ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

आजादी

 


"अरे रे गाड़ी रोको…रोको !”

"क्यों ?” गाड़ी चलाते शेखर ने पूछा

"गोलगप्पे खाने हैं।”

"इस सड़क पर कितनी धूल- मिट्टी उड़ रही है , छि: गंदी चाट…!”

"अच्छा ? पर पिछले महिने जब विभा दीदी  आई थी तब तुम यहीं खिलाने लाए थे न उनको, तब ये साफ थे ?”

"तुमसे तो हर बात में बहस करवा लो बस।”शेखर ने गाड़ी चलाते हुए कहा।

पूजा चुप होकर बैठ गई परन्तु घर आने पर पूजा ने शेखर से चाबी लेकर गाड़ी स्टार्ट की।

"अरे…अब कहाँ?”

"अभी आई जरा…”, कह कर चली गई।

आधे घन्टे बाद शेखर ने देखा डायनिंग टेबिल पर बैठी पूजा मजे ले लेकर गोलगप्पे खा रही है। हैरानी से उसे खाते देख शेखर चुपचाप बैडरूम में चला गया। पूजा के चेहरे पर मुस्कान थी, आज उसको जरा  ग़ुस्सा नहीं आया…!!

          —उषा किरण 

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