं तो मैं बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे से छिप कर झांकती रहती ।
एक दिन तरला बुआ के साथ उनके घर के सामने से सहमी सी गुजर रही थी कि तभी धम्म से चौपाल से हमारे सामने कूद कर जबर्दस्ती हाथ पकड़ कर बड़ी मनुहार और इज्जत से हमें अंदर ले गईं बुआ अरेरेरे कहती रह गईं मेरा तो डर के मारे बुरा हाल था ..टांगें कांप रही थीं और हलक सूख रहा था ।आंगन में पड़ी झंगोले सी चारपाई में बैठा कर अंदर से लाकर दो फटे मैले तकिए हमारे पीछे लगा जल्दी से आंगन की क्यारी की तरफ चली गईं ।मैं तो पहली बार उनके विचित्र राजमहल में आई थी या कहूं लाई गई थी...दीवारों पर कोलाज का सा दृश्य उपस्थित था दीवारों को लीप-पोत कर सीता -राम,राधे-श्याम के आलंकारिक आलेखन के साथ-साथ ऐसी-ऐसी उपमाओं से सुसज्जित गालियां बेशर्मी से हंस रही थीं ..पढ़ते-पढ़ते बुआ को तीखी नजरों से अपनी तरफ घूरता देख कट कर रह गई । ब्लेड के खाली रैपर,बीड़ी-सिगरेट की खाली डिब्बियों की ,कपड़ों व पन्नियों की कटिंग सब दीवार पर झिलमिला रही थीं ...कमरों के कोनों में गांव भर के फटे पुराने जूते चप्पलों का ढ़ेर अलग अपनी शान से मुस्कुरा कहा था ।
उनके घर का निरीक्षण करते एक तो उस हिंडोले में बैठते घुटने पेट में घुसे जा रहे थे दूसरी तरफ डर के मारे होश उड़ रहे थे ...बुआ मेरी हालत समझ कर भी शांत भाव से बैठी थीं...जानती थीं कि पूरी आवभगत करवाए बिना त्राण मिलने वाला नहीं ।
तभी वे दोनों हाथों में दो ताजे लाल गुलाब लिए आईं और हम दोनों को देकर फुसफुसा कर बताने लगीं कि कैसे आधी रात एक फरिश्ता आकर उन फूलों को छड़ी घुमा - घुमा कर खिलाता है...वे चुपचाप देखती हैं पर बोलती नहीं वर्ना फरिश्ता उड़ जाएगा और कभी नहीं आएगा...फिर फूल कभी भी नहीं खिल पाएंगे ।
क्रमश:

बिट्टा बुआ ( कहानी -भाग 1)

बचपन की न जाने कितनी स्मृतियां और न जाने कितने उन स्मृतियों के पात्र होते हैं, जो हमारे अस्तित्व को साधारण समझते हैं उन्हीं का अस्तित्व कभी-कभी हमारे मानस-पटल पर बहुत स्थान पा लेते हैं ...अनजाने ही।बचपन में छुट्टियों में गांव जाने की एकमात्र आकर्षण डोर होती थीं बिट्टा बुआ..जो अभी भी कभी -कभी,स्वप्नों के क्षितिज पर पत्थर फेंकती,गाली देती वैसी की वैसी ही चित्रित हो जाती हैं ।
हमारे गांव में परम्परानुसार बेटियों को बिट्टा कह कर सम्बोधित करते हैं उसी सम्बोधन में दूसरी पीढ़ी ने आगे दूसरा सम्बोधन बुआ जोड़ दिया और वे पूरे गांव की बिट्टा बुआ हो गईं ।किसी के भी घर जाते समय हमें बिट्टा बुआ के चबूतरे के सामने से ही गुजरना पड़ता था ...पेटीकोट जैसा उनका सफेद लट्ठे का लहंगा जो प्राय: सिलेटी हो चला होता उनकी क्षीण कटि में झूलता रहाता छोटे गले का ब्लाउज और आधे माथे को ढ़ंकता दोनों कानों के पीछे से होता हुआ,सिर के पीछे झूलता मटमैला दुपट्टा...और कानों के बड़े- बड़े छेदों में बेले के फूल खुंसे होते...बचपन से लेकर आखिरी समय तक मैंने उनको इसी रूप में देखा...हां पैरों में अवश्य जूते चप्पल तरह -तरह के होते...किसी का पंजा गवाक्ष बना होता तो कोई एड़ी से साथ छोड़ चुका होता...पूरे गांव में भला कौन था ऐसा जिसके जूते चप्पल ने अपने जीवन के आखिरी पल उनके चरणों में न बिताए हों
कोई भी दावत हो शादी ,दष्टौन या बरसी बिट्टा बुआ पहली ही पंगत मेंअनिमन्त्रित ही पत्तल उठा कर बैठ जातीं और परोसने वालों के कुर्ते, धोती खींच-खींच कर परोसना भारी कर देतीं और यदि कोई अभागा झुंझला पड़ता तो वीभत्स गालियों से उसकी सात पुश्तों को कोसतीं..हाथ नचा कर तब तक अपनी चौपाल पर फटी - फटी आवाज में प्रलाप करती रहतीं जब तक स्वयं ही वापिस जाकर उस अपराधी को बड़ी उदारता से क्षमा कर छक कर न सिर्फ खा आतीं अपितु साथ बांध भी लातीं ।
गांव के बच्चों के लिए तो वे एक दिलचस्प मनोरंजन थीं...नाक पर उंगली फिरा कर चिढ़ाने वाले उद्दंड बच्चों के पीछे पत्थर और गालियों के ऐसे अमोघ अस्त्र फेंकतीं कि उनकी माताएं कान पर हाथ रख बच्चों को कूटती-पीटती बिट्टा बुआ को कोसतीं बच्चों को घर ले जातीं ।
बहुत साल पहले जब मैं दस साल की थी और दीदी बारह की रही होंगी...हम होली की छुट्टियों में गांव गए थे अचानक दीदी बदहवास भागती आईं और कमरे में छिप गईं..जब तक मम्मी कुछ पूंछतीं इतने में कर्कश आवाज में गालियों के पिटारे से ऐसी -ऐसी गालियां निकाल..उनके भूत भविष्य को अंधकारमय होने का श्राप देतीं बिट्टा बुआ आंगन में नमूदार हुईं...मैं बहुत डरपोक थी भाग कर बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे छिप गई...वे मां के पास जाकर दीदी की शिकायत कर कोसने लगीं..." साली नाक काटत है दुई दिना की छोकरी...अरी तेरी छटी खाए रहे राम करे.....”और राम जाने क्या - क्या..तब मम्मी और ताई जी जल्दी- जल्दी उनको मनाने में लग गईं ...साबुन,घी,गुड़,पुरानी धोतियां,बची मिठाई का चूरा सब उनके पल्लू से बांध मम्मी ने उनका हाथ पकड़कर जबरन बैठा लिया और पंखा झलने लगीं ..."तुम फिकर न करो जाड़ों में बियाह कर देंगे हम इसका,पाप कटे...बहुत सिर चढ़ती जा रही है..सास डंडे मार- मार कर दिमाग ठीक कर देगी “
क्रमश:

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...