ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 23 मार्च 2021

अब बारी तुम्हारी

 

  

  

   

सुनो बेटों-


माना कि वे कुछ आक्रामक हैं

उग्र हैं ...आन्दोलित हैं..

तेवर भी कुछ भारी हैं

नहीं सुनतीं किसी की भी

बस सुनतीं अपने मन की हैं...!


स्वयम् चुनतीं अपनी ही धरती

आकाश, चाँद-सूरज,पथ भी 

नहीं स्वीकार तुम्हें पूजना 

तो  कहाँ  मंजूर देवी कह कर

खुद का पूजा जाना भी ?


उन्मुक्त हो खिलखिलाती 

सजती हैं...गाती हैं

उड़ती हैं मनमाफिक पंख लगा 

स्वच्छन्द हो आज मुस्काती हैं !


पितृसत्तात्मक सोच को यदि

जब लगे चोट कभी तुम्हारी 

जैसे पीढ़ियों से चुप हो

बेटियों ने सहा सदा ही

वैसे ही तुम भी अब

हँस कर सब सह जाना...!


यदि कभी ज्यादती हो

और हम अनदेखा कर जाएं 

जैसे बचपन में

तुम्हें मार पड़ी बहन से 

बिलबिला कर तब तुमने 

मुड़ करके हमको देखा 

और प्रतिशोध लेना चाहा 

"गलत बात ...

लडकियों पर हाथ नहीं उठाते !“

हमने हमेशा तुमको रोका 

तुम रुआँसे हो कहते

"उसको कोई क्यों नहीं कुछ कहता ...!”


उनके पस्त हौसलों को 

पंख देने की

ये हमारी तैयारी थी

कि बहन तुम्हारी कभी न हारे 

सिर न झुके किसी के आगे

तोड़ दे वो हाथ 

जो हाथ  बढ़े उसके आगे...!


सदियों से दबी नानी ने मेरी

खिड़की खोली माँ के लिए

और हमारी माँओं ने

सौ तोहमत झेलीं हमारे लिए

अब एक कदम आगे बढ़ कर

साँकल हमको खोलनी हैं !


सदियों पुरानी सीखों को

वे क्यूँ और सुनें भला...कि-

दबो...सबकी सुनो

झुको...बस झुकती ही रहो

शर्म ही औरत का जेवर

सहना ही औरत का गहना !

पति ही परमेश्वर तुम्हारा

बेशक कितना भी

व्यभिचार, अत्याचार सहो

नोची खसोटी जाओ

एसिड से नहलाई जाओ

पर कभी जुबान मत खोलना

कि...औरत का पाप फूल 

और मर्द का पत्थर सा...?


कई पीढ़ियों का दबा क्षोभ

हो मुखर उभर अब आया है

हो सकता है तुमको

कई बार हार जाना पड़े

कभी कुछ ज्यादती लगे

बेबात कभी झुक जाना पड़े

तो देकर मान हौसलों को 

तुम थोड़ा सा झुक जाना

और थोड़ा कुछ सह जाना...!


अब तुमको है कर्ज चुकाना 

सालों परम्पराओं की जंजीरों में

दम घोंटा है जिन्होंने उन

परम-आदरणीय संबंधों का... !


किचिन में देखा है तुमको जब 

हाथ बंटाते...बर्तन धोते

या बच्चे की नैपी बदलते

मन मेरा फूल सा खिल उठा है

और मस्तक कुछ ऊँचा होकर

आसमान पर टिक गया है !


तो...समझ रहे हो न  बेटों तुम

वक्त करवट बदल रहा है

अब बारी तुम्हारी है....!!

       —उषा किरण 🍁


विश्व कविता दिवस पर 🍀🍂☘️🍃🌿🌱                   

                                  








20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-03-2021) को   "रंगभरी एकादशी की हार्दिक शुफकामनाएँ"   (चर्चा अंक 4015)   पर भी होगी। 
    --   
    मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --  

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. अब सांकल हमको खोलनी है। वाह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ

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  4. बहुत सुन्दर लेखन
    कृपया मेरा ब्लॉग भी पढ़े

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  5. आज सच ही बेटों को समझाने की ज्यादा ज़रूरत है .... सार्थक रचा है आपने ... काश ये हर माँ अपने बेटों से कह पाए ..
    समाज को आइना दिखा रही है यह रचना ...

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    1. संगीता जी कविता पढ़ कर सराहना करने के लिए आभार आपका😊

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  6. बहुत गहरी रचना बधाई उषा जी। समय और इस दौर के मन जैसी कविता है

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  7. सारगर्भित एवं प्रभावी अभिव्यक्ति ।

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  8. सुंदर सार्थक चिंतन देती अभिव्यक्ति।
    अप्रतिम।

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  9. बीटा बेटी के फर्क को तभी समझा जाएगा जब बचपन से ये सब दोनों से साथ साथ करवाया जाएगा ... हर काम में बराबरी खुद ही दिलवानी होगी ...

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  10. सही कहा आपने पेरेन्ट्स की विशेष रुप से माँ कीं ज़िम्मेदारी है कि वो बेटी के साथ बेटे को भी नसीहत दे...शुक्रिया

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