ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 29 नवंबर 2023

गुम हैं


 बचपन में एक बुढ़िया 

चाँद पे चरखा काता करती थी

जाने कहाँ गुम  है ?


एक बाबा बूढ़े 

बुढिया के बाल गुलाबी बेचा करते थे 

गुम हैं वो भी कई सालों से 


बादलों के रथ पे बैठ 

सफेद पंखों वाली नन्हीं परियाँ  

इधर-उधर मंडराती थीं  

अब आते हैं खाली बादल 

परियाँ जाने किस देस गईं ?


मखमली घास पे ठुमकती वीरबहूटी

जब लातीं राम जी का संदेस

मन में आस जगाती थीं

जाने कहाँ रास्ता भूलीं ?


कुछ मोरपंख किताबों में रख 

हम विद्या माँगा करते थे

दो होने के लालच में भाग-भागके

कई बार देखा करते थे 

अब कहाँ मोर और वो पंख कहाँ?


इक बूढे हरिया काका थे

लाल मटकी से निकाल पत्तों पर 

कुल्फी चाकू से काट

बड़े प्यार से खिलाते थे

कई सालों से नदारद हैं 


सामने वाले बरगद पर काला भूत

उल्टा लटक दाढ़ी हिला

हंस-हंस के पत्ते वाले हाथों से 

पास हमें बुलाता था

अब भूत कहाँ बस पत्ते हैं 


यूँ तो कद के साथ जीवन में

ऐश्वर्य सभी बढ़ जाते हैं

लेकिन बचपन की बेमोल सम्पदा 

जितना अमीर कहाँ हमें कर पाते हैं…!!!


—उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

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