ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 30 मई 2022

मेड फॉर ईच अदर

 

India Art Fair 2022, Delhi में देखी गई  कलाकार `सोमा दास ‘ की क्रम से लगी ये पाँच पेंटिंग्स  `Made For Each Other ’ मेरे दिल में बस गई है ….ध्यान से देखिए तो इस पेंटिंग में छिपी एक कविता भी नजर आती है मुझे —

………..


तुम चाहते हो न धरा सी

घूमती रहूँ तुम्हारे इर्द-गिर्द

पलकों की चिलमन में

काजल सा आँज लूँ

और खुशबू सा बसा लूँ

साँसों की लय में तुम्हें…!

जो तुम संवार दो न 

मेरा पल्लू

मेरी बिखरी अलकें

पैरों में लगा दो न आलता

पहना दो 

रुनुक- झुनुक पायल

बिठा दोगे तरतीब से 

साड़ी की चुन्नटें जब

नहीं चाहूँगी तब कुछ और 

मेरे मीत…!

तुम बन कर तो देखो सूरज

एक नहीं सात जन्मों तक 

धरा सी घूमती रहूँगी मैं 

ताउम्र…तुम्हारे चहुँओर…!!

                 —उषा किरण 🌼🌸


(जब अभिव्यक्ति के दो माध्यम मिल कर कुछ कहते हैं तो भाव- सम्प्रेषण दुगुना हो जाता है…!)

रविवार, 29 मई 2022

वक्त का जवाब


शुभदा की जॉब लगते ही घर में हंगामा हो गया। जिठानियों के ताने शुरु हो गए-" नौकरी करने वाली औरतों के घर बर्बाद हो जाते हैं, बच्चे आवारा हो जाते हैं, पति हाथ से निकल जाते  हैं ….!”
 शुभदा सब सुनती और मुस्कुरा कर टाल जाती 

बाबूजी के सामने पेशी हुई- " अरे बहू , हमारी सात पुश्तों में किसी बहू ने नौकरी नहीं की,क्या कहेंगे सब कि बहू की कमाई खा रहे हैं, नाक कट जाएगी !” शुभदा ने किसी तरह उनको समझाया कि नहीं कटेगी नाक।

पाँच साल के लम्बे संघर्ष व कड़ी मेहनत के बाद आखिर वो आज  यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर के पद परआसीन थी। 

यूनिवर्सिटी लिए तैयार होकर ऊपर से सीढ़ियाँ उतरते अपना नाम सुन कर ठिठक गई।बड़ी जिठानी अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार करते हुए समझा रही थीं- "अरी पढ़ने में मन लगाया कर …चाची की तरह काबिल बन कर नौकरी करना…वर्ना हमारी तरह मूढ़ बन कर सारी  ज़िंदगी चूल्हा ही फूँकेगी !”

शुभदा के होठों पर एक सुकून भरी मुस्कान  आ गई ।
                                              —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 28 मई 2022

मौन



सुनो तुम-

एक ही तो ज़िंदगी है 

बार- बार

और कितनी बार 

उलट-पलट कर 

पढ़ती रहोगी उसे

तुम सोचती हो कि

बोल- बोल कर 

अपनी नाव से

शब्दों को उलीच 

बाहर फेंक दोगी

खाली कर दोगी मन

पर शब्दों का क्या है

हहरा कर 

आ जाते हैं वापिस

दुगने वेग से….

देखो जरा 

डगमगाने लगी है नौका

जिद छोड़ दो

यदि चाहती हो 

इनसे मुक्ति, तो

कहा मानो 

चुप होकर बैठो और

गहरे मौन में उतर जाओ अब…!

                               —उषाकिरण

मंगलवार, 24 मई 2022

नेकी

 


सुबह साफ- सफाई के बाद मैं धूप-दीप जला ही रहा था कि मेरे मेडिकल स्टोर के सामने एक कार आकर रुकी और एक बहुत सम्भ्रान्त महिला व एक युवक उतर कर आगे आए।

महिला कुछ देर तक ध्यान से चंदनहार चढ़े फ्रेम में जड़े फोटो को देखती रहीं l

"ये आपके वालिद…..?”

"जी …दो साल पहले ही हम सबको छोड़कर भगवान के घर…!”

"ओह….आप उनके बेटे हैं?” मैंने देखा उनकी आँखें नम हो गईंl

"जी…आप ?”

"बेटा क्या कहूँ, समझ लो कि आज हम माँ - बेटे  तुम्हारे सामने यदि ज़िंदा खड़े हैं तो इनकी ही बदौलत।”

"मतलब…?”        

 कुछ ठहर कर उन्होंने कहा-                

"पच्चीस साल पहले एक दिन मैंने  यहाँ आकर तुम्हारे पापा से बच्चा गिराने की दवा माँगी थी। उन्होंने कहा कि वो ऐसी कोई दवा नहीं दे सकते, तो मैंने रोते हुए कहा फिर तो रेल की पटरियों पर ही अब मेरी मुश्किलों का अन्त होगा। मैं जाने लगी तो वे मेरे पीछे-पीछे आए और हौसला दिया। जब मैंने उन्हें बताया कि मेरे शौहर ने दूसरी शादी कर ली है और मुझे तलाक देकर घर से निकाल दिया है। मैं पेट से हूँ…अब्बू सुनेंगे तो सदमें से मर ही जाएंगे…मैं कैसे जियूँगी, कैसे अपने बच्चे की परवरिश करूँगी ? तो उन्होंने मुझे समझाया कि एक रास्ता बन्द होने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती। तुम्हारे हिस्से में अँधेरा लिखने से पहले भगवान ने एक रोशनी की किरण तुममें रोप दी है और तुम उसी को खत्म कर देना चाहती हो। उनके समझाने से मुझमें उम्मीद जगी और मैं अपने अब्बू के पास लौट गई। सिलाई कढ़ाई का शौक था तो टेलरिंग का कोर्स किया और अपना छोटा सा बुटीक खोल लिया, आज वो शहर का सबसे बड़ा बुटीक है।ये मेरा बेटा डॉक्टर बन गया है।आज पहली कमाई से तुम्हारे पापा के लिए बहुत इज़्ज़त ओर प्यार से गिफ्ट लाया था, पर…!”

उन्होंने आँखें बन्द कर दुआ पढ़ी और डिब्बे से निकाल कर घड़ी मुझे पहनाते हुए कहा- 

"मना मत करना बेटा , इस माँ की दुआ समझ कर रख लो। ये घड़ी तुमको हमेशा नेकी पर विश्वास दिलाती रहेगी ।इंसान तो एक दिन वक्त के परे चला जाता है, लेकिन उसके किए नेक काम ताकयामत जिंदा रहते हैं…सदा सुखी रहो…अल्लाह  निगेहबान रहें…!”

वे दुआएं देती चली गईं और मैं दूर तक उनकी गाड़ी को जाते देखता रहा।

                                      — उषा किरण

फोटो; गूगल से साभार

रविवार, 22 मई 2022

मेरे घर आना ज़िंदगी



दो तीन दिन पहले घर के बाहर किसी चिड़िया के कर्कश आवाज में चिंचियाने की आवाज सुन कर जाली दरवाजे से बाहर झाँका तो देखा एक चिड़िया ऊपर टंगे गमले में बैठी सब पर  गुसिया रही है । गीता झाडू लगाने गई थी तो उसे डाँट पिला रही थी। गीता ने कहा बड़ी बत्तमीज होती है ये चिड़िया अटैक भी कर देती है और देखो पौधों के बीच घोंसला बना रही है ये अंडे भी देगी तो घर से निकलने पर मुसीबत करेगी, इसका घोंसला उठा कर कहीं और रख दें ? हमने कहा खबरदार हाथ भी मत लगाना दूर हटो सब , पास मत जाना। 

हमें लगा कि बुलबुल है तो Rashmi Ravija से कन्फर्म किया उन्होंने भी कहा कि बुलबुल ही है और बहुत मीठा गाती है हमने कहा कि ये तो बहुत कर्कश आवाज में चीख रही है तो उन्होंने कहा कि अभी गुस्से में होगी। 

खैर तो अब उसने पौधों के बीच बड़ा सुघड़, सुन्दर घोंसला बना लिया है , जिसे किसी लम्बे डोरीनुमा तिनके से स्टैंड के साथ बाँध कर आँधी से बचाने का भी इंतजाम कर दिया है , तीन अंडे दे दिए हैं उसमें। अब डाँट- डपट तो नहीं कर रही । वो ड्यूटी हमने संभाल ली है तो माता निश्चिंत हैं और उसने पहले ही हड़का दिया कि दूर रहना सब, वर्ना मुँह नोच लूँगी। हम सेवा में तत्पर हैं सबको कह दिया है कि घूम कर पीछे से किचिन से आओ- जाओ सामने से नहीं । 

सुना था कि नर बुलबुल ऐसे में मादा बुलबुल के खाने की व्यवस्था करता है पर जरा नहीं झाँकता वो नालायक ।हम ही जाली के दरवाजे के पीछे से हर घंटे ताका-झाँकी  करते रहते हैं । पापा बुलबुल तो बस एक दिन दिखा था सामने तार पर बैठा हीरोपन्ती करता , फिर नजर नहीं आया। हुँह…ये मर्द भी🙄…बेचारी बीच- बीच में उड़ कर दाना- पानी खाने जाती है। तभी हम लोग पौधों में जल्दी से पानी दे देते हैं ।हमने दियों में सामने ही बाजरा और पानी रखा, ख़रबूज़े का टुकड़ा व ब्रैड भी…पर देखती तक नहीं उस तरफ़…जाने क्या वहम है कि हमने जाने क्या मिला दिया होगा…हमारी नेकनियती पर ही विश्वास नहीं…घर में जच्चा के होने जैसी फीलिंग है ..😂खैर आतुर प्रतीक्षा है बच्चों के आने की 🥰

              —उषा  किरण 


शनिवार, 21 मई 2022

चाय- दिवस


 चाय दिवस भी होता है ये आज पता चला।

हमारे तो सारे ही दिवस चाय दिवस ही हैं।

अम्माँ बताती थीं जब वो छोटी थीं तो मामाजी कहीं से चाय की पत्ती लाए थे अंग्रेज मुफ़्त में बाँट रहे थे (कुछ लोगों का कहना था कि देश का सत्यानाश करने को अंग्रेज ये लत हिन्दुस्तानियों को लगाना चाहते थे ) ...खैर तो मामाजी ने पूरे ताम- झाम से थ्री पॉट चाय बनाई ...घड़ी देख कर चाय सिंझाई गई...और  बड़ी नफासत से सबको पिलाई जो तब दो कौड़ी की लगी । 

वो ही अम्माँ बाद में सुबह -सुबह लगभग केतली भर चाय मामा जी के साथ पी जातीं।

मामी जी को तो हर घंटे चहास लगती सारे दिन कटोरी में चाय बनातीं ...न जाने क्यों ? 

दरअसल चाय किस क्वालिटी की है उससे ज़्यादा असर इस बात का होता है कि वो किसके साथ पी जा रही है ...किसी आत्मीय के साथ गुनगुनी बातों संग गर्म चाय के मिठास भरे सिप अन्दर तक तृप्ति व ऊष्मा का अहसास कराते हैं ।

गाँव जाने पर चूल्हे पर औटती चाय मिलती काढ़ा टाइप। अदरक और गुड़ वाली , धूँए की खुशबू वाली ...बटलोही भर चाय बना कर चूल्हे से अंगारे  निकाल उस पर रख दी जाती और जो आता उसमें से धधकती चाय गिलास या कुल्हड़ में दी जाती। एक दिन मैंने भी अपने घर गुड़ की बना कर देखी ...जरा मजा नहीं आया कसैली सी लगी सारी फेंकनी पड़ी । शायद गाँव वाली उस चाय में वो टेस्ट कोई खास गुड़ का था या गाँव की मिट्टी की ख़ुशबू और अपनों के प्यार की मिठास  का ।

दुनिया जहान की एक से एक उम्दा ,तरह- तरह की चाय पीने पर भी कभी-कभी वो ही गाँव वाली चाय की हुड़क उठती है  तो कुल्हड़ मंगा कर उसमें चाय पीकर संतोष करना पड़ता है।गौरव अवस्थी की ये कविता जैसे मेरे ही मन की बात कहती है…अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस की सबको हार्दिक बधाई ।

                   — उषा किरण 


 

सोमवार, 16 मई 2022

पीला

 



पीला रंग पहले पसन्द नहीं था मुझे 

पीला जैसे-

झुलसाती जेठ की धूप

बीमार थकी आँखें

तीखी सी पीड़ा 

जलाता ताप तन-मन का

सब पीला- पीला…!


फिर अचानक मेरी दोस्ती हो गई पीले  से-

देखा जब गुलमोहर की संगत में झूमता

ख़ुशमिज़ाज अमलतास 

ताली बजाकर झूमते सरसों के खेत

पीले शर्मीले नाजुक गुलाब

शरद की राहतों भरी कुनकुनी सी

पीली सुनहरी धूप

और पीताम्बर भी कान्हा  का…!


मुग्ध हो कहा पीले से-

माफ कर दो मुझे 

बहुत अनादर किया तुम्हारा 

हँस कर कहा उसने-

कोई बात नहीं

आदत है हम रंगों को…

गिरगिट तो यूँ ही हैं बदनाम 

हम तो रोज ही  देखते हैं 

रंग  बदलते इंसानों को

चलो एक और सही…!

                            —उषा किरण

शनिवार, 14 मई 2022

गंगूबाई काठियावाड़ी




 हर व्यक्ति का नजरिया किसी भी चीज को देखने का भिन्न- भिन्न होता है। संजय लीला भंसाली की देवदास मूवी मुझे जरा नहीं भाई थी लेकिन  सच्ची कहानी पर आधारित " गंगूबाई काठियावाड़ी” मुझे बहुत पसन्द आई और कुछ लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं आई। तो टटोला खुद को कि हाँ भई तुमको क्यों पसन्द आई इतनी कि हफ्ते में लगभग दो बार देख डाली ?

एक अबोध, अल्हड़, बेहद खूबसूरत, नाजुक खानदानी लड़की जो प्यार में विश्वास कर अपने सपने पूरे करने प्रेमी का हाथ पकड़कर चाबी के गुच्छे के साथ साथ घर की इज़्ज़त भी लेकर निकल पड़ती है और प्रेमी उसे हजार रुपये में कोठे पर छोड़ भाग जाता है।

-होना तो ये चाहिए था कि उस प्यार में लुटी लड़की के सपनों का फलक जब जला तो वो दुनियाँ में आग लगाने का सोचती लेकिन उसका फलक तो और विशाल हो गया । हौसला  तो देखो जरा अपना फलक जला तो जला पर औरों के फलक में अंधेरा दूर करने का संकल्प ले बैठती है ।

- होना तो ये चाहिए था कि प्यार में लुटने पर वो प्यार शब्द से नफरत करने लगती लेकिन होता है ये कि वो अपने जैसी सभी लड़कियों से प्यार करती है , उनके दुखों को अपनाती है जिसके कारण वे सभी उसे अपनी संरक्षिका बना कर गलीच काम से मुक्त करती  हैं।और मन के कोने में जो पावन सा प्यार का बिरवा अनायास फिर उग आया उसको भी जनकल्याण हेतु दूसरे के आँगन में रोप कर खुद धूप में झुलसती रह कर प्यार को मुक्त कर देती है।

- होना तो ये चाहिए था कि उसे कमजोर होकर कोने में पड़े रहकर सिसक- सिसक कर मर जाना था , पर होता ये है कि उसके मन की ताकत उसके नाजुक बदन पर भी भारी पड़ती है।सफेद साड़ी, काला चश्मा, हाथ में पर्स लेकर वो जिस शान से अकड़ कर चलती है आलिया की बॉडी लैंग्वेज देखते ही बनती है।

-  होना तो ये चाहिए था कि बदसूरत माहौल में उसे बदसूरत हो जाना था।परन्तु  कोठेवाली  बना दिए जाने पर भी, और सुन्दर होकर उसका ओजस्वी रूप व व्यक्तित्व दमक उठता है। उसका आत्मविश्वास , हौसला व बुद्धिमत्ता उसे और निखार देते हैं।

-पहली बार बिकती है जब तो उन पैसों को खुद आग लगा कर तुरन्त खाना माँगती है।दो ही रास्ते हैं उसके सामने या तो मर जाए या जो और जैसी ज़िंदगी, जिस भी कारण सामने आ खड़ी हुई है उससे आँख मिलाकर दो- दो हाथ करे।और वो दूसरा रास्ता चुनती है। और चुनती ही नहीं बहुत जल्दी ही अपना ओहदा और कद भी बढ़ा लेती है। सारी दुनिया में अपना लोहा मनवा कर ही दम लेती है। न किसी से डरती है न झुकती है , न ही हालात से समझौता करती है। जो मौका सामने आता है उसको लपक कर अपनी ताकत बना लेती है।

-कुछ लोग आलिया की शबाना आजमी या शर्मिला टैगोर से तुलना कर रहे हैं कि उनकी तुलना में कोठेवाली सी नहीं लगी …हाँ तो क्यों लगना था ? एक मजबूत मन वाला और समाजसेवा का संकल्पधारी व्यक्ति भीड़ में भी सौ- सौ जुगनुओं सा चमकता है। देह बेचकर पैसा कमाने की जगह वह तवायफों व उनके बच्चों के हक की लड़ाई को ही अपने जीवन का मकसद बना लेती है।

-मुझे आलिया की एक्टिंग और मोती जैसे रंग- रूप ने मोह लिया। फिल्म के कुछ गाने भी अच्छे लगे और बाद की आलिया की स्पीच भी। अंधेरी गलियों में कीगई  अंधेरी सी फ़ोटोग्राफ़ी भी…जहाँ चाँदनी में नहाई सी आलिया चाँदनी के फूलों सी चमकती है हर रूप में।

-जहाँ आजकल वेब सीरीज और मूवीज में अश्लीलता व भोंडापन अपने चरम पर है वहाँ संजय लीला भंसाली ऐसे विषय पर भी साफ- सुथरी और सुन्दर मूवी बना ले गए ये प्रशंसनीय है।कोठा संचालिका बनी सीमा पाहवा का रोल व रंग- रूप इतना वीभत्स है कि मन झुलस जाता है । औरत के नसीब में कोठा लिखने वालों और जिनकी वजह से कोठे बनते हैं उन जलील मर्दों के मुँह पर थूकती है ये मूवी।

-इस फिल्म में छिपे दो सन्देश दिखे एक तो ये कि इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है ।शुभ संकल्प हो तो एक तवायफ भी इज्जत कमा सकती है परोपकार का रास्ता चुन सकती है। नारी सशक्तिकरण को दर्शाती ये फिल्म जरा सी विपरीत परिस्थितियों के आने में आत्महत्या करने का संकल्प लेने वालों को भी सबक देती है।उसका यही जुझारू रूप मुझे मुग्ध कर गया और दूसरा मैंने अपने कार्यकाल में बहुत लड़कियों का जीवन प्यार के हाथों गलत कदम उठाकर बर्बाद होते देखा है। प्यार में अंधी होकर , अपने माँ- बाप का घर छोड़ प्रेमी के संग भाग जाने का संकल्प लेने वाली लड़कियों को कोई कदम उठाने से पहले ये फिल्म जरूर ही देख लेनी चाहिए।


( ये मेरा नजरिया है, मैं कोई फ़िल्म समीक्षक तो हूँ नहीं ।जो अच्छा लगा लिख दिया…सबकी सहमति होनी क़तई आवश्यक नहीं है और हाँ नेटफ्लिक्स पर मूवी उपलब्ध है )

                              — उषा किरण 

बुधवार, 11 मई 2022

क्राँति दिवस- १० मई





इतिहास - विभाग, मेरठ कॉलिज, मेरठ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूर्ण होने पर " आजादी का अमृत महोत्सव ”  के अन्तर्गत 10 मई 1922 को क्राँति - दिवस मनाया गया। मेरा सौभाग्य रहा कि उस अवसर पर आमन्त्रित होने के कारण उन क्राँति वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर प्राप्त हुआ ।

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के इस वर्ष 163 साल पूरे हो रहे हैं। 10 मई 1857 को अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए आजादी की पहली चिंगारी सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैली थी। इसी दिन अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था। यह मेरठवासियों के लिए गौरव की बात है। 

मेरठ का कैंट इलाका एक छावनी इलाका था, जहां सैनिकों के बैरक बने हुए थे. औघड़नाथ मंदिर से नजदीक ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी मंदिर में आकर रुकते थे। उस समय अंग्रेजों ने मंदिर के पास ट्रेनिंग सेंटर भी बनाया था। छावनी में अंग्रेज और भारतीय दोनों सेनाओं के लोग अलग-अलग जगहों पर रहते थे. अंग्रेज भारतीय सैनिकों के प्लाटून को काली पलटन कहते थे. काली पलटन बैरक के पास ही एक शिव मंदिर था जहां पर भारतीय सैनिक पूजा-पाठ करने जाते थे. इसी मंदिर से भारत की आजादी की पहली लड़ाई की शुरुआत हुई. आज भी वह भव्य मन्दिर `काली- पल्टन का मन्दिर’ या `औघड़नाथ -मन्दिर’ के नाम से लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। 10 मई 1857 को मंदिर के प्याऊ पर कुछ सैनिक पानी पीने के लिए पहुंचे. प्याऊ पर उस समय मंदिर के पुजारी बैठे हुए थे. सैनिकों ने हमेशा की तरह पुजारी से पानी पिलाने को कहा लेकिन पुजारी ने सैनिकों को अपने हाथ से पानी पिलाने से इंकार कर दिया. पुजारी ने कहा जो सैनिक गाय और सूअर की चर्बी से बने हुए कारतूस को अपने मुंह से खोलते हैं, उन्हें वह अपने हाथों से पानी नहीं पिला सकते।

1857 की क्रांति का जिक्र करते हुए एक साधु को भी याद किया जाता है। मेरठ के राजकीय संग्रहालय में बाक़ायदा फोटो के साथ ये लिखा गया है कि अप्रैल 1857 में एक साधु आए थे. आजतक भी उस साधु का परिचय अज्ञात ही है। वो कोई सामान्य साधु नहीं था उसके पास हाथी व अश्व थे । साधु का आना और फिर 10 मई को बगावत हो जाना ये महज एक संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक कुशल रणनीति थी। बताया जाता है कि ये साधु भी क्रांतिकारियों के साथ 10 मई 1857 को मौजूद थे, हालांकि साधु के नाम का जिक्र नहीं किया गया है।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि देश के क्रांतिकारी बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बडे़ सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी। रोटी का अर्थ रहा हम सभी भारतीय अपनी रोटी मिल बांटकर खाएंगे तथा खिलते कमल का अर्थ कि हम सभी मिलकर देश को कमल के समान खिलते देखना चाहेंगे।

मेरठ छावनी में सैनिकों को 23 अप्रैल 1857 में बंदूक में चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने के लिए दिए गए। भारतीय सैनिकों ने इन्हें इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था। इसी कारतूस को लेकर महीने भर पहले बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे विद्रोह कर चुके थे और यह बात चारों तरफ फैल चुकी थी. तब 24 अप्रैल 1857 में सामूहिक परेड बुलाई गई और परेड के दौरान 85 भारतीय सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने के लिए दिया गया, लेकिन परेड में भी सैनिकों ने कारतूस का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। इस पर उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दिया गया। मई छह, सात और आठ को कोर्ट मार्शल का ट्रायल हुआ, जिसमें 85 सैनिकों को नौ मई को सामूहिक कोर्ट मार्शल में सजा सुनाई गई। और उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था। 

शहर में में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की चिंगारी उस वक्त फूटी थी, जब देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरा हुआ था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए रणनीति तय की गई थी। एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाना था, लेकिन मेरठ में तय तारीख से पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। 

इतिहासकारों की माने और राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय, मेरठ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रिकार्ड को देखे तो, दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब सदर बाजार से क्रांति की ज्वाला धधक उठी। लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। सदर बाजार क्षेत्र से अंग्रेज फौज पर लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया।  क्रांति के दौरान सदर बाजार की वेश्याएं भी 85 सैनिकों की गिरफ्तारी के बाद उठ खड़ी हुई थीं। वेश्याओं ने सिपाहियों पर चूड़ियाँ फेंकीं। 

उसी समय 11 वीं  व 20वीं पैदल सेना के भारतीय सिपाही परेड ग्राउंड (अब रेस कोर्स) में इकट्ठे हुए और वहीं से अंग्रेजी सिपाहियों और अफसरों पर हमला बोल दिया। पहली गोली 20वीं पैदल सेना के सिपाही ने 11वीं पैदल सेना के सीओ कर्नल जार्ज फिनिश को रेस कोर्स के मुख्य द्वार पर मारी थी। उस सिपाही का नाम आजतक अज्ञात है। इस बीच थर्ड कैवेलरी के जवान अश्वों पर सवार होकर अपने उन 85 सिपाहियों को बंदी मुक्त कराने विक्टोरिया पार्क स्थित जेल पहुंच गए, जिन्हें कोर्ट मार्शल के तहत सजा दी गई थी।

सवा छह बजे तक दोनों जेल तोड़ दी गईं। साथ लाए लुहारों से बेड़ियाँ व हथकडियों को कटवा कर सैनिकों को जेल से मुक्त किया गया। अगले दो घंटे में छावनी इलाका जल उठा। सहसा `दिल्ली- दिल्ली ‘ का उद्घोष हुआ, शाम साढ़े सात बजे के आसपास ये लोग रिठानी गांव के पास एकत्रित हुए और विभिन्न रास्तों से दिल्ली कूच कर गए। 

कहते हैं कि वो अज्ञात साधु भी हाथी पर बैठ  कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ। कुछ सैनिक तो रात में ही नावों के बने पुल को पार कर यमुना किनारे लाल किले की प्राचीर तक पहुंच गए और कुछ भारतीय सैनिक ग्यारह मई की सुबह यहां से दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया ।

रात के हमलों से संभलकर ब्रिटिश सैनिकों ने भी दिल्ली कूच किया, लेकिन तब तक क्रांति की ज्वाला धधक चुकी थी ।क्रांतिकारियों के इस हमले में 50 से अधिक अंग्रेजी अफसर-सिपाही मारे गए। सदर, लालकुर्ती, रजबन आदि हर जगहों पर खून ही खून नजर आ रहा था।

वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. के. डी.  शर्मा ने अपने व्याख्यान में बताया कि नौ मई 1857 का दिन ही वह ऐतिहासिक दिवस था जब सैनिकों की बगावत के बाद बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर पहली बार हिंदुस्तान की आजादी का आगाज हुआ था। इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाकर, 'स्वतंत्र भारत' की आधारशिला रख दी। 

1857 की क्रांति के वीरों को कोटि-कोटि नमन।🙏

फोटो व जानकारी : गूगल से साभार।



रविवार, 8 मई 2022

पेस्ट्री




"काव्या, पढ़ने बैठो बेटा !”

"मम्मी, भूख लगी है !”

मम्मी ने पेस्ट्री दी, मैंने गपागप खा ली। परन्तु मेरा मन नहीं भरा।

"मम्मी एक और दो न !”

मम्मी ने एक और दे दी। खाकर मैं पढ़ने बैठ गई थी। भैया खेल कर आया, सहसा उसका ध्यान कूड़े में पड़े पेस्ट्री के डिब्बे पर गया।

"मम्मी आज पेस्ट्री आई थी, मुझे भी दो न !”

"बेटा, कल मंगवा दूँगी, आज मिठाई खा लो !”

 " आपने मेरे लिए नहीं रखी ?”

वो  रोने लगा। मुझे शर्मिंदगी हुई और बेहद दु:ख हुआ।उस समय केक-पेस्ट्री खाने का चलन बहुत कम था। शहर में पेस्ट्री की इक्का- दुक्का ही दुकान होती थीं तब। ये वो वक्त था जब हमारे आसपास माएँ प्राय: बेटों को चुपड़ी और बेटी को सूखी रोटी खाने को देती थीं ।

पचास साल पहले तीन बेटियों में अकेले बेटे के हिस्से की पेस्ट्री, बेटी को देने वाली, मेरी माँ ने उस एक पेस्ट्री से अनजाने ही मेरे व्यक्तित्व में आत्मगौरव व आत्मविश्वास के बीज रोप दिए थे।

                —उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

#मातृदिवसकीबधाई 💐💐

शनिवार, 7 मई 2022

सतसंग


                     

चित्रांगदा की दोस्तों का एक ग्रुप बन गया है ।महिने में एक बार किटी- पार्टी होती है और हर इतवार को वे सब किसी न किसी के घर पर सतसंग के लिए एकत्रित होती हैं और वहाँ पर किसी एक ग्रंथ पर आध्यात्मिक चर्चा होती है।

 फ़िलहाल उसी कड़ी में आज का सतसंग चित्रांगदा के घर पर है और श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का अध्ययन करते हुए मीना जी ने जिनको संस्कृत का व शास्त्रों का बहुत ज्ञान है, सधे व शुद्ध उच्चारण से पढ़ा-

"भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इत्तीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।

इसके साथ ही पंचतत्वों की व्याख्या व विचार- विमर्श शुरु हो गया जो एक घन्टे तक चला। उसके बाद वन्दना व मीना जी व चित्रांगदा ने भजन सुनाए ।

 चित्रांगदा ने जलपान की व्यवस्था भी  की थी, तो सब हल्की- फुल्की बातचीत के साथ खाने- पीने में व्यस्त हो गए। तभी दो साल की गोल- मटोल  ठुमकती हुई परी चित्राँगदा के पास आई और गोद में आने के लिए दोनों हाथ उठाकर ऊँ ऊँ करने लगी। चित्रांगदा  लाड़ से उठाकर गोदी में बैठा कर उसे पुचकारने लगी। उसने चित्रांगदा की प्लेट से कटलेट उठाया और मजे से खाने लगी।

" ये कौन है ?” मीना जी ने पूछा।

"ये हैं हमारी नन्ही परी और मैं इनकी दादी”  उसने परी के बालों को सहलाते हुए कहा।

" दादी ? पर आपके बेटे की तो अभी शादी नहीं हुई न ?” लता जी ने कहा।

" हाँ…ये रीना की बेटी है “ उसने सामने किचिन में काम कर रही रीना की तरफ इशारा किया।

" अरे , आपकी मेड की बेटी ? आपने गोद में बैठा लिया और आपकी प्लेट से खा रही है…कैसे कर लेती हैं ये आप ?” मीना जी ने घिनियाते हुए कहा।

" तो क्या हुआ ? देखिए न कितनी तो साफ- सुथरी है। रीना मेरे साथ ही आउटहाउस में रहती है। ये दो बार नहा-धोकर बेबी सोप व पाउडर से हर समय महकती हैं , अभी भी नहा कर आई हैं ।देखिए न कितनी साफ- सुथरी रहती है , तो घिन कैसी ?” चित्राँगदा ने आवाज दबा कर धीरे से कहा जिससे किचिन में काम कर रही रीना न सुन ले।

" हम तो गोद में नहीं बैठा सकते ऐसे,चाहें कुछ भी हो यार, है तो मेड की ही बेटी न ! लेकिन तुम्हारा कमाल है भई !”

"अरे अभी कुछ ही देर पहले आप ही ने सुनाया था न वो भजन-

अव्वल अल्लाह नूर उपाया 

कुदरत के सब बंदे,

एक नूर ते सब जग उपजाया 

कौन भले को मंदे…तो फिर….?”

परन्तु उसकी सातों विदुषी सखियों के मुख- मंडल पर असंतोष व असहमति छायी ही रही ।

सबके जाने के बाद गोदी में सो गई परी के मासूम चेहरे  को देखते हुए वह सोच रही थी क्या इस बच्ची के पंच- तत्वों और हम सबके पंच- तत्वों में कोई भेद है ? जब सबकी मिट्टी , हवा, पानी , सबका नूर सब एक ही है, तो फिर ये भेदभाव क्यूँ , वो भी बच्चे के साथ ?

ये कैसा सतसंग…?

                                —उषा किरण

सोमवार, 2 मई 2022

वसीयत

 



निकलूँ जब अन्तिम यात्रा पर 

तब मेरे सिरहाने सहेज देना 

कुछ रंग शोख तितली से और 

कुछ बुझे-बुझे राख से 

कुछ ब्रश, कुछ स्याही और 

कुछ कलम भी

थोड़े से खाली पन्ने और

कुछ बर्फ से सफेद 

कोरे कैनवास भी

और हाँ…कुछ सुर-ताल 

और कुछ गीत भी

हो सकता है मन कभी 

बहुत ज़्यादा सील जाए 

तो रख देना साथ मुट्ठी भर धूप 

और ताप से मन तप जाए कहीं तो 

रख देना कुछ मलय समीर

और कुछ बारिशें भी…!

ताकि अनजान देश के 

अनजान सफर में 

उमड़ने लगें जब भावों के बादल 

या फिर जब मन करना हो खाली

तब कूक सकूँ कोयल संग 

ढल सकूँ कैनवास पर तब

सुन्दर- सुगन्धित फूल बन या

कोरे पन्नों में कविता बन कर…!

जैसे धरती पर बिछ जाते हैं

फूल हरसिंगार के

चमकते हैं जुगनू

झिलमिलाते हैं सितारे

मचलती हैं लहरें

मैं भी बिछ जाऊँगी तप्त धरती पर 

एक दिन तब सतरंगी किरण या

शीतल ओस बनके…!!!


                        — उषा किरण

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...