ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

रज्जो

                  


 जगत में जैसे किरदारों में विविधता होती है वैसे ही प्यार के भी रंग इतने अनोखे , अबूझ होते हैं  कि शख्स ही कई बार नफरत और प्यार के बीच के अन्तराल को खुद ही नहीं समझ पाता। रज्जो के अनोखे प्यार की दास्तान के लिए पाखी के अगस्त अंक में प्रकाशित यह कहानी  'रज्जो ‘ …पढ़िये और बताइए कि आपको कैसी लगी? 


: और एक बात…रज्जो की भाषा के लिए मैं पहले ही माफी माँगती हूँ  😊🙏

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                            रज्जो

 ​मैंने अभी मुश्किल से दो ही पेशेन्ट देखे होंगे कि अन्दर से रज्जो और बीना के लड़ने की आवाजें आने लगीं। सोच रही थी कि सामने बैठे पेशेन्ट को देखने के बाद अन्दर जाकर देखूँगी कि क्या मामला है? शहर में फ्लू के कहर के चलते बच्चे भी चपेट में आ रहे थे, जिसके कारण क्लीनिक पर काफ़ी भीड़ थी। 

तभी तान्या का कॉल आ गया। वो आधी नींद आधे गुस्से में भरी झुँझला कर चीख  रही थी-"ममा ये कहाँ-कहाँ से जाहिलों की फ़ौज इकट्ठा कर रखी है आपने? कितना शोर मचा रखा है, सोने भी नहीं दे रहे…रोको जल्दीईईईईईई…”

"एक मिनिट…” सामने बैठे  पेशेन्ट से कह कर जल्दी से  कुर्सी पीछे खिसका  गुस्से से भरी अन्दर गई तो देखा रज्जो और बीना में घमासान मचा हुआ है। दोनों गाली-गलौज के साथ-साथ  एक दूसरे से हाथापाई कर रही थीं। 

"अरे ये क्या शोर मचा रखा है तुम लोगों ने? बाहर पेशेन्ट बैठे हैं और अन्दर बेबी सो रही है, एग्ज़ाम दे कर आई है, कई रातों की जगी है और तुम लोगों ने ये गंवारपना मचा रखा है, बिल्कुल शर्म नहीं आती न दोनों को?  क्या आफत आ गई आखिर?”

मैंने  दबी पर कड़क आवाज में डाँट कर दोनों को अलग किया। 

"डागदर दीदी आप ही देखो इस कुलटा को, हमें देख कर मुँह टेढ़ा करके हंस री और कै रई ओहो चरित्तर तो देखो सती सावितरी का!” आज करवाचौथ है तो इसीलिए रज्जो ने भर-भर हाथ लाल चूड़ी पहन रखी थीं, मेंहदी, चौड़ी सी मांग में पाव भर सिंदूर, नई पायल, बिछुए पहने थे, सुर्ख़ आलता भी लगा रखा था और नई चटक नारंगी धोती पहने छनक रही थी। उसी को देख कर बीना उसकी हंसी उड़ा रही थी। 

मन ही मन उसकी सज्जा पर मुझे भी हंसी आ गई पर मैंने होंठ दबा लिए। गलत तो बीना भी नहीं थी। कल की ही तो बात है ड्राइवर मनोज भागता आया था "मैडम-मैडम रज्जो फिर मार रही है डुकरे को।” 

मैं जल्दी से आउट हाउस में गईं तो देखा बंसी बिस्तर पर हाथों से सिर पकड़े बैठा था और रज्जो उसे दोनों हाथों से दबादब  कूट रही थी। 

"अरे, रज्जो पागल हो गई है क्या? पता नहीं बीमार है वो,जान लेगी क्या उसकी?” मैंने  जोर से फटकार लगाई। रज्जो ने हाथ तो रोक दिये पर अब गालियों  पर उतारू थी -" मुंहझौंसा…मरा…हरामखोर कहीं से पीकर आया है  दीदी …और उस साली कुतिया बीना से हंसी ठट्ठा कर रिया था..मरती भी तो नहीं रंडी साली …ये भी डोरे डाले है उसपे।”

"रज्जो…ख़बरदार जो गाली निकाली मुँह से …निकल जाओ दोनों के दोनों अभी। जब देखो आए दिन तमाशा होता रहता है तुम्हारा…रज्जो सामान बाँधो तुरन्त और निकलो यहाँ से …बहुत तमाशाा हो चुका, अब बस…मनोज सुबह ही इन्हें इनके गाँव छोड़ कर आओ!” 

गुस्से से  जैसे ही मैं जाने को पलटी, तभी रज्जो पल्लू में मुँह छिपा जोर-जोर से विलाप करने लगी। "ओ री मैया…. मो अनाथ को कौन है आपेके बगैर डागदर दीदी, हम तो कतई मर जावेंगे…!” और बस मेरा दिल पिघल जाता उसकी नौटंकियों पर। सच में बीमार पति को लेकर कहाँ जाएगी बेचारी? दोनों के परिवार में भी कोई नज़दीकी नहीं है अब। 

 बच्चे और सुबोध भी कई बार ग़ुस्सा होते कि "इस जाहिल को निकालो घर से। कितना फसाद मचाती रहती है।”

महिने में दो तीन बार तो रज्जो की ये नौटंकी चलती ही रहती। मैं जब रोज-रोज के बाइयों के नाटक से दुखी हो चुकी थी, तभी ड्राइवर मनोज ही दोनों को अपने गाँव से दस साल पहले साथ लिवा लाया था। मनोज को उन पर बहुत भरोसा था और पन्द्रह साल से गाड़ी चला रहे मनोज पर मेरा। 

बंसी रिक्शा चलाता था, लेकिन दमे का मरीज होने के कारण अब रिक्शा चलाना उसके बस का नहीं था। मनोज के कहने पर मैंने  दोनों को आउट हाउस  में रख लिया था। रज्जो ने घर का काम संभाला और बन्सी ने गार्डन का और बाजार से सब्जी-सौदा लाने का काम अच्छी तरह से संभाल लिया था। रज्जो और बंसी की मनोज से अच्छी बनती थी, तो मिलजुल कर मार्केट व घर का सब काम तीनों संभाल लेते। मुझे भी सुकून मिला। 

 रज्जो वैसे बंसी से पन्द्रह साल छोटी थी इसीलिए उसे डुकरा बोलती थी। उसे देख कर घर के सभी और लोग भी डुकरा ही बोलने लगे थे, सिवाय मेरे और सुबोध के। 

दोनों के रोज के झगड़ों ने मेरी नाक में दम कर रखा था। रज्जो का पारा हर समय सातवें आसमान पर रहता। बात-बेबात उसे गाली देती, पीट देती, "मेरे हरामखोर बाप को पैसे देकर, शराब पिला कर पटा लिया मुए ने, वर्ना तो मेरी जूती बराबर भी न था मरा। करमजला पन्द्रह साल बड़ा है मुझसे डागदर दीदी…!” फिर एक लम्बी उसाँस भरती उठ जाती " सब किस्मत का खेला है…वर्ना कहाँ मैं और कहाँ ये? गाँव के सारे जवान छोरे मेरी कोठरी का चक्कर काटे करे हे। कम से कम बीस पच्चीस की तो मेरे बाप-भाई ने मिल के कुटम्मस की थी दीदी। गाँव के लौंडे मुझे हेमामानिली कैते थे, पर जाने कहाँ से आके ये मरा बूढ़ा, काला कौआ मोए चोंच में दबाए ले उड़ा…!”

रज्जो ने आते ही घर का सारा काम बड़ी कुशलता से संभाल कर मेरा  दिल जीत लिया था। उसके रहते मैं घर-गृहस्थी से निश्चिंत रहती। इसीलिए मैं उसकी बदतमीज़ी बर्दाश्त कर रही थी। जानती थी कि उस जैसी सुघड़, साफ-सुथरी, होशियार, ईमानदार और कोई कामवाली बाई दूसरी मिलनी मुश्किल है। 

हर तरह के खाने बनाने में जवाब नहीं था उसका। कैसी भी, कोई भी डिश हो वो चखकर एकदम वैसी ही बना देती और अब तो यूट्यूब चलाना भी  सीख लिया था तो वहाँ से सीखकर भी कुछ न कुछ बनाती रहती। तान्या को कुछ नया खाने का मन हो तो वो भी उसे वीडियो भेज देती और वो बड़े मनोयोग से थोड़ा अपना भी दिमाग लगा कर बढ़िया-बढिया सूप, सलाद, स्नैक्स, मिष्ठान्न बना कर सजा कर सर्व कर  देती। 

कपड़े धोने और झाड़ू पोंछे के लिए बीना आती थी बाकी सारा काम व रसोई  रज्जो के हवाले था। 

किस बच्चे को नाश्ते में ऑमलेट टोस्ट चाहिए किसको गार्लिक ब्रैड या पोहा उसे याद रहता। डागदर दीदी लन्च में मोटा अनाज खाती हैं तो भैया को प्रोटीन वाला खाना चाहिए, ट्यूज डे नॉनवेज नहीं पकेगा तो साहेब को नाश्ते में जूस और खाने में प्लेट भरके सलाद और नाश्ते में फल जरूरी चाहिए, डागदर  दीदी बिना दही के लन्च नहीं खातीं। इसीलिए कभी खत्म हो जाए तो तुरन्त मनोज  को मार्केट दौड़ा कर  मंगवा लेती। 

 तीज-त्योहारों की तैयारी हफ्ते भर पहले ही पूरी हो जाती। होली पर कहाँ से, कितना मावा आएगा, किस दिन गुझिया बनेंगी? दीवाली पर दिए, खील-बताशे, कब, कितने, कहाँ से मंगवाने हैं? कब पर्दे, सोफा ड्राईक्लीन करवाना है, कौन सा कपड़ा धुलेगा और कौन सा ड्राईक्लीनिंग के लिए जाएगा, उसे सब पता रहता। 

तान्या, आर्यन हॉस्टल से सूटकेस भर मैले कपड़े लाते तो अगले ही दिन धोकर, प्रैस करवा सूटकेस में जमा देती। ऐसे  सारे कामों को बहुत मुस्तैदी से करती, जिसकी वजह से मैं निश्चिंत होकर अपनी डॉक्टरी कर पा रही थी। 

 बेशक शहर की जानी-मानी मशहूर पीडियाटीशियन डॉक्टर राधिका का शहर में अपना ही रुतवा होगा, लेकिन रज्जो की नाटकबाजी के आगे सब फेल थे, मैं भी अब  हार मान चुकी थी। 

 

वैसे तो बंसी से जनम का बैर था रज्जो का लेकिन कोई कामवाली, सब्जीवाली, धोबिन या लेडी पेशेन्ट से मजाल है जो बंसी बात कर ले, तो पगला जाती। मारपीट पर उतारू हो जाती। चप्पल,बर्तन जो हाथ आता, उसी से उसकी धुनाई शुरु कर देती। खासकर बीना की तो परछाई भी नहीं पड़ने देती थी बंसी पर। हमारे सामने तो बंसी चुप लगा जाता लेकिन अपने कमरे में कई बार शेर हो जाता…तब खूब बजती दोनों की। 

उनके झगड़ों को सुलटाते देख सुबोध हंसकर जब कहते "सुनो, तुम न एक रैफरी वाली सीटी ले लो राधिका, बस क्लीनिक से ही बजाती रहा करो!” तब बुरी तरह चिढ़ जाती मैं " एक तो मेरा दिमाग खा रखा है इन सबने, तुमसे तो कुछ होता नहीं। आज इसे निकाल भी दूँ तो तुम ढूँढ पाओगे दूसरी या संभाल लोगे किचिन, घर-गृहस्थी…जबकि तुम्हारे और बच्चों के खाने-पीने के ही इतने नखरे हैं…?”

 व्हाइटवॉश के समय घर का सारा स्टाफ़ सफाई और सामान लगाने में लगा था। रज्जो की गिद्ध-दृष्टि रसोई से काम करते भी खिड़की से बंसी पर ही लगी रहती। यदा-कदा बंसी और बीना काम करते-करते  टकरा जाते या कोई काम से संबंधित भी बात कहते, तो रज्जो जहाँ भी होती वहाँ से ही चील सी झपटती

 " ज़्यादा नैन मटक्का मति न करै बीना, ससुरी अपने खसम ने तो छोड़ दी अब दूसरों के पे डोरे डाल री तू…खूब जानूं!” 

उसकी इस बदहवासी का मनोज और बाकी सब  खूब मजे लेते। झूठी अफ़वाहें फैलाते और पिटता बेचारा बंसी। मैंने कई बार समझाया कि "गाली-गलौज न किया कर और हाथ न उठाया कर, दमें का रोगी है किसी दिन दम निकल जाएगा!” लेकिन उस पर कुछ असर नहीं होता। इसीलिए बीना उसकी करवाचौथ पर किए साज-शृँगार का सती सावितरी कह कर मजाक उड़ा रही थी। 

रज्जो के कोई बच्चा नहीं हुआ। मैंने उसका बहुत इलाज करवाया, परन्तु कोई फ़ायदा नहीं। रज्जो हताश हो आँखों में आँसू भर कहती "दीदी हमारे भाग में ही न है बाल-बच्चों का सुख…रहे दो और कित्ता इलाज कराओगी आप भी?”

 

इधर कोरोना महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। सब जगह हाहाकार मच गया। मनोज भी किसी तरह अपने गाँव चला गया। जाते समय मैंने कहा "लॉकडाउन खुलने के बाद ही आना मनोज, बच्चों का और अपना ध्यान रखना। चिन्ता मत करना… कोई परेशानी हो तो बताना…” कह कर दो महिने की तनख़्वाह एडवांस में दी,  तो हाथ जोड़कर रो पड़ा। 

 

 घर-घर में कामवाली बाइयों के न आने से महिलाओं पर अचानक काम का बोझ आ पड़ा। शुक्र है कि रज्जो और बंसी के चलते मुझे घर के काम की कोई परेशानी नहीं हुई। 

लॉकडाउन लगने से मैने भी क्लीनिक बन्द कर दिया। सारे दिन फोन पर ही मरीजों का हालचाल पूछ कर या वीडियोकॉल के ज़रिए बच्चों को देखकर दवाइयाँ बता देती थी। लोग फीस ऑनलाइन जमा करने को कहते तो मैं "अभी रहने दीजिए…” कह कर मना कर देती। 

तान्या और आर्यन  भी हॉस्टल से घर आ गए थे। सुबोध का ऑफिस भी घर से ही ऑनलाइन चल रहा था। घर के चारों सदस्य चार कमरों में सारे दिन कम्प्यूटर के सामने बैठे रहते और रज्जो सबके कमरों में चाय-नाश्ता, फल, जूस, काढ़ा बिना अनखनाए पहुँचाती रहती। लेकिन मेरा  सख्त ऑर्डर था कि लन्च व डिनर सब एक साथ डायटिंग टेबिल पर ही करेंगे। बीना के न आने से रज्जो पर काम का बोझ बढ़ गया था तो सब किचिन में और टेबिल लगाने, समेटने में उसकी मदद करते, अपने कपड़े खुद प्रैस करते। 

अजीब नजारा रहता, सुबोध शर्ट, टाई, चश्मा लगा ऊपर से चिकने चुपड़े होकर ऑफिस की मीटिंग में जब बिजी होते तो प्राय: नीचे लोअर और बाथरूम स्लीपर में होते। 

 मैं भी प्राय: सलवार या लोअर पर ही साड़ी लपेट लैपटॉप पर पेशेन्ट निबटाती। तान्या और आर्यन की क्लास के बच्चे तो अपनी अजीबोग़रीब भेषभूषा में ही ऑनलाइन क्लास में उपस्थित रहते। प्राय: कुछ खाना-पीना भी चलता रहता। एक दिन आर्यन की टीचर ने कस कर सबकी डाँट लगाई "ये क्या तमाशा बना रखा है तुम सबने? लगता है बैड से ही  सीधे क्लास में चले आए हो…कम से कम ब्रश करके मुँह तो धो लिया करो!” सारे बच्चे ढीठ होकर एक-दूसरे की तरफ़ उंगली से इशारा करके हंसने लगे तो टीचर ने और कस कर डाँट लगाई। 

 

हम  सभी एक दूसरे की हुलिया पर खूब हंसते और चुपके-चुपके फोटो खींच कर इधर-उधर फ़ॉरवर्ड करते। 

 तान्या और आर्यन कभी-कभी ताश, लूडो, बैडमिंटन खेलते, लेकिन हर बात पर  सारे दिन उनकी भी नोंक-झोंक चलती रहती। सारे दिन`देखो मम्मी…देखो मम्मी…’ से मैं झुंझला जाती। 

कमाल तो ये भी हुआ कि रज्जो से बुरी तरह चिढ़ने वाली तान्या  की अचानक से रज्जो से बहुत दोस्ती हो गई। तान्या नई-नई रेसिपी  यूट्यूब से ढूँढ कर लाती और फिर तान्या के निर्देशन में रज्जो बड़ी लगन से बनाती। जलेबी, गुलाबजामुन, तरह-तरह के केक, कुकीज और न जाने कौन-कौन सी रेसिपी ट्राई की गईं उस दौरान। 

घर का हर सदस्य टी वी से चिपका रहता। न्यूज पर आँखें टिकी रहतीं। मज़दूरों का रेलमपेल शहरों से गाँवों की ओर पलायन, दुनिया भर से लोगों की धड़ाधड़ मरने की खबरों में लाशों के ढेर देख-देख कर रूह काँप जाती। हर शख्स दहशत में था। कब किसकी बारी आ जाए कुछ पता नहीं। 

हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सिलेंडर व दवाइयों की कालाबाज़ारी, बैड की छीना-झपटी जैसी घटनाओं से मानवता पर से विश्वास उठ जाता, लेकिन कई लोग देवदूत बनकर जान हथेली पर रख जिस तरह लोगों की मदद के लिए सामने आए उसने यह विश्वास बनाए रखा कि -`इंसानियत अभी जिंदा है!’

सबकुछ सहम-सहम कर ठीक ही चल रहा था, लेकिन कोरोना की चपेट से मैं और मेरा परिवार भी नहीं बच सका। खुद को और बाकी सबको तो घर पर ही कोरेन्टाइन किया। दवाइयों के साथ-साथ काढ़े और भाप का दौर भी चलता रहता। सब एक दूसरे को संभाल रहे थे, हौसला दे रहे थे। रज्जो पर क्योंकि कोरोना का असर काफी हल्का था तो मना करने पर भी वो सबकी सेवा में यथासंभव तब भी  तत्पर रहती। 

लेकिन बंसी के लन्ग्स वीक होने के कारण उसकी हालत ज़्यादा खराब थी इसलिए उसको हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा। जब उसे एम्बुलेंस लेने आई तो बंसी रोने लगा। रज्जो खिड़की से ही उसे डाँट रही थी "ओ बावले,अपनी डागदर दीदी के होते कुछ नहीं हो सकता …ठीक हो जाएगा…काहे कूँ छोकरियों की माफिक रोता है रे…?”

रज्जो का विश्वास कायम रखता बंसी लम्बी सी मुस्कान सहित सही-सलामत वापिस लौट आया। रज्जो रानी बड़ी धमक से सेवा-टहल करतीं-

-"ओए महाराजा काट के दे गई, तब भी मूँ में नहीं चला सेब? बाप दादों ने भी खाए थे कभी, जो नखरा दिखाता…?”

-"पड़ा-पड़ा टी वी देखे है, टैम पे दवा नईं खा सकता मुए!”

-ओए शहजादे रौब न चला, जिन्दा रे के कोई अहसान न कर रा मुझपे।”

उसकी जली-कटी सुनकर मैं कई बार झुंझला जाती " कैसा तो दिल है रज्जो तेरा? बेचारा मरता बचा है पर तेरी जुबान और अकड़ को लगाम ही नहीं, दो मीठे बोल सुन कर तो मरते आदमी  में भी प्राण आ जाते हैं और एक तू है कि…!” 

परन्तु कमाल की बात तो ये थी कि जबसे बंसी हॉस्पिटल से लौटा था तबसे बड़ा ही खुश रहता था। रज्जो कुछ भी चिड़चिड़ाती, बड़बड़ाती, किटकिटाती वह दाँत चियार कर हंस पड़ता। 

बड़ी मुश्किल से कोरोना का प्रकोप शान्त होते-होते वापिस जिंदगी पटरी पर आ गई। मनोज भी गाँव से सही-सलामत वापिस आ गया। 

बंसी बच तो गया लेकिन उसकी सेहत दिनोंदिन ख़राब होती जा रही थी। एक साल बाद ही उसे सीवियर निमोनिया हुआ। मैंने इलाज में और भागदौड़ में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन आखिर में बंसी ज़िंदगी की लड़ाई हार गया। पाँचवें  दिन हॉस्पिटल में उसने आख़िरी साँस ली। 

एम्बुलेंस से जब उसकी बॉडी बाहर बरामदे में लाकर लिटाई गई और रोते हुए बीना ने स्तब्ध रज्जो को पकड़ कर उसके पास बैठाया, तो वो बिना रोए-धोए उसको चुपचाप देखती बैठी रही। मेरे इशारा करने पर बीना उसे जोर से चिपटा कर रोने लगी, लेकिन रज्जो न हिली न डुली, बस पथराई सी बैठी रही। 

मैं अन्दर आकर क्रिमेशन की तैयारियों के लिए फोन पर बात कर ही रही थी कि बीना जोर से चीखी, "रज्जो…रज्जो…!’’

 मैं जल्दी से बाहर भागी। देखा रज्जो जमीन पर पड़ी थी और बीना रो-रोकर उसे हिला रही थी। 

भागकर स्टैथेस्कोप  से चैक किया हैरान-परेशान होकर जल्दी से दोनों हाथों से सी पी आर दिया, बीना उसकी हथेलियों को हाथों से मलने लगी,परन्तु कुछ फ़ायदा नहीं…रज्जो जा चुकी थी बंसी के पीछे-पीछे। 

रज्जो ने मरने के बाद भी बंसी का पीछा नहीं छोड़ा, जरूर धमकाती जा रही होगी 

"ए रुक जा मुए…मैं भी आती…!!”

—उषा किरण🍁

2 टिप्‍पणियां:

  1. रज्जो से परिचित होकर उसके साथ एक खट्टा-मीठा सफ़र में चलते हुए अचानक से
    बिछड़ने का एहसास भावुक कर गया।
    मेरे जैसे पाठक के स्मृतियों में सदैव जीवित रहने वाले किरदार रचने वाली आपकी लेखनी सचमुच क़माल है।
    सस्नेह
    सादर प्रणाम।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


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  2. रज्जो से परिचित होकर उसके साथ एक खट्टा-मीठा सफ़र में चलते हुए अचानक से
    बिछड़ने का एहसास भावुक कर गया।
    मेरे जैसे पाठक के स्मृतियों में सदैव जीवित रहने वाले किरदार रचने वाली आपकी लेखनी सचमुच क़माल है।
    सस्नेह
    सादर प्रणाम।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।


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रज्जो

                    जगत में जैसे किरदारों में विविधता होती है वैसे ही प्यार के भी रंग इतने अनोखे , अबूझ होते हैं  कि शख्स ही कई बार नफरत और ...