ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023


 ताताजी को लगता था कि मुझे लुकाट बहुत पसन्द हैं, हैं तो आज भी। वो इसीलिए खूब भर- भरके मंगवाते थे। लेकिन क्यों पसन्द थे ये उनको नहीं पता था।नाइन्थ क्लास में जब बुलन्दशहर में पढ़ती थी तब एक दिन जिस थैले में लुकाट आये उस पर जब ध्यान गया तो बेहद खूबसूरत मोती जैसी लिखाई में नीली स्याही से कविता लिखी थीं। आजतक मैंने वैसी सुघड़ लिखाई किसी की नहीं देखी। कविता क्या थीं, ये अब नहीं याद परन्तु उन कविताओं ने तब मन मोह लिया था।मैंने वो लिफ़ाफ़ा अपने पास सहेज कर रख लिया। खूब शोर मचा कर कहा लुकाट मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, फिर कई दिनों तक वैसे ही कविताओं में लिपटे लुकाट रोज आते रहे। मैंने मोहन से कहा रोज उसी से लाना जिससे कल लाए थे, उसके लुकाट बहुत मीठे थे। मैं लुकाट खाती और लिफ़ाफ़े को सहेज लेती। कई दिन तक आती रहीं ।पता नहीं किसकी कॉपी या रजिस्टर थे जो रद्दी में बिक गये…।पता नहीं कभी वे कविताएं लोगों तक पहुँची भी या नहीं? तब गूगल भी नहीं था जो सर्च कर पाती। कई साल तक सहेज कर रखीं, फिर जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गईं । 

शादी के बाद पति को पता चला मुझे लुकाट पसन्द हैं तो मौसम आने पर वे भी लाने लगे, लेकिन बिना कविताओं के लुकाट में अब वो मिठास कहाँ…?

Anjum Sharma की पोस्ट पढ़ कर पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो गईं।सच है जाने कितनी प्रतिभाएं यूँ ही बिना साधन व प्रयास के गुमनामी के कोहरे में लिपटी गुम हो जाती हैं …!!!

—उषा किरण 

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

नहीं है स्वाभिमान मुझमें…


 हाँ, नहीं है स्वाभिमान मुझमें


बेवकूफ बनती हूँ ,ताने-बातें सुनती हूँ 

ध्यान नहीं देती आड़ी- तिरछी बातों पर

अनदेखा करती हूँ चालबाज़ियाँ 


ऐसा नहीं कि समझ नहीं आती  

देर- सबेर सब समझ आती हैं 

पर अनजान बन, चुप रहती हूँ 

चुपचाप अपने अन्दर  बैठ 

देखती हूँ डुगडुगी वाले तमाशे


क्या सोचते हो

ये तिकड़में, होशियारी,ये शातिर चालें 

मक्कारी से भरे झूठ, छलावे

समझ नहीं आते, बौड़म हूँ….

सब समझ आते हैं, फिर भी

तुमको ताली बजाकर हंसने देती हूँ 

खुश होने देती हूँ 


कहते हो-

भलमानस-पना  दिखाती हूँ 

हाँ, तो भला मानुष और क्या दिखाएगा

नहीं है दुष्टता तो कहाँ से लाएगा ?


थे मेरी पिटारी में भी कभी तुम्हारी तरह 

पैने , जहरबुझे तीर

तरह- तरह के अस्त्र

भाँति- भाँति के मुखौटे

जब, जो चाहती , लगा 

दुनियादारी खूब निभाती 

फिर नहीं संभाले गए तो एक दिन

सौंप दिए लहरों के हवाले

बह जाने दिए दरिया में…


बदलते मौसम के साथ

फिर- फिर लौटेगा मेरा विश्वास 

सौ बार करूँगी प्यार 

क्योंकि सोचूँगी शायद 

अबके बदल गई होगी फिज़ाँ

हालाँकि जानती हूँ कि फितरत नहीं बदलती 

कभी भी, किसी की

जैसे नहीं बदलती मेरी भी…


खैर…..

अब खड़ी हूँ खुले मुँह, खाली हाथ

नीले आसमान के तले 

दे सकते हो तो दो खुलकर गाली, 

हँस सकते हो तुम ताली बजा कर तो हंसो

कर सकते हो उपेक्षा, अपमानित …


हाँ…नहीं है स्वाभिमान मुझमें…!!!


—उषा किरण

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

रूढ़ियों के अंधेरे


 कल एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लड़के की माँ ने हल्का सा  यलो व पिंक कलर का बहुत सुन्दर राजस्थानी लहंगा पहना हुआ था और आभूषण व हल्के मेकअप में बेहद खूबसूरत लग रही थीं । आँखों की उदासी छिपा चेहरे पर हल्की मुस्कान व खुशी लेकर वे सबका वेलकम कर रही थीं। दूल्हे के पिता की कुछ वर्ष पहले ही कोविड से डैथ हो गई थी। मैंने गद्गद होकर उनको गले से लगा कर शुभकामनाएँ दीं और मन में दुआ दी कि सदा सुखी रहो बहादुर दोस्त !


ये बहुत अच्छी बात हुई कि पुरानी क्रूर रूढ़ियों को तोड़ कर बहुत सी स्त्रियाँ आगे बढ़ रही हैं । पढ़ी- लिखी , आत्मविश्वास से भरी स्त्री ही ये कर सकती हैं । पिता की मृत्यु के बाद माँ को सफेद या फीके वस्त्रों में बिना आभूषण व बिंदी में देख कर सबसे ज्यादा कष्ट बच्चों को ही होता है। तो अपने बच्चों की खुशी व आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ये जरूरी है कि माँ वैधव्य की उदासी से जितना शीघ्र हो सके निजात पाए और वैसे भी आज की नारी सिर्फ़ पति को रिझाने के लिए ही नहीं सजती है। वो सजती है तो खुद के लिए क्योंकि खुदको सुन्दर व संवरा देखकर उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। समाज में सम्मान व प्रशंसा मिलती है( ध्यान रखें समाज सिर्फ़ परपुरुषों से ही नहीं बना वहाँ स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग सभी हैं ) मेरा मानना है कि आपकी वेशभूषा व बाह्य आवरण का आपकी मन:स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है।


हर समय की उदासी डिप्रेशन में ले जाती है और जीवन ऊर्जा का ह्रास करती है व आस- पास नकारात्मकता फैलाती है।जीवन- मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है और किसी एक के जाने से दुनियाँ नहीं रुकती , एक के मरे सब नहीं मर जाते ….ये समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा है। इंसान के जाने के बाद बहुत सारी अधूरी ज़िम्मेदारियों का बोझ स्त्री पर व परिवार पर आ जाता है जिसके लिए सूझबूझ व दिल दिमाग़ की जागरूकता जरूरी है वर्ना खाल में छिपे भेड़ियों को बाहर निकलते देर नहीं लगती।


देखा गया है कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री के साथ जो भी क्रूरतापूर्ण आडम्बर भरे रिवाज होते हैं जैसे चूड़ी फोड़ना, सिंदूर पोंछना, बिछुए उतारना, सफ़ेद साड़ी पहनाना वगैरह , इस सबमें परिवार की स्त्रियाँ ही बढ़चढ़कर भाग लेती हैं । मेरे एक परिचित की अचानक डैथ हो जाने पर उसकी बहनों ने इतनी क्रूरता दिखाई कि दिल काँप उठा। पहले उसकी माँग में खूब सिंदूर भरा फिर सिंदूरदानी उसके पति के शव पर रख दी। फिर रोती- बिलखती , बेसुध सी उसकी पत्नि पर बाल्टी भर भर कर उसके सिर से डाल कर सिंदूर को धोया व सुहाग की निशानियों को उतारा गया।

कैसी क्रूरता है यह? यदि ये उनकी परम्परा है तो आग लगा देनी चाहिए ऐसी परम्पराओं को। 


क्या ही अच्छा होता यदि बहनें भाभी को दिल से लगाकर इन सड़े- गले  व क्रूर रिवाजों का बहिष्कार करतीं । यही नहीं आते ही उन्होंने बार- बार बेसुध होती भाभी के दूध की चाय व अन्न खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया कि ये सब उठावनी के बाद खा सकती है, बस काली चाय  व फल ही दिए जाएंगे। उसकी सहेलियों को बहुत कष्ट तो हुआ पर मन मसोस कर रह गईं। अगले ही दिन वे उसको व उसकी छोटी बेटी को अपने साथ गाँव ले गईं कि वहाँ पर ही बाकी रीति- रिवाजों का पालन होगा। कई दिन तक सोचकर दिल दहलता  रहा कि न जाने बेचारी के साथ वहाँ क्या-क्या क्रूरतापूर्ण आचरण हुआ होगा?


चाहकर भी हम हर जगह इसका विरोध नहीं कर सकते परन्तु जहाँ- जहाँ भी हमारी सामर्थ्य व अधिकार में सम्भव हो प्रतिकार करना चाहिए। रोने वाले के साथ बैठ कर रोना नहीं, यही है असली शोक- सम्वेदना।

—उषा किरण 

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

यादों के गलियारों से

 


अम्माँ- ताता नैनीताल की लास्ट पोस्टिंग के बाद  मैनपुरी में अपने चाव से बनवाए सपनों के घर में जाकर बस गए।मैनपुरी के पास ही हमारा गाँव था तो वहाँ रह कर नाते- रिश्तेदारों से मिलना- जुलना होता रहता और खेती- बाड़ी पर भी निगाह रहती। कुछ सालों बाद अम्माँ को लगने लगा था कि बच्चों से बहुत दूर हो गए और वो ज्यादा समय बच्चों के साथ रहने को तड़पती थीं । हम सब छुट्टियों में बारी-बारी या एक साथ भी जाते रहते।वो चाहने लगीं कि मैनपुरी का मकान बेच कर मेरठ या दिल्ली जाकर रहें। क्यों कि उनका व ताताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और मेडिकल सुविधाओं का मैनपुरी में बहुत अभाव था, लेकिन ताताजी इसके लिए तैयार नहीं थे। 


कभी-कभी वे कुछ दिनों के लिए हम लोगों के पास रहने आ जाती थीं, तब वे बहुत सुकून महसूस करतीं। उनको खूब बातें करने का शौक था। मेरठ में आइस्क्रीम विद सोडा , पाइनएप्पल आइस्क्रीम, गोकुल की बेड़मी पूड़ी व आलू की सब्ज़ी बहुत पसन्द आते पर हम डर- डर कर कम ही खिलाते- पिलाते क्योंकि वे हार्ट की व शुगर की पेशेन्ट थीं। 


उनके अचानक हार्ट फेल से जाने के बाद न जाने कितने अफ़सोस हम लोगों को घेरे रहे कि ये करते वो खिलाते, यहाँ घुमा लाते, कुछ और सुन लेते उनकी बातें ।


वे बहुत ही उदासी  भरे दिन थे।अम्माँ जा चुकी थीं और उनके जाते ही घर श्रीहीन हो बिखर गया। ताताजी भैया के पास आकर रहने तो लगे थे , दीदी दूसरे मकान में दिल्ली शिफ़्ट हो गईं । लेकिन धीरे-धीरे ताताजी घोर डिप्रेशन में चले गए। उन्होंने इवनिंग वॉक पर जाना बन्द कर दिया और डॉक्टर की सलाह पर जो ब्रांडी लो ब्लड प्रैशर के लिए दवा की तरह थोड़ी सी लेते थे उसकी मात्रा बढ़ गई। बात वैसे ही कम करते थे अब और चुप्पी में घिर गए। खाने-पहनने का शौक समाप्त सा हो गया। 


भैया सारे दिन कोर्ट और उसके बाद क्लाइन्ट की मीटिंग से थका- हारा रात तक आता भी तो बहुत कम देर उनके  साथ बैठ पाता क्योंकि तब तक उनके सोने का टाइम हो जाता था।


भैया का छोटा बेटा पृथ्वी जरूर सारे दिन बाबा- बाबा करता उनके कमरे में चक्कर लगाकर उनका मन बहलाता रहता था। भैया ने बहुत कोशिश की कि सोसायटी में रहने वाले बुजुर्गों से मेलजोल करवा दे पर उन्होंने साफ मना कर दिया।


हम सब भाई - बहन बहुत परेशान थे कि किस तरह उनको खुशी दें और अंधेरों से बाहर निकालें। मनोचिकित्सक को दिखाएं पर सब प्रयासों में असफल होने पर हताश- निराश हो दुखी होते।आज वो नहीं हैं तो बहुत दुखी होता है मन कि काश उनके जीवन की सन्ध्या इतनी उदासी से भरी न होती।


अम्माँ को प्रस्थान किए लगभग सत्ताइस और ताताजी को बीस साल हो गए आज लगभग मैं भी उसी उम्र के आसपास हूँ । ताताजी की स्थिति याद करके पूरी कोशिश करती हूँ कि  खुशी का हर पल अपने नाम करूँ और उसके अहसास बच्चों के साथ शेयर करूँ । 


बच्चे बढ़िया खिलाते-पिलाते हैं तो मैं खूब चाव से ललक से खाती हूँ, ये नहीं सोचती कि कोई लालची कहेगा।घुमाने के प्रोग्राम बनाते हैं तो मना नहीं करती। खूब देश- विदेशों की यात्राएं करवा दी हैं बच्चों ने, वर्ना टीचिंग में हमारे लिए इतना एफोर्ड करना मुश्किल था। पहली विदेश यात्रा मेरे पति को हमारे दामाद ने करवाई, वे अपने साथ लंदन ले जाना चाह रहे थे तो वे ख़ुशी- खुशी उनके साथ गए बिना बेटे , दामाद के फर्क का विचार किए। 


जितना हो सकता है अपनी काया , देश और उम्र के हिसाब से फैशन करती हूँ । बेटी और बहू मुझे बढ़िया ब्रान्डेड परफ़्यूम, कपड़े, बैग, मेकअप और ब्यूटी टिप्स देती हैं तो सब यूज व फॉलो करती हूँ । हम दोनों नए जमाने की नई जानकारियों, म्यूजिक , फिल्म, साहित्य, गार्डनिंग व न्यू लाइफ़ स्टाइल में पूरी दिलचस्पी लेते हैं। मनपसन्द चाट, आइस्क्रीम , थाई, मैक्सीकन, चाइनीज की नई रेसिपी ट्राई करते हैं और टेस्ट डेवलप करते हैं ।


हैल्थ चैकअप, कोलेस्ट्रॉल,विटामिन, कैल्शियम जैसा वो कहते हैं मैं और मेरे पति सबका ध्यान रखते हैं…मैं चाहती  हूँ कि बच्चों को हमारे जाने के बाद ये अफसोस न रहे कि वे हमारे लिए कुछ कर न सके।बेटे- बहू विदेश में हैं पर दूरी का अहसास ही नहीं होता। मीरा रोज वीडियो कॉल पर मीठी- मीठी बातों से दादा- दादी का मन बहलातीं हैं।


अब तक जीवन में जो भी सुख- दुख झेले पर अब मैं चाहती हूँ कि उन परछाइयों से परे जब तक हम हैं स्वस्थ व प्रसन्न रहें जिससे हमारे बाद में बच्चे हमें इसी रूप में  याद करें।

                                               —उषा किरण 

फोटो: Gold Coast Road, Melbourne( Australia)

बुधवार, 29 नवंबर 2023

गुम हैं


 बचपन में एक बुढ़िया 

चाँद पे चरखा काता करती थी

जाने कहाँ गुम  है ?


एक बाबा बूढ़े 

बुढिया के बाल गुलाबी बेचा करते थे 

गुम हैं वो भी कई सालों से 


बादलों के रथ पे बैठ 

सफेद पंखों वाली नन्हीं परियाँ  

इधर-उधर मंडराती थीं  

अब आते हैं खाली बादल 

परियाँ जाने किस देस गईं ?


मखमली घास पे ठुमकती वीरबहूटी

जब लातीं राम जी का संदेस

मन में आस जगाती थीं

जाने कहाँ रास्ता भूलीं ?


कुछ मोरपंख किताबों में रख 

हम विद्या माँगा करते थे

दो होने के लालच में भाग-भागके

कई बार देखा करते थे 

अब कहाँ मोर और वो पंख कहाँ?


इक बूढे हरिया काका थे

लाल मटकी से निकाल पत्तों पर 

कुल्फी चाकू से काट

बड़े प्यार से खिलाते थे

कई सालों से नदारद हैं 


सामने वाले बरगद पर काला भूत

उल्टा लटक दाढ़ी हिला

हंस-हंस के पत्ते वाले हाथों से 

पास हमें बुलाता था

अब भूत कहाँ बस पत्ते हैं 


यूँ तो कद के साथ जीवन में

ऐश्वर्य सभी बढ़ जाते हैं

लेकिन बचपन की बेमोल सम्पदा 

जितना अमीर कहाँ हमें कर पाते हैं…!!!


—उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

रविवार, 26 नवंबर 2023

फितरतें कैसी-कैसी




 पढाई के उन कातिल दिनो में जब एग्ज़ाम से पहले खाना खाने में भी लगता कि टाइम वेस्ट हो रहा है मेरा दिमाग कुछ ज्यादा जाग्रत हो उठता  और क्रिएटिविटी के उफान में कहानियों, कविताओं व पेंटिंग्स के आइडिया के अंधड़ उड़ते। 

जिंदगी में जब- जब तनावग्रस्त समय की कतरब्योंत में उलझी होती तब-तब अनेक परछाइयाँ मेरा पीछा करतीं, कमर पर हाथ रखे अड़ जातीं कि अभी उतारो हमें कागज पर, पहनाओ रंग रेखाओं का या शब्दों का जामा।तो उस समय लिखी गईं कुछ कहानी, कुछ कविता और बन गईं कुछ पेंटिंग्स भी। तब कई बार यदि न लिख पाती तो रफ सा ड्राफ्ट  किसी डायरी या कागज में लिख लेती या रफ स्कैच बना लेती तो बाद में बात बन जाती और कभी नहीं बना पाती और जब तक फुर्सत होती तब तक सब कुछ धुँआ- धुआँ सा हवाओं में बिखर जाता।ऐसी कई रचनाओं की भ्रूणहत्या हो गई मजबूरी में। मुझे लगता है तनाव में जरूर कुछ ऐसे हारमोन्स स्रवित होते हैं जिनका संबंध हमारी क्रिएटिविटी से सीधा होता है।

आज भी जब कहीं घूमने जाती हूँ तो घूमते, बातें करते, ट्रेन में, बस में या प्लेन में सफर करते फिर से कुछ रंग, आकृतियाँ कुछ शब्द मेरा पीछा करने लगते हैं , इसीलिए हमेशा साथ में स्कैच बुक, क्रेयॉन व कलर्ड पेंसिल , डायरी पैक करती हूँ पर कभी ही कुछ सहेज पाती हूँ, क्योंकि वापिस रूम में लौट कर थकान से पस्त हो लिखने या स्कैच लायक न हिम्मत बचती है न हि ताकत। लेकिन आजतक समझ नहीं पाती कि जब चैन व फुर्सत में पसरे- पसरे से चैन भरे दिन होते हैं तब दिमाग की ये उर्वरता, सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता, शब्दों का झरना व रंगों की फुहार कहाँ जाकर गुम हो जाते है सब ? मन्द समीर में चैन से दिमाग ऊंघता रहता है परिणामस्वरूप कितनी ही कहानियाँ मेरा मुँह देखती उकड़ूँ बैठी हैं, मुकाम तक पहुँचने की बाट जोहती और मैं जड़बुद्धि सी आलस की चदरिया में गुड़ीमुड़ी सी गुम हूँ…।

1978 में उन दिनों जब मैं ड्रांइंग एन्ड पेंटिंग में एम. ए. कर रही थी तब एग्ज़ाम होने से पहले दिमाग भन्ना रहा था। कॉलेज से आते सोचा था खाना खाते ही पढ़ने बैठ जाऊंगी। डाइनिंग टेबिल पर जाते ही मूली की भुजिया पर सबसे पहने नज़र पड़ी और अम्मा पर झुंझला पड़ी कि तुमने ये सब्जी क्यों बनाई ? वे बोलीं कि तुम्हारी पसन्द की चने की दाल और बूँदी का रायता भी है रात की बची भिंडी भी है , उसे ले लो। लेकिन हम उठ गए कि "नहीं खाना हमें…राजपाल हमें टोस्ट और चाय दे जाना…” कहते अपने रूम में ठसक कर चल दिए। पीछे से अम्मा की आवाज कानों में पड़ी- " ओफ्ओ उषा कहाँ निभोगी तुम ? इतना तेहा अच्छा नहीं, कल दूसरे के घर जाओगी तो कैसे चलेंगे ये नखरे…!”

हम अपनी टेबिल पर बैठकर लाइब्रेरी से लाई किताबें पलटने लगे, लेकिन दिमाग में अम्मा की कही बातें धमाचौकड़ी मचा रही थीं। उन दिनों में जोरशोर से हमारे ब्याहने को लड़के ढूँढे जा रहे थे। सब खिसका कर पैड और पैन उठा लिखने बैठ गए…कहानी बह निकली-

 " सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।उसे सहसा याद आया  जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी…।”(कहानी- लाल-पीली लड़की )

मजे की बात तो ये है कि ससुराल में जॉइन्ट फैमिली थी तो खूब बनती थी मूली की भूजी मूंग की दाल डालकर और हमें धीरे-धीरे बहुत अच्छी लगने लगी बशर्ते साथ में परांठे हों ।

उस खब्त ने कहानी तो लिखवा दी हमसे लेकिन कुछ अनमोल घन्टे खाकर, इसीलिए उस समय वो कहानी अफसोस से भर गई थी, परन्तु बाद में  1979 में सारिका के नव -युवा विशेषांक में यह कहानी प्रकाशित हुई थी पुन: डॉ० देवेश ठाकुर ने “1979 वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां - कथा वर्ष 1980”में प्रकाशनार्थ चुना...फिर उर्दू और  पंजाबी में भी अनुवाद होकर छपी तो जिंदगी ने एक नए क्षेत्र में उठाए दूसरे कदम ने अफसोस समाप्त कर आत्मविश्वास बढ़ाया ।

खैर…सवाल तो यही है कि व्यस्ततम दिनों में ही हमारा दिमाग इतना उपजाऊ हो जाता है या औरों के भी साथ ये होता है …बताइए तो? 😊🍁🍃

— उषा किरण 



बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

यूँ ही

 


ताताजी कैप्सटन की तम्बाकू और कागज पार्सल से मंगवाते थे और बहुत सलीके से अपनी गोरी सुघड़ उंगलियों से बनाकर सिगरेट केस में जमा कर सहेज लेते थे और सारे दिन बीच- बीच में बहुत सुकून से कश लगाते रहते थे. 


हमें सिगरेट की खुशबू बचपन से ही बहुत पसन्द थी. शायद उस खुशबू के साथ उनका अहसास लिपटा रहता था इसीलिए, इसीलिए शायद आज भी हमें वो खुशबू प्रिय है.कई बार जब वो टॉयलेट में या बगीचे में होते तो हम और भैया चुपके से एक निकाल लेते और छिप  कर सुट्टे लगाते.हमें लगता था कि उनको  पता नहीं चलता होगा. 


शादी होने के कई साल बाद हम सब बैठे गप्पें  मार रहे थे तो पति ने ताताजी को बताया कि " एक बार उषा हमसे कह रही थीं कि आप सिगरेट पिया करो!” सुनकर वो हँस पड़े और हम झेंप गए.  हमने कहा कि हमें सिगरेट की खुशबू बहुत अच्छी लगती है तो ताताजी बोले " हाँ  तभी बचपन में हमारे सिगरेट केस से निकाल कर तुम और डब्बू पी लेते थे कभी-कभी!” हम और भैया हैरान हो गए कि उनको पता था पर कभी भी टोका नहीं । हमने पूछा "आपको कैसे पता चलता था?”  तो हंसकर बोले "मैं गिन कर रखता था।” आज भी सोचती हूँ कि कुछ कहा क्यों नहीं? मेरे बच्चे ऐसा करते तो डाँट तो जरूर ही खाते.


अम्माँ कहती थीं कि बचपन में हम बहुत जिद्दी थे और शाम होते ही जाने कौन सा, किस जन्म का दु:ख याद आ जाता था कि रोज रोने लगते और किसी तरह नहीं चुपते थे. आज भी शाम होने पर कभी-कभी वो अंदर छिपी बच्ची उदास हो जाती है बेवजह. अम्माँ नौकर को कहतीं " जा मुल्लू इन्हें साहब के पास क्लब लेकर जा!” एक दो घन्टे बाद ताताजी के कान्धे पर बैठे हम खूब हंसते- खिलखिलाते लौटते. 


ताताजी, आपके कान्धे पर बैठकर हमें जरूर लगता होगा जैसे हम दुनियाँ में सबसे ऊँचे हो गए, हाथ बढ़ा कर चाँद छू सकते हैं . ताताजी आप क्यूँ अचानक याद आ रहे हैं आज इतना. आज तो फादर्स डे भी नहीं…आपकी बर्थडे भी नहीं. लेकिन याद आने की कोई वजह हो ये जरूरी तो नहीं…पर कई यादें उदास कर जाती हैं ….बस यूँ ही….😔

-उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 

(अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज 11 अक्टूबर को  भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।)

बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

छोटी देवी


 अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ेंगे तो मुझे खुशी होगी 😊_________________


छोटी  देवी 

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सुबह से घर में चहल- पहल है । आज अम्माँ जी के एकादशी का उद्यापन है । पंडित जी आँगन में पूजा की तैयारियों में व्यस्त हैं ।अम्माँ जी भी पास कुर्सी पर बैठी निगरानी कर रही हैं ।

अम्माँ जी ने ठाकुर जी की सेवा ले रखी है। वे ठाकुर जी की दिन- रात सेवा में लगी बुरी तरह थक जाती हैं पर उनका श्रंगार, भोजन, स्नान इत्यादि सब अपने ही हाथ से करती हैं । सारे दिन उनका हाथ में माला पर जाप चलता ही रहता है। 

एक दिन चित्रांगदा से बोलीं- “बहू सोच रही हूँ एकादशी का उद्यापन कर ही  दूँ, न जाने कब गोपाल जी अपने पास बुला लें ।” 

आज उसी अनुष्ठान की तैयारी चल रही है।

" अरी बहू गंगाजल नहीं है, जरा पूजा से उठा लाइयो !” गंगाजल लाने गई चित्रांगदा ने पूजा के कमरे से ही शोर सा सुना। अम्माँ जी गुस्से से चिल्ला रही थीं और पंडित जी का भी ऊँचा स्वर सुनाई दे रहा था।

" हे राम इतनी सी देर में क्या गड़बड़ हो गई…” बड़बड़ाती - हड़बड़ाती हुई चित्रांगदा नीचे भागी। 

जाकर क्या देखती है कि रीना किचिन में खाना बनाने  में व्यस्त थी, इसी बीच न जाने कब  किचिन से निकल कर घुटने चलती हुई उसकी साल भर की बेटी भोग वाले डिब्बे से लड्डू निकाल कर, सारे उपद्रव से बेख़बर गाल भर- भर कर खूब मजे से, हिल- हिल कर लड्डू खाती हुई किलक रही है और अम्माँ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका है । 

पंडित जी भी भ्रष्ट- भ्रष्ट कह कर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।रीना रसोई से भाग कर आई और आटा लगे हाथों से  शर्मिंदा सी नतशिर खड़ी हो गई।अम्माँ जी उसे बुरी तरह से डाँटने लगीं।

चित्रांगदा ने लपक कर बच्ची को गोद में उठा लिया और हंस कर बोली " अरे पंडित जी देखिए तो  ये वही साक्षात देवी मैया तो  हैं, जिनके आप कंजकों में पाँव पूजते हैं। ठाकुर जी से पहले भोली मैया ने भोग लगा लिया तो  क्या हो गया! कुछ नहीं होता, बच्चा है !”

" शैतान कहीं की” बच्चे के गाल पर हंसते हुए एक हल्की सी चपत लगा कर , खिसियाई, नत- शिर खड़ी रीना का  हाथ पकड़कर चित्रांगदा वहाँ से ले गई।

                                  —उषा किरण 

अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी यह लघुकथा दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

तीन तेरह



तीन मेरे तेरे तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तेरा तेरा

तेरा तेरा 

तेरा तेरा

तेरा

तेरा

तेरा 

तेरा 

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा….🌸🌼

                    —उषा किरण

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

दौड़



सुनो,

तुम मुझसे जैसे चाहो वैसे 

जब चाहो तब और जहाँ चाहो वहाँ 

आगे जा सकते हो 

तुमको जरा भी ज़रूरत नहीं कि

तुम मुझे कोहनी से  पीछे धकेलो या कि

धक्का मार कर या टंगड़ी अड़ा कर 

गिराओ या ताबड़तोड़ आगे भागो 

या अपने नुकीले नाखूनों से

मेरा मुँह नोचने की कोशिश करो या 

जहरीले पंजों से मेरी परछाइयों की ही

जड़ों को खोदने की कोशिश करो


तुमको ये सब करने की 

बिल्कुल ज़रूरत ही नहीं 

क्योंकि मैं तुमको बता दूँ कि 

मैं तो तुम्हारी अंधी दौड़ में 

कभी शामिल थी ही नहीं 

मैं हूँ ही नहीं तुममें से कोई एक नम्बर 

मुझे चाहिए नहीं तुम्हारा वो

चमकीला सतरंगी निस्सीम वितान

तुम्हारी जयकारों से गूँजता जहान

वेगवती आँधियाँ, तूफानी आवेग

आँखों, मनों में दहकती द्रोह-ज्वालाएं,दंभ


तुम हटो यहाँ से , 

मुझे कोसने काटने में 

अपना वक्त बर्बाद न करो वर्ना देखो

वे जो पीछे हैं आज, कल आगे बढ़ जाएंगे

तुमसे भी बहुत और आगे

पैरों में तूफान और साँसों में आँधियाँ भरे

वे दौड़े आ  रहे हैं…तुम भी भागो…


सुनो, मुझसे तो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा या 

विवाद होना ही नहीं चाहिए 

बिल्कुल भी नहीं 

मैं तो एक कोने में खड़ी हूँ कबसे

दौड़ने वाले बहुत आगे निकल गए 

दूर बुलंदी पर फहरा रही हैं पताकाएँ 

गा रही हैं उनका  यशगान ….जय हो 


मैं भी खुश हूँ बहुत सन्तुष्ट 

अपनी बनाई  इक छोटी सी धरती और 

छतरी भर आकाश से

साँसें चलने भर हवाएं और 

दो घूँट पानी  भी हैं पल्लू में 

आँखें बन्द कर सुन रही हूँ 

अपने अन्तर्मन में बजता सुकून भरा नाद

इससे ज्यादा सुन नहीं सकती

सह नहीं सकती वर्ना मेरे माथे की शिराओं में  

बहने लगता है लावा और

तलवों से निकलने लगती हैं ज्वालाएं


बहती नदी से एक दिन चुराया था जो

हथेलियों में थामा वो  फूल

कभी का मुरझा कर झर चुका…

बस चन्द बीज बाकी हैं 

देखूँ,रोप दूँ इनको भी  कहीं, 

किसी शीतल सी ठौर…

तो फिर चलूँ  मैं भी …!!

                               —उषा किरण🌼🍃

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2023

लघुकथा

अहा ! ज़िंदगी, मासिक पत्रिका में सितम्बर, 23 अंक में मेरी लघुकथा `टेढ़ी उंगली’ प्रकाशित हुई है। अहा ! ज़िंदगी पत्रि​का दैनिक भास्कर ऐप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।आप भी पढ़िए-


                       ~  टेढ़ी उंगली ~

"बात सुनो,  किचिन में कूलर लगवा दो, बहुत गर्मी लगती है!” दूसरी मंजिल पर खुली छत पर बनी और तीन तरफ़ से खुली होने पर सीधी धूप आने के कारण मई- जून में भट्टी सी तपती थी रसोई।ऊपर से बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं तो उनकी नित नई फरमाइश अलग से । आज ये बनाओ मम्मी , कल वो बनाओ। परेशान होकर शुभा ने आज फिर राघव से कहा।

"अरे कहीं देखा है किचिन में कूलर ? फिर कूलर की हवा गैस पर लगेगी कि नहीं?”राघव ने लापरवाही से कहा।

"हाँ देखा है , खूब देखा है, कूलर क्या ए. सी. भी देखा है। और खिड़की में थोड़ा सा तिरछा करके लगा देंगे…अरे वो सब मेरा सिरदर्द है, मैं मैनेज कर लूँगी न…तुम बस आज छोटा कूलर लेकर आओ। कबसे कह रही हूँ तुम सुनते क्यों नहीं हो ? तुमको खाना बनाना पड़े तो पता चले। बना- बनाया मिल जाता है, तो तुमको क्या पड़ी है….!” 

बहुत देर तक शुभा झुँझला कर छनछनाती रही लेकिन राघव न्यूज पेपर में सिर घुसाए तटस्थ भाव से अनसुना कर बैठे रहे। 

आज शुभा का गुस्सा चरम पर था। चेहरा गर्मी और क्रोध से लाल भभूका हो रहा था। ऐसे काम नहीं चलेगा कुछ करना पड़ेगा । मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराई।

कुकर गैस पर चढ़ा कर राघव से बोली " देखो दो सीटी आ जाएं तो गैस बन्द कर देना मैं नहाने जा रही हूँ ।” बाथरूम में जाकर चुपचाप सीटी आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दो सीटी आईं राघव के रसोई में जाते ही दबे पाँव शुभा ने दौड़ कर रसोई का दरवाजा बन्द करके बाहर से कुँडी लगा दी।

"अरे रे…ये क्या कर रही हो ? खोलो दरवाजा”

" शर्मा जी जरा दस मिनिट तो देखो खड़े होकर, मैं नहा कर आती हूँ , तब तक कश्मीर के मजे लो ।” राघव का गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया। बेतरह गर्मी से बेहाल होकर चीख- पुकार मचाने लगे। 

ऊपर के कमरे में पढ़ रही पूजा पापा की आवाज़ सुनकर दौड़ी आई और किचिन का दरवाजा खोला। बौखलाए से राघव बड़बड़ाते हुए कमरे में कूलर के सामने भागे। माँ की हरकत सुनकर हंस कर पूजा बोली "हा-हा …पापा बिना बात क्यों पंगा लेते हो मम्मी से, सीधी तरह से मान क्यों नहीं लेते उनकी बात !”

शाम को किचिन में गुनगुनाते हुए शुभा कूलर की ठंडी बयार में मुस्कुराते हुए बड़े मन से डोसा बना रही थी।

                                    — उषा किरण🌸🍃




सोमवार, 14 अगस्त 2023

रॉकी और रानी…. मेरे चश्मे से


हाँ जी, देख ली आखिर…! 

न-न करते भी बेटी ने टिकिट थमा कर गाड़ी से हॉल तक छोड़ दिया तो जाना ही पड़ा।सोचा चलो कोई नहीं करन जौहर की मूवी स्पाइसी तो होती ही हैं तो मनोरंजन तो होगा ही।मैं तो कहती हूँ कि आप भी देख आइए…पूछिए क्यों ?

तो भई एक तो मुझे ये मूवी लुभावनी लगी, जैसा कि डर था कि बोर हो जाऊंगी वो बिलकुल नहीं हुई, कहानी ने बाँधे रखा और भरपूर मनोरंजन किया।आलिया बहुत प्यारी लगी है उसकी साड़ियाँ देखने लायक हैं शबाना की भी। रणवीर भी क्यूट लगा है।सबकी एक्टिंग भी बढ़िया है। पुराने गानों को एक ताजगी से पिरोया गया है, खास कर "अभी न जाओ छोड़कर….” गाने का पूरी मूवी में बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है…वगैरह- वगैरह ।

खैर, ये सब तो जो है सो तो है ही। परन्तु सबसे बड़ी वजह है कि  ये कहानी जो एक संदेश छोड़ती है वो बहुत जरूरी बात है।घर- परिवार किसी एक की जागीर नहीं होती उस पर सभी सदस्यों का बराबर हक है। सबके कर्तव्य हैं तो अधिकार व सम्मान भी सबके हैं ।

ठीक है भई माना कि, घर में बुजुर्गों का सम्मान जरूरी है परन्तु इतना भी नहीं कि बाकी सबकी साँसें घुट जाएं, उनकी अस्मिता को कुचल दिया जाय। परम्परा जरूरी हैं बेशक, पर उनका आधुनिकीकरण होना भी उतना ही  जरूरी है। नए जमाने में नई पीढ़ी को सुनना ज़रूरी है। उनके विचार व सुझावों का भी सम्मान होना चाहिए, वे नए युग को पुरानी आँखों से बेहतर तरीके से देख व समझ पाएंगे।

घर की बेटी के मोटापे के आगे उसकी प्रतिभा को कोई स्थान नहीं। जैसे- तैसे किसी से भी ब्याहने को आकुल हैं सब। घर का बेटा कड़क, रौबदार माँ का  फरमाबदार बेटा तो है पर वो ये भूल गया कि  वो किसी का पति, बाप का बेटा, बच्चों का बाप भी है। उनके प्रति भी उसके कुछ फ़र्ज़ हैं । बरगद की सशक्त छाँव में जैसे बाकी पौधे ग्रो नहीं करते वैसे ही कड़क दादी की छाँव में बाकी सब सदस्य बोदे हो गए। बहू और पोती रात में चुपके से रसोई में छिप कर गाती हैं, अपने अरमान पूरे करती हैं और डिप्रेशन में  अनाप शनाप केक वगैरह खा-खाकर वजन बढ़ाती हैं, जो बेहद मनोवैज्ञानिक है। ऐसे में होने वाली बहू की बेबाक राय पहले तो किसी को हज़म नहीं होतीं । उसके क्रांतिकारी प्रोग्रेसिव विचार घर में तूफ़ान ला देते हैं । घर की नींव हिला देते हैं और भूचाल ला देते हैं , परन्तु बाद में सबको शीशा दिखाती हैं।सही है, बेटे के ही नहीं बहू या होने वाली बहू के भी अच्छे सुझावों का स्वागत होना चाहिए ।

क्या हुआ यदि जीवन साथी के संस्कार अलग हैं, तो क्या हुआ यदि होने वाला पति लड़की से शिक्षा, योग्यता वगैरह हर बात में कमतर है लेकिन वो लड़की से प्यार बेपनाह करता है और लड़की के पेरेन्ट्स के सम्मान को अपने पेरेन्ट्स के सम्मान से कम नहीं होने देता। खुद को बदलने के लिए बिना किसी ईगो को बीच में लाए प्रस्तुत है। लड़की की कही हर बात का सम्मान करता है। ये छोटी- छोटी बातें दिल चुरा लेती हैं । रानी के पिता को सम्मान दिलाने के लिए उनके साथ देवी पंडाल में रॉकी का डाँस करने का सीन भी दिल जीत  लेता है। सिर्फ़ लड़की का ही फ़र्ज़ नहीं होता कि वो खुद को बदले, एडजस्ट करे ये फर्ज लड़के का भी उतना ही होता है। दोनों के पेरेन्ट्स का सम्मान बराबरी का होना चाहिए, ये बहुत जरूरी बात सुनाई देती है।

धर्मेंद्र और शबाना की लव स्टोरी भी बहुत ख़ूबसूरती से दिखाई है। कभी-कभी बिना प्यार और सद्भावना के पूरी ज़िंदगी का साथ इंसान को कम पड़ जाता है और कभी मात्र चार दिन का प्यार भरा साथ पूरा पड़ जाता है…जीवन में एक ऐसी सुगन्ध भर जाता है कि उसकी आहट होश- हवास गुम होने पर भी सुनाई देती है।

 हमने रॉकी और रानी की प्रेम कहानी बिल्कुल नहीं बताई है। अब भई यदि हमारे चश्मे पे भरोसा हो तो देख लें जाकर उनकी प्रेम कहानी और न हो तो भी कोई बात नहीं….हमें क्या😎

                                                     — उषा किरण 

शुक्रवार, 11 अगस्त 2023

पुस्तक समीक्षा ( दर्द का चंदन)



दर्द का चंदन 
~~~~~~~~~~

आज चर्चा करूंगी, मेरी मित्र, बेहतरीन कवयित्री, कथाकार, उपन्यासकार डॉ उषाकिरण जी के उपन्यास 'दर्द का चंदन' की।

उपन्यास तो प्रकाशन के ठीक बाद ही मंगवा लिया था, पढ़ भी लिया था, लिखने में विलंब हुआ, उषा जी माफ़ करेंगी।

उपन्यास 'दर्द का चंदन' की भूमिका में कथाकार हंसादीप ने शुरुआत में ही लिखा है- 

"ये हौसलों की कथा है,

निराशा पर आशा की,

हताशा पर आस्था की,

पराजय पर विजय की कथा है"

निश्चित रूप से ये उपन्यास, हौसलों की ही कथा है। उपन्यास की नायिका, स्वयं उषा किरण जी हैं। आप सबको बता दूँ, कि उषा जी ने स्वयं ब्रेस्ट कैंसर को मात दी है, लेकिन इस मात देने की प्रक्रिया ने कितनी बार डराया, कितनी बार हिम्मत को तोड़ा, कितनी बार मौत से साक्षात्कार करवाया, ये वही जानती थीं, और अब हम सब जान रहे हैं, उनके इस संस्मरणात्मक उपन्यास के ज़रिए।

उपन्यास बेहद मार्मिक है। जब किसी परिवार में भाई-बहन दोनों ही कैंसर से लड़ रहे हों, तब उस परिवार की मनोदशा हम समझ सकते हैं। उषा जी ने क्रमबद्ध तरीके से भाई की बीमारी को विस्तार दिया है। उपन्यास पढ़ते समय, पाठक का दिल भी उसी तरह दहलता है, जैसे उषा जी और उनके परिवार का दहलता होगा।

उषा जी ने उपन्यास में केवल बीमारी का ज़िक्र नहीं किया है, बल्कि इस बीमारी से कैसे लड़ा जाए, इस बात को भी बहुत बढ़िया तरीके से समझाया है। वे स्वयं जैसा महसूस करती थीं, इस मर्ज़ से पीड़ित हर स्त्री, ठीक वैसा ही महसूस करती होगी, ज़रूरत है तो उषा जी जैसी सकारात्मक सोच की, परिजनों के साथ की, जो मरीज़ को टूटने नहीं देता।

उपन्यास की भाषा भी जगह जगह पर काव्यमयी हो गयी है, जिससे पाठक सहज ही उषा जी के कवि मन की थाह ले सकता है। उपन्यास के हर अंक की शुरुआत, कविता से ही की गई है।

बीमारी जब घेरती है, तब व्यक्ति स्वतः ही आध्यात्म की ओर झुक जाता है। घर वाले भी तरह तरह की मनौतियां मनाने लगते हैं। इलाज के दौरान जिस मानसिक दशा से वे गुज़रीं और जिन धार्मिक स्थलों की उन्होंने यात्रा की, उसका बहुत सजीव वर्णन उषा जी ने किया है।

कीमो के दौरान, अस्पताल में मिलने वाले अन्य कैंसर पेशेंट्स की मनोदशा और उषा जी द्वारा उनके भय को दूर करने के प्रयास बहुत सजीव बन पड़े हैं। चूंकि ये भोगा हुआ यथार्थ है, सो कलम से निकला एक एक शब्द, पाठकों तक पहुंचना ही था।

उपन्यास के अंत में उषा जी लिखती हैं-

"मेरा मकसद, इस कहानी के माध्यम से दया या सहानुभूति अर्जित करना नहीं है, सिर्फ यही सन्देश देना था, कि जन्म मृत्यु तो ईश्वर के हाथ है, परन्तु आस्था और सकारात्मकता ने मुझे शारीरिक व मानसिक बल दिया। यदि हम सजग रहें, तो समय पर अपनी बीमारी स्वयं ही पकड़ सकते हैं।"

इस तथ्यपरक उपन्यास के लिए उषा किरण जी साधुवाद की पात्र हैं। भोगा हुआ कष्ट लिखना, यानी उस कष्ट से दोबारा गुज़रना, लेकिन उषा जी ने ये किया, सामाजिक भलाई के उद्देश्य से। उन्हें हार्दिक बधाई व धन्यवाद।

हिंदी बुक सेंटर से प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत 225 रुपये है। छपाई शानदार है और आवरण पर उषा जी द्वारा बनाई गई पेंटिंग भी बेहतरीन है।

इस उपन्यास को अवश्य पढ़ें, निराश नहीं होंगे।

प्रकाशक और लेखिका को हार्दिक बधाई।

                            —वन्दना अवस्थी दुबे





पुस्तक समीक्षा

शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-




 शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’  की समीक्षा प्रकाशित-


शुक्रवार, 16 जून 2023

दर्द का चंदन- उषा किरण



 साहित्यनामा पत्रिका में `दर्द का चंदन' पर बहुत अनोखी परन्तु सटीक समीक्षा लिखी है रचना दीक्षित ने । एक शुक्रिया तो बनता है रचना जी। आइए देखें क्या लिखती हैं वे😊

🌸————————————————


एक पाती उषा जी के

प्रिय उषा जी,

आपकी किताब ‘दर्द का चंदन’ नाम पढ़कर भी उस दर्द की पराकाष्ठा को न समझ पाने की भूल कर के पढ़ने लगी क्योंकि अगर पहले से कुछ पता होता तो शायद न पढ़ती। दर्द की गलियों से निकलकर कौन दोबारा उन गलियों में जाना चाहेगा। जब तक पिताजी की और भाई की बीमारी का जिक्र चल रहा था मन असहज होते हुए भी सहजता से पढ़ने का स्वांग करती रही। पर जब आपकी बीमारी का जिक्र आया तो यूं लगा दुखती रग पर किसी ने उंगली नहीं पूरा का पूरा कैंसर रख दिया हो। मैंने किताब रख दी पर फेसबुक पर आपने आग्रह किया कि मैं पढूं क्योंकि दुःख–सुख तो जीवन में आते रहते हैं। सोचने की बात है कि दूसरे को ऐसी सलाह देने और स्वयं उस पर अमल करने में बहुत अंतर होता है जो आपने असल में अपने जीवन में कर दिखाया। दोबारा किताब खोली। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की जगह दर्द का चंदन आपकी ही पंक्तियों से उठा कर माथे पर एक त्रिपुंड सजा लिया और "दर्द हद से बढ़ा तो रो लेंगे, हम मगर आपसे कुछ न बोलेंगे" को मन में बैठा कर मैं दर्द की भूल-भुलइयों में खोने लगी। मेरी अपनी कविता भी रिसने लगी:

पोर पोर पुरवाई उकसाती पीर

बढ़ता ही जाता है सुधियों का चीर

मेरी मां को गर्भाशय का कैंसर हुआ था जब वह 35 साल की थी और यूटरस निकालना पड़ा था। फिर बाद में लगभग 25 साल बाद उन्हें ब्रेस्ट कैंसर भी हुआ पर तकलीफों के साथ भगवान ने उनकी उम्र लिखी थी तो वो अपनी जिंदगी बहुत तो नहीं पर ठीक ठाक जी गईं। इसीलिए ग्रुप में जब कभी बचपन की बात होती है, मायके की बात होती है, मैं चुपचाप खिसक जाती हूँ। बताती चलूं मेरी माँ को दोनों बीमारी थीं तो मैं मेरे लिए तो जोखिम था ही। पहले तो लगातार स्त्री रोग विशेषज्ञ से चेकअप करवाती रही फिर रेगुलर एनुअल हेल्थ चेकअप पर आ गए। इसी बीच बात शायद 23 नवंबर की होगी, एक बार 2018 में एनुअल हेल्थ चेक अप के दौरान ब्रेस्ट में दो गाँठे निकली। फिर क्या था शुरू हो गया भाग दौड़ और टेस्ट का कार्यक्रम। उस समय घर पर कुछ मेहमान थे। इधर हमारा 15 दिन का दुबई और मॉरीशस का टिकट काफी पहले ही हो चुका था। फिर मेहमानों के जाने बाद आनन-फानन में एक सर्जरी हुई 28 नवंबर को फिर उसकी रिपोर्ट आई जो भगवान की कृपा से सामान्य निकली। यूं लगा जान बची तो लाखों पाए। 12 दिसंबर की फ्लाइट थी 10 दिसंबर को टांके कटे, 11 को पार्लर गई, 12 की फ्लाइट पकड़ ली, पर हां, पूरे समय सफर में ध्यान बहुत रखना पड़ा।

यह उपन्यास नहीं ये एक संघर्ष गाथा है, इसे उपन्यास कहना दर्द का अनादर करने जैसा होगा। एक्स रे कक्ष के बाहर लिखा होता है, बिना जरूरत अंदर प्रवेश न करें, विकिरण का खतरा है पर आपने तो नियमों की भयंकर अनदेखी कर दी। विकिरणों को इस कदर हवा दी कि कोई अंदर गया भी नहीं और विकिरणों से छलनी हो गए सबके मन आत्मा और हृदय। यहां दर्द को चंदन के फाहों में लपेट कर उसे शीतलता देने का प्रयास है, ताकि पढ़ने वालों को दर्द की अनुभूति कम हो पर दर्द तो दर्द है। चंदन के भीतर भी कराह उठा स्याही में घुल कर दर्द ने परिसंचरण का रास्ता अपनाया और ले लिया किताब के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक को अपने आगोश में।

अब बात करें आपकी, तो भाई के लिए आकंठ प्रेम मानव, मानवता, प्रकृति और जानवरों के प्रति आपका लगाव आपकी सकारात्मक सोच। यहां कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है मात्र भोगा हुआ यथार्थ है। शब्दों पर कहीं भी कल्पना का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। अपनी अंतहीन पीड़ा के साथ अपनों को खोने का दुःख, वो भयावह पल ‘दुआओं का हाथों में स्ट्रेचर पकड़ साथ साथ चलना’ ‘दवाइयों की महक, औजारों की खनक’ को आत्मसात करना, दर्द, पीड़ा और नकारात्मकता को रोज उठा कर हवन कुंड में डाल स्वाहा करना, समेटना, पुस्तक का रूप देना। हर चीज चलचित्र की तरह आंखों के सामने से गुजरती रही और उसे अंदर तक महसूस करती आपके साथ-साथ मैं भी। बीच बीच में हंसी ठिठोली के बहाने ढूंढते शब्द। टूटी चूड़ियों की माला, गुट्टे खेलना बचपन में लौटना और अपने साथ सबको ले के जाना भी जादूगरी से कम नहीं है।

बीच बीच में गौरव और सीमा का किस्सा, मात्र दो लोगों का परिवार उसमें अकेले सब कुछ करना और न कर पाने की टीस, इंटरकास्ट मैरिज, उससे उठते प्रश्न। अपनी पीड़ा के बीच दूसरे की पीड़ा को समझना और उन्हें दिलासा देना,

प्रोमेनेड बीच’ पर सूर्यास्त, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद गुरु का कष्ट और शिष्य की चिंता और विवशता आपके दर्द में पूरी तरह डूब कर बाहर आने की बात कहता है तब मेरी ही कुछ पंक्तियां अनायास कलम थाम लेती हैं:

कांपते होंठों से

जब दर्द कुतरा था तुमने

दर्द अपने लिबास उतारने को

आतुर हो गया

मैं ज्वालामुखी सी

पिघल कर बहने लगी थी

अस्पताल के पोस्टरों में लिखी बातें जो लोगों को जागरूक करने के लिए होती हैं पर मुश्किल समय में कोई इन पर ध्यान नहीं देता। उस समय तो मात्र एक ही उद्देश्य होता है किसी भी कीमत पर लड़ाई जीतना। अपना घर, अपनी जमीन बेचकर इलाज करवाने को मजबूर लोग, बीमारी और उससे जुड़ी हुई तमाम बातों को इतना विस्तार से लिखना जिससे आम लोग जागरूक हो सकें। कैंसर सेल की सजगता और उनके शैतानी ख्याल, एंटीजन और एंटीबॉडीज का खेल जिसे पढ़ मचल उठी मेरी एक विज्ञान कविता:

आंखों की तरलता

सारी बंदिशें तोड़ चुकी थी

इस सरसराहट ने

दशकों से शांत

रक्त में विचर रही

शरीर की

टी स्मृति कोशिकाओं को

सक्रिय कर दिया

फिर क्या था

एंटीजन पहचाना गया

रक्त में एंटीबॉडीज मचलने लगीं

मुहब्बत की उदास रात की सांसों

पर किसी ने तकिया रख दिया

दर्द के उत्तराधिकारी उमड़ने लगे

एक खुशनुमा मौसम

पहन कर एंटीबॉडीज ने

अंतिम नृत्य प्रस्तुत किया।

आपने क्या सोचा था, मेरी जैसी चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी को शादी में न बुला कर इग्नोर करेंगी और हम मान जायेंगे। यहां तो मान न मान मैं तेरा मेहमान। मैं तो गेटक्रेशर हूं सो बच्चों की शादियों में बिन बुलाए मेहमान की तरह गेट क्रैश कर हो आई और बच्चों के सर पर चिरायु होने का आशीर्वाद भी दे आई। जानती हूँ चुनौतियों के बिना जीवन भी क्या जीवन है, पर ये सिर्फ सुनने में ही अच्छा लगता है, यथार्थ इसके विपरीत है। ये भी उतना ही सच है कि बड़ी लड़ाई या चुनौती जीतने के बाद इंसान में जो निखार आता है वो किसी दूसरी तरह से नहीं आ सकता। 

आपके व आपके परिवार के सुखद जीवन की कामना के साथ।

 

रचना दीक्षित

 


बुधवार, 14 जून 2023

शान्ति निकेतन, सोनाझुरी- हाट और बाउल गीत





शांति निकेतन, कोलकाता से लगभग 180 किमी. दूर बीरभूम जिले के बोलपुर में स्थित है। शांतिनिकेतन की स्थापना देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। बाद में ये जगह उनके बेटे रविन्द्रनाथ टैगोार की वजह से मशहूर हो गई। रविन्द्रनाथ टैगोर ने पथ भवन की शुरूआत की। इस स्कूल में शुरू में 5 बच्चे पढ़ने आए। उन्होंने प्रकृति के बीच कक्षाओं को चलाने का अनोखा तरीका शुरू किया। बाद में इस स्कूल का नाम विश्व भारती यूनिवर्सिटी हो गया। आज कौन ऐसा व्यक्ति है जिसने शान्ति निकेतन का नाम न सुना होगा।

कलकत्ता जाने पर हम लोगों ने जब दो दिन के लिए शान्तिनिकेतन जाने का प्रोग्राम बनाया तो कुछ लोगों ने कहा कि शांति निकेतन और बंगाली माहौल को देखना है तो आपको सोनाझुरी हाट जरूर देखना चाहिए। सोनाझुरी  हाट के नाम से प्रसिद्ध यह हाट हर शनिवार को खोई नदी के तट पर लगती है। शनिवार को ही हम लोग शान्ति निकेतन पहुँचे थे तो खाने के बाद आराम करके शाम को हाट के लिए निकल लिए। यह एक खुला बाजार है जहां हम आदिवासी वस्तुओं और कई अन्य सामान खरीद सकते हैं। इसमें ग्रामीण इलाकों से आर्टिस्ट आते हैं और अपने हाथों से बनाए सामान बेचने के लिए लाते हैं । यहाँ आदिवासियों द्वारा बनाई बहुत सुन्दर पेटिंग्स भी बहुत कम दाम पर बिकने के लिए आई हुई थीं। हमने भी कॉपर के तारों से बनी दुर्गा जी व गणेश जी की दो छोटी पेंटिंग खरीदी। कान्था कढ़ाई की सा़ड़ियाँ भी बिकती देख एक हमने भी खरीद ली। 

कुछ संथाल जनजाति के लोग समूह में गाते हुए डांस कर रहे थे तथा कुछ स्थानीय बाउलों द्वारा गाए जाने वाले अद्भुत गान को सुन कर मैं मुग्ध होकर थम गई। पैरों को जैसे किसी ने जकड़ लिया हो। मन आनन्दमिश्रित करुणा से भीग गया। कैसी साधना होगी इस गायन के पीछे लेकिन एक कपड़ा बिछा कर जिस पर चन्द सिक्के व रुपये पड़े थे हरेक आने- जाने वालों पर गाते हुए आशा भरी करुण दृष्टि डालने वाले ये कलाकार कितनी बदहाली में जीते होंगे। देश - विदेश में जब भी मैं किसी को गा बजाकर भीख माँगते देखती हूँ तो मेरा कलेजा मुँह को आता है।बहुत ही कष्ट होता है लगता है काश…..!

बाउल के गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं।बाउल, बंगाल की तरफ लोकगीत गाने वालों का एक ग्रुप होता है। ये बाउल धार्मिक रीति रिवाजों के साथ गीतों का ऐसा सामंजस्य बिठाते  है की ये लोकगीत सुनने लायक होते है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग या तो हिन्दू वैष्णव समुदाय से ताल्लुक रखते हैं या फिर मुस्लिम सूफ़ी समुदाय से। कहा जाता है कि संगीत ही बाउल समुदाय के लोगों का धर्म है। उन्हें अक्सर उनके विशिष्ट कपड़ों और संगीत वाद्ययंत्रों से पहचाना जा सकता है। बाउल संगीत का रवींद्रनाथ टैगोर की कविता और उनके संगीत (रवींद्र संगीत) पर बहुत प्रभाव था।

ऐसा भी कहते हैं कि बाउल संगीत का मुख्य उद्देश्य अलग अलग जाति, समुदाय धर्म के लोगों को एक कर संगीत के द्वारा उनमें एकता का संचार करना है।ये गायक भगवा वस्त्र धारण किये हुए होते हैं। इनके बाल बड़े होते हैं जिन्हें ये खुले रखते हैं या जूड़ा बांधते हैं। ये लोक गायक हमेशा तुलसी की माला और हाथों में इकतारा लिए हुए होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय भी संगीत है, ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूम घूम के लोक गीत गाते हैं और उससे प्राप्त पैसों से गुज़र बसर करते हैं। केंडुली मेले के ही दौरान ये सभी लोग अपनी भूमि पर जमा होते हैं और बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ अपना ये खूबसूरत पर्व मनाते हैं। 

बाउल के दो वर्ग हैं: तपस्वी बाउल जो पारिवारिक जीवन को अस्वीकार करते हैं और बाउल जो अपने परिवारों के साथ रहते हैं। तपस्वी बाउल पारिवारिक जीवन और समाज का त्याग करते हैं और भिक्षा पर जीवित रहते हैं। उनका कोई पक्का ठिकाना नहीं है, वे एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में चले जाते हैं ।

सेनाझुरी हाट का सबसे बड़ा हासिल था बाउल गान से प्रेम, जो आज भी आँखें बन्द करते ही मेरे कानों में गूँजने लगता है। और इस प्रेम के चलते अब तक तो मैं यूट्यूब पर ढूँढ कर न जाने कितने बाउल गीत सुन चुकी हूँ ।

                            — उषा किरण 🌿🍂🍃🎋

बुधवार, 24 मई 2023

कोकून



क्या कभी सोचा है ?

वे जो अपने कोकून में बन्द हो बुनते रहते हैं गुपचुप रेशमी ताना- बाना

ताकि हम दो पल मिलजुल बैठ सकें सुकून से  रेशमी अहसास के तले

वे जुटाते रहते हैं अपनी ममता, अपना वक्त, अपनी कोमल सम्वेदनाएं

वे गुपचुप तुम्हारी धूप चुरा कर शीतल फुहार में बदल देना चाहते हैं 

उनका मकसद ही है कुछ रेशम-रेशम बुनना, रेशम-रेशम हो जाना…

क्यों डालना है उनको आजमाइश में ?

रहने दो न उनको अपने रेशमी कोकून में गुम


पर नहीं…तुम तो तुम हो 

तुम उनके बुने रेशमी धागों को आजमाते हो…तोड़ते हो….चटाक्

क्योंकि हक है तुम्हारे प्यार का…!

प्यार ? तुम भूल जाते हो कि कोई भी बुनावट ताने-बाने से ही बनती है शक या जोर आजमाइश से नहीं 

याद है न बचपन में रटते थे- 

"रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए 

टूटे से फिर न जुड़े जुडे गाँठ पड़ जाय…!”


इससे पहले कि वे आहत हो समेट लें अन्दर अपने ही अहसासों के 

रेशमी गुच्छे और उनमें मुँह छिपा खुद ही का दम घोंट लें

सुनो आजमाइश करने वालों…

समझो तड़ाक- फड़ाक करने वालों 

ये कोई भवन नहीं जो ईंट गारे से बनता हो

जिसमें लकड़ी सरिए लोहा खपता हो

कोमल रश्मियों से बुना बेहद नाज़ुक वितान है ये

सम्भल जाओ… रुक जाओ…!


रेशम बुनने वाले मन बहुत कोमल होते हैं  

कान लगा कर सुनो ध्यान से उनके मधुर रागिनी में बजते अन्तर्नाद में छिपे विलाप को 

बेशक वे तुम्हारी धूप चुराने का हौसला रखते हों पर धूप से झुलसते वे भी हैं 

पाँव उनके भी  लहुलुहान होते हैं ?

जिन रास्तों से गुजर कर वे तुम तक आए 

बेशक वे फूलों भरे तो न होंगे 

कोई भी रास्ता सिर्फ़ फूलों भरा कब होता है भला ?


तो यदि तुमको प्यार है रेशमी छाँव से तो

रेशम बुनने वाले उनके हाथों को थमने मत देना

इससे पहले कि वे गुम  हो जाएं अपने ही घायल जज़्बातों के बियाबान में 

रुक जाना, थाम लेना बढ़ कर उनके थके  हाथों को 

सहला देना लहुलुहान हुए पैरों को…!

                   —उषा किरण 🍂🌱



गुरुवार, 18 मई 2023

कौसर मुनीर-बेहतरीन महिला गीतकार


किसी नए गाने को सुन कर जब भी मन ठिठक गया, कदम थम गए, कान एकाग्रचित्त हो सुनने लगे तो  सर्च करने पर पाया कि वो गाना कौसर मुनीर का लिखा हुआ है। समकालीन महिला गीतकारों में मैं कौसर मुनीर को सबसे ज़्यादा नम्बर दूँगी। गुलजार साहब के बाद गानों में कविता डालने का काम जितनी ख़ूबसूरती से वे करती हैं लाजवाब हैं।

अगर बॉलीवुड में महिला गीतकारों की बात करें, तो उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है।50 के दशक में सरोज मोहिनी नैय्यर, माया गोविंद, जद्दनबाई, वहीं 90 के दशक में रानी मलिक और आजकल बॉलीवुड में लगभग 10 महिला गीतकार सक्रिय हैं जिनमें कौसर मुनीर, अन्विता दत्त, प्रिया पांचाल, सोना मोहापात्रा, शिवानी कश्यप, रश्मि विराग प्रमुख हैं. अभी अन्विता, कौसर और रश्मि विराग की जोड़ी को छोड़ दो तो कोई भी महिला लगातार नहीं लिख रही है।

पुरुष प्रधान क्षेत्र में अपनी मौजूदगी मज़बूती से दर्ज करा रही कौसर ने बतौर गीतकार अपने करियर की शुरुआत टेलीविजन शो जस्सी जैसा कोई नहीं के टाइटल ट्रैक से की थी।  उसके बाद उन्होंने फिल्म टशन का सुपरहिट गाना फलक तक के बोल लिखे।  इस गाने के हिट होने के बाद वह हिंदी सिनेमामें जाना-माना चेहरा बन गयी।  तब से अब तक उन्होंने कभी मुड़ कर नहीं देखा। उसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा की कई सुपरहिट फिल्मों इश्क्जादे, धूम 3, एक था टाइगर जैसी फिल्मों के गानें लिखे। इसके अलावा वह फिल्म इंग्लिश-विन्ग्लिश में बतौर लैंग्वेज कन्सल्टेंट के काम कर चुकी हैं। कौसर मुनीर कविता भी बहुत सुन्दर लिखती हैं उनकी कविताओं के कुछ वीडियो यूट्यूब पर भी सुने एक देखे जा सकते हैं ।

कौसर मुनीर द्वारा लिखे गए सबसे लोकप्रिय गीतों में से एक  फिल्म पैडमैन (2018) के लिए आज से तेरी है -

आज से तेरी सारी

गलियां मेरी हो गयी

आज से मेरा

घर तेरा हो गया

आज से मेरी सारी खुशियाँ

तेरी हो गयीं

आज से तेरा गम मेरा हो गया…!

स्वानंद किरकिरे के मुताबिक़ "कई बार किसी महिला के लिखे गीत को सुनते वक़्त समझ आता है कि शायद यह एंगल गाने में एक पुरूष डाल ही नहीं सकता था. वो हमारे गीतों को एक नया आयाम देती हैं."

इसी तरह फलक गीत आया। हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन फलक गाना खास रहा। इसी तरह कला फिल्म का गाना फेरो न नजरिया- तो मन मोह लेता है और सभी के मन में घर कर गया। सिरीशा भगवतुला ने इसे विरह में डूबकर गाया है. उन्हें सुनकर लगता है, जैसे उनकी आवाज़ मन के किसी दर्दीले कोने से आ रही हो।

तारों को तोरे ना छेड़ूँगी अबसे

तारों को तोरे ना छेड़ूँगी अबसे

बादल ना तोरे उधेड़ूँगी अबसे

खोलुंगी ना तोरी किवड़िया

फेरो ना नजर से नजरिया…!

 अभी फ़िलहाल तो  जिक्र "मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे” फिल्म के गाने का- आमी जानी रे बहुत ही मधुर गाना है।इसी फिल्म के दो और गाने शुभो- शुभो और माँ के दिल से भी सुनने लायक है। रानी मुखर्जी कहती हैं कि -"मां के दिल से…उन बेहतरीन गानों में से एक है जिसे मैंने हाल के दिनों में सुना है जो मां-बच्चे के रिश्ते को इतनी खूबसूरती से परिभाषित करता है। पहली बार जब मैंने गाना सुना तो मैं कौसर द्वारा लिखे गए शब्दों से बेहद प्रभावित हुई, मैं केवल अपनी मां और अपने बच्चे तथा एक बेटी से मां बनने तक की अपनी यात्रा के बारे में सोच सकती थी। गाने की पूरी सोच यह है कि मां बच्चे को जन्म देती है या बच्चे मां को जन्म देता है।गाने को अपनी मां को समर्पित करते हुए रानी ने कहा, यह वास्तव में खास है कि यह गाना महिला दिवस पर रिलीज हो रहा है क्योंकि एक महिला के रूप में मेरा जीवन मां बनने के बाद पूरी तरह से बदल गया। मैं इस गाने को अपनी मां को समर्पित करना चाहती हूं, जिन्होंने इतने सालों में मेरे लिए कई कुर्बानियां दी हैं। मातृत्व एक शानदार जीवन शक्ति है और अनंत सकारात्मकता का कार्य है।”

आमी जानी रे

आमी जानी रे

तुमार बोली

तुमार चुप्पि भी रे

आमी जानी रे

आमी जानी रे

तुमार बट्टी भी

तुमार कट्टी भी रे

आमी जानी रे

आमी जानी रे….! 

सुनिए कितना मीठा गाना है❤️

                                       —उषा किरण

मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

साँझ

 


उतर रही है साँझ 

क्षितिज से

गालों पे 

फिर तिरे  दामन पे

पाँव रख 

हौले से 

बिखर गई गुलशन में

रक्स-ए-बहाराँ बन के….

                 - उषा किरण 🌸🍃🌱

रविवार, 12 मार्च 2023

छपाक






शाँत, सुन्दर, सौम्य , सजी-संवरी

नदी को देखते ही ये जो अकुला कर 

शीतल निर्मल जल में गहरे पैठ

तुम बहा देते हो अपनी मलिनता

डुबोते हो अपना ताप

बुझाते हो तृष्णा

फिर जब चाहते हो 

अपनी ठोकर से 

मस्ती में उछाल देते हो कंकड़ और

लहरों की हलचल से पुलकित 

मस्त चाल चल देते हो बेफिक्र

हंसते, गुनगुनाते… 


क्या तुमने कभी सोचा है

ये है जो शाँतमना-मन्थर-गति प्रवाहित 

उसके सीने में ज़ब्त हैं 

कितने तूफानों की स्मृतियाँ 

कितनी ताप की ऊष्मा

कितनी सर्द रातों की ठिठुरन

कितने कुहासे

कितने गहरे भँवर

कितनी दलदल

कितनी उलझी गाँठें 

और कितने गहरे काले अँधेरे….


तुम तो बस उठाते हो एक कंकड़ और 

पूरे जोर से उछाल देते हो उसके सीने में

छपाक….!!

                  — उषा किरण

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

पुस्तक- समीक्षा:- दर्द का चंदन





 समीक्षा : "दर्द का चंदन "

लेखिका : डॉ० उषा किरण

जब आशियाने का शहतीर साथ छोड़ देने वाली स्थिति में हो और उसी समय टेक  बने नए लट्ठों में भी घुन लग जाए तब विश्वास की नींव की ईटों को दरकने से कौन रोक सकता है ? आशियाना संभलेगा या बिखरेगा ,बिखरेगा तो कितना कुछ काल के हाथों में होगा और कितना वहां रहने वालों के हाथों में ? इन्हीं सवालों को लिये इस उपन्यास की कहानी चलती है।

  उपन्यास ," दर्द का चंदन " जिसे  लिखा  है चित्रकार व साहित्यकार डॉ ० उषा किरण जी ने । यह उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक है इससे पूर्व इनका "ताना - बाना" नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है जिसमें कविताओं के साथ लेखिका के स्वयं के द्वारा बनाए गए रेखाचित्र भी हैं।

 इस  उपन्यास का आकर्षक आवरण- चित्र भी लेखिका द्वारा ही चित्रित है। चित्रकार व साहित्यकार दोनों के भावों को लिए यह उपन्यास लेखिका के जीवन -संघर्ष , अपने भाई के प्रति असीम प्रेम,  ईश्वर के प्रति आस्था ,जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण लिए आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करते हुए, झेले गए कष्टों व पीड़ाओं  की  कहानी है। जहाँ एक ओर  हर रोज मृत्यु की ओर बढ़ते अपने से दूर होते जाते अपने पिता को  देखना वहीं फिर दूसरी ओर  बहन-भाई का एक-एक करके  कैंसर जैसी मौत का पर्याय मानी जाने वाली घातक बीमारी की चपेट में आ जाना पाठक को उस स्थिति से अवगत कराता है जब हम परिस्थितियों के जाल में फंसे कठपुतली से नाचते हैं। पीड़ाओं की स्मृतियों को आकार देने में मन बिलख पड़ता होगा तभी दर्द कविता बनकर दिल से बह उठी है, इसलिए लेखिका ने हर अध्याय के आरंभ में कविता की पंक्तियाँ भी संजोई हैं जिनमें से एक अंश-

          जीवन की इस चादर में

          सुख-दुःख के ताने-बाने हैं

          कुछ कांटे कुछ फूल गूंथे

          कुछ धूप-छांव और बारिश है

          थिरकती हम सब कठपुतलियाँ

          और धागे बाजीगर ने थामे है !!

 यह उपन्यास लेखिका व उनके प्रिय छोटे भाई दोनों को हुई कैंसर जैसी प्राणघाती बीमारी से जूझने और दर्द को सहते चंदन मानकर जीवन तपस्या में रत रहकर एक दूसरे को  हौंसला देते, माथे पर दर्द को चंदन सा धारण  कर हार या जीत तक लड़ते रहने की एक प्रेरणा ज्योति है। 

कैंसर के साथ इस युद्ध में  हार या जीत होनी तय थी । दोनों में से कौन किस-किस तरह  कैंसर के जाल से  खुद को निकाल कर जीत गया और यदि जो हारा भी तो औरों को जीने का नया दार्शनिक दृष्टिकोण देकर गया। जीतने वाले ने जीतकर भी क्या - क्या खोया जिसकी भरपाई कभी न हो सकी । ऐसे अनेक सवालों के साथ उनका जवाब पाते पाठक उपन्यास को नम आंखो से पढ़ता जाता है। 

यह उपन्यास अनेक लोगों को जो कैंसर या अन्य किसी भी प्राणघातक बीमारी या दुश्वार परिस्थितियों से पीड़ित हैं या घिरे हैं या उनका कोई अपना इससे दो-दो हाथ कर रहा हो  उनमें जीवन के प्रति एक नई उम्मीद जगाता है और नाउम्मीदी में भी जीवन के मर्म को समझने के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है ।

लेखिका ने बेहद सरल, सहज, दैनिक जीवन की आम बोलचाल की भाषा में कैंसर के लक्षण , कारण और उपचार के विभिन्न चरणों और उस दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनसे उबरने के लिए वैज्ञानिक ( चिकित्सीय उपचार ) व भावनात्मक दोनों तरह के उपचार का वर्णन उपन्यास में किया है ।

उपन्यास न केवल कैंसर जैसी घातक बीमारी व उससे लड़ने वालों की मनोदशा व हालातों को बयाँ ही नहीं करता बल्कि इस बीमारी में कैसे सकारात्मक रह कर व स्वयं में होने वाले  परिवर्तनों के प्रति जागरूक रहकर इससे बचा जा सकता है यह भी बताता है ।

पुस्तक के बारे में लिखने को काफी कुछ लिखा जा सकता है और कहने को बहुत कुछ कहा भी जा सकता है, यह निर्भर है पाठक किस गहराई तक पहुंच पाया…जहाँ तक मैं पहुंच सका वही इस संक्षिप्त समीक्षा में पिरोने की कोशिश की है।

  पुस्तक मंगाने हेतु लिंक नीचे कमेंट बॉक्स में दिया गया है...…..                              धन्यवाद...!!

   प्रकाशक : हिंदी बुक सेंटर 4/5 - बी आसफ अली रोड़  नई दिल्ली ।मूल्य : 255/-

                                                            पुनीत राठी

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

स्वीकार




 स्वीकार

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धराआकाशजल,पवन को

हाजिरनाजिर मान

ऐलान करती हूँ आज

जाओ माफ कियामुक्त किया तुम्हें…!


ताउम्र उलझतीझगड़ती रही

तोहमतें लगाईंकलपती रही कि-

बोलो जरा

तुम्हारी मर्जी बिना जब

हिल सकता नहीं पत्ता भी तो

भला मेरी क्या बिसात 

फिर मेरे किए मेरे कैसे 

सब तेरेसब तेरे…!


फिर क्यूँ प्रारब्ध के चक्रवात में फंसी

जन्म जन्मान्तर से अनवरत भटक रही 

मेरा क्या है मुझमें जो भुगत रही हूँ 


थक गई हूँ अब और नहीं लड़ सकती

प्राण-शक्ति शिथिल और

दृष्टि धुँधला रही है

दूर क्षितिज पर टिमटिमाती मद्धिम लौ 

धीरे-धीरे निकट  रही है


पद भ्रमित हैंमन विकल

ढलती जाती है साँझ 

श्वास अवरुद्ध है और कण्ठ शुष्क 

हे प्रियबहुत हुआ.. बस

स्वीकार करो मेरा सर्वस्व 

अब तो खोलो काराअंगीकार करो


उड़ने दो उन्मुक्त मेरे राजहंस को

हाथ बढ़ाओसमा लो अब

अपनी निस्सीम बाहों में कि

भटकती यात्रा को मंजिल मिले

और बेचैन रूह सुकून पाए…!!!


                 — उषा किरण


मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...