ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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बुधवार, 14 जून 2023

शान्ति निकेतन, सोनाझुरी- हाट और बाउल गीत





शांति निकेतन, कोलकाता से लगभग 180 किमी. दूर बीरभूम जिले के बोलपुर में स्थित है। शांतिनिकेतन की स्थापना देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। बाद में ये जगह उनके बेटे रविन्द्रनाथ टैगोार की वजह से मशहूर हो गई। रविन्द्रनाथ टैगोर ने पथ भवन की शुरूआत की। इस स्कूल में शुरू में 5 बच्चे पढ़ने आए। उन्होंने प्रकृति के बीच कक्षाओं को चलाने का अनोखा तरीका शुरू किया। बाद में इस स्कूल का नाम विश्व भारती यूनिवर्सिटी हो गया। आज कौन ऐसा व्यक्ति है जिसने शान्ति निकेतन का नाम न सुना होगा।

कलकत्ता जाने पर हम लोगों ने जब दो दिन के लिए शान्तिनिकेतन जाने का प्रोग्राम बनाया तो कुछ लोगों ने कहा कि शांति निकेतन और बंगाली माहौल को देखना है तो आपको सोनाझुरी हाट जरूर देखना चाहिए। सोनाझुरी  हाट के नाम से प्रसिद्ध यह हाट हर शनिवार को खोई नदी के तट पर लगती है। शनिवार को ही हम लोग शान्ति निकेतन पहुँचे थे तो खाने के बाद आराम करके शाम को हाट के लिए निकल लिए। यह एक खुला बाजार है जहां हम आदिवासी वस्तुओं और कई अन्य सामान खरीद सकते हैं। इसमें ग्रामीण इलाकों से आर्टिस्ट आते हैं और अपने हाथों से बनाए सामान बेचने के लिए लाते हैं । यहाँ आदिवासियों द्वारा बनाई बहुत सुन्दर पेटिंग्स भी बहुत कम दाम पर बिकने के लिए आई हुई थीं। हमने भी कॉपर के तारों से बनी दुर्गा जी व गणेश जी की दो छोटी पेंटिंग खरीदी। कान्था कढ़ाई की सा़ड़ियाँ भी बिकती देख एक हमने भी खरीद ली। 

कुछ संथाल जनजाति के लोग समूह में गाते हुए डांस कर रहे थे तथा कुछ स्थानीय बाउलों द्वारा गाए जाने वाले अद्भुत गान को सुन कर मैं मुग्ध होकर थम गई। पैरों को जैसे किसी ने जकड़ लिया हो। मन आनन्दमिश्रित करुणा से भीग गया। कैसी साधना होगी इस गायन के पीछे लेकिन एक कपड़ा बिछा कर जिस पर चन्द सिक्के व रुपये पड़े थे हरेक आने- जाने वालों पर गाते हुए आशा भरी करुण दृष्टि डालने वाले ये कलाकार कितनी बदहाली में जीते होंगे। देश - विदेश में जब भी मैं किसी को गा बजाकर भीख माँगते देखती हूँ तो मेरा कलेजा मुँह को आता है।बहुत ही कष्ट होता है लगता है काश…..!

बाउल के गीत अक्सर मनुष्य एवं उसके भीतर बसे इष्टदेव के बीच प्रेम से संबंधित होते हैं।बाउल, बंगाल की तरफ लोकगीत गाने वालों का एक ग्रुप होता है। ये बाउल धार्मिक रीति रिवाजों के साथ गीतों का ऐसा सामंजस्य बिठाते  है की ये लोकगीत सुनने लायक होते है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग या तो हिन्दू वैष्णव समुदाय से ताल्लुक रखते हैं या फिर मुस्लिम सूफ़ी समुदाय से। कहा जाता है कि संगीत ही बाउल समुदाय के लोगों का धर्म है। उन्हें अक्सर उनके विशिष्ट कपड़ों और संगीत वाद्ययंत्रों से पहचाना जा सकता है। बाउल संगीत का रवींद्रनाथ टैगोर की कविता और उनके संगीत (रवींद्र संगीत) पर बहुत प्रभाव था।

ऐसा भी कहते हैं कि बाउल संगीत का मुख्य उद्देश्य अलग अलग जाति, समुदाय धर्म के लोगों को एक कर संगीत के द्वारा उनमें एकता का संचार करना है।ये गायक भगवा वस्त्र धारण किये हुए होते हैं। इनके बाल बड़े होते हैं जिन्हें ये खुले रखते हैं या जूड़ा बांधते हैं। ये लोक गायक हमेशा तुलसी की माला और हाथों में इकतारा लिए हुए होते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय भी संगीत है, ये एक स्थान से दूसरे स्थान घूम घूम के लोक गीत गाते हैं और उससे प्राप्त पैसों से गुज़र बसर करते हैं। केंडुली मेले के ही दौरान ये सभी लोग अपनी भूमि पर जमा होते हैं और बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ अपना ये खूबसूरत पर्व मनाते हैं। 

बाउल के दो वर्ग हैं: तपस्वी बाउल जो पारिवारिक जीवन को अस्वीकार करते हैं और बाउल जो अपने परिवारों के साथ रहते हैं। तपस्वी बाउल पारिवारिक जीवन और समाज का त्याग करते हैं और भिक्षा पर जीवित रहते हैं। उनका कोई पक्का ठिकाना नहीं है, वे एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में चले जाते हैं ।

सेनाझुरी हाट का सबसे बड़ा हासिल था बाउल गान से प्रेम, जो आज भी आँखें बन्द करते ही मेरे कानों में गूँजने लगता है। और इस प्रेम के चलते अब तक तो मैं यूट्यूब पर ढूँढ कर न जाने कितने बाउल गीत सुन चुकी हूँ ।

                            — उषा किरण 🌿🍂🍃🎋

रविवार, 25 अप्रैल 2021

पाती राम जी को-


 जै राम जी  

पूजा कह रही हैं राम जी को चिट्ठी लिखो

हमने कहा नहीं मन हमारा

पूछ रही है क्यों भाई?

अब क्या बताएं क्यों?

सभी ने तो पुकार लिया

मनुहारें कीं, प्रार्थना कीं, 

क्षमा माँग ली

बताओ अब हम क्या कहें ?

कैसे बताएं कि हम जन्म के घुन्ने हैं तो हैं.

अब ऐसा ही बनाया आपने.

मन में लगी है भुनुर- भुनुर, तो क्या लिखें?

गुस्से और आँसुओं से कन्ठ अवरुद्ध है.

मतलब हद्द ही कर रखी है.

न उम्र देख रहे न कुछ, बस उठाए ही जा रहे हो

जैसे ढेला मार कर टपके आम हैं हम सब

`जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिए’

बचपन से गा रहे- अब ऐसे रखोगे ?

हा- हाकार है चहुँ ओर...

शोर है- `त्राहि माम ...त्राहि माम’

अरे यदि आबादी ज्यादा लग रही

धरती पर बोझ हल्का ही करना है तो 

और तरीके हैं...कायदे से करो काम.

पहले वाला कोरोना बड़े- बूढ़ों को उठा रहा था

हमने कहा चलो ठीक है 

पर अब ये नया वाला मुँहझौंसा...

बच्चों,युवाओं को भी नहीं बख्श रहा राक्षस

अब हम क्या बताएं?

और इतने बलशाली असुर मारे तुमने

ये तनिक सा नहीं संभलता तुमसे कोरोना हुँह.

अब बहुत डाँट लिया हमने तुम्हें

ऐसा तो हमने कभी नहीं किया पर मजबूर हैं

ध्यान से सुनो हमारी सलाह-

ये सपना हम रोज देखते सोने से पहले 

बस वो ही पूरा कर दो-

सुना है एक वैक्सीन पर काम हो रहा

जो नाक में स्प्रे करते ही कोरोना उड़न छू

तो बस अब जल्दी ही उसी में टपका दो वो ही

जो हनुमान बाबा लाए थे न - संजीवनी 

बस एक दिन सोकर उठें और अख़बार में बड़ा- बड़ा छपा दिखे-

आ गई, आगई नेजल स्प्रे वाली दवाई

मिनटों में कोरोना उड़न -छू

लौट आए धरती की मुस्कान फिर

लौट आएं रुकती साँसें सबकी

थक गए न्यूज में भी कराह, लाशें, पीड़ा देख

कलेजा हर समय थरथराता है ..

डर लगता है अपनों के लिए

अब ये बात समझो और मानो

बाकी हम क्या समझाएं आपहि

तो इत्ते बड़े समझदार हो ...!

थोड़े लिखे को ज्यादा समझना

और जरा खबर लो अब सबकी.

सो कहाँ रहे हो ?

जाते हम अब.

सीता मैया, लखन भैया और 

हनुमन्त लला को प्रणाम कह देना

आपकी- अब जो है सो है ही

                          —उषा किरण 🙏


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बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

सफरनामा— महाकालेश्वर व श्री काल भैरव मंदिर, उज्जैन


बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर भगवान का यह मंदिर प्रमुख मंदिरों में से एक माना जाता है इसके दर्शन की बहुत अभिलाषा थी । मान्यता है कि बारह ज्योतिर्लिंगों में से सिर्फ़ यहाँ पर ही दक्षिण मुखी शिवलिंग हैं । इस मंदिर का उल्लेख महाभारत,पुराणों व कालिदास के ग्रंथों में भी मिलता है ।धर्मशास्त्रों के अनुसार दक्षिण दिशा के स्वामि यमराज हैं  अत: यहाँ महाकालेश्वर के दर्शन करने से अकाल मृत्यु तथा यमराज द्वारा दी जाने वाले कष्टों से मुक्ति मिलती है तथा दर्शन मात्र से ही मो़क्ष की प्राप्ति होती है ।
सात फरवरी को सुबह ही सुबह मौका देख कर इंदौर से उज्जैन जिसका एक नाम अवन्तिका भी था के लिए निकल कर डेढ़ घंटे में पहुँच गए ।सुबह चार बजे की भस्म आरती में चाह कर भी शामिल नहीं हो पाए ।पहले सुना था कि ताजी चिता की भस्म से आरती होती थी परन्तु गाँधी जी की इच्छानुसार अब कपिला गाय के गोबर से बने कंडे अमलतास ,बेर,पीपल,पलाश,बड़ की लकड़ियों से मन्त्रोच्चार सहित जला कर बनी भस्म से आरती होती है। बहुत भीड़ थी मोबाइल बाहर जमा कर फूल- माला व  प्रसाद लेकर लाइन में लग गए।करीब एक घंटे में हमारा नं० आया ।दूर से ही दर्शन हुए ।पंडित जी ने प्रसाद ,फूल लेकर दूर से ही चढ़ा दिए दर्शन कर ,हाथ जोड़ श्री काल भैरव मंदिर  के लिए निकल लिए।
काल भैरव मंदिर महाकालेश्वर मंदिर से पाँच कि०मी० की दूरी पर है।किंवदंती है कि यहाँ के राजा भगवान महाकाल ने ही काल भैरव को यहाँ पर शहर की रक्षा के लिए नियुक्त किया था। इसलिए काल भैरव को शहर का कोतवाल भी कहा जाता है ।
वहाँ ज्यादा भीड़ नहीं थी ।फूल-माला ,प्रसाद के साथ एक बोतल में मदिरा भी दी गई ।ये दुनिया का एक मात्र ऐसा मंदिर है जहाँ भैरव भगवान पर मदिरा का प्रसाद चढ़ाया जाता है ।पुजारी के द्वारा प्लेट में निकाल कर मुँह से लगाने पर मदिरा साफ गटकती हुई दिखाई देती है जो आज भी रहस्य है।कहते हैं कि काफी जाँच के बाद भी समझ नहीं आया कि ये मदिरा आखिर जाती कहाँ है । ये छै: हजार साल पुराना वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है  जहाँ बलि ,माँस, मदिरा चढ़ाया जाता था और मदिरा आज भी चढ़ाई जाती है।भैरव देवता तामस देवता माने जाते हैं और मान्यता है कि तामसिक पूजा से अनिष्ट ग्रहों की शाँति होती है।
इस मंदिर में भगवान कालभैरव की प्रतिमा सिंधिया पगड़ी पहने हुए दिखाई देती है। यह पगड़ी भगवान ग्वालियर के सिंधिया परिवार की ओर से आती है। यह प्रथा सैकड़ों सालों से चली आ रही है।
मंदिर के बाहर एक शराबी मंदिर से लौटने वालों से बची मदिरा गिड़गिड़ा कर माँग रहा था ...पर प्रसाद तो सबको चाहिए होता है न....तो किसी ने भी नहीं दी।
बहुत भूख लग रही थी और प्रोग्राम में लौटने की भी जल्दी थी अत: भूख लगने पर भी चाय नाश्ता न कर झटपट अमरूद लेकर गाड़ी में ही मसाले से खाते हुए इंदौर वापिस हो लिए । वाकई सच मानिए उज्जैन के अमरूदों का स्वाद लाजवाब था ।मैं सिर्फ़ अमरूद खाने के लिए ही इंदौर या उज्जैन दुबारा जा सकती हूँ ।

                                                                 महाकालेश्वर

श्री काल भैरव मंदिर





गुरुवार, 24 जनवरी 2019

स्मृति रेखाँकन— अन्नदाता सुखी भव....


प्राय: सफर में बहुत विचित्र अनुभव होते हैं ..कुछ खट्टे ,कुछ मीठे..आज से लगभग पन्द्रह साल पहले के एक अनुभव को तो मैं आजन्म नहीं भूल सकती ...असाध्य रोग से पीड़ित हो किसी डॉक्टर को दिखा कर मैं कलकत्ता (कोलकाता) से लौट रही थी हमारी ट्रेन का समय शाम का था जिस होटल में रुके थे वहाँ रास्ते के लिए कुछ खाना पैक करने के लिए कहा पर उन्होंने कहा इस समय संभव नहीं है...सोचा रास्ते में कुछ व्यवस्था हो जाएगी पर नहीं हो सकी...बीमार थी तो यूँ ही कुछ भी नहीं खाना चाह रही थी रास्ते में किसी स्टेशन पर एक कैंटीन थी वहाँ मेरे पति गए पर वो तब तक बंद हो चुकी थी...हार कर चिप्स और फल का सहारा लिया...हमारे कम्पार्टमेंट में एक फैमिली सफर कर रही थी लगभग पाँच छै: लोग थे उन्होंने  अपना दस्तरखान बिछाया और टोकरी से तरह-तरह के व्यन्जन सजाने शुरू किए..पूड़ियाँ ,आलू,अरबी,भिंडी कई तरह की सब्ज़ियाँ ,चटनी ,सलाद,पापड़,भुजिया,अचार  ...और मेरे पेट के चूहों ने जोर से उछल -कूद मचानी शुरू कर दी...हमारे पति तो फल प्रेमी हैं खाकर ऊपर की सीट पर सोने चले गए पर हमें जब तक कुछ नमक रोटी न मिले काम नहीं चलता आँखें नाक,कान,मन,प्राण सब बार- बार उधर ही खिंचे जा रहे थे 😜..हमने झट मैगज़ीन में अपनी आँखों को बाँध दिया..तभी अचानक उनमें से एक महिला ने कहा `सुनो बेटा आप भी आ जाओ हमारे साथ खा लो’...हमने सकुचा कर कहा `नहीं नहीं आप लोग खाएं’...उन्होंने पुन:-पुन:आग्रह किया कि `हम सुन रहे थे आप लोगों को खाना नहीं मिला है और हमारे पास बहुत खाना है देखिए ये सब इतना बचेगा कि फिंकेगा ही बचा हुआ आप संकोच न करें बस आ जाइए ‘...उनकी बहू प्रेम से हमारा हाथ पकड़ कर जब उठाने लगी तो हमने भी मन में कहा `चल उषा वसुधैव कुटुम्बकम्’...और उनके साथ चौकड़ी मार बैठ गए...इतना स्वादिष्ट खाना था कि क्या कहें...हम चटखारे लेकर खाने और बातों के मज़े लेने लगे सहसा उन्होंने कहा आप अपने हस्बैंड को भी बुला लीजिए...वो ऊपर से ही बोले `नहीं नहीं मैंने फल खा लिए हैं बस इनको ही खिलाइए ‘....पर वो नहीं मानीं सभी लोग बहुत आग्रह करने लगे हमने कहा `आ जाओ थोड़ा खा लो ‘...उन्होंने मना कर दिया पर उन लोगों ने जबर्दस्ती उनको भी बुला लिया पति तो दो पूड़ी बेहद संकोच से खाकर ऊपर बर्थ पर सोने चले और हम बातों और खाने के मजे लेते जैसे उसी परिवार के सदस्य हो गए...वो बताती रहीं कि आटे में हल्दी नमक डाल कर दूध से गूँधते हैं पूड़ी का आटा...सफर के लिए अरबी ,आलू और भिंडी की सब्जी को डीप फ्राई करके बनाते हैं तो जल्दी खराब नहीं होती...हम मारवाड़ी लोग भुजिया खाते हैं हर खाने के साथ...फिर मारवाड़ी लोगों की शादी के रिवाज...लहंगों , साड़ियों ,ज़ेवरों की ,रीति रिवाजों के बारे में बताती जातीं और बहुत स्नेह आग्रह से खिलाती-पिलाती जाती थीं...बाद में दो तरह की मिठाई खिलाई...खा पीकर धन्यवाद देकर अपनी सीट पर आ गए ...सुबह फिर उनका दस्तरख़ान बिछा और केन की टोकरी से ब्रैड,खीरा टमाटर निकाल कर सैंडविच बनने लगे, भुजिया और मिठाई तो थी ही ...उन्होंने फिर आमन्त्रित किया पर हमने हाथ जोड़ मना कर दिया पति किसी स्टेशन से कुछ खाने पीने का सामान ले आए थे... दिल्ली स्टेशन पर उतरते समय हमने पुन: आभार जताया तो हाथ पकड़ कर बोलीं कि `अभी भी बहुत खाना बचा है अच्छा है आपने खा लिया धन्यवाद मत कहिए आपसे बहुत अपनापन हो गया है ‘ सारे परिवार ने स्नेहपूर्ण विदाई ली ...इतने वर्षों के बाद भी उस शाही भोज की स्मृतियों को भुला नहीं पाती...ज़िंदगी भर एक से एक मँहगे और नायाब खानों का स्वाद चखा है...देश विदेश के बड़े -बड़े शैफ के फ़ाइव व सैवन स्टार रेस्ट्राँ में कितनी ही सिग्नेचर डिश खाईं होंगी पर वे सारे उस रात ट्रेन में ,बीमारी व कमज़ोरी में खाए स्वादिष्ट सुरुचिपूर्ण बनाए व प्रेम व आग्रह से खिलाए खाने के आगे फीके पड़ जाते हैं ...मेरा मन आज भी बहुत दुआएँ देता है उनको और आदर व प्यार से भीग कर कहता है...` अन्नदाता सुखी भव’ 🙏😌
          #सफरनामा

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

'' बैजनाथ मंदिर ''--(काँगड़ा )


                                         
 पूर्व निश्चित प्रोग्राम केअनुसार आश्रम के बाद हम लोग काँगड़ा जिले के कस्बे 'बैजनाथ' जो कि पालमपुर से १४ कि मी की दूरी पर है स्थित 'बैजनाथ' मंदिर के लिए निकल लिए जो की हिन्दुओं के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 
तेरहवीं शताब्दी में बने शिव मदिर को 'बैजनाथ' अर्थात वैद्य +नाथ भी कहा जाता है इसका पुराना नाम ' कीर- ग्राम' था। मंदिर के उत्तर पश्चिम छोर पर `बिनवा ‘ नदी बहती है जो आगे जाकर ब्यास नदी में मिलती है.
कहते हैं कि त्रेता युग में रावण ने घोर तपस्या की और अपने नौ सिर काट कर उनकी आहुति दी जब वो दसवॉं सिर काटने लगा तो शिवजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और वर माँगने को कहा रावण ने कहा कि आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूँ  और दूसरा यह कि आप मुझे बलशाली बना दें शिव जी ने तथास्तु कहा और अपने दो शिवलिंग  स्वरूप दो चिन्ह रावण को दिए और कहा कि इनको भूमि पर मत रखना रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र (बैजनाथ क्षेत्र) पहुंचने पर एक बैजू नामक  ग्वाले को शिवलिंग पकड़वा कर लघुशंका के लिए चला गया बैजू शिवजी की माया से भार वहन नहीं कर सका और शिवलिंग धरती पर रख कर चला गया और दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए ।दोनों शिवलिंग 'चन्द्रभान' एवम् 'बैजनाथ' नाम से जाने गए शिवजी मंदिर के समक्ष नंदी की मूर्ति है लोगों का विश्वास है कि नन्दी के कान में मन्नत मांगने से पूरी होती है ।हमने जब लोगों को ऐसा करते देखा तो हमने हमने भी नन्दी के कान में अपनी मन्नत माँगी ।मंदिर परिसर में कुछ छोटे मंदिर भी हैं ।
कहते हैं कि द्वापर युग में पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान इस मंदिर का निर्माण करवाया था।शेष निर्माण कार्य 'आहुति' एवं 'उनुक' नामक दो व्यापारियों ने १२०४ ई० में पूर्ण करवाया ।यह स्थान शिवराम के नाम से
उत्तर भारत में प्रसिद्ध है ।
वर्ष भर यहॉं पर भक्त-जन एवम् विदेशी पर्यटक दर्शन हेतु आते हैं ।महाशिवरात्रि में हर वर्ष पॉंच दिवसीय राज्य स्तरीय समारोह आयोजित किया जाता है।
मंदिर के साथ बहने वाली `बिनवा खड्ड' पर बने खीर गंगा घाट में स्नान का विशेष महत्व है। लोग स्नान के बाद  पूजा अर्चना करते है।  हम लोग भी पूजा-अर्चना कर जल्दी वापिस लौट लिए क्योंकि तेज धूप के कारण फ़र्श तप रहा था और पैर जल रहे थे। लौटते समय मैंने एक बात पर गौर किया कि कॉंगड़ा के हर मंदिर के निर्माण से  पांडवों के अज्ञातवास का संबंध जुड़ा है ।


                                                                 











शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

" चामुण्डा देवी मंदिर “(काँगड़ा )


आश्रम जाकर खाना खाकर हम लोग सो गए शाम को पाँच बजे पवन की गाड़ी से मैं,कान्ता जी,भारती और एक कान्ता जी की फ्रैंड चामुण्डा देवी के दर्शन को निकल लिए और पन्द्रह मिनट में ही पहुँच गए .
हिमाचल-प्रदेश को देव-भूमि भी कहा जाता है.पूरे हिमाचल में २००० से भी ज़्यादा मंदिर हैं इनमें से एक चामुण्डा मंदिर भी प्रमुख  है .यह भी प्रमुख शक्तिपीठ मंदिरों में से एक है.यह मंदिर ७०० साल पुराना है कहते हैं यहाँ सती माँ  के चरण गिरे थे.मान्यता है कि यहाँ दर्शन करने एवं मन्नत मानने से मनोकामना पूर्ण होती है.देश भर से असंख्य श्रद्धालु प्रतिवर्ष दर्शन को आते हैं.यह मंदिर धर्मशाला से पन्द्रह कि०मी० दूरी पर बंकर नदी के किनारे स्थित है पर जब हम लोग गए तब नदी लगभग सूखी हुई थी यहाँ की प्रकृतिक सुषमा मनमोहक  है.
यह मंदिर माता काली को समर्पित है चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण ही माता का नाम 'चामुण्डा' पड़ा.जब-जब भी दानवों के कारण कोई संकट  धरती पर आया तब-तब मॉं ने दानवों का संहार किया.मंदिर के बीच वाले भाग में प्राय: लोग ध्यान लगाते हैं .कुछ लोग ब्रह्म गंगा तथा मंदिर के पास स्थित कुंड में स्नान कर दर्शन करते हैं.प्रमुख प्रतिमा को शुचिता के कारण ढंक कर रखते हैं. मंदिर के पीछे एक पवित्र गुफा है जिसमें शिवलिंग स्थापित हैं.मंदिर के मुख्य द्वार के पास हनुमान जी तथा भैरों नाथ की प्रतिमा है. हनुमान जी को माता का रक्षक माना जाता है.
मंदिर जाकर हमने प्रसाद लिया और लाइन में लग गए काफी भीड़ थी सामानान्तर  दो लाइन चल रही थीं.
दर्शन करके हम बाँए साइड से बाहर निकले वहां बड़ी सी हनुमान जी की मूर्ती   थी वहां हमने फोटो खिंचवाईं नीचे ब्रह्म गंगा बह रही थीं पर बिल्कुल सूखी हुई सी. मैंने और भारती ने वहां से आम पापड़ खरीदे।
गाड़ी में गाना बज रहा था...
रत्नों सी सुण रत्नों
तेरियां गला दाँ मारया
के पौणाहारी
जोगी हो गया
जोगी हो गया,वैरागी हो गया...
मुझे पवन ने बताया ये बाबा बालकनाथ का भजन है.
हम रास्ते से कुछ डाइट नमकीन ख़रीदते हुए वापिस आश्रम की तरफ़ प्रस्थान कर गए.
                                                                         
#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा-5                                                          क्रमशः
          

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

"श्री १००८ बगलामुखी बनखण्डी मंदिर” (कांगड़ा)



हिमाचल प्रदेश ऋषि-मुनियों की तपस्थली रही है यहां बहुत प्राचीन मंदिर संथित  हैं ...हमने पहली बार बगलामुखी मॉं का नाम सुना था ।इस मंदिर का नाम " श्री १००८ बगलामुखी बनखण्डी मंदिर  है " यह  मंदिर ज्वालाजी से बाइस किलोमीटर दूर  कोटला कस्बा ,ग्राम बनखण्डी में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ मंदिर है ।कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा एक ही रात में की गई थी भगवान कृष्ण के कहने पर इसकी स्थापना कर सर्वप्रथम यहां विशेष पूजा भीम व युधिष्ठिर ने शक्ति प्राप्त करने एवं युद्ध पर विजय प्राप्त करने के लिए की थी इन देवी की उपासना एवं हवन करवाने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है एवं कष्ट व भय से मुक्ति तथा वाक्सिद्धि प्राप्त होती है ,कुछ धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि यहां सर्वप्रथम आराधना ब्रह्मा व विष्णु ने तत्पश्चात परशुराम ने की थी और कई शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी ।
हिन्दू पौराणिक कथाओं में दस महाविद्याओं  की देवी में से एक मॉं बगलामुखी का आठवां स्थान माना गया है इन्हें माता पीताम्बरा भी कहा जाता है ...ये स्तम्भन की देवी हैं सारे ब्रह्मान्ड की शक्ति मिल कर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती  ।कहते हैं कि समुन्द्र में छिपे राक्षस का वध करने हेतु मॉं ने बगुला का रूप धारण किया था इसी से बगलामुखी नाम पड़ा यहां मॉं का पीत वस्त्र, पीत आभूषण एवं पीले ही फूलों की माला से श्रंगार किया जाता है भक्त लोग भी पीले रंग के फूल ही अर्पित करते हैं । मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने जाते हैं जो क्रमश: दतिया,नलखेड़ा,(म०प्र०) तथा कांगड़ा(हि०प्र०) में स्थित है जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है ।
'बगलामुखी जयंती’ पर यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जिसमें अन्य देशों के विभिन्न राज्यों से लोग आकर कष्टों के निवारणार्थ हवन,पूजा-पाठ करवाते हैं ।वर्षों से प्रतिवर्ष असंख्य श्रद्धालु अन्य अवसरों पर भी यहां दर्शन को आते रहे हैं ।
नगरकोट के महाराजा संसारचन्द कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर आराधना करते थे ।देश के कई नेता यहां आकर अनुष्ठान- पूजा करवाते रहे हैं ।मंदिर के अंदर कई हवन कुंड हैं जिनमें हवन-अनुष्ठान चलते रहते हैं
इस मंदिर के परिसर में मॉं लक्ष्मी,कृष्ण, हनुमान,भैरव तथा सरस्वती मॉं की प्रतिमा भी स्थापित हैं आदमकद शिवलिंग  भी हैं यहां पर ..इसके अतिरिक्त...नवरात्री में यहां भारी भीड़ रहती है बेलपत्रआंवला,नीम ,पीपल के वृक्ष परिसर में हैं ।
परिसर में बनी दुकान से प्रसाद लिया और एक दोने में बिक रहे पीले गेंदे के फूल लेकर पूजा कर बाहर आए बहुत तेज धूप और बेहद गर्मी थी ,मैंने मंदिर में बिक रही दो आइस्क्रीम खरीदीं और टीन के शेड के नीचे बैठ कर मजे से मैंने और कान्ता जी ने खाईं फिर बाहर निकल कर गाड़ी में बैठ वापसी के लिए रवाना हो गए ।हमने  रास्ते से खूब सारे फल खरीदे कैम्प में हमें फल नहीं मिलते थे तो रास्ते में हम लीची,आलूबुखारा , आम खाते रहे और गपियाते रहे ।मैंने पवन से पूंछा कि ' तुम्हारे कांगड़ा में देवता नहीं पूजे जाते क्या ‘ तो उसने कहा`नहीं हमारे कांगड़ा में देवी की पूजा करते हैं और शिव जी तथा भैरों की पूजा करते हैं ।
     दरअसल मेरे साथ एक फैमिली लगभग बीस साल से रहती है वो लोग पौड़ी गढवाल से हैं  और एक मेड थी उत्तरांचल से ये लोग हर दम हजारों रुपये उधार मांग कर गांव जाते थे यह कह कर कि देवताओं को पूजा देनी है और फिर बकरे की बलि देकर उनका ओझा या पंडित कुछ पूजा करता था फिर सारे गांव की दावत होती थी ...उनकी बातों से पता चलता था कि उनके देवता मृत पूर्वज ही होते हैं जो प्रेत बन कर नाराज होने पर इनको सताते हैं और खुश होने पर मदद करते हैं ।मैं कई बार समझाती थी कि भगवान की पूजा करो ,हनुमान जी,शिवजी या देवी मॉं की ।इतनी मेहनत से कमाया पैसा क्यों बर्बाद करते हो कुछ साल बाद उनकी समझ में आया और अब वे भी भगवान को मानते हैं परन्तु उनके किस्से इतने डरावने और मजेदार होते थे कि एक पुस्तक तो लिखी जा सकती है ।
पवन ने हमसे कहा कि यदि आप चाहो तो शाम को चामुन्डा देवी के दर्शन कर सकती हैं आश्रम से पन्द्रह मिनट की दूरी पर है तो हमने कहा कि ठीक है पांच बजे आ जाना हम चलेंगे और  करीब डेढ बजे हम वापिस आश्रम आ गए
                                                                                                                                                   क्रमश:

#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा-4






मंगलवार, 10 जुलाई 2018

"ज्वाला देवी मंदिर “


बृजेश्वरी देवी मंदिर से चल कर लगभग एक घंटे में हम ज्वालामुखी मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने कहा आप यहां से ऑटो कर लें तो सीधे ऊपर पहुंचा देगा हमने एक ऑटो वाले से बात की और उसने हमें ऊपर पहुंचा दिया प्रसाद लेकर हम मंदिर में पहुंचे बहुत भीड़ थी किसी तरह अंदर जाकर दर्शन किए ।
ज्वाला देवी को ज्वालामुखी ,नगरकोट और जोतावाली मॉं का मंदिर भी कहा जाता है यहां पर मां की पावन ज्योति एक पहाड़ी चट्टान से प्रज्वलित हुई है। इनकी पूजा मॉं की ज्योतियों में की जाती है मान्यता है कि यहां दर्शन करने से सभी कामना पूरी होती है पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है ।
कांगड़ा घाटी से तीस कि०मी० दक्षिण मेंस्थित है यह मंदिर इक्यावन शक्तिपीठों में शामिल है ...इस स्थान पर सती मॉं की जीभ गिरी थी इस स्थान पर मॉं के दर्शन ज्योति के रूप में होते हैं इसमें नौ ज्योतियां प्रज्वलित  हैं इनको महाकाली,अन्नपूर्णा ,चंडी,हिंगलाज,विंध्यवासिनी,महालक्ष्मी,महासरस्वती,अंबिका,अंजी-देवी के नाम से जाना जाता है ! 
मंदिर के पास ही एक जगह 'गोरख डिब्बी ‘है देखने पर लगता है कि गर्म पानी है ,छूने में ठंडा 
लगता है इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमिचन्द ने करवाया था बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचन्द ने 1835 में इसका पुनर्निर्माण करवाया ।
इस मंदिर से जुड़ी किंवदन्ति है कि एक ग्वाले की गाय दूध नहीं देती थी एक दिन जंगल में उसका पीछा किया तो ग्वाले ने देखा कि गाय सारा दूध एक दिव्य कन्या को पिला देती है ग्वाले ने यह बात राजा को बताई राजा ने सत्य की जांच करने के बाद उस स्थान पर मंदिर बनवा दिया।एक और कथा प्रचलित है कि भक्त ध्यानु मॉं का परम भक्त था एक बार वह मॉं के दर्शन के लिए भक्तों के साथ जा रहा था रास्ते में उन्हें मुगल सेना ने पकड़ लिया अकबर ने पूंछा कि 'तेरी मॉं में क्या शक्ति है ‘तो ध्यानु ने कहा कि `मेरी मॉं संसार की रक्षा करने वाली है ‘अकबर ने उसके घोड़े का सिर कलम करके कहा `किअगर तेरी मॉं में शक्ति है तो घोड़े को फिर से जिंदा करके दिखाए ‘कहते हैं कि ध्यानु की विनती से मॉं ने घोड़े का सिर फिर से जोड़ दिया ,यहां बिना तेल बाती बरसों से ज्योति जल रही हैं ...अकबर ने इस ज्योति को बुझाने की भी बहुत कोशिश की पर नाकाम रहा तब अकबर ने श्रद्धावनत हो सोने का छत्र चढाने की कोशिश की पर वह छत्र किसी दूसरी धातु में परिवर्तित हो गया वह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है ।अंग्रेजों नेभी काफी कोशिश की कि इस ज्योति का इस्तेमाल बिजली बनाने के काम में लिया जाए पर असफल रहे ।लोगों का कहना है यह ज्वाला चमत्कारी रूप से निकलती है प्राकृतिक रूप से नहीं वर्ना तो यहां मंदिर की जगह बड़ी -बड़ी मशीनें लगी होतीं ।
दर्शन करके हमने ऑटो वाले को फोन किया वो हमें लेकर नीचे आ गया घड़ी देखी मात्र दस बजे थे हमने  गाड़ी में बैठ कर ड्राइवर से पूंछा कि `पास में और कोई देवी हैं ‘उसने कहा `हां बगुलामुखी देवी हैं आधे घंटे में पहुंच जाएंगे ‘हमने कहा `ले चलो पर प्यास और भूख लगी है तो पहले हमें किसी होटल या रस्टोरेन्ट में ले चलो ‘उसने कहा कि `ठीक है मंदिर की तरफ ही चलते हैं रास्ते में किसी ढाबे पर रोक कर खा पी लेंगे ‘हमने कहा `चलो ठीक है ‘रास्ते में एक छोटा सा साफ सुथरा ढाबा मिला हम उतर गए मैंने पूंछा कि `खाने को क्या मिलेगा ‘उसने कहा `खाना ‘इतनी सुबह हमारा मन खाने का नहीं हुआ उसको कहा'आलू का परांठा और चाय बना दो ‘उसने मना कर दिया बोला 'नहीं नहीं हम परांठा नहीं बनाते बस रोटी बना देंगे वर्ना तो हम बस चावल ही देते हैं हमने कहा'ठीक है फिर वही खिलाओ भई ‘हम बैठ गए ड्राइवर को भी बुला लिया वो तीन थाली लाया दाल ,कढी,चावल, रोटी थोड़ा बहुत खा पीकर पूंछा कितने रुपये ? उसने कहा `सौ रुपये ‘तो मैं उसका मुंह देखने लगी इतना सस्ता ? खैर सौ पर कुछ एक्स्ट्रा पैसे रख कर हम आगे चले । 
कान्ता जी ने आम पापड़ निकाला और हम उसे चटकारे लेकर खाने लगे ड्राइवर ने पहाड़ी गाने लगा दिए कान्ता जी स्वयम् चम्बा से हैं तो वो मुझे उन गानों का मतलब समझाती रहीं ..कांगड़ी बोली पंजाबी बोली से बहुत मिलती जुलती है...कान्ता जी से पूंछ कर एक हिमाचली गाना लिखा...
"पारलिया बनिया मोर जे बोले
अम्मा पूछदी सुण धिए मेरिए 
दुबली इतनी तू किया करी होई हो
पारली बणिया मोर जे बोले हो
अम्माजी ने मोरे निंदर गवाई हो
सद ले संदूकी जो सद ले शकारी जो
धीए भला एह तों मोर मार गिराणा हो
मोर नी मारणां मोर नी गवाणा हो
ओह अम्मा जी एहतां मोर पिंजरे पवाणा हो...”
ठंडी पहाड़ी हवा,आम पापड़ और पहाड़ी लोक संगीत  और भक्ति भाव ने मिल कर मन प्रसन्नता से भर दिया... और हम मां की जय बोल आगे के लिए प्रस्थान कर गए...

#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा- 3









शनिवार, 7 जुलाई 2018

''बृजेश्वरी देवी मंदिर '' (कांगड़ा,हिमाचल- प्रदेश)—यात्रा-2


साधना-शिविर के बाद हम एक दिन एक्स्ट्रा तपोवन में रुके तो मेरा मन हुआ क्यों न कांगड़ा की देवियों के दर्शन कर आऊं कांगड़ा में जगह- जगह पर देवस्थान होने से इसे देवभूमि कहा जाता है ...पर मेरे साथ की सभी फ्रैंड्स पहले ही दर्शन कर चुकी थीं पर शिविर में एक फ्रैंड बनी थीं कान्ता जी वो भी जाना चाह रही थीं तो हम दोनों टैक्सी करके सुबह सात बजे निकल पड़े ।कांगड़ा का प्राचीन नाम नगरकोट था अत: ब्रजेश्वरी देवी मंदिर को नगरकोट वाली देवी और कांगड़ा देवी भी कहा जाता है।यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर स्थित है ।
करीब आधे  घन्टे में  हम मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने हमें ऊपर पहाड़ी पर जाती सीढियां दिखाईं हम और कान्ता जी चल दिए हाथ पकड़ कर आस्था की लाठी टेकते...कान्ता जी ने किसी बात पर मुझे बेटी कहा तो हंस कर टोका `मैं सहेली हूं आपकी आपसे ज्यादा छोटी नहीं ...मेरे रंगे बालों पर न जाएं ...’खैर सीढी के दोनों तरफ दुकानें सजी थीं जिनका वैभव ललचा रहा था ।रंग-बिरंगी चूड़ियां ,सिंदूर,कंगन ,तांबे -पीतल के कंगन,झुमके, भगवान जी की पोशाकें व दमकते जेवर, बच्चों के खिलौने .प्रसाद और भी जाने क्या-क्या ...खैर हमने भी प्रसाद लिया हांफते-सुस्ताते हम पहुंच गए मंदिर और लग गए लाइन में ।
मान्यता है कि जब मां सती ने शिव के द्वारा किए अपमान से आहत होकर दक्ष के यज्ञ-कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए थे तब कुपित होकर भगवान शिव उनका शव लेकर  पूरी सृष्टि में घूमे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के बावन टुकड़े कर दिए तो जहां -जहां माता सती के अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाते हैं, यहां मां का बायां वक्ष गिरा था तो यहां शक्तिपीठ की स्थापना हुई । शक्तिपीठ मंदिर किसे कहते हैं यह मुझे यहीं आकर पता चला ...यह मंदिर मध्यकालीन वास्तुशिल्प का सुंदर उदाहरण है,यहां स्थित गुंबद,शिखर ,कलश और स्तम्भ समूह पर राजपूत कालीन शिल्प का प्रभाव दिखाई पड़ता है प्राचीन काल में देवी की पूजा तांत्रिक विधि से होती थी आज भी यहां पांच टाइम पूजा बहुत विधि-विधान से होती है ।
दसवीं शताब्दी तक यह मंदिर बहुत समृद्ध था पर 1909 में मोहम्मद गजनबी ने इस मंदिर को पांच बार लूटा 1337 में मो. बीन तुगलक ने और पांचवी शताब्दी में सिकंदर लोदी ने इसको लूटा बार- बार इसका पुनर्निर्माण किया जाता रहा पर 1905 में आए भूकम्प में यह पूरी तरह नष्ट हो गया 1920 में पुन: इसका पुनर्निर्माण किया गया ।सिर्फ हिंदू ही नहीं मुस्लिम व सिक्ख सम्प्रदाय के श्रद्धालु भी यहां पर आस्था के फूल चढाते हैं ,उसके तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक हैं ।मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली मुख्य पिंडी मॉं बृजेश्वरी की है,दूसरी भद्रकाली की और तीसरी सबसे छोटी मां एकादशी की है ...बहुत से श्रद्धालु पीले वस्त्र पहन कर आए थे पूंछने पर पता चला कि परम भक्त ध्यानु ने यहां मॉं को अपना शीश अर्पित किया था तो उनके अनुयायी आज भी पीले वस्त्र पहन कर दर्शन को आते हैं ।कहते हैं सच्चे मन से मांगी मुराद यहां जरूर पूरी होती है।
मंदिर में प्रवेश करने पर बहुत भीड़ के कारण ज्यादा देर रुकना मुश्किल था तो दर्शन करके तुरंत बाहर आ गए ।लौटते समय हमने भी बाहर की दुकानों से सिंदूर और पीतल के कड़े प्रसाद में देने के लिए खरीदे और हां आम पापड़ भी खरीदे । नीचे आने पर हम गाड़ी में बैठ कर आगे ज्वाला जी के दर्शन के लिए निकल लिए ।रास्ते में कान्ता जी की बेटी का फोन आया तो उन्होंने नहीं उठाया बार बार आने पर उठाया पर बताया नहीं कि वो कहां हैं बोलीं ''आश्रम से बाहर आई हूं ''मैंने पूंछा क्यों नहीं बताया तो बोलीं कि ''बच्चे गुस्सा करते उन्होंने मना किया था कि कौन तुमको हाथ पकड़ कर चढाई पर ले जाएगा  तुम गिर जाओगी ''पर बेटी को शक हो गया वो बार -बार फोन करने लगी मैंने कहा ''आप बता दो कि मेरी सहेली है साथ गिरने नहीं देगी'' तब उन्होंने बताया ...मैंने भी हम दोनों के फोटो उनके बच्चों को वहाट्अप पर भेजे साथ ही मैसेज किया कि ''मेरे साथ हैं फिक्र न करे आप लोग''...तब उनको तसल्ली हुई । कान्ता जी ने बताया कि पांचों बच्चे छोटे थे जब उनके पति की हार्ट- अटैक से डैथ हो गई थी बहुत मेहनत से बच्चे पाले वे मॉं ज्वाला जी को बहुत मानती हैं उन्होंने मन्नत मानी थी और मुराद पूरी हुई चारों बेटियों की बहुत अच्छे घरों में शादी हो गई मुंह से मांग लिया एक दो बेटियों को ...बेटे की भी शादी हो चुकी है और उसका बहुत अच्छा जॉब है सारे दामाद, बहू बेटियां बहुत सम्मान करते हैं ...मेरा बार- बार हाथ पकड़ कर कह रही थीं कि ''उषा तुम्हारी वजह से मैं दर्शन कर पाई ''मैंने कहा ''आपकी वजह से मैं कर पाई''...कान्ता जी का जोश और भोलापन बच्चों जैसा था सच ही मुझे उनसे प्यार हो गया ...रास्ते में वो अपनी आप बीती सुनाती रहीं और मॉं का धन्यवाद करती रहीं ..हम दोनों ही प्रभु कृपा को स्मरण करते श्रद्धावनत हो इतने अभिभूत हो चुके थे कि गाड़ी और ड्राइवर की सुविधा भी हमें  भावविभोर करे दे रही थी गाडी़ हमेंअर्जुन के रथ `नन्दीघोष ‘से कम नजर नहीं आ रही थी और सारथी( ड्राइवर) में हमें साक्षात वासुदेव ही दृष्टिगोचर हो रहे थे ...सारथी महोदय की आंखें सड़क पर थीं पर कान हम दोनों माताजीओं पर ही टिके थे वे भी हमें देवी महिमा के बारे में ज्ञान देते रहे  ...हम श्रद्धा और आस्था की मंदाकिनी में डुबकी लगाते ज्वाला जी के दर्शन हेतु प्रस्थान कर चुके थे. 🙏
                                                                                                                क्रमश:
                       



शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

" तपोवन ”,सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल-प्रदेश) यात्रा-1

साधना -शिविर


  दस जून से अट्ठारह जून तक होने वाले चिन्मय- मिशन के साधना शिविर  में सम्मिलित होने हेतु मैं और मेरी फ्रैंड्स नलिनी,उषा अग्रवाल, भारती और सरोज गुलाटी शालीमार एक्सप्रेस से नौ जून शाम को बड़े उत्साह-पूर्वक  सवार हुए । हम चारों ने तय किया था कि नलिनी पूड़ी लाएंगी भारती सब्जी और हम अचार व मिठाई ।हमको ये ख्याल था कि ट्रेन अंडरकनेक्टेड होगी तो दूर होने पर भी सब्जी पूड़ी पहुंचा दी जाएगी पर हमारे कम्पार्टमेन्ट दूर थे बिना उतरे हम एक दूसरे तक नहीं पहुंच सकते थे और इतनी देर कहीं भी ट्रेन बीच में नहीं रुकती अब ? अब क्या करें ? भारती और नलिनी साथ थीं पर समस्या हमारे और सरोज के साथ थी सरोज सब्जी ले आई थीं और उषा जी दिल्ली से आई थीं तो दो परांठे आलू के अपने लाई थीं नलिनी फोन कर रही थीं कि कैसे पूड़ी पहुंचाई जाएं हमने कहा परेशान न हों हम ट्रेन की पेन्ट्री से ही मंगा कर खा लेंगे नहीं तो मठरी और अचार मैं ले गई  थी वो खा लेंगे चाय से ।मैं ट्रेन का खाना नहीं खाना चाह रही थी  तभी एक लड़का जो चिप्स बेच रहा था हमने उससे रिक्वेस्ट की तो वो मान गया उसे सीट नम्बर वगैरह दे दिए और एक दो घंटे में उसने नलिनी से लेकर हमें पूडिएं लाकर दीं जब हमने उसे इनाम दिया तो वो मना करने लगा पर मैंने उसे जबर्दस्ती कुछ रुपये दिए । खा पीकर हम लेटे सारी रात खटर -पटर के चलते नींद तो क्या ही आ पाई ...टॉयलेट्स का जो हाल था उसका बयान करना तो मुश्किल ही है ..हां टॉयलेट देख कर हमें वन्दना अवस्थी दुबे  की  याद जरूर आ गईं  अब जैसा वो इसकी हालत का वर्णन करती हैं  वो काफी है मेरे ख्याल से ...सुबह पठानकोट पहुँचे और वहाँ से टैक्सी करके सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल प्रदेश) स्थित आश्रम “तपोवन “पहुचे ।
हमें नवनिर्मित साकेत विंग में फर्स्ट-फ्लोर पर रूम एलॉट हुआ था जिसमें चार बैड थे । हमने अपना सामान जमाया  और नहा-धोकर चाय-नाश्ते के लिए डाइनिंग -हॉल में पहुँच गए । पूरे दिन आराम कर सोकर थकान उतारी और शाम को पाइन फ़ॉरेस्ट में वॉक के लिए मैं ,भारती ओर सरोज निकल पड़े । अगले दिन सुबह से ही क्लासेज शुरू हो गईं मान्डूक्योपनिषद , हनुमान चरित, भक्ति , ज्ञान,साधना इत्यादि पर क्लासेज अटैंड कीं...आश्रम का शांत ,आध्यात्मिक एवम् आडम्बर- रहित वातावरण ,मनमोहक सुरम्य प्राकृतिक सुषमा ने तन-मन को एक नई ऊर्जा से भर दिया ,साथ ही प्रिय दोस्तों का साथ , हँसी मज़ाक़ , चुहल और चर्चा से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हॉस्टल लाइफ़ दुबारा लौट आई...साथ खाना- पीना ,सोना , वॉक करना, क्लासेज अटेंड  करना, सूर्योदय के साथ टैरेस पर बैठ कर साथ चाय पीना ...मैं सबसे देर में उठती बार -बार उठती और वापिस चादर मुंह तक ढंक कर लेट जाती ...सब आवाजें देकर कई बार उठाते तब उठती ...रात में टैरेस पर चाँदनी में बैठ देर रात बातें करते ...चाँद भी हमारी खिलखिल सुन कर ताक-झाँक करता रहता ...वो हमें  और हम उसे देख कर मुस्कुराते ...देर रात गप्पों में मशगूल रहते । सामने धर्मशाला और मैक्लॉइडगंज की झिलमिल करती रोशनियाँ और उसके पीछे गर्व से मस्तक उन्नत करे पर्वत श्रंखलाएँ हमारे अंदर  एक नई शक्ति एवं उर्जा का संचार करतीं । घर-गृहस्थी , जॉब, क्या पकेगा , साफ़-सफ़ाई ,शॉपिंग,न्यूज पेपर, टी.वी.  इत्यादि सभी झंझटों से मुक्त...घंटी बजी मतलब चाय, नाश्ता या खाना लग चुका है और हम अपनी थाली गिलास लेकर उछलते कूदते चल देते । शुद्ध सात्विक सीधा सादा पौष्टिक खाना होता । रात में और सुबह अपने पैसों से चाहें तो गाय का दूध भी ले सकते थे...हम लोगों में  ही कुछ लोग खाना सर्व करते थे...मुझे ये काम बहुत अच्छा लगता था तो प्राय: सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती थी ...किसी - किसी दिन शिविर में से ही कोई लंच या डिनर अपनी तरफ़ से देता तो उस दिन थोड़ा मज़ेदार खाना होता पूड़ी, जलेबी , छोले , , कोफ्ते , कढ़ी , हलुआ आदि भी शामिल रहते उस दिन खाने में ।
 भारती हम सबसे यंग थी तो वो हम तीनों का बहुत ध्यान रखती थी...नलिनी इलैक्ट्रिक केटल लाई थीं तो रूम में ही चाय बना लेते प्राय: ये काम नलिनी या उषा जी ही करतीं मठरी अचार , बिस्किट, चाय और गप्पें .....आहा आनन्द !
कई लोगों से परिचय हुआ विभिन्न प्रांतों के भिन्न शहरों से आए लोग सब आपस में बहुत प्रेम भाव से मिलते खाते पीते । एक दिन वॉक करते मैं और भारती पाइन फ़ॉरेस्ट की मेन रोड छोड़ अंदर चले गए वहाँ पतले से पीले साँप  पर पैर रखने से बचे तो भारती मुझे खींच कर बाहर ले आई तीसरे दिन फिर घुसे अंदर तो फिर दिखा एक साँप  हम भागे और फिर अंदर नहीं गए ।इसी तरह हँसते, गाते,खिलखिलाते , खाते पीते ,एक दूसरे का ध्यान रखते ,ध्यान, साधना करते कब ये आठ दिन निकल गए पता ही नहीं चला ।
                                                                 











                             
                             क्रमश:
                                                           

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...