"काव्या, पढ़ने बैठो बेटा !”
"मम्मी, भूख लगी है !”
मम्मी ने पेस्ट्री दी, मैंने गपागप खा ली। परन्तु मेरा मन नहीं भरा।
"मम्मी एक और दो न !”
मम्मी ने एक और दे दी। खाकर मैं पढ़ने बैठ गई थी। भैया खेल कर आया, सहसा उसका ध्यान कूड़े में पड़े पेस्ट्री के डिब्बे पर गया।
"मम्मी आज पेस्ट्री आई थी, मुझे भी दो न !”
"बेटा, कल मंगवा दूँगी, आज मिठाई खा लो !”
" आपने मेरे लिए नहीं रखी ?”
वो रोने लगा। मुझे शर्मिंदगी हुई और बेहद दु:ख हुआ।उस समय केक-पेस्ट्री खाने का चलन बहुत कम था। शहर में पेस्ट्री की इक्का- दुक्का ही दुकान होती थीं तब। ये वो वक्त था जब हमारे आसपास माएँ प्राय: बेटों को चुपड़ी और बेटी को सूखी रोटी खाने को देती थीं ।
पचास साल पहले तीन बेटियों में अकेले बेटे के हिस्से की पेस्ट्री, बेटी को देने वाली, मेरी माँ ने उस एक पेस्ट्री से अनजाने ही मेरे व्यक्तित्व में आत्मगौरव व आत्मविश्वास के बीज रोप दिए थे।
—उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार
#मातृदिवसकीबधाई 💐💐
रवीन्द्र जी मेरी रचना का चयन करने के लिए हृदय से आभारी हूँ!
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