मर्यादा पुरुषोत्तम राम,
तुम्हारी भक्ति के बावजूद—
मैंने चुना,
त्रिभंगीलाल कृष्ण होना…
विनम्रता, त्याग, सहनशीलता, ममता,सम्मान और प्यार
सब मेरे भीतर समाहित थे
सहज ही
असम्भव था बिना शस्त्र,
मन संन्यासी सहित
न्याय, व्यवस्था और सम्मान की रक्षा करना…
तब कान में पाँचजन्य फूँका मेरे कृष्ण ने-
"….धम्यार्द्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते!!”
और मैंने चुना अर्जुन होना
शस्त्र उठाना
अपनी धारा के विरुद्ध बहना…।
और जब धारा में खुद को छोड़ दिया—
तो असंभव कुछ भी नहीं रहा
तुम्हारा जीवन केवल तुम्हारे लिए होता कब है ?
जाने कितनों की तलवार बननी होती है,
जाने कितनों की ढाल बनकर
कुरुक्षेत्र में उतरना पड़ता है…
जाने कितनों की जुबान बनना पड़ता है…
जानती हूँ-
राम बनना आसान नहीं।
राम केवल कमंडलधारी वनवासी नहीं थे
एक न एक युद्ध वे भी लड़ते रहे,
फिर भी सौम्य,
संतुलित,
मर्यादित बने रहे…
मेरे लिए हर बार मुश्किल था राम होना
मेरे जीवन में कैकेयी के लिए
मैं खुद थी कैकेयी,
मन्थरा के लिए मन्थरा,
रावण के लिए रावण,
मरीचि के लिए मरीचि….!
छल का जवाब छल से
झूठ का झूठ से
तलवार का तलवार से
कपट का कपट से
ईर्ष्या- द्वेष को फ़र्लांग कर
कभी घनघोर वन तो कभी
सूक्ष्म पगडंडियाँ अपनाईं
और इस तरह
कुरुक्षेत्र में अपनी भूमिका निभाई।
तो बताओ भला-
तुम नहीं तो कौन?
तुम थे न मेरे साथ कान्हा
हर पल, हर साँस में समाहित
मेरा हाथ थामे
मेरे रथ की बागडोर थामे
मेरे गुरु, मेरे सखा, मेरे खेवनहार…
इस अंतिम पड़ाव पर भी साथ रहना
जानती हूँ कि आज भी,
तुम दोनों बाँहें फैलाकर हो,
खुद में समेट लेने को आतुर—
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज”
#ॐश्रीकृष्णःशरणंमम 🙏🌼
-उषा किरण
17अगस्त
फोटो: गूगल से साभार
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