ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

मौन




सुनो तुम-

एक ही तो ज़िंदगी है 

बार- बार

और कितनी बार 

उलट-पलट कर 

पढ़ती रहोगी उसे

तुम सोचती हो कि

बोल- बोल कर 

अपनी नाव से

शब्दों को उलीच 

बाहर फेंक दोगी

खाली कर दोगी मन

पर शब्दों का क्या है

हहरा कर 

आ जाते हैं वापिस

दुगने वेग से….

देखो जरा 

डगमगाने लगी है नौका

जिद छोड़ दो

यदि चाहती हो 

इनसे मुक्ति तो

कहा मानो 

चुप होकर बैठो और

गहरे मौन में उतर जाओ अब…!

                               —


उषाकिरण

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! सुन्दर भावपूर्ण सृजन।

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  2. पर शब्दों का क्या है
    हहरा कर आ जाते हैं वापिस
    दुगने वेग से....
    सच कहा कई बेहतर है मौन
    कम से कम अपने ही शब्द अर्थ से अनर्थ बन कर तो नहीं आयेंगे अपने पास...
    दूसरो के शब्द भी सम्भालते नहीं सम्भलते
    मौन हर हाल में बेहतर है
    लाजवाब सृजन
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. मौन सभी शब्दों का समाधान है पर मुश्किल है ☺️
    सादर नमन उषा जी 🙏

    जवाब देंहटाएं

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