ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 18 अगस्त 2018

...ढ़लने लगी सॉंझ

       

एक और अटल जी की कविता जिस पर यह पेंटिंग  बनाई थी एग्जीबीशन के लिए...

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
                                   #अटलबिहारीबाजपेयी

9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत खूब कविता और तालमेल बिठाती पेंटिंग ,बधाई की पात्र हैं आप 👌

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, परमात्मा को धोखा कैसे दोगे ? - ओशो “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. बेहतरीन पेंटिंग है। कवि पाते तो खुश हो जाते।

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