ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुस्तक समीक्षा

शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-




 शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-


रविवार, 26 फ़रवरी 2023

पुस्तक- समीक्षा:- दर्द का चंदन





 समीक्षा : "दर्द का चंदन "

लेखिका : डॉ० उषा किरण

जब आशियाने का शहतीर साथ छोड़ देने वाली स्थिति में हो और उसी समय टेक  बने नए लट्ठों में भी घुन लग जाए तब विश्वास की नींव की ईटों को दरकने से कौन रोक सकता है ? आशियाना संभलेगा या बिखरेगा ,बिखरेगा तो कितना कुछ काल के हाथों में होगा और कितना वहां रहने वालों के हाथों में ? इन्हीं सवालों को लिये इस उपन्यास की कहानी चलती है।

  उपन्यास ," दर्द का चंदन " जिसे  लिखा  है चित्रकार व साहित्यकार डॉ ० उषा किरण जी ने । यह उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक है इससे पूर्व इनका "ताना - बाना" नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है जिसमें कविताओं के साथ लेखिका के स्वयं के द्वारा बनाए गए रेखाचित्र भी हैं।

 इस  उपन्यास का आकर्षक आवरण- चित्र भी लेखिका द्वारा ही चित्रित है। चित्रकार व साहित्यकार दोनों के भावों को लिए यह उपन्यास लेखिका के जीवन -संघर्ष , अपने भाई के प्रति असीम प्रेम,  ईश्वर के प्रति आस्था ,जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण लिए आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करते हुए, झेले गए कष्टों व पीड़ाओं  की  कहानी है। जहाँ एक ओर  हर रोज मृत्यु की ओर बढ़ते अपने से दूर होते जाते अपने पिता को  देखना वहीं फिर दूसरी ओर  बहन-भाई का एक-एक करके  कैंसर जैसी मौत का पर्याय मानी जाने वाली घातक बीमारी की चपेट में आ जाना पाठक को उस स्थिति से अवगत कराता है जब हम परिस्थितियों के जाल में फंसे कठपुतली से नाचते हैं। पीड़ाओं की स्मृतियों को आकार देने में मन बिलख पड़ता होगा तभी दर्द कविता बनकर दिल से बह उठी है, इसलिए लेखिका ने हर अध्याय के आरंभ में कविता की पंक्तियाँ भी संजोई हैं जिनमें से एक अंश-

          जीवन की इस चादर में

          सुख-दुःख के ताने-बाने हैं

          कुछ कांटे कुछ फूल गूंथे

          कुछ धूप-छांव और बारिश है

          थिरकती हम सब कठपुतलियाँ

          और धागे बाजीगर ने थामे है !!

 यह उपन्यास लेखिका व उनके प्रिय छोटे भाई दोनों को हुई कैंसर जैसी प्राणघाती बीमारी से जूझने और दर्द को सहते चंदन मानकर जीवन तपस्या में रत रहकर एक दूसरे को  हौंसला देते, माथे पर दर्द को चंदन सा धारण  कर हार या जीत तक लड़ते रहने की एक प्रेरणा ज्योति है। 

कैंसर के साथ इस युद्ध में  हार या जीत होनी तय थी । दोनों में से कौन किस-किस तरह  कैंसर के जाल से  खुद को निकाल कर जीत गया और यदि जो हारा भी तो औरों को जीने का नया दार्शनिक दृष्टिकोण देकर गया। जीतने वाले ने जीतकर भी क्या - क्या खोया जिसकी भरपाई कभी न हो सकी । ऐसे अनेक सवालों के साथ उनका जवाब पाते पाठक उपन्यास को नम आंखो से पढ़ता जाता है। 

यह उपन्यास अनेक लोगों को जो कैंसर या अन्य किसी भी प्राणघातक बीमारी या दुश्वार परिस्थितियों से पीड़ित हैं या घिरे हैं या उनका कोई अपना इससे दो-दो हाथ कर रहा हो  उनमें जीवन के प्रति एक नई उम्मीद जगाता है और नाउम्मीदी में भी जीवन के मर्म को समझने के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है ।

लेखिका ने बेहद सरल, सहज, दैनिक जीवन की आम बोलचाल की भाषा में कैंसर के लक्षण , कारण और उपचार के विभिन्न चरणों और उस दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनसे उबरने के लिए वैज्ञानिक ( चिकित्सीय उपचार ) व भावनात्मक दोनों तरह के उपचार का वर्णन उपन्यास में किया है ।

उपन्यास न केवल कैंसर जैसी घातक बीमारी व उससे लड़ने वालों की मनोदशा व हालातों को बयाँ ही नहीं करता बल्कि इस बीमारी में कैसे सकारात्मक रह कर व स्वयं में होने वाले  परिवर्तनों के प्रति जागरूक रहकर इससे बचा जा सकता है यह भी बताता है ।

पुस्तक के बारे में लिखने को काफी कुछ लिखा जा सकता है और कहने को बहुत कुछ कहा भी जा सकता है, यह निर्भर है पाठक किस गहराई तक पहुंच पाया…जहाँ तक मैं पहुंच सका वही इस संक्षिप्त समीक्षा में पिरोने की कोशिश की है।

  पुस्तक मंगाने हेतु लिंक नीचे कमेंट बॉक्स में दिया गया है...…..                              धन्यवाद...!!

   प्रकाशक : हिंदी बुक सेंटर 4/5 - बी आसफ अली रोड़  नई दिल्ली ।मूल्य : 255/-

                                                            पुनीत राठी

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

पुस्तक- समीक्षा ( सात समंदर पार)





पुस्तक—  सात समंदर पार


"दोस्त प्रतिध्वनि की....”


"न जाने कौन रोया है

कि अब तक

गगन का आँगन

क्षितिज का कोर भीगा है

न जाने कौन रोया है....!”


 इस छोटे से गीत की एक प्रतिलिपि पितृतुल्य,श्रद्धेय पन्त जी के पास इस पुस्तक की लेखिका ,उनकी मानस पुत्री श्रद्धेय सरस्वती प्रसाद जी ने लिख कर भेजी थी ।उनका जवाब आया-".....तुम्हारा गीत पढ़ा ।एक बार नहीं कई बार ,किस मनस्थिति में इस गीत को तुमने लिखा था बेटी।धरती ,आकाश को भिगोती आँसू की बूँदें ,कि मेरी भी आँखें भर आईं ।”

हर किसी में ये सामर्थ्य नहीं होती कि वो अपनी पीड़ा व रुदन से कायनात को भिगो दे ...सुमित्रानन्दन पन्त जैसे महान कवि की आँखें नम कर दें !

" सरस्वती प्रसाद घर की इकलौती बेटी ,बड़े से घर के कई खाली कमरों से आवाज देती बन गईं दोस्त प्रतिध्वनि की...!”

" सात समंदर पार” पावन त्रिवेणी है ...इसमें तीन पीढ़ियों का संगम है ,गंगा-यमुना सी बेटियों व नातिन के प्रयासों का और लुप्त-प्राय माँ सरस्वती की ममतामयी स्मृतियों के लहराते आँचल की धारा व उनकी कल्पना से सृजित हुई परतन्त्र राष्ट्र के प्रति भाव भरी कहानी का !

ये पुस्तक नहीं बल्कि बेटियों व नातिन के द्वारा दिया गया भावभीना तर्पण है ...भावभीनी श्रद्धांजलि है ,जिसमें शीतल माहेश्वरी ने भी अपनी अंजुलि जोड़ कर इसे सतरंगी रंगों से सजा धनक सा  मोहक बना अपनी भी भावान्जलि समर्पित की है ।

दो पीढ़ियों के संस्कार व कृतज्ञता जो उन्हें पुण्यात्मा माँ सरस्वती से विरासत में मिले 

और स्व० माँ ने कमाए जो पुण्य, दिव्य भावों व कर्मों से उनको महसूस किया अगली पीढ़ियों ने ...उसी का सुपरिणाम है यह पुस्तक जो बहुत सुन्दर बन पड़ी है ।

मुझे नहीं लगता कि अपनी कविहृदया माँ व नानी को कोई इससे बेहतर श्रद्धांजलि दे सकता है ।माँ जहाँ भी होंगी उनकी आत्मा सुकून पा रही होगी और गौरव मिश्रित संतुष्टि की अनुभूति उनको अवश्य हो रही होगी ।

नातिन `अपराजिता कल्याणी ‘के मानस की परिकल्पना ने `सात समन्दर पार’ की कथा को इसके आवरण- चित्र में उकेरा है तथा बहुमुखी प्रतिभा की धनी `शीतल माहेश्वरी ‘ ने खूबसूरत चित्रों से पुस्तक की रोचकता-ग्राह्यता में वृद्धि की है ।खूब ब्राइट कलर से बने चित्र बहुत कलात्मक हैं और हमारी कल्पना को पंख देते हैं ।

 लाल सुहाग के जोड़े में सिमटी सी  बैठी  नव- वधु के सामने की जमीन को भी लाल सिंदूरी रंग से चित्रित कर शीतल ने अपनी अनोखी कल्पना की कूची से कायनात पर भी सिंदूरी अनुराग छिड़क मानो प्रकृति को भी उसी रंग से रंग दिया है !

इसी तरह बच्चों के खेलते हुए रंग- बिरंगे चित्र 

बेहद बोल्ड रेखाओं से सुंदर बनाए है । सात समंदर पार जाता बादलों से बात करता हवाई जहाज और समन्दर में डूबी- डूबी सपने देखती आँखें चित्रित करते शीतल के चित्र से उनकी कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है। शीतल की सकारात्मकता व क्रिएटिविटी प्रशंसनीय है ।वे विभिन्न क्षेत्रों में नित नूतन प्रयोग व सृजन करती रहती हैं ।

भूमिका लिखी है सरस्वती प्रसाद जी की बड़ी बेटी `नीलम प्रभा’ ने। वे लिखती हैं - 

" दो की एक होकर अपनी दुनिया को बसाना,

फिर उस दुनिया को और सजाने और संवारने का ख्वाब अपनी पलकों पर पालना...वो प्रवासी सपना वापिस नहीं आता...ऐसी लाखों जोड़ी आँखों में देखे गए अन्तहीन कराह का, आँसुओं से तर बयान है `सात समन्दर पार ‘की कथा ।”

पुस्तक हाथ में लेकर  उलटते - पलटते रेशम सा हाथ से फिसलता है ...रंगीन चिकने उम्दा पन्नों पर टंकण-कार्य बहुत उत्तम हुआ है ।तीन पीढ़ियों के भाव- सागर में से गुजरता पाठक का मन भी जैसे अगर- कपूर सा सुवासित हो उठता है ।अक्षर- अक्षर भावान्जलि हो जैसे ! निश्चित ही लिविंग- रूम की बुक- शेल्फ में संजो कर सहेजने लायक है ये कॉफी टेबिल बुक !

लेखिका माँ सरस्वती प्रसाद की दोनों बेटियों को भी विरासत में माँ की अद्भुत, प्रभावशाली काव्यमयी चिन्तनधारा का प्रसाद मिला है ।सिर्फ लेखनी पर ही नहीं स्वरों पर भी अद्भुत पकड़ रखने वाली विलक्षण गायिका व प्रतिभाशाली कवयित्री उनकी छोटी बेटी रश्मिप्रभा भावुक हो कह उठती हैं -

  "यह सब कुछ मेरे लिए त्रिवेणी का जल रहा है

           जिसे छूकर कहती हूँ तर्पण, अर्पण

               निरंतर, हर दिन, हर पल !”

माँ का जीवन, उनका हर पल, हर दिन पावन है बेटी के लिए ...कह उठती हैं -

       " तुम्हारा जन्मदिन

          तुम्हारी शादी का दिन...

           तुम्हारे जाने का दिन

            सब पुण्य है...!”

इस पुस्तक में उकेरी गई कहानी गुलाम भारत की एक तस्वीर प्रस्तुत करती है जब हर भारतवासी का सपना देश की आजादी के सपने के बिना अधूरा था।

अंग्रेजियत और देश- भक्ति की दो धाराएं बहती हैं शुरु में दो बच्चों के संस्कारों में ,जो हमें गुलाम भारत में ले जाती है परन्तु धीरे- धीरे किशोर से युवा हुए युगल  के हर राग- अनुराग में देश-भक्ति शामिल है ...उनके हर सपने में देश की  आजादी का सपना भी शामिल है।

दूसरी पीढ़ी के फिर अपने सपने हैं ...क्या हैं वे,ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेंगे ।

मैं इतनी सुंदर किताब के लिए जो इसमें शामिल हैं उन सभी को बधाई देती हूँ ...और श्रद्धेय माँ को सादर एक भावान्जलि समर्पित मेरी तरफ से-🙏🌺🌿☘️

            

                                       — उषा किरण


पुस्तक- सात समन्दर पार ( लघु उपन्यास)

लेखिका-सरस्वती प्रसाद

प्रकाशन-रुझान 

मूल्य -Rs.195







मंगलवार, 17 मार्च 2020

पुस्तक- समीक्षा


दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’
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कभी-किसी की एक रचना ऐसी आती है कि मन करता है उसका लिखा अगला-पिछला सब कुछ एक साँस में पढ़ जाएं।
रूपा पहली बात तो ये कि आपको ख़ूब लिखना चाहिए हम और पढ़ना चाहते ऐसी सुंदर जादू रचने वाली ,सम्मोहित करने वाली कहानियाँ ।
रुपा सिंह  की हंस कथा मासिक में छपी कहानी 'दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’ का चारों तरफ इतना शोर सुना तो रूपा से माँग कर पढ़ी और न सिर्फ़ पढ़ी लगातार दो बार एक ही बार में पढ़ गई कारण था पंजाबी मिश्रित मज़ेदार भाषा की वजह से मज़ा भी आया और कुछ पहली बार पढ़ने में समझने में परेशानी भी हुई और दूसरा सबसे बड़ा कारण था अंत में छल्ले के साथ आखिरी वक्त में उजागर होता बेबे का वो प्रेम जिसको नानाजी बेबे को सात तालों में बन्द करके भी नहीं बाँध पाए ।
कभी मंगेतर रही सुग्गी का बच्ची सहित छल से अपहरण करते एक बार भी पूछा नहीं उसका मन ...बस बाँध लिया साथ जैसे कोई ढोर हो ...पर दिल तो बेबे का छूट गया था न उस पार ।साथ आ गये  उस रिश्ते की ख़ुशबू तो बेबे की साँसों में महकती रही अगर -कपूर सी आख़िर तक ।बेबे गाती रही मगन हो...हंसती रहीं ...बोलती ...गाली देती ताउम्र...।
".....ओय छल्लिया होया वैरी...वतन माहिया हो गया वैरी...सोहणा...वे ढोलणा....।”
धड़कनों की ताल पर गीतों में हंसने -रोने में ढलता रहा दिल का दर्द...गूंजती रही अनकही पीर ।
अंत तक पढ़ते-पढ़तेही एक झटके में जैसे भावना का ,आँसुओं का गुबार फूट पड़ता है और बहा ले जाता है अपने साथ और आप हठात्  दुबारा पढ़ने को विवश हो जाते हैं ।
बाकी सबने पहले ही इतने विस्तार में इतनी सुंदर समीक्षा लिखी है कि मैं क्या लिखूँ ?
बस एक बात है कि मुझे  इसमें एक नहीं दो-दो अनकही पावन प्रेम कहानियाँ नज़र आईं...एक बेबे की और दूसरी जो बेबे की नातिन और तोषी के बीच चलती है ने भी छू लिया ...अंदर तक उदास कर दिया । दूसरी कहानी बेबे के आड़ में छिपती छिपाती सी चलती रहती है बेहद लापरवाह अल्हड़ किशोरी सी ...काँगड़ी में जलती धीमी -धीमी आँच सी सुलगती सी ।
अमृतसर छूटने के बाद उसे लहना सिंह के बहाने जिसकी याद आती रही ......"कभी चाँद देखती तो आकाशगंगा से अमृत के बहते परनाले दिखते जो बगल की छत पर जाकर ठहर जाते...लेकिन अब वहाँ कोई नहीं होता ।केवल यादें ही यादें थीँ ....कौन बता सकता है किसके रौशन तन में मन के अंधेरे कैसे गाढ़े होते हैं ? ...जो पूर्णिमा की रात खीर और चुन्नी थामे चाँदनी में साथ बहता रहा... जो बचपन में कहता मैं भी चौकीदारी करूँगा ...तेरी सुंदर भूतनी की ...जो छल्ले को सीधा करता नाम पढ़ता है 'शमशेर ‘....दोनों साथ पढ़ते हैं ...रोते हैं ..समझते हैं साथ ही छिपा भी जाते हैं बेबे के रिश्ते के साथ अपना भी और सभी की गरिमा पूरी तरह निभा ले जाते हैं ...।
बेबे का अंतिम आर्तनाद “....छल्ला वैरी क्यूँ होया....ओ छल्लिया...” के पीछे कुछ और चाहतें , कुछ और सिसकियाँ भी छिपी रह जाती हैं और छोड़ जाती है हमारे मनों पर एक तीखी सी चिलचिलाती पीली धूप...!!!!!ब




शनिवार, 21 सितंबर 2019

पुस्तक- समीक्षा— देशी चश्मे से लंदन डायरी ; लेखिका - शिखा वार्ष्णेय



REPLY


डॉ० उषा किरण 
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पूरी किताब लिखकर छपवाने के बाद पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय जब बेहद, मासूमियत से हमसे पूछतीं हैं कि मेरी किताब ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ किस विधा के अन्तर्गत आएगी तो उनकी सादगी पर बहुत प्यार आता है और कहीं पढ़ी ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती है…. ‘लीक पर वे चलें जिनके पग हारे हों’।
अब चाहें किसी भी विधा में आती हो पर उक्त पुस्तक बेहद मनोरंजक, ज्ञानवर्धक व संग्रहणीय है जिसे शिखा वार्ष्णेय ने बहुत दिल से काफी रिसर्च व ऑब्जर्ब करने के पश्चात लिखा है। ऐसा लगता है जैसे हमारे लिए कोई झरोखा खोल दिया है लंदन से या फिर जैसे कोई हमारी बहुत आत्मीय स्वजन दोनों देशों के बीच एक ऐसा दर्पण लेकर खड़ी हैं जिसमें एक तरफ तो लंदन व आसपास की सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवम् सामाजिक झलक देखने को मिलती है तो दूसरी तरफ हम विदेशी परिप्रेक्ष्य में अपनी संस्कृति, सभ्यता व नैतिक मूल्यों को भी तुलनात्मक रूप से तौलते चलते हैं।
जब भी हमारे बच्चे या हम लंदन जाना चाहें या कि जा रहे है या जाकर लौटे हों तो जो प्रश्न लगातार दिमाग में बंवडर मचाते हैं उन सभी का उत्तर है इस पुस्तक में।
लंदन की साफ-सुथरी सड़के, वैभव-पूर्ण ऊँची इमारतें, बहुत सुंदर साफ हरे-भरे पार्क, सभ्यता, तमीज, अनुशासन, खूबसूरत गोरे-चिट्टे, लम्बे जैसे साँचे में ढ़ले मोम के पुतले जैसे लोगों को देख बरबस मूंह से निकलता है- ‘”गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त हमी अस्तो हमी अस्तो”  ’ लगता है स्वर्ग ऐसा ही होता होगा! कहीं कोई समस्या ही नहीं होती होगी यहाँ के लोगों को परन्तु जब शिखा की लंदन डायरी पढ़ी तो सारा भ्रम जाता रहा कि नहीं आखिर तो हम इंसान हैं चाहे जहाँ रहें पूर्ण कैसे हो सकते हैं। सभी की अपनी उपलब्धियाँ हैं तो परेशानियाँ और समस्याएं भी है जिनसे वे लगातार जूझ रहे हैं।
बचपन में जैसे बाइस्कोप वाला चंद पैसों में चुटकियों में हमें भारत भ्रमण करा देता था ठीक वैसे ही 63 आलेखों के माध्यम से शिखा हमें बेहद रोचक-शैली में एक के बाद एक लेख पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। पहले आलेख ‘पुरानी साख व गौरवपूर्ण इतिहास’ में वे वहाँ के राजसी ठाठ-बाठ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि आज ब्रिटेन भी बाकी देशों की तरह आर्थिक मंदी से गुजर रहा है ऐसे में इंगलैंड की रानी का हीरक-जयंती पर शाही सेलिब्रेशन में खुल कर खजाना लुटाने पर वे अपनी प्रतिक्रिया देती हैं कि ‘पूरा यूरोप किस आर्थिक मंदी से गुजर रहा है अब यह किसी से छुपा नहीं है पर बढ़ती बेरोजगारी व गरीबी जैसी समस्याओं का असर कहीं पड़ता नहीं दिखाई देता।
दूसरे आलेख ’लोमड़ी का आंतक’ जब हम पढ़ते हैं तो हँसी आ जाती है। ‘लो जी लंदनवासियों, हम जाने कब से बंदरों, गली के आवारा कुत्तों, सांपों, मक्खियों, मच्छरों से दो-दो हाथ कर रहे है और तुमसे एक लोमड़ी मौसी नहीं संभल रहीं, नाक में दम कर रखा है उनका. वे लिखती है कि ‘यू के एक ऐसा देश है जहाँ सर्वोच्च पद पर महारानी के रूप में स्त्री ही आसीन है वहाँ भी स्त्रियों के खिलाफ अपराध व भेदभाव के किस्से प्रायः सुनाई दे जाते हैं’ पढ़ कर हम कुछ सोचने पर विवश हो जाते हैं। पर वहीं जब हम पढ़ते हैं कि स्कूलों में लड़कों व लड़कियों को समान रूप से सिलाई, कुकिंग, छोटी-मोटी रिपेयरिंग, बुजुर्गों की देखभाल सिखाई जाती है तो अच्छा लगता है।
हमारे अंधविश्वास पर, हंसने वालों, तोहमतें लगाने वालों की आँखों में आँखें डाल ‘अंधविश्वास की व्यापकता’ आलेख में शिखा पूछती हैं कि भाई ठीक है हमारी रोजमर्रा की न जाने कितनी बातों को अंधविश्वास या रूढ़िवादिता कहा जाता है परन्तु भारत से बाहर लगभग सभी देशों व समाज में इस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। वे कहती है हाँ हम पत्थर की मूर्ति पूजें तो अंधविश्वासी और ये जो  ‘स्टोन हैज’ को विरासत समझ सहेज रहे हैं वो क्या हैं? हम भूतों चुडैलों को मानते हैं तो आपके यहाँ भी तो हान्टेड हाउस हैं जहाँ प्रेतात्माएं टहलती हैं। हैलोइन जैसे त्यौहार तो आप भी मनाते हैं… ठीक है हम परियों की, फरिश्तों की कहानियों से बच्चों को सपने दिखाते हैं तो आपके सांता क्लॉज भी तो बच्चों को भरमाते ही हैं। यदि हम पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं तो मरने के अगले ही दिन पुनः ईसा मसीह का जिंदा हो जाना भी तो वही है न?

अपने देश पर गर्व महसूस होता है जब ये ‘प्रवासी का महत्व’ आलेख में बताती हैं कि ब्रिटेन में भारत का चिकन टिक्का राष्ट्रीय पकवान माना जाता है। वह ब्रिटेन जिसकी आर्थिक उन्नति में विदेशी यात्रियों का बहुमूल्य योगदान है जिसके प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की शान विदेशों से आने वाले छात्र ही बढ़ाते हैं।
अच्छा लगा पढ़ कर कि वहाँ के लोग हर संस्कृति को अपना लेते हैं। क्रिसमस के साथ होली, दीवाली, ईद, नवरात्रि, गरबा सब त्यौहारों को मिलजुल कर अनुशासित ढंग से मनाते हैं। वे लिखती हैं कि ‘मतलब साफ है आपको अपने हाथ फैलाने का हक है पर वहीं तक जहाँ से किसी और की नाक नहीं शुरू होती’। वे पतझड़ को भी उत्सव की तरह मनाते हैं।
लिखती हैं कि जब भी इंडिया में कोई बड़ा हादसा होता है तो उसकी धनक लंदन प्रवासी भारतीयों के मन में भी छटपटाहट पैदा करती है। उनको भी बुरा लगता है क्योंकि इससे विदेशों में हमारे देश की छवि खराब होती है। वे मदद करने की भी कोशिश करते हैं।
‘ऐसा भी चुनावी प्रचार’ में लेखिका लिखती है कि हमारी तरह लाउडस्पीकर का शोर नहीं, कहीं कम्बल नहीं बंटते, घर-घर जाकर हाथ जोड़ने की भी परम्परा नहीं, साफ-सुथरी दीवारें, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के स्थान पर वे सब सिर्फ अपनी पॉलिसी एवं कार्यो का ब्यौरा देते हैं। यह सब चुनावी बवंडर से गुजरे हम भारतवासियों को अनुकरणीय लगता है। साथ ही हैरानी होती है यह पढ़ कर कि यू के के प्रधानमंत्री व एम पी भी मेट्रो से ऑफिस जाने में गुरेज नहीं करते। साधारण घर में रहते हैं, आम लोगों की तरह लाइन में लगते हैं। मेयर ‘बोरिस जॉनसन’ साइकिल से ऑफिस जाते थे।

‘गलियों के गैंग’ पढ़कर ज्ञान होता है कि वहाँ गैंग्स की गुंडागर्दी से जूझ रहे समाज व अभिभावकों के लिए कितनी चिंता का विषय है। इसके अलावा बच्चों पर बढ़ता शिक्षा का दबाव, बढ़ती स्वास्थ्य समस्याएं, मंदी की मार पर भी प्रकाश डाला है। अधिकारों की दुविधा जैसे लेख पढ़ कर लगता है कि बहुत कुछ समस्याएं समान हैं। आपने युवकों की समस्याओं लाइफ स्टाइल व मानसिकता पर भी लिखा है। सोलह वर्ष की आयु के पश्चात माता -पिता से अलग रहने की मजबूरी और भविष्य में पुनः संयुक्त-परिवार की संभावना पर भी प्रकाश डाला है। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन व प्रतियोगिताओं के बढ़ते प्रेशर के कारण वहाँ के बच्चों का दर्द शिखा को द्रवित कर देता है क्योंकि वहाँ भी फ्रस्टेटेड होकर वे आत्महत्या कर रहे हैं।
माँ के भी नौकरी करने के कारण बच्चों की परवरिश की समस्या दोनों देशों में लगभग समान ही है। नैनी व क्रच के विकल्प मौजूद है पर सारे दिन माँ से अलग रहकर बच्चा माँ के सीने से लग रात में यही पूछेगा कि ‘कल स्कूल से लेने आप आओगी न मम्मा…’। इस पुस्तक में बुजुर्गो की समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। जहाँ हमारे देश में तीन पीढ़ियाँ आज भी कई परिवारों में हंसी-खुशी साथ रह लेती हैं, एक दूसरे का सहारा बनती हैं वहीं इंग्लैंड में ज्यादातर लोग अकेले जीवन बिता रहे हैं। परन्तु कहीं न कहीं असहिष्णुता व आधुनिकता के चलते हम भारतीय भी इस व्यवस्था को अपनाते जा रहे हैं। जो बहुत दुखद है।
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर कि जहाँ हमारे यहाँ हिन्दी की उपेक्षा होती है लोग इंगलिश बोलने में शेखी समझते हैं वहीं लंदन में हिन्दी को बहुत सम्मान प्राप्त है। स्कूलों में भी हिन्दी बहुत चाव से सीखते हैं व समय-समय पर हिन्दी में विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित होतीं हैं। वे हास्य के मूड में काका हाथरसी को याद करती हैं क्योंकि कभी उन्होंने रूस जाकर हिन्दी सीखने की बात की थी. कहती हैं वे आज होते तो कहते-
‘पुत्र छदम्मी लाल से बोले केसरी नंदन,
हिन्दी पढ़नी होय तो जाओ बेटा लंदन।‘
एक समय था जब दुनिया के हर कोने से बेहतर इलाज़ के लिए लोग लन्दन जाते थे आज उसी लंदन शहर में अपने नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य-व्यवस्था नहीं है। वहाँ की कमजोर होती अर्थव्यवस्था पर भी उक्त पुस्तक प्रकाश डालती है।
‘यहाँ भी बाबा’ पढ़ कर हैरानी होती है कि सैकड़ों एशियन लंदन में झाड़-फूंक या भूत- आत्माओं के भगाने के चक्कर में पैसों व जान से हाथ धो बैठते हैं।
‘योगा डे’ की तर्ज पर ही कुत्तों के लिए ‘डोगा डे’ की भी कक्षाएं चलती हैं। धन्य हो! पढ़ कर हंसी आ जाती है। ‘डब्बा वाला ऑफ़ लंदन वे कहती है कि किसी अंग्रेज को खाने की इतनी चिन्ता करते नहीं देखा जितनी हम भारतीयों को रहती है कि ‘बेटा शादी कर लो तब विदेश जाना वर्ना खाने-पीने की परेशानी होगी’। तो भई जिनके भी बच्चे लंदन जाना चाहते है या जा रहे हैं बेफिक्र होकर जाएं शिखा ने बताया कि हर तरह का डब्बा वाला, भारतीय खाने की व्यवस्था है वहाँ भी।
लिखती है कि हैरानाी होती है कि यहाँ युवाओं में विवाह-संस्था के प्रति सम्मान माता-पिता व बुजुर्गों का सम्मान करने वाली युवा पीढ़ी बेहद सुलझी व इरादों में स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त स्कूल बस का महत्व वी.आई.पी. कल्चर खेलों के प्रति बढती आशा, ऐसा भी दान (शुक्राणु दान), हॉर्न- संस्कृति, अधिकारों की दुविधा आदि विषयों पर भी बहुत बेबाकी से रोचक व ज्ञानवर्धक तरीके से लेखिका ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

वे बताती है कि बेशक भारतीय भारत से निकल आयें पर उनके अंदर से भारत को नहीं निकाला जा सकता। भारत और उसकी संस्कृति किसी न किसी रूप में उनके अंदर सांसें लेती ही रहती है। यहाँ के रहन-सहन, व्यवहार, परम्पराओं को भले ही हमने छोड़ दिया है परन्तु अभी भी वहाँ उसे दिल में बसा रखा है और उसमें बहुत बड़ा हाथ टीवी चैनलों से प्रसारित होने वाले धारावाहिक फिल्मों व हिन्दी गानों का भी है।
थेम्स के किनारे लगे साउथ ईस्ट सांस्कृतिक मेले व उसमें सजे भारतीय व्यंजनों के स्टाल देख याद कर वह कह उठती हैं-
‘नींद मिट्टी की महक सब्जे की ठंडक
मुझको अपना घर बहुत याद आ रहा है।
शिखा के रंग-रूप पर बिल्कुल भी न जाएं क्योंकि उनका दिल पक्के हिन्दुस्तानी रंग में रंगा है और वे भारतीय संस्कृति व सभ्यता से पूर्णतः लबरेज है जो कि आपको इस पुस्तक को पढ़कर साफ नजर आ जाएगा।
तो यदि आप या आपके बच्चे या परिचित जो कोई लंदन जा रहे हों या वहां के बारे में कैसी भी उत्सुकता हो तो आपको ‘देशी चश्में से लंदन डायरी’ अवश्य पढ़नी चाहिए और अपने मित्रों व परिचितों को गिफ्ट भी करनी चाहिए।
मैं शिखा को इतनी ज्ञानवर्धक व रोचक पुस्तक लिखने के लिए बधाई देती हूँ। लीक से हट कर लिखी यह पुस्तक कहीं मील का पत्थर साबित होगी।
और अंत में शीतल माहेश्वरी को भी बधाई दिए बिना लेखन अधूरा रह जाएगा। प्रथम प्रयास है यह उनका पर लंदन की जगमगाहट व ग्लैमर को उन्होंने बखूबी कवर पेज में समेटा है.
डॉ. उषा किरण
हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट(फाइन आर्ट)
मेरठ कॉलेज 
मेरठ 
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पुस्तक – देशी चश्मे से लन्दन डायरी (2019) 
लेखिका – शिखा वार्ष्णेय 
प्रकाशक – समय साक्ष्य 
मूल्य – 200 रु 
पुस्तक amazon.in पर उपलब्ध

 (शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 14 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2019 से साभार)


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