ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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रविवार, 25 अक्तूबर 2020

पुस्तक -समीक्षा (ताना-बाना)

                             ~   पुनीत राठी~

                               ~~~~~~~~~~~



धन्यवाद मैम इस अमूल्य उपहार के लिये.........

आपका  काव्य संग्रह ताना-बाना सचमुच एक ताना- बाना ही है आपके जीवन का लेकिन जब पाठक इसे पढता है तब आपकी कविताओ मे अपनी संवेदनाओ के धागो को पाता  है और फिर एक ताना -बाना चलता है । जीवन मे एक धागा सुख  तो कही दो धागे दुख और भी न जाने कितने संबन्ध उनसे मिलने वाले अनुभवो के धागो से जो जीवन का ताना - बाना बनता है पूरी किताब को अन्त तक  पढने पर यही धागे बार- बार छुए जाते है और छू जाते है दिल को भी.....

 पुस्तक मे कविताये और उन पर बनाये गये आपके चित्र दोनो है जो नयी कविता के दौर मे शायद एेसा पहली बार है जो पाठक के आनन्द को द्विगुणित करते है ।  माना चित्र कविताओ पर आधारित है लेकिन कविताओ और चित्रो का अपना अलग - अलग अस्तित्व भी है। यदि कविताये बिना चित्रो के पढे तब भी एक चित्रात्मकता है और यदि चित्र ही देखे तब लगता है मानो किसी कला- विथिका मे घूम रहे हो।

" आपकी पुस्तक एक एेसी दीर्घा है जिसमे कला प्रदर्शनी और काव्य पाठ का आनन्द एक व्यक्ति को पाठक और दर्शक बनकर एक साथ मिलता है।"

सभी कविताये मुझे बेहद पसन्द आयी लेकिन कुछ कविताओ ने मन को बान्ध लिया जैसे परिचय , मुक्ति, मिलन , एकलव्य, पथराया पल ,फितरत और थाली का चांद ।

फरियाद , ताता, अभी भी, राखी और मां जैसी कविताये जो पारिवारिक संबन्धो से मिलने वाले सुख-दुख के विषय मे लिखी गयी है दिल को छू जाती है।

धूप, नदी, इन्द्रधनुष,रेत , बारिश चान्द और भी न जाने कितने उपमानो से सजी आपकी कविताये अपने आप मे धरती से लेकर अम्बर तक को समेटे है...!

                                   एक बार पुन: धन्यवाद🙏

 —  पुनीत राठी


पुस्तक समीक्षा ( ताना- बाना)

 

         


                              ~  रन्जु भाटिया~

                                ~~~~~~~~~

ताना बाना ( काव्यसंग्रह )

सुन लो              

जब तक कोई

आवाज देता है

क्यूँ कि...

सदाएं  एक वक्त के बाद

खामोश हो जाती हैं

और ख़ामोशी ....

आवाज नहीं देती!!

   डॉ उषा किरण


कितनी सच्ची पंक्तियां है यह। हम वक़्त रहते अपने ही दुनिया मे रहते हैं बाद में पुकारने वाली आवाज़ों को सुनने की कसक रह जाती है । शब्दों का यह "ताना बाना" ,ज़िन्दगी को आगे चलाता रहता है । यही सुंदर सा शब्दों का" ताना बाना "जब मेरे हाथ मे आया तो घर आ कर सबसे पहले मैने इसमें बने रेखाचित्र देखे ,जो बहुत ही अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे , कुछ रचनाएं भी सरसरी तौर पर पढ़ी ,फिर दुबई जाने की तैयारी में इसको सहज कर रख दिया ।
     यह सुंदर सा "काव्यसंग्रह "मुझे "उषा किरण जी" से इस बार के पुस्तक मेले में भेंटस्वरूप मिली । उषा जी 'से भी मैं पहली बार वहीं मिली ,इस से पहले फेसबुक पर उनका लिखा पढ़ा था और उनके लेखन से बहुत प्रभावित भी थी । क्योंकि उनके लेखन में बहुत सहजता और अपनापन सा है जो सीधे दिल मे उतर जाता है ।
     पहले ही कविता "परिचय " में वह उस बच्ची की बात लिख रही हैं जो कहीं मेरे अंदर भी मचलती रहती है ,
नन्हे इंद्रधनुष रचती
नए ख्वाब बुनती
जाने कहाँ कहाँ ले जाती है
उषा जी ,के इस चित्रात्मक काव्य संग्रह में बेहद खूबसूरत ज़िन्दगी से जुड़ी रचनाएं हैं ।जो स्त्री मन की बात को अपने पूरे भावों के साथ कहती हैं । औरत का मन अपने ही संसार मे विचरण करता है ,जिसमे उसकी वो सभी  भावनाएं हैं जो दिन रात के चक्र में चलते हुए भी उसके शब्दों में बहती रहती है और यहां इन संग्रह में तो शब्दों के साथ रेखांकित चित्र भी है जो उसके साथ लिखी कविता को एक  सम्पूर्ण अर्थ दे देते हैं जिसमे पढ़ने वाला डूब जाता है।
डॉ उषा जी के इस संग्रह को पढ़ते हुए मैंने खुद ही इन तरह की भावनाओं में पाया , जिसमे कुछ रचनाएं प्रकृति से जुड़ी कर मानव ह्रदय की बात बखूबी लिख डाली है ,जैसे सब्र , कविता में
थका मांदा सूरज
दिन ढले
टुकड़े टुकड़े हो
लहरों में डूब गया जब
सब्र को पीते पीते
सागर के होंठ
और भी नीले हो गए

पढ़ते ही एक अजब से एहसास से दिल भर जाता है। ऐसी ही उनकी नमक का सागर ,बड़ा सा चाँद, एक टुकड़ा आसमान, अहम ,आदि बहुत पसंद आई । इन रचनाओं में जो साथ मे रेखाचित्र बने हुए है वह इन कविताओं को और भी अर्थपूर्ण बना देते हैं।
   किसी भी माँ का सम्पूर्ण संसार उनकी बेटियां बेटे होते हैं , इस संग्रह में उनकी बेटियों पर लिखी रचनाएं मुझे अपने दिल के बहुत करीब लगी
बेटियां होती है कितनी प्यारी
कुछ कच्ची
कुछ पक्की
कुछ तीखी
कुछ मीठी
वाकई बेटियां ऐसी ही तो होती है ,एक और उनकी कविता मुनाफा तो सीधे दिल मे उतर गई ,जहां बेटी को ब्याहने के बाद मुनाफे में एक माँ बेटा पा लेती है। जो रचनाएं आपके भी जीवन को दर्शाएं वह वैसे ही अपनी सी लगती है । लिखने वाला मन और पढ़ने वाला मन  कभी कभी शायद एक ही हालात में होते हैं । कल और आज शीर्षक से इस संग्रह की एक और रचना मेरे होंठो पर बरबस मुस्कान ले आयी जिसमे हर बेटी छुटपन में माँ की तरह खुद को संवारती सजाती है ,कभी माँ के सैंडिल में ,कभी उसकी साड़ी में , और इस रचना की आखिरी पँक्तियाँ तो कमाल की लगी सच्ची बिल्कुल
आज तुम्हारी सैंडिल
मेरी सैंडिल से बड़ी है
और .....
तुम्हारे इंद्रधनुष भी
मेरे इंद्रधनुष से
बहुत बड़े हैं !
इस तरह कभी बेटी रही माँ जब खुद माँ बनती है तो मन के किसी कोने में छिपी आँचल में मुहं दबा धीमे धीमे हंसती है  ( माँ कविता )
बहुत सहजता से उनके लिखे इस संग्रह में रोज़मर्रा की होने वाली बातें , शरीरिक दर्द जैसे रूट कैनाल में बरसों से पाले दर्दों से मुक्ति का रास्ता सिखला देती है ।
इस संग्रह की हर रचना पढ़ने पर कई नए अर्थ देती है । मुझे तो हर रचना जैसे अपने मन की बात कहती हुई लगी । पढ़ते हुए कभी मुस्कराई ,कभी आंखे नम हुई । सभी रचनाओं को यहां लिखना सम्भव नहीं पर जिस तरह एक चावल के दाने से हम उनको देख लेते है वैसे ही उनकी यह कुछ चयनित पँक्तियाँ बताने के लिए बहुत है कि यह संग्रह कितना अदभुत है और इसको पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता है ।
"ताना बाना "डॉ उषा जी का यह संग्रह  इसलिए भी संजोने लायक है ,क्योंकि इसमें  बने रेखाचित्रों से भी पढ़ने वाले को बहुत जुड़ाव महसूस होगा  ।
  डॉ उषा जी से मिलना भी बहुत सुखद अनुभव रहा । जितनी वो खुद सरल और प्यारी है उनका लिखा यह संग्रह भी उतना ही बेहतरीन है । अभी एक ग्रुप में जुड़ कर उनकी आवाज़ में गाने सुने ,वह गाती भी बहुत सुंदर  हैं । ऐसी प्रतिभाशाली ,बहुमुखी प्रतिभा व्यक्तित्व के लिखे इस संग्रह को जरूर पढ़ें ।
धन्यवाद उषा जी इस शानदार काव्यसंग्रह के लिए और आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं
                       ~ रन्जु भाटिया
ताना बाना
डॉ उषा किरण
शिवना प्रकाशन
मूल्य 450 rs

पुस्तक-समीक्षा ( ताना- बाना)

                                    ~रश्मि कुच्छल~

                                  ~~~~~~~~~~~

                               ~ ताना- बाना~

                              ~~~~~~~~~~~~

 इस सफरनामे का आवरण ही लेखिका यानी  Dr . उषाकिरण दी का व्यक्तित्व है ,घनी कालिमा को चीरकर उभरता सुनहरा सूरज ।

रेखाओं की चितेरी जादू भरी उंगलियां कब इन रेखाओं को शब्द बना देती हैं और कब ये कवितायों की भावभूमि के उड़ते मेघ से कागज पर चित्र बनकर उतर आते हैं ,ये अद्भुत संयोजन और कारीगिरी इस किताब को विशेष बनाती है व दीदी को एक विशिष्ट गरिमामयी काव्यचित्र संकलन "ताना - बाना " की जननी ।

स्त्री मन की नजर से जीवन के हर रंग को छूती , विषाद, विसंगति और विडंबनाओं पर तंज करती , कभी निरुपाय तो कभी दृढ़ होकर राह बनाती हर कविता उनके नजरिये से मिलवाती है ।

आज कुछ कविताओं से रूबरू होते हुए एक कविता पर रुक गयी हूँ ।

आप सबके लिए ---🙏😊

                                 ~~   रश्मि कुच्छल 

                                  


पुस्तक - समीक्षा (ताना- बाना)

डॉ०

सीमा शर्मा


   



   सुप्रसिद्ध समीक्षक डॉ ० सीमा शर्मा ने मेरी पुस्तक 'ताना- बाना’ की बहुत सुँदर समीक्षा Shivna Sahityiki में लिखी है ... सीमा जी आप किताब की रूह तक पहुँचीं ...शुक्रिया...प्लीज आप सब भी पढ़ें 🥰


मित्रों, संरक्षक एवं सलाहकार संपादक, सुधा ओम ढींगरा, प्रबंध संपादक नीरज गोस्वामी, संपादक पंकज सुबीर, कार्यकारी संपादक, शहरयार, सह संपादक शैलेन्द्र शरण Shailendra Sharan , पारुल सिंह Parul Singh के संपादन में शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 5 अंक : 17 त्रैमासिक : अप्रैल-जून 2020 का वेब संस्करण अब उपलब्ध है। इस अंक में शामिल है- आवरण चित्र / नीरज गोस्वामी, आवरण कविता / अजंता देव Ajanta Deo , संपादकीय / शहरयार Shaharyar Amjed Khan , व्यंग्य चित्र / काजल कुमार Kajal Kumar । पिछले दिनों पढ़ी गई किताबें- निष्प्राण गवाह, क़तार से कटा घर AnilPrabha Kumar , बंद मुट्ठी, प्रवास में आसपास, वारिसों की ज़ुबानी Geeta Shreee - सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra । शोध-आलेख- सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक / जुगेश कुमार गुप्ता Zugesh Mukesh Gupta , जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था / दिनेश कुमार पाल Dinesh Pall , खिड़कियों से झाँकती आँखें / अफ़रोज़ ताज Afroz Taj , बंद मुट्ठी / डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह । पुस्तक समीक्षा- ताना-बाना / डॉ. सीमा शर्मा / डॉ. उषा किरण Usha Kiran , कुबेर / दीपक गिरकर Deepak Girkarr / डॉ. हंसा दीप Hansa Deep , धर्मपुर लॉज / राजीव कार्तिकेय @rajiv kartikey / प्रज्ञा Pragya Rohini , सच कुछ और था / रेखा भाटिया @Rekha Bhatia / सुधा ओम ढींगरा, भूत भाई साहब और अन्य कहानियाँ / डॉ. सीमा शर्मा / प्रियंका कौशल Priyanka Kaushal , ख़ुद से गुज़रते हुए / पंकज मित्र Pankaj Mitra / संगीता कुजारा टाक Dolly Tak , निन्यानवे का फेर / पंकज सुबीर / ज्योति जैन, सुबह अब होती है तथा अन्य नाटक / पंकज सोनी Pankaj Sonii / नीरज गोस्वामी, दसवीं के भोंगा बाबा / डॉ. हंसा दीप / गोविंद सेन Govind Sen , बारह चर्चित कहानियाँ / प्रो. अवध किशोर प्रसाद / सुधा ओम ढींगरा, पंकज सुबीर, कुछ दुख, कुछ चुप्पियाँ / शहंशाह आलम Shahanshah Alam / अभिज्ञात Abhigyat Hridaya Narayan Singh , परछाइयों का समयसार / कादम्बरी मेहरा / कुसुम अंसल Dr. Kusum Ansall , राम की शक्ति पूजा और कामायनी का नाट्य रूपांतरण / अशोक प्रियदर्शी Ashok Priyadarshii / कुमार संजय Kumar Sanjay , हरी चिरैया / मनीष वैद्य Manish Vaidya / संजय कुमार शर्मा, होली / प्रो. अवध किशोर प्रसाद / पंकज सुबीर, विचार और समय / पंकज सुबीर / सुधा ओम ढींगरा। पुस्तक चर्चा- मेरी दस रचनाएँ / डॉ. प्रेम जनमेजय, आशना / डॉ. योगिता बाजपेई ‘कंचन’ @Yogita Bajpai , मेरी दस रचनाएँ / लालित्य ललित Lalitya Lalitt , ग़ज़ल जब बात करती है / डॉ. वर्षा सिंह Varsha Singh , दिलफ़रेब / राजकुमार कोरी ‘राज़’ Rajkumar Kori , साँची दानं / मोतीलाल आलमचन्द्र Motilal Ahirwar , मैं किन सपनों की बात करूँ / श्याम सुन्दर तिवारी @shyam sunder । केन्द्र में पुस्तक- पुस्तक : प्रेम की उम्र के चार पड़ाव / समीक्षक : शैलेन्द्र शरण Shailendra Sharan , नीलिमा शर्मा Neelima Sharrma / लेखक : मनीषा कुलश्रेष्ठ, पुस्तक : प्रवास में आसपास / समीक्षक : नीलोत्पल रमेश Neelotpal Ramesh , दीपक गिरकर / लेखक : डॉ. हंसा दीप, पुस्तक : खिड़कियों से झाँकती आँखें / समीक्षक : दीपक गिरकर, रेनू यादव Renu Yadav/ लेखक : सुधा ओम ढींगरा, पुस्तक : निष्प्राण गवाह / समीक्षक : शन्नो अग्रवाल @shanno agarwal , डॉ. मधु संधु Madhu Sandhu / लेखक : कादम्बरी मेहरा Kadam Mehra , पुस्तक : रात नौ बजे का इन्द्र धनुष / समीक्षक : धर्मपाल महेन्द्र जैन Dharm Jain , दीपक गिरकर / लेखक : ब्रजेश कानूनगो Brajesh Kanungoo , पुस्तक : यायावर हैं, आवारा हैं, बंजारे हैं / समीक्षक : अशोक प्रियदर्शी, धर्मपाल महेन्द्र जैन / लेखक : पंकज सुबीर, पुस्तक : जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था / समीक्षक : डॉ. प्रज्ञा रोहिणी, डॉ. सीमा शर्मा, कैलाश मण्डलेकर Kailash Mandlekarr / लेखक : पंकज सुबीर। आवरण चित्र नीरज गोस्वामी, डिज़ायनिंग सनी गोस्वामी Sunny Goswami , सुनील पेरवाल Sonu Perwal , शिवम गोस्वामी Shivam Goswami । आपकी प्रतिक्रियाओं का संपादक मंडल को इंतज़ार रहेगा। पत्रिका का प्रिंट संस्करण भी समय पर आपके हाथों में होगा। 

ऑन लाइन पढ़ें-

https://www.slideshare.net/shivnaprakashan/shivna-sahityiki-april-june-2020

https://issuu.com/shivnaprakashan/docs/shivna_sahityiki_april_june_2020


साफ़्ट कॉपी पीडीऍफ यहाँ से डाउनलोड करें 

http://www.vibhom.com/shivnasahityiki.html

डॉ० सीमा शर्मा -



पुस्तक -समीक्षा ( ताना- बाना)


   सुप्रसिद्ध लेखिका   " कविता वर्मा “—
 



~सभ्य औरतें चुप रहती हैं~

~~~~~~~~~~~~~~~~~

सभ्य औरतें शिकायत नहीं करतीं वे ढोलक की थाप पर सोहर गाते ननद सास को ताने देते विदाई गीत और गारी गाते अपने दुखों को पिघला कर कतरा कतरा निकालती रहती हैं लेकिन शिकायत नहीं करतीं। बगल के पृष्ठ पर एक पेड़ की शाख के ऊपर चमकते चाँद की मद्धिम रोशनी में एक औरत ढोलक की थाप पर अपने दुखों को थपकी दे रही है।

अश्वत्थामा को क्षमा करती पांचाली और उसे श्राप देकर अजर-अमर रहने को छोड़ देने वाले श्रीकृष्ण से लेखिका सवाल पूछती है। कवयित्री जो एक माँ है उसके लिये पुत्रवध करने वाले को माफ करना असहनीय है और ऐसे नफरत और प्रतिशोध से भरे लोगों के संसार में जीवित रहने से शिशुओं पर पड़ने वाले खतरे से भयभीत वह स्वयं अस्त्र उठाने की इच्छुक है। दो डरावनी आँखें एक हथेली और एक पंजे से बना प्रतीकात्मक चित्र माँ के भय और अश्वत्थामा के प्रतिशोध को व्यक्त करता है।

माँ - सारे दिन खटपट करती /लस्त पस्त हो /तुम कहतीं एक दिन ऐसे ही मर जाऊँगी /और कहीं मन के किसी कोने में छिपी /आँचल में मुँह दबा /तुम धीमे-धीमे हँसती हो माँ।

गान्धारी से सवाल करती इस कविता में कवयित्री पूछती है

बोलो! क्यों नहीं दी पहली सजा तब /जब दहलीज के भीतर औरत को दी थी पहली गाली? यह सवाल बहुत पहले पूछा जाना चाहिए था हर उस गांधारी से जिसने अपने बेटे भाई पति के जुर्म को अनदेखा कर आँखों पर पट्टी बाँध ली है और शुक्र है कि अब यह पूछा जा रहा है और एक आशा दिखाई देने की उम्मीद है।

ताना बाना उषा किरण जी का कविता संग्रह जो सिर्फ कविताओं से ही नहीं बल्कि इन्हें और मुखर करती लकीरों से भी सजा है। हर कविता के साथ एक रेखाचित्र भावों को परिवेश का साथ देकर और गहन और विस्तृत बनाता है। जितनी अद्भुत उषा किरण जी की वैचारिक क्षमता है उससे कहीं बेहद आगे उनकी उन भावनाओं परिवेश और उनकी उलझन को रेखांकित करने की उनकी क्षमता है। शब्दों और रेखाओं के इस ताने-बाने में पाठक खो जाता है। वह समझ नहीं पाता कि पहले शब्द पढ़कर उसके भाव चित्रों में ढूँढे या पहले रेखाओं को पढ़कर शब्दों को बूझे।

101 कविताओं और उनके रेखांकन से सजे इस संग्रह में स्त्री मन उसके दुख सुख उसका अकेलापन खुद में सिमटे रहने की बाध्यता समाज की वर्जनाएं विडंबना प्रेम विरह धोखा आस उम्मीद समझ कर नासमझ बने रहने का भोलापन स्त्री पुरुष संबंध सुनहरी यादें दोस्ती वादे के साथ ही जीवन के दर्शन को न सिर्फ शब्द दिये गये हैं बल्कि उन्हें रेखाओं में खूबसूरती से उकेरा गया है।

ताना बाना पाठक के मन में भावनाओं और समझ का एक ऐसा अद्भुत वस्त्र बुनता है जिसकी मुलायमियत देर तक महसूस की जा सकती है।

डाॅ उषा किरण को इस अद्भुत संग्रह के लिए हार्दिक बधाइयाँ और उनकी लेखनी और तूलिका के लिए अशेष शुभकामनाएं।

ताना बाना

डाॅ उषा किरण

शिवना प्रकाशन

मूल्य 450/-







सोमवार, 27 जुलाई 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 

                                                           
 ताना-बाना
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 


न जीवन मरता है
न सत्य
न झूठ
ना ही कल्पनाओं का संसार ...
पर समाप्ति की एक मुहर लगानी होती है, तभी तो एक नई सुबह का आगाज़ होता है, कुछ नया सोचा और लिखा जाता है ...
अनुभवों का एक और बाना ।
"हर बार गिरकर उठी हूँ
खुद का हाथ पकड़ पुचकारा
सराहा,समझाया..."
यूँ ही चलना होता है और तभी ज़िन्दगी साथ होती है और कुछ कहने की स्थिति बनती है ।
और तभी खुद में सिमटकर, खुद को जीते हुए कहती है मन की स्वामिनी
"इनदिनों बहुत बिगड़ गई हूँ मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच
खेलने लग जाती हूँ कैंडी क्रश
...
बचपन मे सीखे कत्थक के स्टेप्स
आदी की चॉकलेट कुतर लेती हूँ"
...
चल रही हूँ बस अपने हिसाब से ।
ज़रूरी है मन, कभी कभी आसपास से,खुद के लिए बेपरवाह हो जाना, पुरवइया बन जाना,या बेमौसम की बारिश की शक्ल ले लेना - बिगड़ा कहो या बिंदास ।
हमेशा नफ़ासत अच्छी नहीं, थोड़ी मस्ती भी ज़रूरी है -
जीवन का पुलोवर बनाते हुए कवयित्री ने शोख़ी से कहा,
"क्यों जी
कई बार से देख रही
ये हर करवाचौथ जो तुम
कहीं बाहर जाते हो ... चक्कर क्या है
कहीं और कोई चाँद तो नहीं ?"
प्रत्युत्तर में भी शरारतें ना हों तो पूजा का अर्थ ही क्या !😊

क्रमशः

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 














ताना-बाना 
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 








पूरी ज़िन्दगी रामायण
महाभारत की कथा जैसी होती है
समय का दृष्टिकोण
हर पात्र
हर स्थिति-परिस्थिति की व्याख्या
अपनी मनःस्थिति की आंच पर
अलग अलग ढंग से करता है ...
- रश्मि प्रभा
ताना-बाना एक व्याख्या है पल पल जिये एहसासों की, नज़र से गुजरते पात्रों की, शब्दों की, स्त्री पुरुष की,प्रकृति की, सप्तपदी की,मातृत्व की, तूफान के आसार की, मानसिक चक्रव्यूह की, अदृश्य शक्ति की ....
"क्या होगा कल बच्चों का ?
....
वही जो होना है"
यह जवाब झंझावात में वही देता है, जिसकी पतवार पर प्रभु की हथेलियों के निशान होते हैं, मृत्यु के खौफ़ से जो लड़ बैठता है ।
अब इसे जीने का सलीका कह लो, या अपनी आत्मा से मौन साक्षात्कार ।
तभी तो
"अंजुरी में संजोकर तुमसे
ढेरों प्रश्न पूछती हूँ"
और प्रत्युत्तर में तुम्हें
"निरुत्तर
निःशब्द ही देखना चाहती हूँ !"
प्रश्न तो अम्मा के लिए भी रहे, खुद अपने लिए, पर - अम्मा के होने का,अपनी परछाई के होने का एहसास मात्र सुरक्षा कवच सा रहा ...
"कभी लड़ नहीं पाई तुमसे
क्योंकि तुम्हारी ही परछाई थी मैं अम्मा ...
नहीं लड़ पाती मैं
आज भी
ख़ुद अपनी परछाई से
समेट लेती हूँ ख़ुद को
बस एक संभ्रांत चुप्पी में"
एक ख़ामोशी में जाने कितनी नदियों,सागर,महासागर की उद्विग्नता होती है ... समझा है क्या किसी ने, जो बोलकर अपना अस्तित्व खो दूँ !!!

क्रमशः

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 8 रश्मि प्रभा


23 जुलाई, 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 8 






















धूप दिखाई दे न दे, उतरती है मन के घुप्प अंधेरे में, हौसला बांधती है ... कई छायाचित्र भविष्य के दिखाती है, कहती है - अगर ये हो सकता है, तो वह भी हो सकता है न !
वैसे,
"ये धूप भी पूरी
शैतान की नानी है !"
नहीं होती धूप समाज द्वारा निर्धारित सभ्य औरत ... खिलखिला उठती है ज़र्रे ज़र्रे में ।
"मेरी सैंडिल पहनती
पर्स से लेकर लिपस्टिक लगाती
गुड़िया को दुलराती ...
कितना उतावलापन होता
आंखों में"
धूप सी बेटियाँ पूरे आँगन में इक्कट दुक्कट खेलती रहती हैं ।
धूप सा मेरा मन ...
"हमें मिलना ही था
मेरे जुलाहे ! ... तभी तो,
मेरे होम का धुंआ
तुम्हारी तान में
लीन हो जाता है"
"अपना चरखा बन्द मत कर देना
कई पूनी कातनी बाकी हैं अभी"
.. .... कुछ दूर ही चलना है और ।

क्रमशः




ताना - बाना - मेरी नज़र से - 7 - रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 7 

ताना-बाना 
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन
















सत्य का रास्ता एक युद्धभूमि ही तो है, पर उसके सलीब पर सुकून ही सुकून होता है । शरीर से बहता रक्त अमरत्व है, 
-नीलकंठ की तरह ।

"सत्य बोलकर तुमने
अपनी सलीब खुद गढ़ ली थी ...
पत्थर मारने वाले 
अपने हमदर्द, अपने दोस्त थे !"

कवयित्री की कारीगरी लुप्त होने लगी थी, उलझे फंदों के निकट न रास्ता था, न उम्मीद । हंसते,मुस्कुराते अचानक समय की कालकोठरी में कैद होकर बहुत डर लगा,
पर ---,

"एक युग के बाद 
किसी ने आकर 
वह बन्द कोठरी अचानक खोल दी!"
बिल्कुल उस कारावास की तरह,जहाँ से हरि गोकुल की तरफ बढ़े ।

"धूल की चादर हटाते सहसा
वही महकता गुलाब दिखा
जिसे बरसों पहले मैंने
झुंझला कर
दफ़न कर दिया था..."

आह, सांसें चल रही थीं, सिरहाने के पास रखी मेज पर सपनों की सुराही रखी थी, अंजुरी भर सपनों को पीया और बसंत होने लगी ।
क्योंकि,
"सोच का स्वेटर
बचपन से बुना"
बेढब ही सही ---
"आदत है बुनने की
रुकती ही नहीं
-,बस ... बुने ही जाती है ।

कितने अनचाहे, चाहे, 
अनजाने, जाने, रास्ते मिले
किसी के आंसुओं में गहरे धंसी-फंसी,
कहीं बुझा चूल्हा देखा,
कहीं चीख,कहीं विलाप
कहीं छल, कहीं विश्वास ... न बुनती तो आज यहाँ न होती यह लड़की, जो पत्नी,माँ, नानी-दादी,...के दायित्वों को निभाते हुए,सपनों की सुराही से कड़वे-मीठे घूंट भरती गई, शब्दों के कंचे चुनती गई और बना दिया ताना-बाना .......

क्रमशः

सोमवार, 20 जुलाई 2020

ताना_बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 6



ताना_बाना”  — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा  6


रास्ते मुड़ सकते हैं
हौसले नहीं
वादे टूट सकते हैं
हम तुम नहीं ....
कोई ना थी मंजिल
न था कारवां
अजनबी सा लगता रहा
सारा जहाँ
कारवां खो सकता है
मंजिलें नहीं
राहें रुक सकती हैं
हम तुम नहीं ...
रात भर दर्द रिसता रहा
मोम की तरह पिघलता रहा
तुम जो आए जीने की चाह जग उठी
नाम गुम हो सकता है
आवाजें नहीं
रिश्ते गुम हो सकते हैं
हम तुम नहीं ...! ...महीनों का फ़लसफ़ा रहा यह ताना-बाना मेरी कलम से । टुकड़े टुकड़े पढ़ती गई, जीती गई - शब्द शब्द भावनाओं को, रेखाओं को ।
निःसंदेह, किसी एक दिन का परिणाम नहीं यह ताना-बाना । बचपन,यौवन,कार्य क्षेत्र, सामाजिक परिवेश, रिश्तों के अलग अलग दस्तावेज,क्षणिक विश्वास, स्थापित विश्वास, और आध्यात्मिक अनुभव है यह लेखन ।
कई बार ज़िन्दगी घाटे का ब्यौरा देती है और कई बार सूद सहित मुनाफ़ा -"बेटी तो आज भी
उतनी ही अपनी थी,
ब्याज में एक बेटा..."कुछ भी यूँ ही नहीं होता" प्रयोजन जाने बग़ैर हम अशांत हो उठते हैं, लेकिन कोई भी प्रयोजन एक मार्ग निश्चित करता है । जैसे कवयित्री का मार्ग दृष्टिगत है ..."हवा का झोंका
हौले से छूकर गुजर गया
...
सौगातें छोड़ गया"

क्रमशः


रविवार, 19 जुलाई 2020

"ताना- बाना”— मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 5


 घर घर खेलते हुए
धप्पा मारते हुए,
किसी धप्पा पर चौंक कर मुड़ते हुए,
कब आंखों में सपने उतरे,
कब उनका अर्थ व्यापक हुआ -
यह तब जाना,
जब एक दिन आंसुओं की बाढ़ में,
शब्दों की पतवार पर मैंने पकड़ बनाई
और कागज़ की नाव लेकर बढ़ने लगी
---...... यह ताना-बाना और कुछ नहीं, कवयित्री उषा किरण के मन की वही अग्नि है, जिसके ताप और पानी के छींटे से मैं गुजरी हूँ ।"एक कमरा थकान का
एक आराम का
.... एक चैन का !"जाना-,
कोई भी रिश्ता सहज नहीं होता, सहज बनाना होता है या दिखाना होता है ।"रिश्ते मिट्टी में पड़े बीज नहीं
जो यूँ ही अंकुरित हो उठे...""स्वयं अपने, हम हैं कहाँ ?
....सम्पूर्ण होकर भी
घट रीता !"फिर, बावरा मन या वह - कहती जाती है,"पकड़ती हूँ
परछाइयाँ,
बांधती हूँ गंध
पारिजात की !"उसे पढ़ते हुए मेरे ख्याल पूछते हैं, क्या सच में गंध पारिजात की या उस लड़की की जिसने परछाइयों को अथक बुना ...।

क्रमशः

शनिवार, 18 जुलाई 2020

"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 4


                   
ज़िन्दगी को आकार में ढालते, तराशते हुए, हम जाने किस प्रयोजन के चक्रव्यूह में उलझ जाते हैं, निकलते हुए वह विराट कई सत्य प्रस्तुत करता है और सिरहाने रखी एक डायरी,एक कलम अनकही स्थिति की साक्षी बन जाती है और वर्षों बाद खुद पर जिल्द चढ़ा ... लिख देती है ताना-बाना ।
"वो जो तू है
तेरा नूर है
तेरी पनाहों में
मेरा वजूद है"

एहसासों के फंदों के मध्य एकलव्य भी रहा, एक अंगूठा देता हुआ,एक अपनी और द्रोण की जिजीविषा को अर्थ देता हुआ ...
और कोई,
अंगूठे को काटता हुआ ।

प्रश्नों के महासागर में डूबता-उतराता हृदय चीखता है,

"कहो पांचाली !
अश्वत्थामा को
क्यों क्षमा किया तुमने?"

"(नदी)
क्यूँ बहती हो ?
कहाँ से आती हो,
कहाँ जाती हो?"

मन की गति मन ही जाने ...
"बार-बार
हर बार
समेटा
सहेजा
संभाला
और ...
छन्न से गिर के
टूट गया !"

क्रमशः


"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 3

      





ताना-बाना
उषा किरण
शिवना प्रकाशन

दो आंखों की सलाइयों पर एक एक दिन के फंदे डाल मन कितना कुछ बुनता है,उधेड़ता है ...गिरे फंदों को सलीके से उठाने की कोशिश में जाने कितनी रातें आंखों में गुजारता है ... दीवारों से बातें करता है, खामोश रातों को कुरेदता है, 'कुछ कहो न'

"एक बार तो मिलना होगा तुम्हें
और देने होंगे कई जवाब
...क्यों बर्दाश्त नहीं होता तुमसे
छोटा सा भी टुकड़ा धूप का-
हमारे हिस्से का ?"

सफ़र छोटा हो या बड़ा, कुछ अपना बहुत अज़ीज़ छूट जाता है, या खो जाता है और बेचारा मन - अपनी ही प्रतिध्वनियों में कुछ तलाश करता है,

पर चीजें हों या एहसास - वक़्त पर कहाँ मिलती है !

"यूँ ही
तुम मुझसे बात करते हो
यूँ ही
मैं तुमसे बात करती हूँ..."

गहराई न हो तो कोई भी बुनावट कोई शक्ल नहीं ले पाती ।

लहरों का क्या है,

"लड़ती है तट से
सागर मौन ही रहता है"

यह अहम भी बड़ी अजीब चीज है, है न ?!

*****
लेखिका— रश्मिप्रभा

क्रमशः


"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 2

                   

मैंने पढ़ा, सिर्फ एक किताब ताना-बाना नहीं, बल्कि एक मन को । यात्रा सिर्फ शब्द भावों के साथ नहीं होती, उस व्यक्ति विशेष के साथ भी होती है, जिसे आपने देखा हो या नहीं देखा हो । अगर शब्दों को, भावों को जीना होता तो शायद मैं नहीं लिख पाती कुछ, मैंने उन पदचिन्हों को टटोला है, जिस पर पग धरने से पूर्व आदमी सिर्फ जीता ही नहीं, अनेकों बार मरता है ...
"थका-मांदा सूरज
दिन ढले
टुकड़े टुकड़े हो
लहरों में डूब गया
जब सब्र को पीते
सागर के होंठ
और भी नीले हो गए ...!"
ऐसा तभी होता है जब सौंदर्य में भी पीड़ा की झलक मिल जाए और यह झलक उसे ही मिलती है, जिसकी खिलखिलाहट में सिसकियों की किरचनें होती हैं ।
यूँ ही कोई बहादुर नहीं होता, बहादुरी का सबब उन छालों में देखो,जो मीलों तपती धरती को चीरकर चलता ही जाता है ... उस अद्भुत क्षितिज की तलाश में, जहाँ ख्वाबों का पौधा लगाया जा सके, जिसमें संभावनाओं के अनगिनत फलों के सपने होते हैं ।
कलम की अथक यात्रा किसी छांह को देखकर रुकती नहीं, विश्राम नहीं तलाशती - विश्वास है,
"जो मेरा है,
वो कहाँ जाएगा?"
और दो मुट्ठी आकाश को सीने से भींच लेती है, बहादुर लड़की जो ठहरी
"मनचाहा विस्तार किया
जब चाहा
पिटारी में रख लिया
तहा कर
एक टुकड़ा आसमान..."

क्रमशः


"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 1



जब कोई अपना बहुत प्रिय इस तरह आपकी किताब के साथ आपको भी पढ़े गुनगुनी चाय के सिप की तरह धीमे- धीमे बहुत विश्वास से और इतने प्यार से लिख अपना प्यार प्रेषित करे तो कहने को कहाँ रह जाता है कुछ ! रश्मिप्रभा जी आपको बहुत प्यार🥰पढ़िए आप भी क्या कहती हैं वे👇🌿🥀🌱

यह ताना-बाना अपने पूरे शबाब के साथ मुझे बहुत पहले मिला, यूँ लगा था किसी ने भावों का भावपूर्ण गुलदस्ता सजाकर मुझे कुछ विशेष वक़्त के मोड़ पर ले जाने को सज्य किया है । वक़्त के खास लम्हों में मुझे बांधने का अद्भुत प्रयास किया उषा किरण ने ।
उषा किरण, सिर्फ एक कवयित्री नहीं, रेखाओं और रंगों की जादूगर भी हैं । एक वह धागा, जो समय,रिश्ते,भावनाओं को मजबूती से सीना जानता है,उसे जीना जानता है । यह संग्रह उन साँसों का प्रमाण है, जिसे उन्होंने समानुभूति संग लिया । ऐसा नहीं कि विरोध के स्वर नहीं उठाए, ... उठाए, लेकिन धरती पर संतुलन बनाते हुए ।ॐ गं गणपतये नमः की शुभ आकृति के साथ अनुक्रम का आरम्भ है, तो निर्विघ्न सारी भावनाएं पाठकों के हृदय तक पहुँची हैं । परिचय उनके ही शब्दों में,
"क्या कहूँकौन हूँ ?
...उड़ानें बिन पंखों के जाने कहाँ कहाँ ले जाती हैं
 ...कौन हूँ ?"
क्या कहूँ ? परी या ख्वाब, दूब या इंद्रधनुष, ध्रुवतारा या मेघ समूह, ओस या धरती को भिगोती बारिश या बारिश के बाद की धूप ... पृष्ठ दर पृष्ठ जाने कितने रूप उभरते हैं ।       उषा का आभास सुगबुगाते हुए नए दिन का आगाज़ करता है, मिट्टी से लेकर आकाश की विशालता का स्पर्श करता है, अनदेखे,अनसुने,अनछुए एहसासों का प्रतिबिंब बन हृदय से कलम तक की यात्रा करता है और कुछ यूँ कहता है,
"सुनी है कान लगाकर
उन सर्द, तप्त दीवारों पेदफ़न हुई पथरीली धड़कनें ..
."शायद तभी,"हैरान, परेशान होकर पाँव ज़मीन पर रख..."एक मन-ढूंढने लगता है स्लीपर, ... ताकि  बुन सके क्रमिक ताना बाना
 क्रमशः


सोमवार, 4 मई 2020

पुस्तक समीक्षा- ताना बाना

मन की उधेड़बुन का खूबसूरत ‘ताना-बाना’ -
 ~लेखिका— गिरिजा कुलश्रेष्ठ~




जब कोई आँचल मैं चाँद सितारे भरकर अँधेरे को नकारने लगे , तूफानों को ललकारे , मुट्ठी में आसमान को भरने के स्वप्न देखने लगे ,जब कल्पना वक्त की निर्मम लहरों से चुराई रेत ,बन्द सीप ,शंख आदि बटोर कर अनुभूतियों का घर सजाने लगे, वेदना के पाखी शब्दों के नीड़ तलाशने लगें, लहरों और बादलों से बातें करे और कल्पनाओं की हीर अभिव्यक्ति के राँझे की तलाश में यहाँ वहाँ भटकने लगे , हृदय के शून्य को भरने की व्यग्रता वेदना बन जाये तब ताना-बाना जैसी कृति हमारे सामने आती है .
डा. ऊषाकिरण को जितना मैंने जाना है , इस पुस्तक से वह परिचय और प्रगाढ़ हुआ है . उनके सरल तरल स्नेहमय सुकोमल व्यक्त्तित्त्व का दर्पण है तानाबाना . यों तो वे मेरी आत्मीया हैं , मुझे बड़े स्नेह के साथ यह सुन्दर उपहार भेजा . इसलिये इसे पढ़ना और पढ़कर इसके विषय में कुछ कहना मेरा तो एक कर्त्तव्य भी है और एक जरूरी काम भी लेकिन वास्तव में यह किताब ही ऐसी है कि कोई अनजान भी इसे देख-पढ़कर मुग्ध हुए बिना न रहेगा . लगभग सौ कविताओं और इतने ही सुन्दर उनके खुद के रचे गए सुन्दर चित्रों से सजी यह ऐसी कृति नहीं कि जल्दी से पढ़ो और थोड़ा बहुत लिखकर मुक्त हो जाओ . इसमें गहरे पैठकर ही मोतियों का सौन्दर्य दिखाई देता है . कुमार विश्वास जी ने शुरु में ही लिखा है कि ऊषा जी कविता को चित्रात्मक नजरिया से देखतीं हैं और चित्रों कवितामय नजरिया से . यही बात उन्हें अन्य समकालीन लेखकों से अलग करती है .
संग्रह की पहली कविता ‘परिचय’ पढ़कर ही ऊषा जी के कद का पता चल जाता है जिसमें अनूठी उपमा और बिम्ब के साथ विविधवर्णी भाव हैं .’तुम होते तो’ एक बहुत प्यारी कविता है जिसमें हर भाव और सौन्दर्य-बोध किसी के होने न होने पर आधारित हैं . बहुत कोमल भाव . देखिये— .”..जब छा जाते हैं/ बादल घाटियों में / मन पाखी फड़फड़ता है/ ...पहुँचती नहीं कोई एक भी किरण /वहाँ घना कुहासा छाया है.....सारी किरणें जो ले गए तुम/ अपनी बन्द मुट्ठी में .”
हर रचना कवि के मन का दर्पण होती है . ऊषा जी अपनी हर रचना में पूरी ईमानदारी और सादगी के साथ मौजूद हैं .उनका भाव-संसार कोमल , अछूता , उदार और संवेदना से भरा हुआ है . वे कभी परछाइयों’ को पकड़कर कभी ‘पारिजात’ की गन्ध को बाँधकर और कभी ‘चाँद को थाली ‘ में उतारकर खुद को बहलाने की बात कहती हैं . यह बात कहने में जितनी सुन्दर है समझने में उतनी ही मर्मस्पर्शी है .वे शिकवे शिकायतों का बोझ लादे रहने की पक्षधर नहीं हैं . ‘मुक्ति’ कविता में बड़े प्रभावशाली तरीके से यह बात कही है –“आओ सब /,..करने बैठी हूँ हिसाब/ कब किसने दंश दिया/ किसने किया दगा/.... किसने ताने मारे /सताया किसने /...जब मन छीजा /तब किसका कंधा नहीं था पास/.. फाड़ रही हूँ पन्ना पन्ना /यह इसका /यह उसका./..आओ सब ले जाओ/ अपना अपना /मुक्त हुई मैं /...जाते जाते बन्द कर जाना दरवाजा /.....बहुत सादा सी लगने वाली यह कविता असाधारण है .दरवाजा बन्द करने में एक सुन्दर व्यंजना है . वे नदिया के साथ बहना चाहती हैं ( नदिया कविता ),मुट्ठी में आसमान भर लेना चाहती है ( एक टुकड़ा आसमान) हवाओं में गुम होना चाहतीं हैं खुशबू की तरह ...कहीँ सूफियाना रंग है तो कहीं शाश्वत जीवन-दर्शन .सुख और दुख का स्रोत हम स्वयं हैं ( हम कविता) क्षमताएं हमारे भीतर हैं . कस्तूरी कविता में यही बात है--- “हरसिंगार ,जूही /...महकती है सारी रात/ ....मेरे आँगन में/ ..या तकिये चादर में /...अरे यह खुशबू तो झर रही है /इसी तन-उपवन से/ ..दूर कबीर गा रहे हैं काहे री नलिनी....”
‘ताना-बाना’ में प्रेम और संवेदना के रंग सबसे गहरे हैं . ‘चौबीस-बरस’ और ‘क्यूँ’ कविताओं में प्रेम की वेदना बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुई है . रहस्यवाद से रची बसी ‘क्यूँ’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें—--“.....मैंने कहा था / क्या दोगे मुझे /...तुमने एक लरजता मोरपंख/ रख दिया मेरे होठों पर/ एक धूप बिखेर दी गालों पर /..एक स्पन्दन टाँक दिया वक्ष पर/ एक अर्थ बाँध दिया आँचल में /..तब से तुम्हें पुकार रही हूँ /..तुम कहीं नजर नहीं आते/... या कि हर कहीं नजर आते हो .”.
भाई को याद करते हुए लिखी ‘पतंग’ कविता बरबस ही आँखें सजल कर देती है—
“आज तुम नहीं /पर तुम्हारा स्पर्श हर कहीं है/ तुम्हारी खुशबू हवाओं में /.....तुम्हारी स्मृतियों की डोर आज भी मेरे हाथों में है /पर तुम्हारी पतंग /....कहीं दूर../ बहुत दूर निकल गई है भाई ..”
‘ताना-बाना’ का फलक बहुत व्यापक है .उसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता . उसमें यादें हैं फरियादें हैं , माँ का वात्सल्य है , बेटियों की उड़ानें हैं .शहीदों के लिये भावों के पुष्प हैं ,प्रेम की पीड़ा है , मुक्ति की प्रबल आकांक्षा है . ‘बहुत बिगड़ गई हूँ मैं’ और ‘पाप’ कविता में मुक्ति का सुखद अनुभव पाठकों को भी कुछ पलों के लिये जैसे मुक्त कर देता है . नारी के दमन शोषण की व्यथा-कथा के साथ उसे उठकर संघर्ष करने की प्रेरणा ‘तुम सुन रही हो ? और ‘सभ्य औरतें’ कविताओं में बोल नही रही , चीख रही है . ‘यूँ भी’ कविता अपने अस्तित्त्व को दबाने और उस पर पर प्रश्न लगाने वाली व्यवस्था को सिरे से नकारती है . गान्धारी के माध्यम से ऊषा जी ने व्यभिचारियों ,अत्याचारियों की माताओं को सही ललकारा है .
ऊषा जी की कल्पनाएं और बिम्ब मोहक हैं . कुछ उदाहरण देखें–-(1) “रात में /जुगनुओं को हाथ में लेकर /खुद को साथ लिये /..सात समुद्र तैर कर /धरती को पार कर / दूर चमकते मोती को/ मुट्ठी में बन्द कर लौटना .....”
(2) “सूरज को तकती/ सारे दिन महकती नीलकुँई/ साँझ ढले सूरज के वक्ष पर /...आँख मूँद सोगई ..”
(3) “तारों ने होठों पर /उँगली रख /हवा से कहा /धीरे बहो / उजली चादर ओढ़ अभी अभी/ सोई है सुकुमारी रात ..”
(4) “धूप –सुनहरी लटों को झटक/ पेड़ों से उछली/ खिड़की पर पंजे रख /सोफे पर कूदी /छन्न से पसर गई कार्पेट पर /...ऊधम नहीं ..मैं बरजती हूँ पर वह जीभ चिढ़ा खिलखिलाती है /..शैतान की नानी धूप ..”
(5) “थका-माँदा सूरज/ दिन ढले /टुकड़े टुकड़े /लहरों में डूब गया जब/ सब्र को पीते /सागर के होठ और भी नीले होगए .”
(6) “ हाथ में दिया लिये / जुगनू की सूरत में / गुपचुप / धरती पर आकर.../ किसे ढूँढ़ते हैं ये तारे  / मतवाले /”
ऊषा जी की स्वभावानुरूप ही भाषा कोमल और ताजगी भरी है . कहीं ‘नए नकोर प्रेम की डोर ‘ जैसे खूबसूरत प्रयोग भी हैं .
कुल मिलाकर ऊषा जी की यह पुस्तक अनूठी है . बार बार पढ़ने लायक . आधुनिक चित्रकला में हालांकि मेरी समझ कम है फिर भी इतना तो समझ सकी हूँ कि हर चित्र कविता का ही सुन्दर चित्रांकन हैं . हाँ एक बात विशेष रूप से कही जानी चाहिये कि पुस्तक का कलेवर बेहद खूबसूरत है . आवरण , पृष्ठ ,निर्दोष छपाई ..यह सब उत्कृष्ट है . जिसने कृति को अधिक सुन्दर और आकर्षक बना दिया  है . . शिवना प्रकाशन को इसके लिये बहुत बधाई . और ऊषा जी को तो क्या कहूँ . खुद को भगवान का गढ़ा हुआ डिफेक्टिव पीस कहने वाली डा. ऊषाकिरण को ईश्वर ने खूब तराशा है . बस यही कामना कि वे स्वस्थ रहें और सुन्दर कविताएं कहानियाँ लिखती रहें .
                                                                                       लेखिका- गिरिजा कुलश्रेष्ठ

गुरुवार, 12 मार्च 2020

ताना-बाना - पुस्तक- समीक्षा





लेखनी और तूलिका का मिलन...उषा किरण
============================

 ( लेखिका —ऋता शेखर मधु )

"कहते हैं एक चित्र हजार शब्दों की ताक़त रखता है। ऐसे में अगर चित्रों को दमदार शब्दों का भी साथ मिल जाए, तो फिर इस रचनात्मक संगम से निकली कृति सोने पर सुहागा ही है।" ये शब्द हैं सुविख्यात कवि कुमार विश्वास जी के...ज़ाहिर सी बात है कि आपके मन में भी यह सवाल उठ रहे होंगे कि कौन हैं वह जिनके कर- कमलों को माँ बागेश्वरी से लेखनी और तूलिका , दोनों का वरदान मिला। वे हैं हमारी प्यारी उषा किरण दी।  उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक *'ताना-बाना'* ने जब हमारे घर की चौखट पर कदम रखा तो मैं खुशी से फूली न समायी।  उस पल की अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे...love you उषा दी...झटपट पुस्तक पलटने लगी और सारे चित्रांकन देखकर बस एक ही शब्द निकलता रहा...वाह! फिर उनकी कविताएं, अनुभूतियां, अभिव्यक्ति पढ़ती गयी। चित्र पर कविताएँ थीं या कविताओं पर चित्र...कई बार यह प्रश्न उठता रहा। प्रथम चित्र गणपति को समर्पित है।आंखें, तुण्ड, उदर की बारीकियां मन मोहती रहीं। कविताओं की सँख्या 101...और हर एक कविता के लिए उनके बेमिसाल चित्र।
लेखन की बात करूँ तो प्रथम अभिव्यक्ति *परिचय* अद्भुत है। कवयित्री ने लिखा...*पूछते हो कौन हूँ मैं,क्या कहूँ कौन हूँ? शायद...भगवान का गढ़ा एक डिफेक्टिव पीस- जिसमें जल आकाश हवा तो बहुत हैं पर आग और मिट्टी बहुत कम* सिर्फ इन पंक्तियों की ही व्याख्या की जाए तो भाव की सीमा को शब्दों में बाँधना मुश्किल हो जाएगा। उसके आगे की पँक्तियाँ जाने कितना कुछ समेटने में सफल हैं।
 *सुनी है* कविता में राजस्थान को बहुत खूबसूरती से समेटा गया है। शुरू की चंद पँक्तियाँ अवश्य उत्सुकता जगाएँगी कि आगे क्या लिखा होगा....*सुनी है कान लगाकर उन सर्द, तप्त दीवारों पे दफ़न हुई वे पथरीली धड़कनें,वे काँपती सिसकियाँ और खिलखिलाहटें* ....और कविता के अंत में यह कहना कि ...*वापिस लौट तो आयी पर एक छोटा -सा राजस्थान आ गया है संग मेरी धड़कनों में...! रचनाकार का सृजन के प्रति समर्पण का दर्पण है। एक नन्हीं सी कविता *सब्र* ने एक उपन्यास ही गढ़ दिया है...* थका मांदा सूरज दिन ढले टुकड़े-टुकड़े हो लहरों में डूब गया जब, सब्र को पीते सागर के होंठ और भी नीले हो गए...!* कविता *एक दिन* पर की गई चित्रकारी अद्भुत है। चित्रकार की कल्पनाशीलता की प्रशंसा करनी पड़ेगी। कविता *मन्नत* में उन्होंने प्रभु के सामने जो इच्छाएँ व्यक्त की हैं वह उनके वसुधैव कुटुम्बकम के भाव की झलक दिखा रहा।
कविता *सुन रही हो न* में कवयित्री की संवेदनशीलता मर्म को छू लेने वाली है। नारी विमर्श पर यह कविता नारी को प्रेरित कर रही है कि सशक्त बनने की ओर पहला कदम उसे स्वयं उठाना होगा। कोई उसकी मदद तभी कर सकता है जब वह स्वयं अपनी बेड़ियों को काट डाले। इस अभिव्यक्ति पर किया गया रेखांकन भी सहज रूप से दिल में उतर रहा। किसी दर्द को जीवन से जोड़ देने की कला का परिचय *रुट-कैनाल* में मिलता है। कवयित्री ने दार्शनिक अन्दाज में सटीक लिखा,"एक छोटे दाँत ने सिखा दिया बरसों से पाले दर्दों से मुक्ति का रास्ता"।

विभिन्न भाव पर रची गयी कुल 101 कविताओं को पढ़कर ही जाना जा सकता है कि कवयित्री में कोमलता, विचार, संस्कार, आक्रोश, प्रश्न, प्यार...हर भाव में लेखनी की प्रखर गूँज है और श्वेत श्याम रेखाचित्र आँखों को सुकून देने वाली कलाकृतियाँ हैं। हार्ड बाइन्ड की पुस्तक आकर्षक कलेवर में है। आगे भी उषा किरण जी की कृतियाँ हमारे समक्ष आएँ , इसके लिए दिल से शुभकामनाएं।
आपका सुनहरी स्याही से अंकित स्वहस्ताक्षरित शुभकामना संदेश एवं साथ में चित्रांकन हमारे लिए अमूल्य हैं 🙏🌹🌹

पस्तक का नाम: ताना-बाना
मूल्य:450/-
प्रकाशक:शिवना प्रकाशन, सीहोर (म0 प्र0)


बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

पुस्तक समीक्षा —बाना -बाना





रश्मि कुच्छल की प्रतिक्रिया ताना-बाना पर—
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इस सफरनामे का आवरण ही लेखिका यानी  डॉ . उषाकिरण दी का व्यक्तित्व है ,घनी कालिमा को चीरकर उभरता सुनहरा सूरज ।
रेखाओं की चितेरी जादू भरी उंगलियां कब इन रेखाओं को शब्द बना देती हैं और कब ये कवितायों की भावभूमि के उड़ते मेघ से कागज पर चित्र बनकर उतर आते हैं ,ये अद्भुत संयोजन और कारीगिरी इस किताब को विशेष बनाती है व दीदी को एक विशिष्ट गरिमामयी काव्यचित्र संकलन "ताना - बाना " की जननी ।
स्त्री मन की नजर से जीवन के हर रंग को छूती , विषाद, विसंगति और विडंबनाओं पर तंज करती , कभी निरुपाय तो कभी दृढ़ होकर राह बनाती हर कविता उनके नजरिये से मिलवाती है ।
आज कुछ कविताओं से रूबरू होते हुए एक कविता पर रुक गयी हूँ ।
आप सबके लिए ---🙏😊

ताना- बाना ( पुस्तक समीक्षा)





लेखिका— रन्जु भाटिया






ताना बाना ( काव्यसंग्रह )

सुन लो           

जब तक कोई

आवाज देता है

क्यूँ कि...

सदाएं  एक वक्त के बाद

खामोश हो जाती हैं

और ख़ामोशी ....

आवाज नहीं देती!!

   डॉ उषा किरण


कितनी सच्ची पंक्तियां है यह। हम वक़्त रहते अपने ही दुनिया मे रहते हैं बाद में पुकारने वाली आवाज़ों को सुनने की कसक रह जाती है । शब्दों का यह "ताना बाना" ,ज़िन्दगी को आगे चलाता रहता है । यही सुंदर सा शब्दों का" ताना बाना "जब मेरे हाथ मे आया तो घर आ कर सबसे पहले मैने इसमें बने रेखाचित्र देखे ,जो बहुत ही अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे , कुछ रचनाएं भी सरसरी तौर पर पढ़ी ,फिर दुबई जाने की तैयारी में इसको सहज कर रख दिया ।
     यह सुंदर सा "काव्यसंग्रह "मुझे "उषा किरण जी" से इस बार के पुस्तक मेले में भेंटस्वरूप मिली । उषा जी 'से भी मैं पहली बार वहीं मिली ,इस से पहले फेसबुक पर उनका लिखा पढ़ा था और उनके लेखन से बहुत प्रभावित भी थी । क्योंकि उनके लेखन में बहुत सहजता और अपनापन सा है जो सीधे दिल मे उतर जाता है ।
     पहले ही कविता "परिचय " में वह उस बच्ची की बात लिख रही हैं जो कहीं मेरे अंदर भी मचलती रहती है ,
नन्हे इंद्रधनुष रचती
नए ख्वाब बुनती
जाने कहाँ कहाँ ले जाती है
उषा जी ,के इस चित्रात्मक काव्य संग्रह में बेहद खूबसूरत ज़िन्दगी से जुड़ी रचनाएं हैं ।जो स्त्री मन की बात को अपने पूरे भावों के साथ कहती हैं । औरत का मन अपने ही संसार मे विचरण करता है ,जिसमे उसकी वो सभी  भावनाएं हैं जो दिन रात के चक्र में चलते हुए भी उसके शब्दों में बहती रहती है और यहां इन संग्रह में तो शब्दों के साथ रेखांकित चित्र भी है जो उसके साथ लिखी कविता को एक  सम्पूर्ण अर्थ दे देते हैं जिसमे पढ़ने वाला डूब जाता है।
डॉ उषा जी के इस संग्रह को पढ़ते हुए मैंने खुद ही इन तरह की भावनाओं में पाया , जिसमे कुछ रचनाएं प्रकृति से जुड़ी कर मानव ह्रदय की बात बखूबी लिख डाली है ,जैसे सब्र , कविता में
थका मांदा सूरज
दिन ढले
टुकड़े टुकड़े हो
लहरों में डूब गया जब
सब्र को पीते पीते
सागर के होंठ
और भी नीले हो गए

पढ़ते ही एक अजब से एहसास से दिल भर जाता है। ऐसी ही उनकी नमक का सागर ,बड़ा सा चाँद, एक टुकड़ा आसमान, अहम ,आदि बहुत पसंद आई । इन रचनाओं में जो साथ मे रेखाचित्र बने हुए है वह इन कविताओं को और भी अर्थपूर्ण बना देते हैं।
   किसी भी माँ का सम्पूर्ण संसार उनकी बेटियां बेटे होते हैं , इस संग्रह में उनकी बेटियों पर लिखी रचनाएं मुझे अपने दिल के बहुत करीब लगी
बेटियां होती है कितनी प्यारी
कुछ कच्ची
कुछ पक्की
कुछ तीखी
कुछ मीठी
वाकई बेटियां ऐसी ही तो होती है ,एक और उनकी कविता मुनाफा तो सीधे दिल मे उतर गई ,जहां बेटी को ब्याहने के बाद मुनाफे में एक माँ बेटा पा लेती है। जो रचनाएं आपके भी जीवन को दर्शाएं वह वैसे ही अपनी सी लगती है । लिखने वाला मन और पढ़ने वाला मन  कभी कभी शायद एक ही हालात में होते हैं । कल और आज शीर्षक से इस संग्रह की एक और रचना मेरे होंठो पर बरबस मुस्कान ले आयी जिसमे हर बेटी छुटपन में माँ की तरह खुद को संवारती सजाती है ,कभी माँ के सैंडिल में ,कभी उसकी साड़ी में , और इस रचना की आखिरी पँक्तियाँ तो कमाल की लगी सच्ची बिल्कुल
आज तुम्हारी सैंडिल
मेरी सैंडिल से बड़ी है
और .....
तुम्हारे इंद्रधनुष भी
मेरे इंद्रधनुष से
बहुत बड़े हैं !
इस तरह कभी बेटी रही माँ जब खुद माँ बनती है तो मन के किसी कोने में छिपी आँचल में मुहं दबा धीमे धीमे हंसती है  ( माँ कविता )
बहुत सहजता से उनके लिखे इस संग्रह में रोज़मर्रा की होने वाली बातें , शरीरिक दर्द जैसे रूट कैनाल में बरसों से पाले दर्दों से मुक्ति का रास्ता सिखला देती है ।
इस संग्रह की हर रचना पढ़ने पर कई नए अर्थ देती है । मुझे तो हर रचना जैसे अपने मन की बात कहती हुई लगी । पढ़ते हुए कभी मुस्कराई ,कभी आंखे नम हुई । सभी रचनाओं को यहां लिखना सम्भव नहीं पर जिस तरह एक चावल के दाने से हम उनको देख लेते है वैसे ही उनकी यह कुछ चयनित पँक्तियाँ बताने के लिए बहुत है कि यह संग्रह कितना अदभुत है और इसको पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता है ।
"ताना बाना "डॉ उषा जी का यह संग्रह  इसलिए भी संजोने लायक है ,क्योंकि इसमें  बने रेखाचित्रों से भी पढ़ने वाले को बहुत जुड़ाव महसूस होगा  ।
  डॉ उषा जी से मिलना भी बहुत सुखद अनुभव रहा । जितनी वो खुद सरल और प्यारी है उनका लिखा यह संग्रह भी उतना ही बेहतरीन है । अभी एक ग्रुप में जुड़ कर उनकी आवाज़ में गाने सुने ,वह गाती भी बहुत सुंदर  हैं । ऐसी प्रतिभाशाली ,बहुमुखी प्रतिभा व्यक्तित्व के लिखे इस संग्रह को जरूर पढ़ें ।
धन्यवाद उषा जी इस शानदार काव्यसंग्रह के लिए और आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं

ताना बाना
डॉ उषा किरण
शिवना प्रकाशन
मूल्य 450 rs

मुँहबोले रिश्ते

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