ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 27 मार्च 2021

जब फागुन रंग झमकते थे



#जब_फागुन_रंग_झमकते_थे


बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।


प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 


हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 


छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।


रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और सहेलियों से मिलने निकल जाते। 


रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो ‘गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार कहते।”


गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आतीं, साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।


पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' सन्त’ आ रहे हैं ।


पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था ।उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।


अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बिटिया और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।


 वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको ।

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -

" हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कुछ खबाती पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी !का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !” 

अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 


एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं -

"ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्दर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुक जाता , हम बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।


             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।


गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 


बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने मानती कहाँ थीं !”


गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 


सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते जल देकर परिक्रमा करते और आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए पर कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा आधी रात ही होली में लपट दिखा देता बस सारे गाँव में तहलका मच जाता लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,लोग धोती , पजामे संभालते ,आँख मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लप्पड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ ददा काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।


दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ कढाई से दूर...’पर हम दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।


गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती गली में ढोल लटका गाते बजाते...गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।


दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ...सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा ठंडाई से ज़्यादा चढ़ता है।

रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।


कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे  पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी जाने का विशेष आकर्षण होती थी जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।


मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे।हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल -बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?


आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं...अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-दमकते थे लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे।

दो गज दूरी भी है जरूरी तो बेहतर है कि इस बार अपने ही परिवार के साथ होली खेलें । आप सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

                                  —उषा किरण     


फोटो :गूगल से साभार

साँप-सीढ़ी

 



मंगलवार, 23 मार्च 2021

अब बारी तुम्हारी

 

  

  

   

सुनो बेटों-


माना कि वे कुछ आक्रामक हैं

उग्र हैं ...आन्दोलित हैं..

तेवर भी कुछ भारी हैं

नहीं सुनतीं किसी की भी

बस सुनतीं अपने मन की हैं...!


स्वयम् चुनतीं अपनी ही धरती

आकाश, चाँद-सूरज,पथ भी 

नहीं स्वीकार तुम्हें पूजना 

तो  कहाँ  मंजूर देवी कह कर

खुद का पूजा जाना भी ?


उन्मुक्त हो खिलखिलाती 

सजती हैं...गाती हैं

उड़ती हैं मनमाफिक पंख लगा 

स्वच्छन्द हो आज मुस्काती हैं !


पितृसत्तात्मक सोच को यदि

जब लगे चोट कभी तुम्हारी 

जैसे पीढ़ियों से चुप हो

बेटियों ने सहा सदा ही

वैसे ही तुम भी अब

हँस कर सब सह जाना...!


यदि कभी ज्यादती हो

और हम अनदेखा कर जाएं 

जैसे बचपन में

तुम्हें मार पड़ी बहन से 

बिलबिला कर तब तुमने 

मुड़ करके हमको देखा 

और प्रतिशोध लेना चाहा 

"गलत बात ...

लडकियों पर हाथ नहीं उठाते !“

हमने हमेशा तुमको रोका 

तुम रुआँसे हो कहते

"उसको कोई क्यों नहीं कुछ कहता ...!”


उनके पस्त हौसलों को 

पंख देने की

ये हमारी तैयारी थी

कि बहन तुम्हारी कभी न हारे 

सिर न झुके किसी के आगे

तोड़ दे वो हाथ 

जो हाथ  बढ़े उसके आगे...!


सदियों से दबी नानी ने मेरी

खिड़की खोली माँ के लिए

और हमारी माँओं ने

सौ तोहमत झेलीं हमारे लिए

अब एक कदम आगे बढ़ कर

साँकल हमको खोलनी हैं !


सदियों पुरानी सीखों को

वे क्यूँ और सुनें भला...कि-

दबो...सबकी सुनो

झुको...बस झुकती ही रहो

शर्म ही औरत का जेवर

सहना ही औरत का गहना !

पति ही परमेश्वर तुम्हारा

बेशक कितना भी

व्यभिचार, अत्याचार सहो

नोची खसोटी जाओ

एसिड से नहलाई जाओ

पर कभी जुबान मत खोलना

कि...औरत का पाप फूल 

और मर्द का पत्थर सा...?


कई पीढ़ियों का दबा क्षोभ

हो मुखर उभर अब आया है

हो सकता है तुमको

कई बार हार जाना पड़े

कभी कुछ ज्यादती लगे

बेबात कभी झुक जाना पड़े

तो देकर मान हौसलों को 

तुम थोड़ा सा झुक जाना

और थोड़ा कुछ सह जाना...!


अब तुमको है कर्ज चुकाना 

सालों परम्पराओं की जंजीरों में

दम घोंटा है जिन्होंने उन

परम-आदरणीय संबंधों का... !


किचिन में देखा है तुमको जब 

हाथ बंटाते...बर्तन धोते

या बच्चे की नैपी बदलते

मन मेरा फूल सा खिल उठा है

और मस्तक कुछ ऊँचा होकर

आसमान पर टिक गया है !


तो...समझ रहे हो न  बेटों तुम

वक्त करवट बदल रहा है

अब बारी तुम्हारी है....!!

       —उषा किरण 🍁


विश्व कविता दिवस पर 🍀🍂☘️🍃🌿🌱                   

                                  








बुधवार, 17 मार्च 2021

गुप्त- गोदावरी

 


बारीक सी पर गहन

जो पावन धारा बहती अन्तस में ...

गुप्त गोदावरी फेनिल तरंगों में

सबसे छिपा करती निरन्तर समाहित 

सारा कल्मष 

सारा विष

सबका वमन

ध्यानस्थ...मंथर गति से प्रवाहित !

कि अतृप्त प्यास ही हो जाए जब तृप्ति...

कि विष ही बन जाए जब अमृत..

कि दाह ही हो जाए चंदन...

कि अमावस लगे पूर्णमासी ...

कि अन्त में ही हो पूर्णता का भास...

कि फकीराना मस्ती में रमता जोगी मन ही 

समृद्ध हो जाए जब ...

तो और क्या चाहे कोई, किसी से  ?

तो क्यूँ माँगे कोई किसी से भी ?

न चाँद

न सूरज

न आँचल भर सितारे

पूर्णता की उपलब्धता पाकर

खिल कर ...सुवासित हो ...

सामने शाख से छूट कर 

गिरी है अभी जो धूल में

वो मदमस्त शेफाली होना चाहती हूँ...!!

                      — उषा किरण 🍂🍃

सोमवार, 15 मार्च 2021

गुरुवार, 11 मार्च 2021

बताना था न पापा...!





मैं निकल पड़ती जब- तब मुँह उठा

चाँद की सैर पर...

अम्माँ नीचे से सोंटी दिखातीं

उतर नीचे...धरती पर चल

पापा अड़ जाते सामने

नापने दो आकाश

पंख मत बाँधो उसके !

अम्माँ झींकतीं 

खाना, सफाई, घर- गृहस्थी 

ये भी जरूरी हैं

आता ही क्या है इसे 

कुछ पता भी है 

कितनी तरह के तो तड़के 

मूँग और उड़द 

अरहर और चना दाल 

कुछ पता नहीं फर्क इसे

पापा हंस कर विश्वास से कहते

जिस दिन पकड़ेगी न चमचा देखना

तुम सबकी छुट्टी करेगी

जिस डगर चलेगी

खुद मील का पत्थर गढ़ेगी...!

सब तुम्हारी गलती है पापा

अब देखो न-

मेरे पंख समाते ही नहीं कहीं 

कितना विस्तार इनका...

ठीक कहती थीं अम्माँ 

इतने तेवर लेकर कहाँ जाएगी,

ज़मीनी हक़ीक़त को कैसे जानेगी ?

पापा ! आसमानों से पहले

चाँद, बादल, इन्द्रधनुष से भी पहले

छानना  होता है जमीन को

किताबों से पहले सीखना होता है

चेहरों को पढ़ना...और

लोगों की फितरत पढ़ना

नदियों संग बहने से पहले

बारीक सुई की नोक से

धागे सा पार होना पड़ता है

बताना था न पापा-

स्त्री है तू

बताना था न कि छोटा रख अपना मैं

 कि तू गैर अमानत है

बताना था न कि तेरी ज़मानत नहीं,

किसी अदालत में 

बताना था न कि-

आकाश की भी होती है एक सीमा

कि पीछे रह जाना होता है 

जीत कर भी कभी

चलने देना था न नंगे पैर 

पड़ने देने थे छाले पाँवों में 

कहना था न धूप में तप

बारिशों में भीग, कि बह जाने दे 

थोड़े रंग, कुछ मिट्टी, कुछ सुवास

अब क्या करूँ इस अना का 

बस उलझे धागों को सुलझाती

वक्त की सलाइयों पर

बैठी बुन रही हूँ अब

एक सीधा...एक उल्टा

एक सीधा और फिर एक उल्टा...

सब तुम्हारी गलती है पापा

बताना था न...!!

                   🌺— उषा किरण



बुधवार, 10 मार्च 2021

सुनी हैं ...!


सुनी हैं कान लगा कर

उन सर्द तप्त दीवारों पर

दफन हुई वे

पथरीली धड़कनें

वे काँपती सिसकियाँ 

और खिलखिलाहटें !

आन-बान-शान की, शौर्य की

बेशुमार कहानियाँ 

वे हैरान करती रिवायतें

बंजर जमीनों की कराहटें

स्वागत में ठुमकते पैर

आवाहन करते गीत- 

`केसरिया बालम पधारो म्हारे देस...’

ऊँट, बकरियाँ, आदमी सभी का आधार 

`केर साँगरी ‘

लहरिया, बंधेज के खिलखिलाते रंग

रेत के मीलों फासलों पर

राहत देती वो एकाकी,शीतल झील

एक बेटी की इज़्ज़त की खातिर

दो सौ साल से वीरान पड़ा-

वो उजड़ा, भुतहा `कुलधरा गाँव’

गाड़ी के पीछे धूल भरे नंगे पाँवों से

भागते, चिल्लाते बच्चे

`कमिंग...कमिंग...’

अभिभूत मन....धुँधली आँखें !

क्यूँ न लुटा दूँ दिल दुनिया की

सारी दौलत !

सारी नदियों से माँग चुल्लू भर- भर 

छोड़ दूँ पानी इन प्यासे बंजर खेतों में !

वापिस लौट तो आई पर

एक छोटा सा राजस्थान 

आ गया है संग

मेरी धड़कनों में...!

             — उषा किरण

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...