ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

पुस्तक समीक्षा —बाना -बाना





रश्मि कुच्छल की प्रतिक्रिया ताना-बाना पर—
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इस सफरनामे का आवरण ही लेखिका यानी  डॉ . उषाकिरण दी का व्यक्तित्व है ,घनी कालिमा को चीरकर उभरता सुनहरा सूरज ।
रेखाओं की चितेरी जादू भरी उंगलियां कब इन रेखाओं को शब्द बना देती हैं और कब ये कवितायों की भावभूमि के उड़ते मेघ से कागज पर चित्र बनकर उतर आते हैं ,ये अद्भुत संयोजन और कारीगिरी इस किताब को विशेष बनाती है व दीदी को एक विशिष्ट गरिमामयी काव्यचित्र संकलन "ताना - बाना " की जननी ।
स्त्री मन की नजर से जीवन के हर रंग को छूती , विषाद, विसंगति और विडंबनाओं पर तंज करती , कभी निरुपाय तो कभी दृढ़ होकर राह बनाती हर कविता उनके नजरिये से मिलवाती है ।
आज कुछ कविताओं से रूबरू होते हुए एक कविता पर रुक गयी हूँ ।
आप सबके लिए ---🙏😊

1 टिप्पणी:

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