पिछले दिनों जापान जाना हुआ तो पता चला कि सबसे ज्यादा सुसाइड करने वाले देशों में जापान भी है।डिप्रेशन एक बेहद खतरनाक बीमारी है।
पिछले दिनों इससे हमारा भी सामना हुआ ।हमारे साथ एक फ़ैमिली रहती है, जिन्होंने मेरा उपन्यास 'दर्द का चंदन’ पढ़ा है वो समझ जाएंगे। उनके छोटे बेटे को एक्यूट डिप्रेशन हो गया। सुन्दर, स्मार्ट और ब्रिलियंट बच्चे की हालत देखकर हम शॉक्ड रह गए।
कई डॉक्टर्स का ट्रीटमेंट करवाया। काउन्सलिंग अलग से करवाई। हजारों रुपये खर्च करके भी ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। बार-बार सुसाइड करने की कोशिश करता, उसे बचाना मुश्किल हो रहा था। मुझे खुद डिप्रेशन होने लगा। हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। उसकी टीचर से मिलकर डिस्कस किया। और सबने मिलकर उसको चारों तरफ से अपने दुलार के घेरे में ले लिया।
पहले तो वो हमसे कारण छुपाता रहा। मैं उसको लेकर एक- एक घंटे बैठी रहती। उसे मुझे सुनना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे वह खुलकर अपनी सारी बातें बताने लगा। मेरी बेटी और बेटा भी समझाते थे। लेकिन बेटा थोड़ी सख्ती से समझाता था , ताज्जुब ये कि उसे उसी की डाँट से बहुत अच्छा फील होता था, कहता सबसे अच्छा तो भैया और बुआ ही समझाते हैं ।
-मैंने सबसे पहले उसको खूब लाड़ किया और समझाया कि तुम जैसे भी हो हमारे लिए बहुत कीमती हो।दुनिया में कोई भी तुमको तुम्हारे मम्मी पापा भैया और हम लोगों से ज्यादा प्यार नहीं कर सकता।और ये एक बीमारी है इलाज से ठीक हो जाएगी , इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। उसको खुलकर सब बताया।
-मैंने उसको धर्म व आध्यात्म के सहारे थामने की कोशिश की जिसमें भगवद्गीता और पौराणिक कहानियों का सहारा लिया। रेकी दी।उसके मम्मी पापा को भी समझाया कि झाड़-फूंक के चक्कर में मत पड़ना । वो हनुमान जी का भक्त है तो कहा उनका ध्यान करो, मन करे तो हनुमान चालीसा पढ़ लिया करो।
-जिंदगी कितनी कीमती है , बताया।और कहा वक्त तो तेजी से भाग रहा है , ये वक्त भी निकल जाएगा। कुछ समय बाद तुमको खुद लगेगा कि तुम कितने बुद्धू थे। बस तुम हौसला रखो।कई बार मजाक करती, गुदगुदी करके हँसाती।
-मैंने उसे कहा चाहें मैं कितनी भी बिजी हूँ, चाहें कहीं भी रहूँ बस एक कॉल पर हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी, मुझे बुला लेना, जब भी मन परेशान हो। चाहें आधी रात ही क्यों न हो। और वह मुझे बेझिझक कह देता अम्मा बात करनी है आपसे। मैं अपने सब काम छोड़कर उसे सुनने बैठ जाती। कभी मन परेशान होता तो कहता अम्मा घूमने चलें ? मैं गाड़ी निकलवा कर घुमा लाती, कुछ शॉपिंग करवा देती, खिला- पिला लाती तो उसका मूड चेंज हो जाता। कई बार आधी रात को नींद में उसकी मिस्ड कॉल सुनकर तीसरी मंजिल तक भाग कर गई और संभाला। मैं जितना वक़्त बात करती सामने बैठाकर उसकी दोनों हथेलियों को थामे रहती। मैं साइकियोलॉजिस्ट तो हूँ नहीं पर अपनी सम्वेदना और समझ से जितना सँभाल सकती थी संभालने की कोशिश करती थी।
-अक्सर स्टारमेकर्स पर उसके साथ गाने गाती, साथ वॉक करती। स्कैच बनाने को प्रेरित करती। लूडो, ताश, बैडमिंटन खेलती। जब वो पढ़ता था तो मैं भी साथ में ही चुपचाप अपनी कोई किताब लेकर बैठ जाती। कभी-कभी उसे कुछ सब्जेक्ट पढ़ा भी देती।
-उसकी क्लास टीचर ने भी उसका बहुत साथ दिया। जब भी वो स्कूल में डिप्रेशन में जाता तो उसको लेकर एकांत में जाकर बात करतीं। क्योंकि जब भी उसको स्कूल में पैनिक अटैक आता तो वो टॉयलेट में जाकर हिचकियों से रोता , काँपता और पसीने से भीग जाता था। बल्कि सबसे पहले उन्होंने ही मुझे इसके बारे में बताया था।
-इस सबको अब ढाई साल बीत गए हैं । दवाइयों की डोज कम हो गई है। आजकल उसे गिटार सिखवा रहे हैं । दवाओं से ओवरवेट हो गया है तो जिम भी भेजते है। और अब लगभग ठीक है। टैन्थ में 80% मार्क्स लाया है । हम सबने बहुत शाबाशी दी तो अब खोया आत्मविश्वास लौट आया है। करियर को लेकर बड़े- बड़े सपने देखने लगा है।
-उसका ट्रीटमेंट दिल्ली के मशहूर , काबिल साइकियाट्रिस्ट से चल रहा है । वे प्राय: उससे फोन पर ही बात करते हैं । वे उससे बात करने के बाद हमसे बात करते थे। और कई बार बहुत खुश होकर थैंक्यू बोलते थे कि आप उसको बहुत अच्छी तरह संभाल रही हैं।
-टीन एज बहुत ही नाजुक उम्र होती है। इस उम्र में हार्मोन्स ऊधम मचाते हैं । जिंदगी यथार्थ, कल्पना व भावनाओं के झंझावात में घिरी महसूस होती है। जरा सी भी दिल पर लगी चोट से मानसिक सन्तुलन बिगड़ सकता है। इस समय एक्स्ट्रा अटेंशन, केयर व साथ की जरूरत होती है बच्चों को।
तो यह कहानी शेयर करने के पीछे यही मकसद था कि आजकल के बच्चों के हाथों में मोबाइल है और सब कुछ एवेलेबिल है आज उनको। आप कितने फिल्टर लगाएंगे ? बच्चों को अब डाँटना फटकारना छोड़कर दोस्त बनने का वक्त है। आपसे बेहतर आपके बच्चे को कोई नहीं समझ सकता तो जो काउन्सलिंग आप कर सकते हैं कोई थेरेपिस्ट, काउन्सलर नहीं कर सकता। उसको ज्यादा प्यार और अटेंशन दीजिए। अपने आस-पड़ोस में, क्लास में, रिश्तेदारों में यदि कोई बच्चा दिखे ऐसा तो उसकी मदद करिए, सुनिए उसको। सबसे ज़रूरी है सुनना।इस तरह आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं , क्योंकि डिप्रेशन बहुत जानलेवा बीमारी है।इंसान को लगता है जैसे उसे एक अंधेरी गुफा में बन्द कर दिया है और निकलने का कोई रास्ता सूझता नहीं। तो जागरूक रहिए, सतर्क रहिए बच्चों के लिए और खुद के लिए भी। ऐसा हो तो कोई दोस्त, कोई हमदर्द जरूर होता है हमारे पास जिसके कन्धों पर हम अपना सिर टिका सकें…!!
अपनी एक कविता पहले भी शेयर कर चुकी हूँ आज फिर शेयर कर रही हूँ-
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-इससे पहले-
इससे पहले कि फिर से
तुम्हारा कोई अज़ीज़
तरसता हुआ दो बूँद नमी को
प्यासा दम तोड़ दे
संवेदनाओं की गर्मी को
काँपते हाथों से टटोलता
ठिठुर जाए और
हार जाए जिंदगी की लड़ाई
कि हौसलों की तलवार
खा चुकी थी जंग...
इससे पहले कि कोई
अपने हाथों चुन ले
फिर से विराम
रोक दे अपनी अधूरी यात्रा
तेज आँधियों में
पता खो गया जिनका
कि काँपते थके कदमों को रोक
हार कर ...कूच कर जाएँ
तुम्हारी महफिलों से
समेट कर
अपने हिस्सों की रौनक़ें...
बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ
बोझ बन गईं जो
कान दो थके कदमों की
उन ख़ामोश आहटों पर
तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं
और लौट गईं चुपचाप
सुन लो वे सिसकियाँ
जो घुट कर रह गईं गले में ही
सहला दो वे धड़कनें
जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में
काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो
सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...
मत रखो समेट कर बाँट लो
अपने बाहों की नर्मी
और आँचल की हमदर्द हवाओं को
रुई निकालो कानों से
सुन लो वे पुकारें
जो अनसुनी रह गईं
कॉल बैक कर लो
जो मिस हो गईं तुमसे...
वो जो चुप हैं
वो जो गुम हैं
पहचानों उनको
इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़
एक दर्दनाक खबर बन जाए
इससे पहले कि फिर कोई
सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए
इससे पहले कि तुम रोकर कहो -
"मैं था न...”
दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से
गले लगा कर कह दो-
" मैं हूँ न दोस्त….मैं हूँ !!”
— डॉ० उषा किरण
( संकोच के साथ लिखी ये पोस्ट। अम्मा कहती थीं कि कुछ अच्छा काम करो तो बताना चाहिए जिससे औरों को भी प्रेरणा मिलती है🙏)
चित्र; गूगल से साभार