तन की गणना में मत बाँधो मन को…
बेशक वह ताउम्र उंगली थाम
साथ चलता हो, लेकिन सच तो यह है
कि वह अजन्मा, जाने कितनी बार
मरता है और फिर-फिर जन्म लेता है
तुम्हारी ही निस्तब्ध गहराइयों से…!
सत्तर के पड़ाव पर भी
मन सात का हो सकता है,
या सत्रह का, सत्ताइस का—
या किसी और अनकहे अंक पर
जिद्दी बच्चे सा अड़ा हो…
क्या पता कब सहसा उंगली छुड़ा
गहरी डुबकी मारने के बाद
अबकी बाहर आना ही न चाहता हो—
बैठा हो कहीं भीतर के कुहासों में,
कुंडली मार, धूनी रमाए,
नागा साधु सा नग्न, उन्मुक्त…!
हैरान-परेशान, कब से बैठी हूँ मैं भी
बाहर मुंडेरी पर इंतज़ार में-
आए, पहने ये फुँदने वाले
रंग-बिरंगे झालरदार झबले,
लगाए कोई मनपसंद मुखौटा
और चल पड़े उँगली थाम
हाट में हठीला बच्चा बनकर…
उधर आकाश में चाँद राहु से घिरकर रोया
धुला…निखरा और फिर मुस्कराते हुए
ओट से झाँकने लगा है…!
पर क्या करें…इस मन बैरागी को अब
कोई भी गेंद लुभाती नहीं
मेरा नन्हा बच्चा ज़रा बड़ा हो गया है,
भीड़ में आने से अब कतराने लगा है…!!!
— उषा किरण🌿
फोटो: गूगल से साभार
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