ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 25 दिसंबर 2022

कुछ इस तरह


 जिन संबंधों को हम भावनाओं के रेशमी तन्तुओं से बुनते हैं, प्यार की सुगन्ध डालते हैं, दिल के क़रीब रखते हैं, वे ही संबंध कभी-कभी जरा सी ठेस से बिखर कैसे जाते हैं? जरा किसी ने कुछ कह दिया या आपकी किसी भावना का सम्मान नहीं किया या भावना को ठेस पहुँचा दी, किसी और से भी नज़दीकियाँ कर लीं या किसी ने लगाई - बुझाई कर दी या हमें इम्पॉर्टेंस देनी कम कर दी और हम भड़क जाते हैं…जरा सी देर में हमारा अहम् चोटिल होकर नाग सा फुँफकारने लगता है, अपमानित और ठगे हुए से खुद को महसूस करके हम प्रत्युत्तर में गालियों व आरोपों  के पत्थर मारने लग पड़ते हैं, चुगली  शुरु कर देते हैं। जो जरा शराफत और बुद्धिजीवी कहलाने का नशा रखते हैं वे साहित्य की ओट में बड़े- बड़े शब्दों का चयन कर लाँछन लगाने व घात लगाने से नहीं चूकते। वे आपके चरित्र का भी हनन चुटकियों में वाक्-चातुर्य से करते नजर आते हैं। कल तक जो प्रिय थे,  वे अचानक अब से आपके दुश्मनों की कतार में हाथ में पत्थर लिए खड़े नजर आएंगे। 

मतलब साफ है कि वो रिश्ता सिर्फ़ उनके अहंकार को पुष्ट करने का मात्र जरिया भर था बाकी अन्दर भूसा ही भरा था। सारे कोमल  रेशमी धागे बुरी तरह उलझ जाते हैं ।वे जरा नहीं सोचते कि अपने पुराने संबंधों की कुछ तो मर्यादा रखें। मैं- मैं का गान खुद करेंगे औरों से भी करवाएंगे। ये नहीं कि दूसरों की नजर में आपके लिए जो उच्च भाव व आदर था कभी, उसकी ही लाज रख लेते …जरा सा दिमाग व अहम् को परे कर दिल से काम ले लेते…पर नहीं आप तो आप हैं ऐसे कैसे छोड़ेंगे ? फौरन से उन रेशमी अहसासों के पेड़ की जड़ में जो कभी बहुत जतन से रोपा व पोसा था अहंकार , ईर्ष्या व द्वेष का तेज़ाब उड़ेल देंगे…भाव- मन्दिर में खड़े होकर  बदहजमी की डकारें मारने लगेंगे। 

मुझे याद है एक बार हमने अपने घर एक सीनियर प्रोफ़ेसर को विद फैमिली डिनर पर आमन्त्रित किया था। तभी अचानक एक और प्रोफ़ेसर साहब आफत के मारे अचानक आ धमके। तब मोबाइल तो होते नहीं थे कि कॉल करके आते। उन दोनों में कभी रही गहरी दोस्ती अब कट्टर दुश्मनी में तब्दील हो चुकी थी। तो उनके आते ही सीनियर प्रोफेसर साहब झपट पड़े । हमारे घर को अखाड़ा बना दिया। जरा लिहाज़ नहीं किया कि आप किसी दूसरे के घर पर अतिथि की हैसियत से पधारे हैं और दूसरे प्रोफ़ेसर भी हमारे अतिथि ही हैं और लगे दबादब लड़ने । कहनी- अनकहनी सब कह डालीं । गाली- गलौज से भी गुरेज़ नहीं किया। हम सन्न थे । काफ़ी कोशिश की उनको रोकने की पर वो कहाँ रुकने वाले थे। वे अब स्वर्ग सिधार चुके हैं परन्तु आजतक भी वो घटना याद आती है तो मन क्षोभ से भर जाता है। 

तो जब भी लगे कि अब ये नौबत आने वाली है तो थम कर जरा सोचें, गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करें और यदि नामुमकिन लगे तो शान्ति से उस उलझी रेशमी गुच्छियों को वहीं उलझा छोड़कर रास्ता बदल लें लेकिन खूबसूरती से। इस तरह कम से कम कुछ सुनहरी स्मृतियाँ तो आपकी मुट्ठी में होंगी…आपकी और दूसरे की भी गरिमा बनी रहेगी और कुछ तो आँखों की शर्म बाकी रह जाएगी जिससे कभी भूले- भटके सामना हो भी जाए तो आँखें न चुराते फिरें-

"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे

जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों”

आप खूबसूरती से भी इस पीड़ा को बाय कह सकते हैं ।राहें बदलें …पटाक्षेप करें परन्तु कुछ इस तरह- 

" वो अफसाना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर  छोड़ना अच्छा…!”

- उषा किरण 

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...