ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है। 

जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?

     क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।

           कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?

     जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।

       खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!

       एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…! 

       बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है। 

      तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया  रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!

                              —उषा किरण                    


फोटो: गूगल से साभार

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

रूढ़ियों के अंधेरे


 कल एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लड़के की माँ ने हल्का सा  यलो व पिंक कलर का बहुत सुन्दर राजस्थानी लहंगा पहना हुआ था और आभूषण व हल्के मेकअप में बेहद खूबसूरत लग रही थीं । आँखों की उदासी छिपा चेहरे पर हल्की मुस्कान व खुशी लेकर वे सबका वेलकम कर रही थीं। दूल्हे के पिता की कुछ वर्ष पहले ही कोविड से डैथ हो गई थी। मैंने गद्गद होकर उनको गले से लगा कर शुभकामनाएँ दीं और मन में दुआ दी कि सदा सुखी रहो बहादुर दोस्त !


ये बहुत अच्छी बात हुई कि पुरानी क्रूर रूढ़ियों को तोड़ कर बहुत सी स्त्रियाँ आगे बढ़ रही हैं । पढ़ी- लिखी , आत्मविश्वास से भरी स्त्री ही ये कर सकती हैं । पिता की मृत्यु के बाद माँ को सफेद या फीके वस्त्रों में बिना आभूषण व बिंदी में देख कर सबसे ज्यादा कष्ट बच्चों को ही होता है। तो अपने बच्चों की खुशी व आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ये जरूरी है कि माँ वैधव्य की उदासी से जितना शीघ्र हो सके निजात पाए और वैसे भी आज की नारी सिर्फ़ पति को रिझाने के लिए ही नहीं सजती है। वो सजती है तो खुद के लिए क्योंकि खुदको सुन्दर व संवरा देखकर उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। समाज में सम्मान व प्रशंसा मिलती है( ध्यान रखें समाज सिर्फ़ परपुरुषों से ही नहीं बना वहाँ स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग सभी हैं ) मेरा मानना है कि आपकी वेशभूषा व बाह्य आवरण का आपकी मन:स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है।


हर समय की उदासी डिप्रेशन में ले जाती है और जीवन ऊर्जा का ह्रास करती है व आस- पास नकारात्मकता फैलाती है।जीवन- मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है और किसी एक के जाने से दुनियाँ नहीं रुकती , एक के मरे सब नहीं मर जाते ….ये समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा है। इंसान के जाने के बाद बहुत सारी अधूरी ज़िम्मेदारियों का बोझ स्त्री पर व परिवार पर आ जाता है जिसके लिए सूझबूझ व दिल दिमाग़ की जागरूकता जरूरी है वर्ना खाल में छिपे भेड़ियों को बाहर निकलते देर नहीं लगती।


देखा गया है कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री के साथ जो भी क्रूरतापूर्ण आडम्बर भरे रिवाज होते हैं जैसे चूड़ी फोड़ना, सिंदूर पोंछना, बिछुए उतारना, सफ़ेद साड़ी पहनाना वगैरह , इस सबमें परिवार की स्त्रियाँ ही बढ़चढ़कर भाग लेती हैं । मेरे एक परिचित की अचानक डैथ हो जाने पर उसकी बहनों ने इतनी क्रूरता दिखाई कि दिल काँप उठा। पहले उसकी माँग में खूब सिंदूर भरा फिर सिंदूरदानी उसके पति के शव पर रख दी। फिर रोती- बिलखती , बेसुध सी उसकी पत्नि पर बाल्टी भर भर कर उसके सिर से डाल कर सिंदूर को धोया व सुहाग की निशानियों को उतारा गया।

कैसी क्रूरता है यह? यदि ये उनकी परम्परा है तो आग लगा देनी चाहिए ऐसी परम्पराओं को। 


क्या ही अच्छा होता यदि बहनें भाभी को दिल से लगाकर इन सड़े- गले  व क्रूर रिवाजों का बहिष्कार करतीं । यही नहीं आते ही उन्होंने बार- बार बेसुध होती भाभी के दूध की चाय व अन्न खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया कि ये सब उठावनी के बाद खा सकती है, बस काली चाय  व फल ही दिए जाएंगे। उसकी सहेलियों को बहुत कष्ट तो हुआ पर मन मसोस कर रह गईं। अगले ही दिन वे उसको व उसकी छोटी बेटी को अपने साथ गाँव ले गईं कि वहाँ पर ही बाकी रीति- रिवाजों का पालन होगा। कई दिन तक सोचकर दिल दहलता  रहा कि न जाने बेचारी के साथ वहाँ क्या-क्या क्रूरतापूर्ण आचरण हुआ होगा?


चाहकर भी हम हर जगह इसका विरोध नहीं कर सकते परन्तु जहाँ- जहाँ भी हमारी सामर्थ्य व अधिकार में सम्भव हो प्रतिकार करना चाहिए। रोने वाले के साथ बैठ कर रोना नहीं, यही है असली शोक- सम्वेदना।

—उषा किरण 

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

यादों के गलियारों से

 


अम्माँ- ताता नैनीताल की लास्ट पोस्टिंग के बाद  मैनपुरी में अपने चाव से बनवाए सपनों के घर में जाकर बस गए।मैनपुरी के पास ही हमारा गाँव था तो वहाँ रह कर नाते- रिश्तेदारों से मिलना- जुलना होता रहता और खेती- बाड़ी पर भी निगाह रहती। कुछ सालों बाद अम्माँ को लगने लगा था कि बच्चों से बहुत दूर हो गए और वो ज्यादा समय बच्चों के साथ रहने को तड़पती थीं । हम सब छुट्टियों में बारी-बारी या एक साथ भी जाते रहते।वो चाहने लगीं कि मैनपुरी का मकान बेच कर मेरठ या दिल्ली जाकर रहें। क्यों कि उनका व ताताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और मेडिकल सुविधाओं का मैनपुरी में बहुत अभाव था, लेकिन ताताजी इसके लिए तैयार नहीं थे। 


कभी-कभी वे कुछ दिनों के लिए हम लोगों के पास रहने आ जाती थीं, तब वे बहुत सुकून महसूस करतीं। उनको खूब बातें करने का शौक था। मेरठ में आइस्क्रीम विद सोडा , पाइनएप्पल आइस्क्रीम, गोकुल की बेड़मी पूड़ी व आलू की सब्ज़ी बहुत पसन्द आते पर हम डर- डर कर कम ही खिलाते- पिलाते क्योंकि वे हार्ट की व शुगर की पेशेन्ट थीं। 


उनके अचानक हार्ट फेल से जाने के बाद न जाने कितने अफ़सोस हम लोगों को घेरे रहे कि ये करते वो खिलाते, यहाँ घुमा लाते, कुछ और सुन लेते उनकी बातें ।


वे बहुत ही उदासी  भरे दिन थे।अम्माँ जा चुकी थीं और उनके जाते ही घर श्रीहीन हो बिखर गया। ताताजी भैया के पास आकर रहने तो लगे थे , दीदी दूसरे मकान में दिल्ली शिफ़्ट हो गईं । लेकिन धीरे-धीरे ताताजी घोर डिप्रेशन में चले गए। उन्होंने इवनिंग वॉक पर जाना बन्द कर दिया और डॉक्टर की सलाह पर जो ब्रांडी लो ब्लड प्रैशर के लिए दवा की तरह थोड़ी सी लेते थे उसकी मात्रा बढ़ गई। बात वैसे ही कम करते थे अब और चुप्पी में घिर गए। खाने-पहनने का शौक समाप्त सा हो गया। 


भैया सारे दिन कोर्ट और उसके बाद क्लाइन्ट की मीटिंग से थका- हारा रात तक आता भी तो बहुत कम देर उनके  साथ बैठ पाता क्योंकि तब तक उनके सोने का टाइम हो जाता था।


भैया का छोटा बेटा पृथ्वी जरूर सारे दिन बाबा- बाबा करता उनके कमरे में चक्कर लगाकर उनका मन बहलाता रहता था। भैया ने बहुत कोशिश की कि सोसायटी में रहने वाले बुजुर्गों से मेलजोल करवा दे पर उन्होंने साफ मना कर दिया।


हम सब भाई - बहन बहुत परेशान थे कि किस तरह उनको खुशी दें और अंधेरों से बाहर निकालें। मनोचिकित्सक को दिखाएं पर सब प्रयासों में असफल होने पर हताश- निराश हो दुखी होते।आज वो नहीं हैं तो बहुत दुखी होता है मन कि काश उनके जीवन की सन्ध्या इतनी उदासी से भरी न होती।


अम्माँ को प्रस्थान किए लगभग सत्ताइस और ताताजी को बीस साल हो गए आज लगभग मैं भी उसी उम्र के आसपास हूँ । ताताजी की स्थिति याद करके पूरी कोशिश करती हूँ कि  खुशी का हर पल अपने नाम करूँ और उसके अहसास बच्चों के साथ शेयर करूँ । 


बच्चे बढ़िया खिलाते-पिलाते हैं तो मैं खूब चाव से ललक से खाती हूँ, ये नहीं सोचती कि कोई लालची कहेगा।घुमाने के प्रोग्राम बनाते हैं तो मना नहीं करती। खूब देश- विदेशों की यात्राएं करवा दी हैं बच्चों ने, वर्ना टीचिंग में हमारे लिए इतना एफोर्ड करना मुश्किल था। पहली विदेश यात्रा मेरे पति को हमारे दामाद ने करवाई, वे अपने साथ लंदन ले जाना चाह रहे थे तो वे ख़ुशी- खुशी उनके साथ गए बिना बेटे , दामाद के फर्क का विचार किए। 


जितना हो सकता है अपनी काया , देश और उम्र के हिसाब से फैशन करती हूँ । बेटी और बहू मुझे बढ़िया ब्रान्डेड परफ़्यूम, कपड़े, बैग, मेकअप और ब्यूटी टिप्स देती हैं तो सब यूज व फॉलो करती हूँ । हम दोनों नए जमाने की नई जानकारियों, म्यूजिक , फिल्म, साहित्य, गार्डनिंग व न्यू लाइफ़ स्टाइल में पूरी दिलचस्पी लेते हैं। मनपसन्द चाट, आइस्क्रीम , थाई, मैक्सीकन, चाइनीज की नई रेसिपी ट्राई करते हैं और टेस्ट डेवलप करते हैं ।


हैल्थ चैकअप, कोलेस्ट्रॉल,विटामिन, कैल्शियम जैसा वो कहते हैं मैं और मेरे पति सबका ध्यान रखते हैं…मैं चाहती  हूँ कि बच्चों को हमारे जाने के बाद ये अफसोस न रहे कि वे हमारे लिए कुछ कर न सके।बेटे- बहू विदेश में हैं पर दूरी का अहसास ही नहीं होता। मीरा रोज वीडियो कॉल पर मीठी- मीठी बातों से दादा- दादी का मन बहलातीं हैं।


अब तक जीवन में जो भी सुख- दुख झेले पर अब मैं चाहती हूँ कि उन परछाइयों से परे जब तक हम हैं स्वस्थ व प्रसन्न रहें जिससे हमारे बाद में बच्चे हमें इसी रूप में  याद करें।

                                               —उषा किरण 

फोटो: Gold Coast Road, Melbourne( Australia)

रविवार, 26 नवंबर 2023

फितरतें कैसी-कैसी




 पढाई के उन कातिल दिनो में जब एग्ज़ाम से पहले खाना खाने में भी लगता कि टाइम वेस्ट हो रहा है मेरा दिमाग कुछ ज्यादा जाग्रत हो उठता  और क्रिएटिविटी के उफान में कहानियों, कविताओं व पेंटिंग्स के आइडिया के अंधड़ उड़ते। 

जिंदगी में जब- जब तनावग्रस्त समय की कतरब्योंत में उलझी होती तब-तब अनेक परछाइयाँ मेरा पीछा करतीं, कमर पर हाथ रखे अड़ जातीं कि अभी उतारो हमें कागज पर, पहनाओ रंग रेखाओं का या शब्दों का जामा।तो उस समय लिखी गईं कुछ कहानी, कुछ कविता और बन गईं कुछ पेंटिंग्स भी। तब कई बार यदि न लिख पाती तो रफ सा ड्राफ्ट  किसी डायरी या कागज में लिख लेती या रफ स्कैच बना लेती तो बाद में बात बन जाती और कभी नहीं बना पाती और जब तक फुर्सत होती तब तक सब कुछ धुँआ- धुआँ सा हवाओं में बिखर जाता।ऐसी कई रचनाओं की भ्रूणहत्या हो गई मजबूरी में। मुझे लगता है तनाव में जरूर कुछ ऐसे हारमोन्स स्रवित होते हैं जिनका संबंध हमारी क्रिएटिविटी से सीधा होता है।

आज भी जब कहीं घूमने जाती हूँ तो घूमते, बातें करते, ट्रेन में, बस में या प्लेन में सफर करते फिर से कुछ रंग, आकृतियाँ कुछ शब्द मेरा पीछा करने लगते हैं , इसीलिए हमेशा साथ में स्कैच बुक, क्रेयॉन व कलर्ड पेंसिल , डायरी पैक करती हूँ पर कभी ही कुछ सहेज पाती हूँ, क्योंकि वापिस रूम में लौट कर थकान से पस्त हो लिखने या स्कैच लायक न हिम्मत बचती है न हि ताकत। लेकिन आजतक समझ नहीं पाती कि जब चैन व फुर्सत में पसरे- पसरे से चैन भरे दिन होते हैं तब दिमाग की ये उर्वरता, सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता, शब्दों का झरना व रंगों की फुहार कहाँ जाकर गुम हो जाते है सब ? मन्द समीर में चैन से दिमाग ऊंघता रहता है परिणामस्वरूप कितनी ही कहानियाँ मेरा मुँह देखती उकड़ूँ बैठी हैं, मुकाम तक पहुँचने की बाट जोहती और मैं जड़बुद्धि सी आलस की चदरिया में गुड़ीमुड़ी सी गुम हूँ…।

1978 में उन दिनों जब मैं ड्रांइंग एन्ड पेंटिंग में एम. ए. कर रही थी तब एग्ज़ाम होने से पहले दिमाग भन्ना रहा था। कॉलेज से आते सोचा था खाना खाते ही पढ़ने बैठ जाऊंगी। डाइनिंग टेबिल पर जाते ही मूली की भुजिया पर सबसे पहने नज़र पड़ी और अम्मा पर झुंझला पड़ी कि तुमने ये सब्जी क्यों बनाई ? वे बोलीं कि तुम्हारी पसन्द की चने की दाल और बूँदी का रायता भी है रात की बची भिंडी भी है , उसे ले लो। लेकिन हम उठ गए कि "नहीं खाना हमें…राजपाल हमें टोस्ट और चाय दे जाना…” कहते अपने रूम में ठसक कर चल दिए। पीछे से अम्मा की आवाज कानों में पड़ी- " ओफ्ओ उषा कहाँ निभोगी तुम ? इतना तेहा अच्छा नहीं, कल दूसरे के घर जाओगी तो कैसे चलेंगे ये नखरे…!”

हम अपनी टेबिल पर बैठकर लाइब्रेरी से लाई किताबें पलटने लगे, लेकिन दिमाग में अम्मा की कही बातें धमाचौकड़ी मचा रही थीं। उन दिनों में जोरशोर से हमारे ब्याहने को लड़के ढूँढे जा रहे थे। सब खिसका कर पैड और पैन उठा लिखने बैठ गए…कहानी बह निकली-

 " सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।उसे सहसा याद आया  जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी…।”(कहानी- लाल-पीली लड़की )

मजे की बात तो ये है कि ससुराल में जॉइन्ट फैमिली थी तो खूब बनती थी मूली की भूजी मूंग की दाल डालकर और हमें धीरे-धीरे बहुत अच्छी लगने लगी बशर्ते साथ में परांठे हों ।

उस खब्त ने कहानी तो लिखवा दी हमसे लेकिन कुछ अनमोल घन्टे खाकर, इसीलिए उस समय वो कहानी अफसोस से भर गई थी, परन्तु बाद में  1979 में सारिका के नव -युवा विशेषांक में यह कहानी प्रकाशित हुई थी पुन: डॉ० देवेश ठाकुर ने “1979 वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां - कथा वर्ष 1980”में प्रकाशनार्थ चुना...फिर उर्दू और  पंजाबी में भी अनुवाद होकर छपी तो जिंदगी ने एक नए क्षेत्र में उठाए दूसरे कदम ने अफसोस समाप्त कर आत्मविश्वास बढ़ाया ।

खैर…सवाल तो यही है कि व्यस्ततम दिनों में ही हमारा दिमाग इतना उपजाऊ हो जाता है या औरों के भी साथ ये होता है …बताइए तो? 😊🍁🍃

— उषा किरण 



बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

यूँ ही

 


ताताजी कैप्सटन की तम्बाकू और कागज पार्सल से मंगवाते थे और बहुत सलीके से अपनी गोरी सुघड़ उंगलियों से बनाकर सिगरेट केस में जमा कर सहेज लेते थे और सारे दिन बीच- बीच में बहुत सुकून से कश लगाते रहते थे. 


हमें सिगरेट की खुशबू बचपन से ही बहुत पसन्द थी. शायद उस खुशबू के साथ उनका अहसास लिपटा रहता था इसीलिए, इसीलिए शायद आज भी हमें वो खुशबू प्रिय है.कई बार जब वो टॉयलेट में या बगीचे में होते तो हम और भैया चुपके से एक निकाल लेते और छिप  कर सुट्टे लगाते.हमें लगता था कि उनको  पता नहीं चलता होगा. 


शादी होने के कई साल बाद हम सब बैठे गप्पें  मार रहे थे तो पति ने ताताजी को बताया कि " एक बार उषा हमसे कह रही थीं कि आप सिगरेट पिया करो!” सुनकर वो हँस पड़े और हम झेंप गए.  हमने कहा कि हमें सिगरेट की खुशबू बहुत अच्छी लगती है तो ताताजी बोले " हाँ  तभी बचपन में हमारे सिगरेट केस से निकाल कर तुम और डब्बू पी लेते थे कभी-कभी!” हम और भैया हैरान हो गए कि उनको पता था पर कभी भी टोका नहीं । हमने पूछा "आपको कैसे पता चलता था?”  तो हंसकर बोले "मैं गिन कर रखता था।” आज भी सोचती हूँ कि कुछ कहा क्यों नहीं? मेरे बच्चे ऐसा करते तो डाँट तो जरूर ही खाते.


अम्माँ कहती थीं कि बचपन में हम बहुत जिद्दी थे और शाम होते ही जाने कौन सा, किस जन्म का दु:ख याद आ जाता था कि रोज रोने लगते और किसी तरह नहीं चुपते थे. आज भी शाम होने पर कभी-कभी वो अंदर छिपी बच्ची उदास हो जाती है बेवजह. अम्माँ नौकर को कहतीं " जा मुल्लू इन्हें साहब के पास क्लब लेकर जा!” एक दो घन्टे बाद ताताजी के कान्धे पर बैठे हम खूब हंसते- खिलखिलाते लौटते. 


ताताजी, आपके कान्धे पर बैठकर हमें जरूर लगता होगा जैसे हम दुनियाँ में सबसे ऊँचे हो गए, हाथ बढ़ा कर चाँद छू सकते हैं . ताताजी आप क्यूँ अचानक याद आ रहे हैं आज इतना. आज तो फादर्स डे भी नहीं…आपकी बर्थडे भी नहीं. लेकिन याद आने की कोई वजह हो ये जरूरी तो नहीं…पर कई यादें उदास कर जाती हैं ….बस यूँ ही….😔

-उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 

(अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज 11 अक्टूबर को  भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।)

रविवार, 25 दिसंबर 2022

कुछ इस तरह


 जिन संबंधों को हम भावनाओं के रेशमी तन्तुओं से बुनते हैं, प्यार की सुगन्ध डालते हैं, दिल के क़रीब रखते हैं, वे ही संबंध कभी-कभी जरा सी ठेस से बिखर कैसे जाते हैं? जरा किसी ने कुछ कह दिया या आपकी किसी भावना का सम्मान नहीं किया या भावना को ठेस पहुँचा दी, किसी और से भी नज़दीकियाँ कर लीं या किसी ने लगाई - बुझाई कर दी या हमें इम्पॉर्टेंस देनी कम कर दी और हम भड़क जाते हैं…जरा सी देर में हमारा अहम् चोटिल होकर नाग सा फुँफकारने लगता है, अपमानित और ठगे हुए से खुद को महसूस करके हम प्रत्युत्तर में गालियों व आरोपों  के पत्थर मारने लग पड़ते हैं, चुगली  शुरु कर देते हैं। जो जरा शराफत और बुद्धिजीवी कहलाने का नशा रखते हैं वे साहित्य की ओट में बड़े- बड़े शब्दों का चयन कर लाँछन लगाने व घात लगाने से नहीं चूकते। वे आपके चरित्र का भी हनन चुटकियों में वाक्-चातुर्य से करते नजर आते हैं। कल तक जो प्रिय थे,  वे अचानक अब से आपके दुश्मनों की कतार में हाथ में पत्थर लिए खड़े नजर आएंगे। 

मतलब साफ है कि वो रिश्ता सिर्फ़ उनके अहंकार को पुष्ट करने का मात्र जरिया भर था बाकी अन्दर भूसा ही भरा था। सारे कोमल  रेशमी धागे बुरी तरह उलझ जाते हैं ।वे जरा नहीं सोचते कि अपने पुराने संबंधों की कुछ तो मर्यादा रखें। मैं- मैं का गान खुद करेंगे औरों से भी करवाएंगे। ये नहीं कि दूसरों की नजर में आपके लिए जो उच्च भाव व आदर था कभी, उसकी ही लाज रख लेते …जरा सा दिमाग व अहम् को परे कर दिल से काम ले लेते…पर नहीं आप तो आप हैं ऐसे कैसे छोड़ेंगे ? फौरन से उन रेशमी अहसासों के पेड़ की जड़ में जो कभी बहुत जतन से रोपा व पोसा था अहंकार , ईर्ष्या व द्वेष का तेज़ाब उड़ेल देंगे…भाव- मन्दिर में खड़े होकर  बदहजमी की डकारें मारने लगेंगे। 

मुझे याद है एक बार हमने अपने घर एक सीनियर प्रोफ़ेसर को विद फैमिली डिनर पर आमन्त्रित किया था। तभी अचानक एक और प्रोफ़ेसर साहब आफत के मारे अचानक आ धमके। तब मोबाइल तो होते नहीं थे कि कॉल करके आते। उन दोनों में कभी रही गहरी दोस्ती अब कट्टर दुश्मनी में तब्दील हो चुकी थी। तो उनके आते ही सीनियर प्रोफेसर साहब झपट पड़े । हमारे घर को अखाड़ा बना दिया। जरा लिहाज़ नहीं किया कि आप किसी दूसरे के घर पर अतिथि की हैसियत से पधारे हैं और दूसरे प्रोफ़ेसर भी हमारे अतिथि ही हैं और लगे दबादब लड़ने । कहनी- अनकहनी सब कह डालीं । गाली- गलौज से भी गुरेज़ नहीं किया। हम सन्न थे । काफ़ी कोशिश की उनको रोकने की पर वो कहाँ रुकने वाले थे। वे अब स्वर्ग सिधार चुके हैं परन्तु आजतक भी वो घटना याद आती है तो मन क्षोभ से भर जाता है। 

तो जब भी लगे कि अब ये नौबत आने वाली है तो थम कर जरा सोचें, गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करें और यदि नामुमकिन लगे तो शान्ति से उस उलझी रेशमी गुच्छियों को वहीं उलझा छोड़कर रास्ता बदल लें लेकिन खूबसूरती से। इस तरह कम से कम कुछ सुनहरी स्मृतियाँ तो आपकी मुट्ठी में होंगी…आपकी और दूसरे की भी गरिमा बनी रहेगी और कुछ तो आँखों की शर्म बाकी रह जाएगी जिससे कभी भूले- भटके सामना हो भी जाए तो आँखें न चुराते फिरें-

"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे

जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों”

आप खूबसूरती से भी इस पीड़ा को बाय कह सकते हैं ।राहें बदलें …पटाक्षेप करें परन्तु कुछ इस तरह- 

" वो अफसाना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर  छोड़ना अच्छा…!”

- उषा किरण 

रविवार, 25 सितंबर 2022

शर्मसार

 


"आपका खून लगने से ये नया चाकू एकदमी खुट्टल हो गया!” सब्जी काटते-काटते गीता ने मुझसे कहा।

"क्या मतलब?”मैंने उत्सुकता से पूछा !

"हमारे पहाड़ में कहते हैं कि नई दराँती या चाकू से यदि किसी का हाथ कट जाए तो उसकी धार खत्म हो जाती है !” मैं अविश्वास से हंस पड़ी।

"अरे ऐसा भी होता है कहीं?”

मैंने समझाया उसे पर वो उल्टा मुझे समझाती रही कि "नईं ये बात एकदम सच है।”

शाम को  जब मैं उसी चाकू से प्याज काट रही थी तो हैरान रह गई वाकई उसकी धार भोथरी हो गई थी । सालों पुराने चाकू उससे तेज थे और उसके साथ आया दूसरा चाकू भी बेहद खतरनाक था लेकिन इस वाले से  तो फल भी नहीं काटे जा पा रहे थे।

मुझे बड़ी हैरानी हुई कि जो नया चाकू हफ्ते भर पहले ही इतना तेज था कि उससे मेरी उंगली बहुत गहरी कट गई थी, खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, सारे उपाय करने पर भी बहुत देर बाद बन्द हुआ और बहुत खून बह गया था। आज उसकी धार एकदम ही खत्म हो गई थी।

मैंने हैरानी से गीता से पूछा "अरे ये क्या चक्कर है ? क्या कहते हैं तुम्हारे पहाड़ में, ऐसा क्यों होता है ?”

"हम कहते वो शर्मिंदा हो गया!” 

वो हँस कर बोली ! तब से मैं ने उसका नाम ही शर्मिंदा चाकू रख दिया है।

अक्सर सोचती हूँ  इंसान अपने कर्मों और  बातों से जाने किस- किस को, कब- कब यूँ ही आराम से आहत करता है। इँसान अपने फायदे या गुस्से की खातिर दूसरे का गला काट देता है., अपने कर्मों और जहरीली  बातों से किसी का भी दिल तोड़ते जरा नहीं सोचता। हम शारीरिक, भावनात्मक हर तरह की हिंसा करते हैं, पर जरा शर्मिंदा नहीं होते। किसी की बनी- बनाई साफ- सुथरी इमेज पर डाह, क्रोध व ईर्ष्या की छुरी चला कर उसकी आजन्म सहेजी मर्यादा, गरिमा व सम्मान का पल भर में कत्ल करते जरा नहीं सोचते और ये चाकू जिसका धर्म ही है काटना वो अपनी वजह से किसी का खून बहते देख कितना शर्मिंदा हुआ पड़ा है ...कमाल है ! 

सच मुझे बहुत हैरानी है, अपने उस चाकू की शर्मिंदगी पर ...प्यार आता है उसकी कोमल सम्वेदना पर ।मैं बुदबुदा कर कहती हूँ कि "मैंने माफ किया तुझे, अरे, गल्ती तो मेरी ही थी, हर समय जल्दी रहती है तो लापरवाही से कट गयी उँगली, तुम्हारी क्या गलती है इसमें ?” लेकिन कोई फ़ायदा नहीं होता उसकी शर्मिंदगी नहीं जाती ...धार वापिस नहीं आती। हम इंसानों से तो ये चाकू ही कितना भला और गैरतमन्द है ...नहीं?

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  —उषा किरण

रविवार, 12 जून 2022

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत…!


  कई बार हमारी ज़िंदगी में ऐसे पल आते हैं जब आगे घोर अँधेरा दिखाई देता है और कोई रास्ता नहीं सूझता। तब कुछ लोग गहरे डिप्रेशन में जाकर प्राय: गलत कदम उठा लेते हैl एक्टर सुशान्त सिंह राजपूत और न जाने ऐसे कितने लोग जिंदगी की जंग लड़ते - लड़ते हार गये और कूच कर गये  दुनियाँ से।

आजकल दिनेश कार्तिक की कहानी सोशल मीडिया पर बहुत चर्चित है कि कैसे उनके दोस्त व पत्नि ने उनको धोखा दिया और  उनके जिम के ट्रेनर शंकर बसु  व स्क्वैश खिलाड़ी दीपिका पल्लिकल ने उनको संभाला, सहारा देकर डिप्रेशन से बाहर निकाला और आगे चल कर दीपिका से उन्होंने शादी की। मैंने जब ये कहानी पढ़ी तो बहुत प्रभावित होकर गूगल पर सर्च करके ये कहानी पोस्ट की। कुछ जगह ये कहानी मनगढ़ंत बताई  जा रही है…अब क्या सच है क्या झूठ इस डिबेट में न पड़ते हुए मैंने अपनी पोस्ट से वो कहानी  हटा दी है वैसे भी गूगल पर सर्च करने से यह कहानी खूब मिल जाती है।

खैर इस पोस्ट को लिखने का मकसद सिर्फ़ यही था कि हम दूसरों के प्रति सजग व सम्वेदनशील बनें। हमारी सतर्कता व सम्वेदना किसी की जिंदगी बचा सकती है।मेरे रिश्ते में बहुत इन्टेलिजेंट होने पर भी एक बच्चे ने तीस साल पहले आत्महत्या कर ली थी क्योंकि वो मेडिकल एन्ट्रेन्स कई बार कोशिश करके भी क्लियर नहीं कर सका जबकि पहले से ही सब उसको डॉक्टर साहब कहने लगे थे। कोई ये समझ ही नहीं सका कि वो बेहद डिप्रेशन में था और जब तक पता चलता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ऐसे ही मेरी एक ब्रिलिएंट स्टुडेंट के फादर नहीं थे। माँ का एकमात्र सहारा व आशा थी वो। न जाने किस कारण डिप्रेशन की शिकार होकर ड्रग एडिक्ट हो गई।उसके असामान्य व्यवहार पर चर्चा तो खूब हुई परन्तु जब तक सब चेतते तब तक उसने जीवन का अन्त कर लिया और हम सबको अफसोस के हवाले कर गई।

उसके बाद मैं सावधान हो गई और अपने स्टूडेंट्स को बारीकी से ऑब्जर्व करने लगी। परिणामस्वरूप बहुत से स्टुडेंट्स ने अपनी पर्सनल प्रॉब्लम्स मुझसे कई बार शेयर कीं । मैं और तो कोई मदद नहीं कर सकती थी लेकिन बस उनको सुनती थी, जितना हो सकता हौसला देती थी और ये सिलसिला रिटायरमेण्ट के बाद भी जारी है । मेरे बच्चे मुझ पर भरोसा करके अपने मन को खोल देते …सब तो नहीं पर कई स्टूडेंट्स की मदद कर सकी। न जाने कितनी कहानियाँ हैं उन सबकी मेरे मन में ।आज भी किसी बच्चे या किसी को भी सुनने के लिए मेरे पास बहुत वक्त है और हृदय के द्वार खुले हैं।

मैं उनको समझाती कि किसी के भी सब दिन एक से नहीं होते। हिम्मत से मुक़ाबला करें तो एक दिन अँधेरे हार जाएंगे और सफलता का सूरज फिर से जीवन में उजाला लेकर आएगा। कई बार बच्चों को छोटी सी उम्र में पारिवारिक ,आर्थिक या करियर की समस्याओं व तनाव का सामना तोड़ देता है। मेरे स्टूडेंट्स क्योंकि हमेशा युवा- वर्ग ही रहे तो उनकी प्रायः समस्या प्यार की भी होती और प्यार है तो धोखा भी मिल सकता है…मैं समझाती कि इससे ज़िंदगी समाप्त तो नहीं होती…जिसने धोखा दिया हो, वो ये तो कतई डिजर्व नहीं करता कि उसकी खातिर तुम खुद को तबाह ही कर लो।

आप भी देखिए चारों  ओर…कोई मित्र, कोई  बन्धु- बान्धव, कोई पड़ोसी अकेला किसी कोने में सिसक रहा हो तो सम्वेदनशील बनिए …रुक जाइए…आपका वक्त कितना भी कीमती क्यों न हो पर किसी की जिंदगी से तो कीमती नहीं ही हो सकता…बढ़ कर हाथ थाम लीजिए और हौसले की डोर थमा दीजिए ।

सुशान्त सिंह राजपूत के जाने के बाद मैंने लिखा था-


#इससे_पहले


इससे पहले कि फिर से

तुम्हारा कोई अज़ीज़

तरसता हुआ दो बूँद नमी को

प्यासा दम तोड़ दे

संवेदनाओं की गर्मी को

काँपते हाथों से टटोलता

ठिठुर जाए और

हार जाए  जिंदगी की लड़ाई

कि हौसलों की तलवार

खा चुकी थी जंग...


इससे पहले कि कोई

अपने हाथों चुन ले

फिर से विराम

रोक दे अपनी अधूरी यात्रा

तेज आँधियों में

पता खो गया जिनका

कि काँपते थके कदमों को रोक

हार कर ...कूच कर जाएँ

तुम्हारी महफिलों से

समेट कर

अपने हिस्सों की रौनक़ें...


बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ

बोझ बन गईं जो

कान दो थके कदमों की

उन ख़ामोश आहटों  पर

तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं

और लौट गईं चुपचाप

सुन लो वे सिसकियाँ

जो घुट कर रह गईं गले में ही

सहला दो वे धड़कनें

जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में

काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो

सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...


मत रखो समेट कर बाँट लो

अपने बाहों की नर्मी

और आँचल की हमदर्द हवाओं को

रुई निकालो कानों से

सुन लो वे पुकारें

जो अनसुनी रह गईं

कॉल बैक कर लो

जो मिस हो गईं तुमसे...


वो जो चुप हैं

वो जो गुम हैं

पहचानों उनको

इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़

एक दर्दनाक खबर बन जाए

इससे पहले कि फिर कोई

सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए

इससे पहले कि तुम रोकर कहो -

"मैं था न...”

दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से

गले लगा कर कह दो-

" मैं हूँ न दोस्त…मैं हूँ…!!”

              —उषा किरण 

रविवार, 22 मई 2022

मेरे घर आना ज़िंदगी



दो तीन दिन पहले घर के बाहर किसी चिड़िया के कर्कश आवाज में चिंचियाने की आवाज सुन कर जाली दरवाजे से बाहर झाँका तो देखा एक चिड़िया ऊपर टंगे गमले में बैठी सब पर  गुसिया रही है । गीता झाडू लगाने गई थी तो उसे डाँट पिला रही थी। गीता ने कहा बड़ी बत्तमीज होती है ये चिड़िया अटैक भी कर देती है और देखो पौधों के बीच घोंसला बना रही है ये अंडे भी देगी तो घर से निकलने पर मुसीबत करेगी, इसका घोंसला उठा कर कहीं और रख दें ? हमने कहा खबरदार हाथ भी मत लगाना दूर हटो सब , पास मत जाना। 

हमें लगा कि बुलबुल है तो Rashmi Ravija से कन्फर्म किया उन्होंने भी कहा कि बुलबुल ही है और बहुत मीठा गाती है हमने कहा कि ये तो बहुत कर्कश आवाज में चीख रही है तो उन्होंने कहा कि अभी गुस्से में होगी। 

खैर तो अब उसने पौधों के बीच बड़ा सुघड़, सुन्दर घोंसला बना लिया है , जिसे किसी लम्बे डोरीनुमा तिनके से स्टैंड के साथ बाँध कर आँधी से बचाने का भी इंतजाम कर दिया है , तीन अंडे दे दिए हैं उसमें। अब डाँट- डपट तो नहीं कर रही । वो ड्यूटी हमने संभाल ली है तो माता निश्चिंत हैं और उसने पहले ही हड़का दिया कि दूर रहना सब, वर्ना मुँह नोच लूँगी। हम सेवा में तत्पर हैं सबको कह दिया है कि घूम कर पीछे से किचिन से आओ- जाओ सामने से नहीं । 

सुना था कि नर बुलबुल ऐसे में मादा बुलबुल के खाने की व्यवस्था करता है पर जरा नहीं झाँकता वो नालायक ।हम ही जाली के दरवाजे के पीछे से हर घंटे ताका-झाँकी  करते रहते हैं । पापा बुलबुल तो बस एक दिन दिखा था सामने तार पर बैठा हीरोपन्ती करता , फिर नजर नहीं आया। हुँह…ये मर्द भी🙄…बेचारी बीच- बीच में उड़ कर दाना- पानी खाने जाती है। तभी हम लोग पौधों में जल्दी से पानी दे देते हैं ।हमने दियों में सामने ही बाजरा और पानी रखा, ख़रबूज़े का टुकड़ा व ब्रैड भी…पर देखती तक नहीं उस तरफ़…जाने क्या वहम है कि हमने जाने क्या मिला दिया होगा…हमारी नेकनियती पर ही विश्वास नहीं…घर में जच्चा के होने जैसी फीलिंग है ..😂खैर आतुर प्रतीक्षा है बच्चों के आने की 🥰

              —उषा  किरण 


बुधवार, 11 मई 2022

क्राँति दिवस- १० मई





इतिहास - विभाग, मेरठ कॉलिज, मेरठ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूर्ण होने पर " आजादी का अमृत महोत्सव ”  के अन्तर्गत 10 मई 1922 को क्राँति - दिवस मनाया गया। मेरा सौभाग्य रहा कि उस अवसर पर आमन्त्रित होने के कारण उन क्राँति वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर प्राप्त हुआ ।

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के इस वर्ष 163 साल पूरे हो रहे हैं। 10 मई 1857 को अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए आजादी की पहली चिंगारी सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैली थी। इसी दिन अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था। यह मेरठवासियों के लिए गौरव की बात है। 

मेरठ का कैंट इलाका एक छावनी इलाका था, जहां सैनिकों के बैरक बने हुए थे. औघड़नाथ मंदिर से नजदीक ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी मंदिर में आकर रुकते थे। उस समय अंग्रेजों ने मंदिर के पास ट्रेनिंग सेंटर भी बनाया था। छावनी में अंग्रेज और भारतीय दोनों सेनाओं के लोग अलग-अलग जगहों पर रहते थे. अंग्रेज भारतीय सैनिकों के प्लाटून को काली पलटन कहते थे. काली पलटन बैरक के पास ही एक शिव मंदिर था जहां पर भारतीय सैनिक पूजा-पाठ करने जाते थे. इसी मंदिर से भारत की आजादी की पहली लड़ाई की शुरुआत हुई. आज भी वह भव्य मन्दिर `काली- पल्टन का मन्दिर’ या `औघड़नाथ -मन्दिर’ के नाम से लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। 10 मई 1857 को मंदिर के प्याऊ पर कुछ सैनिक पानी पीने के लिए पहुंचे. प्याऊ पर उस समय मंदिर के पुजारी बैठे हुए थे. सैनिकों ने हमेशा की तरह पुजारी से पानी पिलाने को कहा लेकिन पुजारी ने सैनिकों को अपने हाथ से पानी पिलाने से इंकार कर दिया. पुजारी ने कहा जो सैनिक गाय और सूअर की चर्बी से बने हुए कारतूस को अपने मुंह से खोलते हैं, उन्हें वह अपने हाथों से पानी नहीं पिला सकते।

1857 की क्रांति का जिक्र करते हुए एक साधु को भी याद किया जाता है। मेरठ के राजकीय संग्रहालय में बाक़ायदा फोटो के साथ ये लिखा गया है कि अप्रैल 1857 में एक साधु आए थे. आजतक भी उस साधु का परिचय अज्ञात ही है। वो कोई सामान्य साधु नहीं था उसके पास हाथी व अश्व थे । साधु का आना और फिर 10 मई को बगावत हो जाना ये महज एक संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक कुशल रणनीति थी। बताया जाता है कि ये साधु भी क्रांतिकारियों के साथ 10 मई 1857 को मौजूद थे, हालांकि साधु के नाम का जिक्र नहीं किया गया है।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि देश के क्रांतिकारी बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बडे़ सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी। रोटी का अर्थ रहा हम सभी भारतीय अपनी रोटी मिल बांटकर खाएंगे तथा खिलते कमल का अर्थ कि हम सभी मिलकर देश को कमल के समान खिलते देखना चाहेंगे।

मेरठ छावनी में सैनिकों को 23 अप्रैल 1857 में बंदूक में चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने के लिए दिए गए। भारतीय सैनिकों ने इन्हें इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था। इसी कारतूस को लेकर महीने भर पहले बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे विद्रोह कर चुके थे और यह बात चारों तरफ फैल चुकी थी. तब 24 अप्रैल 1857 में सामूहिक परेड बुलाई गई और परेड के दौरान 85 भारतीय सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने के लिए दिया गया, लेकिन परेड में भी सैनिकों ने कारतूस का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। इस पर उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दिया गया। मई छह, सात और आठ को कोर्ट मार्शल का ट्रायल हुआ, जिसमें 85 सैनिकों को नौ मई को सामूहिक कोर्ट मार्शल में सजा सुनाई गई। और उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था। 

शहर में में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की चिंगारी उस वक्त फूटी थी, जब देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरा हुआ था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए रणनीति तय की गई थी। एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाना था, लेकिन मेरठ में तय तारीख से पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। 

इतिहासकारों की माने और राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय, मेरठ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रिकार्ड को देखे तो, दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब सदर बाजार से क्रांति की ज्वाला धधक उठी। लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। सदर बाजार क्षेत्र से अंग्रेज फौज पर लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया।  क्रांति के दौरान सदर बाजार की वेश्याएं भी 85 सैनिकों की गिरफ्तारी के बाद उठ खड़ी हुई थीं। वेश्याओं ने सिपाहियों पर चूड़ियाँ फेंकीं। 

उसी समय 11 वीं  व 20वीं पैदल सेना के भारतीय सिपाही परेड ग्राउंड (अब रेस कोर्स) में इकट्ठे हुए और वहीं से अंग्रेजी सिपाहियों और अफसरों पर हमला बोल दिया। पहली गोली 20वीं पैदल सेना के सिपाही ने 11वीं पैदल सेना के सीओ कर्नल जार्ज फिनिश को रेस कोर्स के मुख्य द्वार पर मारी थी। उस सिपाही का नाम आजतक अज्ञात है। इस बीच थर्ड कैवेलरी के जवान अश्वों पर सवार होकर अपने उन 85 सिपाहियों को बंदी मुक्त कराने विक्टोरिया पार्क स्थित जेल पहुंच गए, जिन्हें कोर्ट मार्शल के तहत सजा दी गई थी।

सवा छह बजे तक दोनों जेल तोड़ दी गईं। साथ लाए लुहारों से बेड़ियाँ व हथकडियों को कटवा कर सैनिकों को जेल से मुक्त किया गया। अगले दो घंटे में छावनी इलाका जल उठा। सहसा `दिल्ली- दिल्ली ‘ का उद्घोष हुआ, शाम साढ़े सात बजे के आसपास ये लोग रिठानी गांव के पास एकत्रित हुए और विभिन्न रास्तों से दिल्ली कूच कर गए। 

कहते हैं कि वो अज्ञात साधु भी हाथी पर बैठ  कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ। कुछ सैनिक तो रात में ही नावों के बने पुल को पार कर यमुना किनारे लाल किले की प्राचीर तक पहुंच गए और कुछ भारतीय सैनिक ग्यारह मई की सुबह यहां से दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया ।

रात के हमलों से संभलकर ब्रिटिश सैनिकों ने भी दिल्ली कूच किया, लेकिन तब तक क्रांति की ज्वाला धधक चुकी थी ।क्रांतिकारियों के इस हमले में 50 से अधिक अंग्रेजी अफसर-सिपाही मारे गए। सदर, लालकुर्ती, रजबन आदि हर जगहों पर खून ही खून नजर आ रहा था।

वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. के. डी.  शर्मा ने अपने व्याख्यान में बताया कि नौ मई 1857 का दिन ही वह ऐतिहासिक दिवस था जब सैनिकों की बगावत के बाद बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर पहली बार हिंदुस्तान की आजादी का आगाज हुआ था। इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाकर, 'स्वतंत्र भारत' की आधारशिला रख दी। 

1857 की क्रांति के वीरों को कोटि-कोटि नमन।🙏

फोटो व जानकारी : गूगल से साभार।



मंगलवार, 14 सितंबर 2021

पुरुष- उत्पीड़न

 



बहुत दुखद है कि मेरे कुछ स्टुडेंट्स का पत्नियों के द्वारा घोर उत्पीड़न हुआ है और मैं चाह कर भी कुछ भी मदद नहीं कर पाई।वे सभी सीधे- सादे भावुक हृदय कलाकार हैं।


दो को तो जेल भी जाना पड़ा। पत्नि उत्पीड़न, वकीलों द्वारा शोषण, आर्थिक हानि, सामाजिक प्रताड़ना सहने के बाद भी वे किस तरह जिन्दगी में आगे बढ़ सके ये मैं ही जानती हूँ ।


वे रोते थे, छटपटाते थे, तो मैं उनको आँसू पोंछने के लिए अपना आँचल व हौसला ही दे सकी ,और कोई भी मदद चाह कर भी नहीं कर सकी।कई वकीलों से बात करने के बावजूद भी।कई बार लगता था कि लॉ की पढ़ाई ही कर लूँ जिससे मदद कर सकूँ। सारे नियम-कानून की सहानुभूति महिला के पक्ष में ही क्यों हैं ?कहाँ जाएं ये ?


ऐसा नहीं कि लगभग चालीस साल की जॉब के बीच मेरी कुछ गर्ल्स स्टुडेंट का उत्पीड़न नहीं हुआ…कई का हुआ। रास्ता आसान उनका भी नहीं था परन्तु उनके साथ समाज, परिवार, कानून, पुलिस, सब थे अत: उनकी मदद के लिए रास्ते अवरुद्ध नहीं थे।


अभी हाल में ही मेरे एक बेहद हंसमुख, जिंदादिल स्टुडेंट ने शादी के साल भर के भीतर ही पत्नि की कलह व बात-बात पर नीचा दिखाए जाने से क्षुब्ध होकर खुद को रेल की पटरियों के हवाले कर दिया।दो साल पहले ही अपनी माँ की कैंसर के कारण मृत्यु से वो पहले ही टूटा हुआ था । सारी क्लास सदमे में थी सब बारी- बारी फोन कर अपना दुख व्यक्त कर रहे थे। क्या समझाती उनको ? मुझे खुद भी कई दिन तक नींद नहीं आई।


एक रिसर्च स्कॉलर को पत्नि ने उसे जहर देने की कोशिश की जबकि लव मैरिज थी। एक और स्टुडेंट की पत्नि शादी के बाद मायके से बिना बताए कुछ ब्वॉयफ्रैंड्स  के साथ नैनीताल घूमने गईं और ढेरों ड्रामा करके तलाक के बाद बेहद घटिया जीवन शैली अपनाए हुए है आज।जब तलाक का केस चल रहा था तो उसके वकील से ही इश्क शुरु कर दिया। रिश्तेदारों ने दूसरी शादी गारन्टी लेकर करवाई तो पता चला उसे सीजोफ्रेनिया है। अब भुगत वो रहा है और रिश्तेदार हाथ झाड़ कर अलग खड़े हैं।


मेरे एक परिचित जो खुद सुप्रीम- कोर्ट में नामी वकील हैं , पत्नि  द्वारा उत्पीड़ित हो कुछ नहीं कर सके…खुद अपनी भी मदद नहीं कर सके और केस में सब कुछ हार बैठे। 


आज मेरे एक और बेहद टैलेन्टेड स्टुडेंट का फोन आया जिसने बी ए की पढ़ाई एक साल करके छोड़ दी और दिल्ली से बी एफ ए की पढ़ाई की, जामिया में कुल पाँच सीट थीं जहाँ एडमिशन मिला तो एम एफ ए करके टीचिंग जॉब में है। वो लगातार मेरे सम्पर्क में रहता है।


पता चला कि एक तो कोरोना के कारण उसकी माँ की डैथ हो गई ,पत्नि ने तलाक का केस पहले ही चला रखा है। जब साथ थी तो कई बार उसको बहुत मारा, बेटी साथ ले गई, जेवर भी ले गई, अब दुबारा कह रही है कि जेवर दो मेरा। मैं तुझे जेल भेजूँगी ।दहशत व दुख से उसको पिछले दिनों बहुत तगड़ा हार्ट- अटैक आ गया । माँ का सदमा भूल नहीं पा रहा, शुगर का पेशेन्ट है। वकील कह रहा है कि जेल जाना पड़ सकता है ।वो यही सोच कर काँप रहा था, रो रहा था और मैं समझा रही थी कि `तो क्या हुआ? हो आना थोड़े दिन को ! मेन्टली मजबूत रहो।’ परन्तु एक कलाकार जो बेहद खूबसूरत चित्र बनाता हो, चित्र-प्रदर्शनी लगाता हो, टीचर हो उसके लिए ये आसान नहीं ये मैं भी जानती हूँ लेकिन साँत्वना देती रही डाँटती रही रोना बन्द करो …दिल मजबूत करो। वो कह रहा था कि मैम मेरी जॉब प्राइवेट कॉलेज में है तो वो छूट जाएगी। उसने CAW (Crime against Women Cell ) Delhi में भी रिपोर्ट कर दी है ? परिवार की आर्थिक स्थिति खराब है। भाई का जॉब भी छूट गया है, बहन पति से प्रताड़ित होकर वापिस घर आ गई है और उसकी पत्नि अनाप- शनाप पैसे माँग रही है। उसका रईस बाप धमका रहा है ।


मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ आप लोग।मार्गदर्शन करो।वे सब अपनी मासूमियत खोकर डिप्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं।


कभी- कभी लगता है कि मेरे ही स्टुडेंट का भाग्य खराब है या ये समाज की आम सच्चाई है ? महिलाओं के उत्पीड़न के तो हम सभी विरोध में खड़े हो जाते हैं, लेकिन लड़कियों के जुल्म के शिकार हुए  से सीधे- सादे लड़के बेचारे कहाँ जाएं ?


कौन हैं ये लड़कियाँ, कहां से आती हैं ? जिनमें इंसानियत, ममता, सच्चरित्रता नाम को नहीं है। बस मौज-मस्ती और पैसे की हवस रहती है।

ये कैसे संस्कारों में पली- बढ़ी हैं….हैरान हूं बहुत।


मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ …मार्गदर्शन करो।

                                                   — उषा किरण 

रविवार, 22 अगस्त 2021

अपनी- अपनी लड़ाई

 





दो बच्चे मेरे और दोनों जैसे उत्तरी घ्रुव और दक्षिणी ध्रुव।


बेटी नर्सरी में थी तो प्राय: आनन्दिता की सताई हुई बिसूरती हुई घर आती।

-आज आनन्दिता ने थप्पड़ मारा।

-आज  आनन्दिता ने नोचा।

-आज  आनन्दिता ने पेंसिल छीन ली।

-आज  आनन्दिता ने टिफिन खा लिया ।


मेरा दिल डूब-डूब जाता अपनी मासूम राजकुमारी के आँसुओं में। मैं कहती कि उसकी शिकायत मैम से कर दिया करो। पर वो कहती कि-

-मम्मी उसे कोई कुछ नहीं कह सकता मैम भी नहीं, क्योंकि उसकी दादी का ही तो स्कूल है और दादी ही तो प्रिंसिपल हैं। वो सभी बच्चों को मारती है।


वो बेहद मासूमियत से हाथ नचा कर कहती।

मुझे बहुत ही गुस्सा आता कि ये क्या बात है ? बच्ची की शिक्षा की शुरुआत ही एक गलत व्यवस्था और अन्याय सहने से हो रही है।


मैं बेहद टेंशन में आ गई। कई बार स्कूल में जाकर टीचर को शिकायत भी की, परन्तु वो आँखें फैला बेचारगी से एक ही बात दोहरातीं कि,

-क्या करें वो तो प्रिंसिपल की पोती है…!


खैर फिर नर्सरी के बाद एल के जी में दोनों का दूसरे  स्कूल में एडमिशन हुआ।दोनों एक ही रिक्शे से जाती थीं।परन्तु उसकी हाथ चलाने की इतनी आदत थी कि वो रिक्शे में भी दादागिरी करती। सब बच्चों को चाँटे मारती रहती थी। 


एक दिन फिर  बेटी रोते हुए घर आई, क्योंकि गेम्स पीरियड के बाद उसका नया ब्लेजर छीन कर आनन्दिता ने अपना पुराना ब्लेजर उसे दे दिया था। उसने काफी कहा पर वो कहती रही ये ही मेरा है।


यूँ तो मैं रोज रात को सोने से पहले उसे कहानियों में लपेट कर दया, अहिंसा,करुणा, क्षमा, सहनशीलता, देशभक्ति, भगवान पर आस्था, जैसे मानवीय मूल्यों की घुट्टी पिलाती थी, लेकिन मैंने उस दिन उसको बैठा कर वो समझाया जो मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी।मैंने सख्ती से कहा -

-तुम पिटती क्यों रहती हो, तुम्हारे हाथ नहीं हैं क्या? तुम भी मारो उसको पलट कर। और एक हाथ पकड़ कर दूसरे गाल पर लगाना थप्पड़ जोर से। यदि कोई कुछ कहे तो कह देना ये रोज मारती है इसीलिए मारा।डरना मत कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूँगी।


खूब सिखा- पढ़ा कर भेजा। चाह तो यही रही थी कि मैं ही जाकर मसला निबटाऊँ, लेकिन मुझे खुद अपनी जॉब पर जाना होता था। फिर लगा कि मैं कहाँ तक इसको सपोर्ट करूँगी, कब तक दुनिया से बचाऊँगी आखिर में तो इसे अपनी लड़ाई अपने शस्त्रों से खुद ही लड़नी होगी।


दूसरे दिन वो बहुत खुश कूदती- फाँदती आई,

-मम्मा ले आई अपना कोट।पता है आज जब उसने मारा तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर जोर से चाँटा मारा और कहा मेरे हाथ नहीं हैं क्या ? तुम मारोगी तो मैं भी मारूँगी।मम्मी वो एकदम से डर गई। फिर मैंने उसके पापा से भी कहा कि अंकल ये मुझे रोज मारती है और मेरा कोट नहीं दे रही जबकि अन्दर मेरा नाम लिखा है आप देख लीजिए। पता है मम्मी फिर उसके पापा ने उसको डाँटा और एक चाँटा भी मारा और कहा सॉरी बोलो उसे और कोट वापिस करो ...मम्मी बड़ा मजा आया आज!”


मन कुछ कुड़बुड़ाया -गलत शिक्षा नही दे रही हो तुम बच्ची को ? हिंसक होना सिखा रही हो ...तुमको तो ये कहना था न कि, कोई एक चाँटा मारे तो बेटा दूसरा गाल भी आगे कर दो। दुर् कह कर मैंने घुड़की दी और राहत की साँस ली।


वैसे बाद में वे दोनों बहुत अच्छी दोस्त बनीं, आज भी हैं।


उस दिन मेरी बेटी ने मुझसे बेदर्द , असभ्य , अधिकारों का हनन करने वाले समाज के बीच सर्वाइव करने का पहला पाठ पढ़ा। और जाना कि  आप कितनी भी मजबूत या कमजोर जमीन पर क्यों न  खड़े हों लेकिन अपनी लड़ाई आपको  अपने हौसलों से खुद तो लड़नी ही पड़ेगी। बिना लड़े जीत  कोई दूसरा आपको तश्तरी में रख कर भेंट नहीं कर सकता ।


फिर उसके बाद जिंदगी में वो कभी भी, किसी से भी नहीं पिटी।

                                                —उषा किरण 

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

रहमतें



हफ्ते भर पहले आँखों की कैटरेक्ट की लेजर-सर्जरी करवाई। कुल पन्द्रह मिनिट में हो गई। न कट, न इंजेक्शन , न दर्द, न हरी पट्टी, न काला चश्मा । बस आधा घन्टा बैठा कर चैक किया और जाओ घर…भई वाह ! दुनिया कुछ और  ज़्यादा रंगीन व रौशन सी नजर आई।अपनी ही बनाई पेन्टिंग के रंग कितने खुशनुमा लगे।

कई तरह की दवाइयाँ डालने को दीं और कुछ एहतियात रखने को कहा जिसमें डॉक्टर ने ये भी कहा कि पानी से आँखों को बचाने के लिए अभी सिर मत धोना।

आठ नौ दिन हो गए तो बहुत बेचैनी थी। सोचा पार्लर पर जाकर आँख को कवर कर धुलवा ही लेते हैं।खैर खूब सावधानी से तैयारी की - पार्लर का एपॉइंटमेंट, साफ फेस टॉवल, सेनेटाइजर, डबल मास्क से लैस होकर  पहुँचे और जायजा लिया …साफ- सुथराई से सन्तुष्ट होकर हमने आरिफ को समझाया

-देखो भाई हमारी आँख की सर्जरी हुई है, तो पानी न जाए…।खूब- खूब हिदायत देकर सीट पर जम गए। 

आरिफ़ ने कहा मैम बेफिक्र रहें। हम हो गए बेफिक्र और बाईं आँख को फेस टॉवल से कवर करके बैठ गए।आरिफ ने सिर पीछे करके टॉवल लगाया,

अचानक आरिफ़ ने कहा -मैम आपकी लैफ्ट आँख की सर्जरी हुई है न? 

- नहीं राइट की और कहते ही झटका लगा, अरे मगर हम तो लैफ्ट को ढाँप कर बैठे हैं। हमने आरिफ़ को घूर कर देखा झट लैफ्ट को मुक्त किया और राइट को कवर किया और पूछा।

- अरे आरिफ़ तुमने ये क्यों पूछा अचानक ? तुमको कैसे पता चला कि…तो वो हंसने लगा बोला -पता नहीं मैम, बस ऐसे ही पूछ लिया ! 

हमने शीशे में देखा तो आँख को देख कर कुछ भी नहीं लग रहा था कि सर्जरी हुई है।लेकिन हमें आरिफ़ की शक्ल में `उसका’ नूर नजर आया।

खैर, हम हैड वॉश करवा कर आ गए सुरक्षित वापिस। बात छोटी सी है परन्तु ये बात निकल नहीं रही दिल-दिमाग से। आरिफ़ को कैसे इन्ट्यूशन हुआ ? 

ये उसकी छोटी-बड़ी रहमतें ही तो हैं जो हमारे  साथ चलती हैं भेष बदल- बदल कर …गौर करो तो साफ़ दिखाई देती हैं, वर्ना हमारी औकात  बूँद बराबर भी नहीं…फिर मेरे दिल से वही आवाज आती है-


" मैं जिसका जिक्र करती हूँ

   वो मेरी फिक्र करता है …!!🙏🙏

शनिवार, 26 जून 2021

सुनो चाँदनी की धुन





मेरी बहुत प्रिय, बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न सखी    Sheetal Maheshwari की पेन्टिंग  ने मुझे आज इस कदर आन्दोलित कर दिया कि आज के चित्र पर कविता बह निकली ।लगता है शीतल ने आजकल कायनात को ही ओढ़- बिछा रखा है…वो ही हमजोली है , और वही गुरु। ध्यान से देखिए इन चित्रों में शीतल की रूह साँस लेती सुनाई पड़ेगी…एक रूहानी अहसास गुनगुनाता है इनमें। काली-सफेद इन डिजिटल पेंटिंग्स में आपको रात की कालिमा पर चाँदनी की ,निराशा पर आशा की , मौन पर संगीत की विजय दिखाई देगी।

साहित्य, संगीत, कला की भागीरथी में वे सतत डुबकी मार कुछ नायाब रचती हैं ।मात्र कुछ ही वर्षों पूर्व शुरु हुई कला यात्रा में शीतल ने जाने कितनी डिजिटल पेंटिंग्स में अपना विस्तार किया…कुछ पुस्तकों के आवरण पृष्ठ बनाए तो एकाध में कथा- चित्रण (स्टोरी इलस्ट्रेशन ) भी रचे।यहाँ ये बता दूँ कि शीतल ने कहीं भी विधिवत कला-प्रशिक्षण नहीं लिया है।

वेबसाइट रेडियोप्लेबैकइंडिया पर भी इन्होंने कुछ कहानियों को अपनी आवाज दी है।

वे खुद भी गाती हैं और कविताएं भी लिखती हैं लेकिन कई साथी कलाकारों के गानों को चित्रों से सजाकर बेहद सुन्दर वीडियो यूट्यूब पर डालती रहती हैं। Rashmi Prabha जी ने मेरी पुस्तक ' ताना- बाना’ पर कई दिनों तक बेहद शानदार तरीके से अपने भाव व्यक्त किए तो शीतल ने उनको भी सुन्दर चित्रों से सजा कर कई सुन्दर वीडियो में ढालकर यूट्यूब पर जड़ कर प्यार बरसाया…अभीभूत हो गई दोनों सखियों के इस प्यार पर…नशा सा तारी है आजतक…और इससे ज्यादा क्या चाहे कोई अपनी किसी किताब का मूल्य या कोई अवार्ड ?

जहाँ सबको अपनी पड़ी रहती है वहीं दूसरों की प्रतिभा पर टॉर्च मारना कोई शीतल से सीखे।

वो शान्त नहीं बैठ सकती …उसके बेचैन क्रिएटिव माइन्ड में कुछ न कुछ तो कुलबुलाता ही रहता है। उनका चमत्कारिक उत्साह हैरान करता है। प्यार से कहती हूँ - `यार कितनी उपजाऊ है तोहार खोपड़िया 😂’

तो आप भी सुनिए इनके चित्रों में चाँदनी और भावों की जुगलबन्दी…!!


शीतल के आज के चित्र पर मेरी कविता-


रोज रात को-

कभी चाँद मुझे ओढ़ता है

और कभी मैं उसे pop

कभी चाँदनी बरसती है मुझ पर

और कभी मैं उस पर 


तारों की जगमग पायल पहनती हूँ कभी 

तो कभी वे शामिल कर लेते हैं हाथ पकड़कर 

मुझे छुप्पमछुपाई में


और तमाम रोज इस तरह हो जाती है 

रात करिश्माई हम दोनों के खेल में


सुबह आते है फिर कड़क सूरज हैड मास्टर

डंडा दिखा हड़काते है , चश्मे के ऊपर से झाँकते हैं -

`एई ऊधम नहीं 

घालमेल कतई  मंज़ूर नहीं ‘

और हमें अपनी अलग- अलग कक्षा में मुँह पर उंगली रख बैठा जाते हैं…!!

                                                  — उषा किरण            

                                                 🍃☘️🌱🍁🌿🌱🍀

















       रात ढलान
   यादों की फिसलन 
       कुचला मन
       —शीतल माहेश्वरी



औढ़ ली  फिर से 
एक ख्याल चांदनी 
एक ख्वाब चांद सा
                -शीतल माहेश्वरी


लहरें नाव
साहिल की तलाश
जीवन चांद
        — शीतल माहेश्वरी



असमंजस ..

में है देहरी..

कदमों की आहट पर 

उस पार 

सपनों की लौ दिखाऊं

या नीले अंधकार की राह बतलाऊं

                   — शीतल माहेश्वरी



फिर एक गीत याद आया " मिलो न तुम तो हम घबराए,मिलो तो आंख चुराए"




                                          

शुक्रवार, 4 जून 2021

शुभ संकल्प

 


इस कोरोना कहर का सबसे दुखद पहलू है कई बच्चों का अनाथ हो जाना। सरकारों के अपने प्रयास व उद्घोषणाएं हैं पर तसल्ली नहीं होती मन भड़भड़ाता रहता है। अनाथ हुए बच्चों को यदि उनके रिश्तेदार अपनाते हैं तो उनको चार हजार रुपये प्रति माह प्रदान किए जाएंगे।सुन कर कई रिश्तेदार आगे आए हैं,परन्तु निश्चित ही कई रुपयों के लालच में नहीं वैसे भी आगे आकर उन बच्चों को अपना रहे हैं ...जो भी हो परन्तु ये सबसे अच्छा विकल्प है क्योंकि बच्चे अपने ही परिचित परिवार के माहौल में परवरिश पाएंगे और बाकी रिश्तेदारों की भी निगरानी में रहेंगे। आपके किसी रिश्तेदार का कोई बच्चा यदि अनाथ हो गया है तो कृपया दिल बड़ा कर, बढ़ कर हाथ थाम लीजिए।

लेकिन बाकी जो नहीं अपनाए जाएंगे ऐसे बच्चों की भी संख्या हजारों में होगी ही।कितने ही निस्संतान दम्पत्तियों को मैंने ताउम्र ममता की भूख- प्यास से तड़पते व कलपते देखा है, परन्तु वे बच्चा गोद लेने में संकोच व कई तरह की उलझन महसूस करते हैं। यही वक्त है आगे आकर किसी एक बच्चे को गोद लें ।यकीन मानिए ये सिर्फ़ बच्चे के लिए ही नहीं उनके अपने लिए भी सुखद होगा।क्या पता किसी शुभ-मकसद के लिए ही उनका आँगन अब तक सूना रहा...जीवन में आई एक कमी किसी शुभ- संकल्प से, पावन मकसद में ढल जाए और उनके आँगन में व उस बच्चे के जीवन में भी रोशनी की किरणें बिखर जाएं।

आप बहुत से ऐसे लोगों को जानते होंगे कृपया उनको प्रेरित करे। कुछ लोगों के परिवार में उनके माँ- बाप या सास - ससुर नहीं तैयार होते तो उनको समझाएं। यकीन मानिए जिसे वो अपनाएंगे प्यार से, वो भी उनकी अपनी औलाद होगी।

सरकार की तरफ से भी गोद लेने की प्रक्रिया आसान करनी चाहिए । कभी एक ऐसे ही दम्पति को मैने मनाया कि वो किसी अनाथ बच्चे को गोद  लें, वे तैयार हुए पर गोद लेने की लम्बी व जटिल प्रक्रिया से ऊब कर जल्दबाजी में अपने ही रिश्तेदार के बच्चे को गोद ले लिया जिससे बड़ी मूर्खता मुझे दूसरी नज़र नहीं आती क्योंकि जिसके पास जो आँचल है उसकी वो छाँव छीन कर अपनी आँचल की छाँव देकर वे कई तरह की परेशानियों को प्राय: फेस करते हैं। हो सकता है वो बच्चा ही उनको बड़ा होकर कटघरे में खड़ा कर दे किसी दिन।

कृपया आपके जो भी ऐसे निस्संतान परिचित हों उनको प्रेरित जरूर करें। ये संकल्प तो महानतम शुभ-संकल्प की श्रेणी में आता है ।

तो उठिए किसी एक भी शिशु के आँसू पोंछ सकें तो जीवन धन्य हो जाएगा यकीन करें आपके जीवन में नई ख़ुशियाँ बिखर जाएंगी 🙏

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

साँसों की कालाबाज़ारी

 

न्यूज़ पढ़ कर अंदर तक हिल गई हूँ। पहले पेशेन्ट के घरवालों से रेमडेसिविर का इंजेक्शन मंगाया जिसे घर वाले किसी तरह भारी दाम चुका कर लाए और कोविद वार्ड के कुछ कर्मचारियों ने उस पेशेन्ट को डिस्टिल वॉटर का इंजेक्शन लगा कर इंजेक्शन बेच कर जेब भर ली। परिणाम स्वरूप जवान बच्चे की डैथ हो गई। घरवालों ने जब हंगामा किया। रिपोर्ट लिखवाई,पड़ताल हुई तो सच्चाई सामने आई।और न जाने कितने सच अभी कटघरे में खड़े हैं ।

पता नहीं कितनी साँसें ऐसी कालाबाज़ारी की भेंट चढ़ गई होंगी। अब उस हॉस्पिटल में हंगामा है । जिनके पेशेन्ट वहाँ पर भर्ती हैं सोचिए उनका विश्वास डोल गया होगा, क्या हाल होगा उनकाऔर उनके परिवारजनों का ।

ऐसा नहीं है कि उस हॉस्पिटल के सारे डॉक्टर्स और वार्ड ब्वाय या मैनेजमेंट चोर ही हैं। बहुत प्रतिष्ठित हॉस्पिटल है । कोरोना पेशेन्ट का अच्छा इलाज हो रहा है।उसी हॉस्पिटल में न जाने कितने डॉक्टर्स, नर्स, सेवा कर्मचारी, मैनेजमेंट के लोग रात- दिन एक कर सेवा में लगे होंगे। वे अपने परिवार और खुद के स्वास्थ्य को भूल कर कोरोना से जंग में जुटे हैं । अनेकों पेशेन्ट्स को नित जीवन- दान दे रहे हैं और चन्द लोगों ने कुछ रुपयों के लालच में उस पर पानी फेर दिया। आज वे सब भी सन्देह के कठघरे में खड़े हैं। इसी का परिणाम है कि अपना सब कुछ झोंक देने वाले डॉक्टरों व सेवा- कर्मियों को भी लोगों की नफरत व हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

सिर्फ़ एक हॉस्पिटल की बात नहीं न जाने कितने  हॉस्पिटल में ऐसे न जाने कितने लोग हैं जो साँसों की इस कालाबाज़ारी में आज लिप्त हैं ।

बताओ जरा ...किसी की साँसें चुरा कर की गई कमाई से क्या करोगे? जब तुम घरवालों को रोटी खिलाओगे, कपड़े लोगे या दारू पिओगे तब क्या जरा भी शर्म नहीं आएगी तुमको? देखना गौर से वो सब रक्तरंजित नजर आएगा तुमको। उनके घरवालों की चीखें सुनाई देंगी।परन्तु ये सब देखने के लिए जिस जमीर की जरूरत है वो भी तो बेच चुके हो तुम, तो क्या ही कहें...?

और कुछ लोग ऐसे पाए गए जिनकी तबियत इतनी ख़राब नहीं थी पर न जाने किस प्रभाव के जुगाड़ से आई सी यू  में ही जमे हैं। उनसे जबर्दस्ती बैड ख़ाली करवाये गये। जिनको ये परवाह नहीं कि तुमने जिस बैड को हथिया रखा है वो किसी होटल का रूम नहीं है उस पर किसी उस एक सीरियस पेशेन्ट का हक था जिसने अस्पतालों के चक्कर काटते- काटते सड़क पर ही एड़ियाँ रगड़ते दम तोड़ दिया। तुम ज़िम्मेदार हो उसकी मौत के ।

अभी न्यूज में देख रही हूँ कि एम्बुलेंस वाले मनमानी कीमत वसूल कर रहे हैं पेशेन्ट से।ऑक्सीजन सिलिंडर ब्लैक में बेचे जा रहे हैं ...इंसानियत मर गई है जैसे । 

ये किस टीले के गिद्ध हैं जो जिन्दा ही शरीरों से माँस नोच कर खा रहे हैं ।

घरवाले भी क्यों नहीं पूछते कुछ ? कैसी मोटी चमड़ी है भई ? जो भगवान से नहीं डरते...पर बेख़ौफ़ रहने से गुनाह तो समाप्त नहीं होते न ..याद रखना, देना होगा एक दिन सब कर्मों का हिसाब ।

दूसरी तरफ वो भी हैं जो रात देख रहे न दिन और कूद पड़े हैं जनसेवा में ...जिन्होंने  तन, मन , धन सब झोंक दिया है कोरोना के विरुद्ध इस साँसों की लड़ाई में। मेरा नमन हर उस योद्धा को ।🙏


फ़ोटो: गूगल के सौजन्य से

रविवार, 25 अप्रैल 2021

पाती राम जी को-


 जै राम जी  

पूजा कह रही हैं राम जी को चिट्ठी लिखो

हमने कहा नहीं मन हमारा

पूछ रही है क्यों भाई?

अब क्या बताएं क्यों?

सभी ने तो पुकार लिया

मनुहारें कीं, प्रार्थना कीं, 

क्षमा माँग ली

बताओ अब हम क्या कहें ?

कैसे बताएं कि हम जन्म के घुन्ने हैं तो हैं.

अब ऐसा ही बनाया आपने.

मन में लगी है भुनुर- भुनुर, तो क्या लिखें?

गुस्से और आँसुओं से कन्ठ अवरुद्ध है.

मतलब हद्द ही कर रखी है.

न उम्र देख रहे न कुछ, बस उठाए ही जा रहे हो

जैसे ढेला मार कर टपके आम हैं हम सब

`जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिए’

बचपन से गा रहे- अब ऐसे रखोगे ?

हा- हाकार है चहुँ ओर...

शोर है- `त्राहि माम ...त्राहि माम’

अरे यदि आबादी ज्यादा लग रही

धरती पर बोझ हल्का ही करना है तो 

और तरीके हैं...कायदे से करो काम.

पहले वाला कोरोना बड़े- बूढ़ों को उठा रहा था

हमने कहा चलो ठीक है 

पर अब ये नया वाला मुँहझौंसा...

बच्चों,युवाओं को भी नहीं बख्श रहा राक्षस

अब हम क्या बताएं?

और इतने बलशाली असुर मारे तुमने

ये तनिक सा नहीं संभलता तुमसे कोरोना हुँह.

अब बहुत डाँट लिया हमने तुम्हें

ऐसा तो हमने कभी नहीं किया पर मजबूर हैं

ध्यान से सुनो हमारी सलाह-

ये सपना हम रोज देखते सोने से पहले 

बस वो ही पूरा कर दो-

सुना है एक वैक्सीन पर काम हो रहा

जो नाक में स्प्रे करते ही कोरोना उड़न छू

तो बस अब जल्दी ही उसी में टपका दो वो ही

जो हनुमान बाबा लाए थे न - संजीवनी 

बस एक दिन सोकर उठें और अख़बार में बड़ा- बड़ा छपा दिखे-

आ गई, आगई नेजल स्प्रे वाली दवाई

मिनटों में कोरोना उड़न -छू

लौट आए धरती की मुस्कान फिर

लौट आएं रुकती साँसें सबकी

थक गए न्यूज में भी कराह, लाशें, पीड़ा देख

कलेजा हर समय थरथराता है ..

डर लगता है अपनों के लिए

अब ये बात समझो और मानो

बाकी हम क्या समझाएं आपहि

तो इत्ते बड़े समझदार हो ...!

थोड़े लिखे को ज्यादा समझना

और जरा खबर लो अब सबकी.

सो कहाँ रहे हो ?

जाते हम अब.

सीता मैया, लखन भैया और 

हनुमन्त लला को प्रणाम कह देना

आपकी- अब जो है सो है ही

                          —उषा किरण 🙏


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रविवार, 15 मार्च 2020

मन का कोना-स्वास्थ्य सबसे बड़ी नियामत — हरा- भरा सलाद



सबसे ऊपर की छत पर कुछ गमले रखे हैं जिनमें पालक,मेथी, धनिया,पुदीनाऔर लैट्यूस बो देते हैं । इस बार लैट्यूस खूब आया तो उसका सलाद भी खूब बनाया खाया गया । मेरे फेवरिट सलाद की रेसिपी आप लोगों से शेयर कर रही हूँ ट्राई जरूर करें बच्चों को भी पसंद आएगा 👇

सलाद
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-ड्रेसिंग— आधा नींबू का रस, आधा च०शहद, ऑलिव ऑयल छोटी आधी चम्मच, काली मिर्च, सेंधा नमक,ऑरगेनो या मिक्स हर्ब एक चुटकी (ऐच्छिक) सबको अच्छी तरह मिला लिया ।

— लैट्यूस को अच्छी तरह धोकर किसी बर्तन में पानी में कुछ बर्फ के क्यूब डाल कर फ्रिज में थोड़ी देर  के लिए रख दें तो करारे हो जाएंगे

—- फिर सूखा एप्रिकोट , अखरोट, थोड़ी सी ड्राई ब्ल्यू बैरी या कोई भी बेरी( ऐच्छिक) किशमिश भी डाल सकते हैं इन सबको को काट लिया तरबूज़,ख़रबूज़े आदि के बीज डाले ( जो सामान इनमें से उपलब्ध हों वो डाल दें )

—-गाजर,मूली, चुकन्दर, बेबी टमाटर या बड़े हों तो बीज निकाल कर चौकोर काट लें ,गाजर ,ककड़ी,खीरे के पीस काट लें ।तीनों रंग की शिमला मिर्च या जो भी उपलब्ध हो उसके क्यूब काट कर बिना ऑयल पैन में कुछ देर गैस पर सौते कर ठंडा कर डाल दें आप चाहें तो कच्ची भी डाल सकते हैं ।लैट्यूस के पत्ते पानी से निकाल कर हाथ से तोड़ लें चाकू से न काटें । कुछ फल तरबूज ,अंगूर ,सन्तरे ( फाँकें छील लें )चैरी, स्ट्रॉबेरी  , रसबरी इनमें से जो भी फल हों काट कर डाल दें । प्याज न डालें ।

—कई बार बच्चे सलाद नहीं खाते हैं तो आप कुछ पास्ता भी उबाल कर मिक्स कर सकते हैं ।टोफू या फैटा चीज या अंकुरित मूँग भी यदि चाहें तो डाल सकते हैं ।(मैं नहीं डालती😊)

—- अब ड्रेसिंग डाल हल्के हाथ से मिला दें । खाने से तुरन्त पहले ही बनाने से क्रन्ची रहेगा ।आप चाहें तो सब सामग्री मिला कर फ्रिज में रख दें ड्रेसिंग खाते समय ही डाल कर टॉस कर दें ।
    नोट: मैंने जो पड़ सकता है सब लिख दिया है यहाँ ,पर जरूरी नहीं आपके पास जो उपलब्ध हो और आपको जो पसंद हो आप डाल सकते हैं
         ये खट्टा-मीठा ,रंग-बिरंगा ,फ्रैश सलाद आपको ताजगी से भर देगा । स्वास्थ्यवर्धक तो है ही पर यदि आप डायटिंग पर हैं तो खाने से पहले जरूर बना कर खाइए 😊



सोमवार, 9 मार्च 2020

स्वास्थय सबसे बड़ी नियामत— लाडले

आज हमारे  सिम्बा को चैक करने जब उसके डॉक्टर घर आए तो उन्होंने कहा कि आप लोगों और आपके सिम्बा का फोटो अखबार में छपवाने का मन करता है क्योंकि सिम्बा साढे सत्रह साल के लैब्रा हैं हमारे घर के सबसे बुजुर्गवार प्राणी  और इंसान के हिसाब से उनकी एज को देखा जाय तो वे इस समय सौ से ऊपर हैं क्योंकि कहते हैं कि कुत्तों की एक साल की आयु इंसानों की आठ साल के बराबर होती है  तो सोच सकते हैं कि कितना लाड़ प्यार व केयर की होगी जो उम्र की वजह से आई परेशानियों के बाद भी आज भी सेहत काफी हद तक ठीक है ।पर कभी भी बिस्तर पर या सोफे या गोदी में नहीं बैठने की ट्रेनिंग दी है ।उसका बिस्तर अलग रहता है  और हम हर बार उसे या उसकी चेन या बिस्तर छूकर हाथ साबुन से वॉश करते हैं ।
जो लोग अपने पैट्स डॉगी, पूसी को अपने बिस्तरों में सुला लेते हैं सोफे पर बैठाते हैं हमें बहुत उत्सुकता है ये जानने की कि वे हाइजीन कैसे मेन्टेन करते हैं ?
-क्या वे उनको जब घुमाने ले जाते हैं तो उनको शूज पहनाते हैं या हर बार साबुन, पानी, डेटॉल से साफ करते हैं ? क्योंकि सड़कों की गंदगी व मिट्टी वे अपने नाखून व पंजों में लाते  हैं जिसमें निरे वायरस व बैक्टीरिया भी साथ लाते हैं उसका क्या?🤔
-जब वे पॉटी करते हैं तो क्या आप उनको हर बार वॉश करते हैं या कैसे भी क्लीन करते हैं ? बिना क्लीन किए ही आप उसे गोद में उठा लेते हैं अपने बिस्तरों व सोफे में सुला लेते हैं तो उसके चलते सफाई का क्या ? क्या आप उनको अंडरवियर या डायपर लगाते हैं ?🤔
- कितनी भी सफाई करो टीक्स प्राय: हो जाती हैं तो वे भी आपके बिस्तरों व सोफों में आपके साथ विश्राम करती होंगी और प्राय: आपके इन लाडलों के बाल जो आते जाते रहते हैं कितना भी ब्रश करो वे भी रह जाते होंगे आपके बिस्तरों में 🤔
-प्रायः स्किन डिजीज हो जाती हैं बरसात में उस इन्फैक्शन से कैसे सुरक्षित रखते हैं खुद को 🤔
 -क्या आप रोज नहाते हैं सफाई का ध्यान रखते हैं तो इन बातों का क्यों नहीं ? कुछ लोगों को देखा मैंने कि वे अपने पैट्स को खूब लाड़ दुलार कर बिना हाथ धोए खाना बना या खा लेते हैं ऐसी जगह पर जब मुझे भी खाना पड़ा तो मैं बड़ी मुश्किल में आ गई 😖
- वे आपका और आपके बच्चों का मुँह व होंठ चाटते हैं और आप गद्गद् होते हैं । बच्चे खाते समय उनको छूते हैं या हाथ से उनको भी खिलाते हैं जिससे उनकी लार बच्चों के हाथ पर लगती है और इसी हाथ से वे खुद खा लेते हैं क्या ये सही है?🤔
- आप अपने ड्राइवर, मेड, स्वीपर के साफ नहाए धोए बच्चों को भी गोद में नहीं उठा सकते जो कम से कम इंसान तो हैं , नहाते धोते तो हैं तो फिर वे आपके ये तथाकथित लाड़लों ( जो हैं तो कुत्ते व बिल्ली ही) से भी गए बीते हैं क्या 🤔
         खैर ....मेरा सिर्फ़ इतना कहना है कि आप पैट्स जरूर पालें उनकी हर तरह की सेहत का ध्यान रखें खूब प्यार करें उन बेजुबानों को ,वे भी आपको बहुत प्यार करते हैं परन्तु बस कृपया साफ सफाई का अवश्य ध्यान रखिए ।गूगल करिए ,डॉक्टर से डिस्कस करिए कितनी तरह की बीमारियों को आप आमन्त्रित कर लेते हैं और यदि नहीं रख सकते इस बात का ध्यान तो मत पालिए क्योंकि आपकी व आपके बच्चों की सेहत बहुत कीमती है 😊

चित्र: गूगल से साभार

गुरुवार, 21 मार्च 2019

स्जमृति रेखाँकन— जब फागुन रँग झमकते थे







आज हमारी मित्र वन्दना अवस्थी दुबे ने होली के संस्मरण लिखने को कहा है तो याद आती है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे  होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते ,छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते ।हवेलीनुमा हमारा घर सबकी खुशबुओं और कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ! गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था ।याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो ” ।ताई अम्मा मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं ,हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं ।ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं पर हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते मिट्ठू को पुचकारते तो कभी गैया के गले लगते कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर ,चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।
रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी ऊषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और सहेलियों से मिलने निकल जाते ।रास्ते में बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो...अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...’  'अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो ‘गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार कहते ।गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आतीं, साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।
पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' सन्त’ आ रहे हैं ।पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती...हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था ।उधर मम्मी भी हल्का घूँघट चदरिया हटा जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं..सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं मम्मी का भी ये नया रूप होता ।मम्मी की भी गाँव में बहुत धाक थी वे पहली बहू थीं जो इतने बड़े अफसर की बिटिया और बीबी थीं और हारमोनियम पर गाना गाती थीं। वे भी गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको ।
             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते ।हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाने  में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने’।
गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो  और होली पर भेंट चढ़ी चीज वापिस नहीं ली जाती अगला कलेजा मसोस कर रह जाता...सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही
सामूहिक होली जलाने का रिवाज  होता जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते जल देकर परिक्रमा करते और आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए पर कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा आधी रात ही होली में लपट दिखा देता बस सारे गाँव में तहलका मच जाता लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,लोग धोती , पजामे संभालते ,आँख मलते जल भरा लोटा लेकर लप्पड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ददा काऊ नासपीटे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ...’गाली पूरे साल दी जातीं उस बदमास को।
दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ कढाई से दूर...’पर हम दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती गली में ढोल लटका गाते बजाते...गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।
दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकार  कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ...सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जाते रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।
कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे  पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी जाने का विशेष आकर्षण होती थी जहाँ मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे।हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल -बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?
आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं...अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-दमकते थे लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।
आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे...आप सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

फोटो :गूगल से साभार

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