ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

बहरे

 

सीट मिलते ही शुभदा आराम से बैठ गई।डॉक्टर ने पन्द्रह दिन बाद की डिलीवरी डेट दे दी थी। शुभदा छह महिने की मैटरनिटी लीव की एप्लिकेशन देकर कॉलेज से वापिस घर लौट  रही थी।डॉक्टर ने  उसे रैस्ट की सख्त हिदायत दी थी।

ग़ाज़ियाबाद बस स्टॉप पर बस के रुकते ही एक बहुत बूढ़ी माई लाठी के सहारे चढ़ी लेकिन एक भी सीट खाली न देख निराश होकर अपने डंडे और बस की रॉड पकड़ कर जैसे- तैसे खड़ी होने की कोशिश में झुकी पीठ सीधी करती, झकोले खाती बेहाल हो रही थी। शुभदा ने सब तरफ देखा । कई युवक आसपास बैठे थे उसे लगा कि उसकी हालत देखकर कोई तो सीट दे ही देगा।

जब पन्द्रह मिनिट तक भी किसी ने सीट नहीं दी तो उससे नहीं रहा गया। उसने उठ कर उनसे अपनीसीट पर बैठने का आग्रह किया। वो बेचारी उसका पेट और हालत देख कर बोलीं-

"ऐ बिटिया तू तो खुद ही बेहाल है…रहे दे!”

"मैं ठीक हूँ आप बैठ जाओ !” 

कह कर शुभदा ने ज़बर्दस्ती उनको अपनी सीट पर बैठा दिया और खुद खड़ी हो गई, लेकिन बढ़े पेट के कारण उससे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। पर्स से न्यूज-पेपर निकाल कर उसे बिछा नीचे बस के फर्श पर ही बैठ गई।पास खड़े दो किन्नर जो सब देख रहे थे सहसा उनमें से एक ताली बजाकर  जोर-जोर से बोलने लगी-" आय हाय आग लगे ऐसी मर्दानगी और मुई इनकी जवानियों को न बूढ़ी का लिहाज न पेटवाली का। बेचारी बच्ची जमीन पर ही लोट गई।बैठे हैं सारे टाँग चौड़ा कर…शरम नहीं आती…मर जाओ सालों सब चुल्लू भर पानी में …!”

बड़बड़ातीं हुई वह शुभदा के पास आ, उसके सिर पर हाथ रख कर बोली-

"जुग-जुग जियो बेटी, जैसी भोली, प्यारी सूरत है वैसी ही सीरत भी दी मालिक ने तुझे ! भगवान चाँद सा मुन्ना दे…ले बेटी ये रख ले, अनारो का आसीस है तिजोरी में रख देना…हम हिजड़े तुम सबसे हमेशा लेते ही हैं, पर देते कभी-कभी ही हैं , खूब फलेगी हमारी दुआ तुझे !”

हकबकाई सी शुभदा के हाथ पर बीस रुपये का सिक्का और कुछ दाने चावल के रख कर किन्नर  ताली बजाते, दुआ देते, बस वालों की लानत- मलामत करते हुए बस से उतर गए। 

बस में सन्नाटा था। कुछ नौजवान मोबाइल में चेहरा घुसाए तो कुछ असम्पृक्त भाव से बहरे बने खिड़की से बाहर देखते यथावत् बैठे रहे।

                                            — उषा किरण

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