ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

" तपोवन ”,सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल-प्रदेश) यात्रा-1

साधना -शिविर


  दस जून से अट्ठारह जून तक होने वाले चिन्मय- मिशन के साधना शिविर  में सम्मिलित होने हेतु मैं और मेरी फ्रैंड्स नलिनी,उषा अग्रवाल, भारती और सरोज गुलाटी शालीमार एक्सप्रेस से नौ जून शाम को बड़े उत्साह-पूर्वक  सवार हुए । हम चारों ने तय किया था कि नलिनी पूड़ी लाएंगी भारती सब्जी और हम अचार व मिठाई ।हमको ये ख्याल था कि ट्रेन अंडरकनेक्टेड होगी तो दूर होने पर भी सब्जी पूड़ी पहुंचा दी जाएगी पर हमारे कम्पार्टमेन्ट दूर थे बिना उतरे हम एक दूसरे तक नहीं पहुंच सकते थे और इतनी देर कहीं भी ट्रेन बीच में नहीं रुकती अब ? अब क्या करें ? भारती और नलिनी साथ थीं पर समस्या हमारे और सरोज के साथ थी सरोज सब्जी ले आई थीं और उषा जी दिल्ली से आई थीं तो दो परांठे आलू के अपने लाई थीं नलिनी फोन कर रही थीं कि कैसे पूड़ी पहुंचाई जाएं हमने कहा परेशान न हों हम ट्रेन की पेन्ट्री से ही मंगा कर खा लेंगे नहीं तो मठरी और अचार मैं ले गई  थी वो खा लेंगे चाय से ।मैं ट्रेन का खाना नहीं खाना चाह रही थी  तभी एक लड़का जो चिप्स बेच रहा था हमने उससे रिक्वेस्ट की तो वो मान गया उसे सीट नम्बर वगैरह दे दिए और एक दो घंटे में उसने नलिनी से लेकर हमें पूडिएं लाकर दीं जब हमने उसे इनाम दिया तो वो मना करने लगा पर मैंने उसे जबर्दस्ती कुछ रुपये दिए । खा पीकर हम लेटे सारी रात खटर -पटर के चलते नींद तो क्या ही आ पाई ...टॉयलेट्स का जो हाल था उसका बयान करना तो मुश्किल ही है ..हां टॉयलेट देख कर हमें वन्दना अवस्थी दुबे  की  याद जरूर आ गईं  अब जैसा वो इसकी हालत का वर्णन करती हैं  वो काफी है मेरे ख्याल से ...सुबह पठानकोट पहुँचे और वहाँ से टैक्सी करके सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल प्रदेश) स्थित आश्रम “तपोवन “पहुचे ।
हमें नवनिर्मित साकेत विंग में फर्स्ट-फ्लोर पर रूम एलॉट हुआ था जिसमें चार बैड थे । हमने अपना सामान जमाया  और नहा-धोकर चाय-नाश्ते के लिए डाइनिंग -हॉल में पहुँच गए । पूरे दिन आराम कर सोकर थकान उतारी और शाम को पाइन फ़ॉरेस्ट में वॉक के लिए मैं ,भारती ओर सरोज निकल पड़े । अगले दिन सुबह से ही क्लासेज शुरू हो गईं मान्डूक्योपनिषद , हनुमान चरित, भक्ति , ज्ञान,साधना इत्यादि पर क्लासेज अटैंड कीं...आश्रम का शांत ,आध्यात्मिक एवम् आडम्बर- रहित वातावरण ,मनमोहक सुरम्य प्राकृतिक सुषमा ने तन-मन को एक नई ऊर्जा से भर दिया ,साथ ही प्रिय दोस्तों का साथ , हँसी मज़ाक़ , चुहल और चर्चा से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हॉस्टल लाइफ़ दुबारा लौट आई...साथ खाना- पीना ,सोना , वॉक करना, क्लासेज अटेंड  करना, सूर्योदय के साथ टैरेस पर बैठ कर साथ चाय पीना ...मैं सबसे देर में उठती बार -बार उठती और वापिस चादर मुंह तक ढंक कर लेट जाती ...सब आवाजें देकर कई बार उठाते तब उठती ...रात में टैरेस पर चाँदनी में बैठ देर रात बातें करते ...चाँद भी हमारी खिलखिल सुन कर ताक-झाँक करता रहता ...वो हमें  और हम उसे देख कर मुस्कुराते ...देर रात गप्पों में मशगूल रहते । सामने धर्मशाला और मैक्लॉइडगंज की झिलमिल करती रोशनियाँ और उसके पीछे गर्व से मस्तक उन्नत करे पर्वत श्रंखलाएँ हमारे अंदर  एक नई शक्ति एवं उर्जा का संचार करतीं । घर-गृहस्थी , जॉब, क्या पकेगा , साफ़-सफ़ाई ,शॉपिंग,न्यूज पेपर, टी.वी.  इत्यादि सभी झंझटों से मुक्त...घंटी बजी मतलब चाय, नाश्ता या खाना लग चुका है और हम अपनी थाली गिलास लेकर उछलते कूदते चल देते । शुद्ध सात्विक सीधा सादा पौष्टिक खाना होता । रात में और सुबह अपने पैसों से चाहें तो गाय का दूध भी ले सकते थे...हम लोगों में  ही कुछ लोग खाना सर्व करते थे...मुझे ये काम बहुत अच्छा लगता था तो प्राय: सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती थी ...किसी - किसी दिन शिविर में से ही कोई लंच या डिनर अपनी तरफ़ से देता तो उस दिन थोड़ा मज़ेदार खाना होता पूड़ी, जलेबी , छोले , , कोफ्ते , कढ़ी , हलुआ आदि भी शामिल रहते उस दिन खाने में ।
 भारती हम सबसे यंग थी तो वो हम तीनों का बहुत ध्यान रखती थी...नलिनी इलैक्ट्रिक केटल लाई थीं तो रूम में ही चाय बना लेते प्राय: ये काम नलिनी या उषा जी ही करतीं मठरी अचार , बिस्किट, चाय और गप्पें .....आहा आनन्द !
कई लोगों से परिचय हुआ विभिन्न प्रांतों के भिन्न शहरों से आए लोग सब आपस में बहुत प्रेम भाव से मिलते खाते पीते । एक दिन वॉक करते मैं और भारती पाइन फ़ॉरेस्ट की मेन रोड छोड़ अंदर चले गए वहाँ पतले से पीले साँप  पर पैर रखने से बचे तो भारती मुझे खींच कर बाहर ले आई तीसरे दिन फिर घुसे अंदर तो फिर दिखा एक साँप  हम भागे और फिर अंदर नहीं गए ।इसी तरह हँसते, गाते,खिलखिलाते , खाते पीते ,एक दूसरे का ध्यान रखते ,ध्यान, साधना करते कब ये आठ दिन निकल गए पता ही नहीं चला ।
                                                                 











                             
                             क्रमश:
                                                           

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे समय में जैसे कॉलेज,हॉस्टल के दिन लौट आते है...
    अगली कड़ी में साधना के बारे में भी बताएँ.

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  2. जी बिल्कुल....साधना के बारे में क्या बताऊं वाणी जी स्पष्ट करिए तो जरूर बात करूंगी

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