ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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बुधवार, 14 जून 2023

शान्ति निकेतन, सोनाझुरी- हाट और बाउल गीत





शांति निकेतन, कोलकाता से लगभग 180 किमी. दूर बीरभूम जिले के बोलपुर में स्थित है। शांतिनिकेतन की स्थापना देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। बाद में ये जगह उनके बेटे रविन्द्रनाथ टैगोार की वजह से मशहूर हो गई। रविन्द्रनाथ टैगोर ने पथ भवन की शुरूआत की। इस स्कूल में शुरू में 5 बच्चे पढ़ने आए। उन्होंने प्रकृति के बीच कक्षाओं को चलाने का अनोखा तरीका शुरू किया। बाद में इस स्कूल का नाम विश्व भारती यूनिवर्सिटी हो गया। आज कौन ऐसा व्यक्ति है जिसने शान्ति निकेतन का नाम न सुना होगा।

कलकत्ता जाने पर हम लोगों ने जब दो दिन के लिए शान्तिनिकेतन जाने का प्रोग्राम बनाया तो कुछ लोगों ने कहा कि शांति निकेतन और बंगाली माहौल को देखना है तो आपको सोनाझुरी हाट जरूर देखना चाहिए। सोनाझुरी  हाट के नाम से प्रसिद्ध यह हाट हर शनिवार को खोई नदी के तट पर लगती है। शनिवार को ही हम लोग शान्ति निकेतन पहुँचे थे तो खाने के बाद आराम करके शाम को हाट के लिए निकल लिए। यह एक खुला बाजार है जहां हम आदिवासी वस्तुओं और कई अन्य सामान खरीद सकते हैं। इसमें ग्रामीण इलाकों से आर्टिस्ट आते हैं और अपने हाथों से बनाए सामान बेचने के लिए लाते हैं । यहाँ आदिवासियों द्वारा बनाई बहुत सुन्दर पेटिंग्स भी बहुत कम दाम पर बिकने के लिए आई हुई थीं। हमने भी कॉपर के तारों से बनी दुर्गा जी व गणेश जी की दो छोटी पेंटिंग खरीदी। कान्था कढ़ाई की सा़ड़ियाँ भी बिकती देख एक हमने भी खरीद ली। 

कुछ संथाल जनजाति के लोग समूह में गाते हुए डांस कर रहे थे तथा कुछ स्थानीय बाउलों द्वारा गाए जाने वाले अद्भुत गान को सुन कर मैं मुग्ध होकर थम गई। पैरों को जैसे किसी ने जकड़ लिया हो। मन आनन्दमिश्रित करुणा से भीग गया। कैसी साधना होगी इस गायन के पीछे लेकिन एक कपड़ा बिछा कर जिस पर चन्द सिक्के व रुपये पड़े थे हरेक आने- जाने वालों पर गाते हुए आशा भरी करुण दृष्टि डालने वाले ये कलाकार कितनी बदहाली में जीते होंगे। देश - विदेश में जब भी मैं किसी को गा बजाकर भीख माँगते देखती हूँ तो मेरा कलेजा मुँह को आता है।बहुत ही कष्ट होता है लगता है काश…..!

बाउल के गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं।बाउल, बंगाल की तरफ लोकगीत गाने वालों का एक ग्रुप होता है। ये बाउल धार्मिक रीति रिवाजों के साथ गीतों का ऐसा सामंजस्य बिठाते  है की ये लोकगीत सुनने लायक होते है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग या तो हिन्दू वैष्णव समुदाय से ताल्लुक रखते हैं या फिर मुस्लिम सूफ़ी समुदाय से। कहा जाता है कि संगीत ही बाउल समुदाय के लोगों का धर्म है। उन्हें अक्सर उनके विशिष्ट कपड़ों और संगीत वाद्ययंत्रों से पहचाना जा सकता है। बाउल संगीत का रवींद्रनाथ टैगोर की कविता और उनके संगीत (रवींद्र संगीत) पर बहुत प्रभाव था।

ऐसा भी कहते हैं कि बाउल संगीत का मुख्य उद्देश्य अलग अलग जाति, समुदाय धर्म के लोगों को एक कर संगीत के द्वारा उनमें एकता का संचार करना है।ये गायक भगवा वस्त्र धारण किये हुए होते हैं। इनके बाल बड़े होते हैं जिन्हें ये खुले रखते हैं या जूड़ा बांधते हैं। ये लोक गायक हमेशा तुलसी की माला और हाथों में इकतारा लिए हुए होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय भी संगीत है, ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूम घूम के लोक गीत गाते हैं और उससे प्राप्त पैसों से गुज़र बसर करते हैं। केंडुली मेले के ही दौरान ये सभी लोग अपनी भूमि पर जमा होते हैं और बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ अपना ये खूबसूरत पर्व मनाते हैं। 

बाउल के दो वर्ग हैं: तपस्वी बाउल जो पारिवारिक जीवन को अस्वीकार करते हैं और बाउल जो अपने परिवारों के साथ रहते हैं। तपस्वी बाउल पारिवारिक जीवन और समाज का त्याग करते हैं और भिक्षा पर जीवित रहते हैं। उनका कोई पक्का ठिकाना नहीं है, वे एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में चले जाते हैं ।

सेनाझुरी हाट का सबसे बड़ा हासिल था बाउल गान से प्रेम, जो आज भी आँखें बन्द करते ही मेरे कानों में गूँजने लगता है। और इस प्रेम के चलते अब तक तो मैं यूट्यूब पर ढूँढ कर न जाने कितने बाउल गीत सुन चुकी हूँ ।

                            — उषा किरण 🌿🍂🍃🎋

बुधवार, 20 जुलाई 2022

यादों की पोटली से

 


कहानी सुनाना भी एक कला है और इस विद्या में हम बचपन में बहुत निपुण थे। एक बार हम और  अम्माँ 1977 में ग़ाज़ियाबाद में एक मूवी देख कर आए 

"यही है ज़िंदगी “।

हमें संजीव कुमार की एक्टिंग बहुत पसन्द थी बेशक संजीव कुमार खुद पसन्द नहीं थे।इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान में लड़ाई होती है ,जब वो पूजा में रखे पैसों को पत्नि से छिपा कर चोरी कर लेते है। कृष्ण भगवान उनका  हाथ पकड़ लेते हैं कि ये तो मेरे पैसे हैं तुम नहीं ले जा सकते। दोनों में बहस होती है और अन्तत: संजीव कुमार कहते है कि यदि मेरे पास खूब पैसा हो तो मैं जीवन की सारी ख़ुशियाँ खरीद सकता हूँ। भगवान मुस्कुरा कर कहते हैंकि तुमको पूरा विश्वास है कि तुम पैसों से सारी ख़ुशियाँ खरीद सकते हो ? अभी देखो तुम्हारा परिवार कितना खुशहाल है सब प्रेम से रहते हो ( उस जमाने में कई फ़िल्मों में दिखाई देता था कि ख़ुशियाँ व पैसा साथ नहीं रह सकते )।

पर वह बहस करते हैं तो भगवान कहते हैं कि ठीक है मैं तुमको खूब अमीर बना देता हूँ और फिर हम और तुम बाद में फिर बात करेंगे।

सहसा संजीव कुमार बहुत रईस हो जाते हैं और धीरे- धीरे बच्चे बिगड़ जाते हैं। घर की सुख- शान्ति, सेहत सब समाप्त हो जाती है। जहाँ पहले सारा परिवार एक थाली में प्यार से रूखी- सूखी प्रेम से खाते थे अब टेबिल व्यन्जनों से भरी है पर किसी के पास खाने का वक्त नहीं है।संजीव कुमार की पत्नि बनी सीमा देव बहुत  व्यथित होती हैं। फिर संजीव कुमार पछताते हैं, दुखी होते हैं और अन्त में सब कुछ छोड़कर कहीं शायद आश्रम में पत्नि के साथ चले जाते हैं

इसमें संजीव कुमार और कृष्ण भगवान के मध्य हुई नोंक- झोंक बहुत  मजेदार थी जो बीच-बीच में चलती रहती थी। कृष्ण भगवान मुस्कुरा कर कभी भी टपक जाते हैं और कटाक्ष करते हैं ।संजीव कुमार एग्रेसिव होकर कृष्ण भगवान से खूब ऐंठ कर जवाब देते हैं।

तो हमने घर आकर भैया और छोटी बहन नीरू को डायलॉग व एक्टिंग सहित पूरी कहानी खूब मजे लेकर सुनाई। हमें कहानी सुनाने का खूब शौक भी तब तक था ही। भैया को सुन कर बहुत मजेदार लगी। 

"चल नीरू हम भी देख कर आते हैं “ कह कर वो और नीरू तुरन्त उसी दिन पास में चौधरी थियेटर में वो मूवी देखने चले गए।

तीन घन्टे बाद जब वो आए तो हमने लपक कर पूछा कैसी लगी ? भैया झुँझला कर बोला-

" खाक लगी…कुछ भी छोड़ा था तुमने बताने से जो देखने में मजा आता।सारे डायलॉग्स तक तो पता थे… ये तक तो पता था कि डायनिंग टेबिल पर क्या- क्या डिश सर्व हुई थीं!” 

वो दोनों पैर पटकते अन्दर चले गए और हम खड़े सिर खुजा रहे थे कि हमारी क्या गल्ती थी ।

                            —उषा किरण 


मंगलवार, 22 मार्च 2022

जब फागुन रंग झमकते थे



बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।

प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 

हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 

छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।

रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और बाकी सहेलियों से मिलने निकल जाते। 

रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो’ गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार यही कहते।

गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आते। साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।

पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज कर सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' लला सन्त’ आ रहे हैं ।

पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते, परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था। उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा, जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।

अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बेटी और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको और सबसे खूब पाती भी थीं। 

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -"हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कछु खबाती-पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी ! का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !”  अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 

एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं - "ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्नर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुँक जाता , हम छनछनाते-बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं `अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।’

             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।

गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा, कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।ताऊ जी के हुक्के से सबकी नजर बचा कर दो-चार सुट्टे भी मार लेते। उसकी गुड़गुड़ाहट से पेट में हिलोर उठती तो बहुत मजा आता। कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 

बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने ,मानती कहाँ थीं !”

गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज़ें वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 

सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता,  जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते, जल देकर परिक्रमा करते और लोटे में आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं, होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए। परन्तु कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा छुपता- छुपाता आधी रात ही होली में लपट दिखा देता। बस सारे गाँव में तहलका मच जाता। लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,धोती , पजामे संभालते ,आँखे मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लपड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ , अरे ददा रे काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’ गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।

दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ अबै नाय…कढाई से दूर...!’

पर हम लोग दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।

गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती, गले में ढोल लटका गाते बजाते। गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ परन्तु क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।

दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ। हम सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा भाँग से भी ज्यादा चढ़ता है।रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।

कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे । पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी वहाँ जाने का विशेष आकर्षण होती थी। जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।

मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे। मामा जी रंग, गुलाल की व्यवस्था खूब मन से करते थे और एक दिन पहले टेसू के फूलों को उबाल कर केवड़ा मिला कर बड़े- बड़े देगों में सुगन्धित, पीला-  सुनहरा रंग तैयार करते हुए हम लोगों को टेसू के पानी के औषधीय गुण भी बताते। 

हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल-बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे और इनाम माँगते थे। पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी ।हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?

आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं। अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-गमकते थे। लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें, वो आशीषों भरे हाथ, वो खान- पान का वैभव, वो नाच-गानों संग मस्ती, उमंग…सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे। सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

रीपोस्ट


                                  —उषा किरण

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...