सुनो तुम-
एक ही तो ज़िंदगी है
बार- बार
और कितनी बार
उलट-पलट कर
पढ़ती रहोगी उसे
तुम सोचती हो कि
बोल- बोल कर
अपनी नाव से
शब्दों को उलीच
बाहर फेंक दोगी
खाली कर दोगी मन
पर शब्दों का क्या है
हहरा कर
आ जाते हैं वापिस
दुगने वेग से….
देखो जरा
डगमगाने लगी है नौका
जिद छोड़ दो
यदि चाहती हो
इनसे मुक्ति, तो
कहा मानो
चुप होकर बैठो और
गहरे मौन में उतर जाओ अब…!
—उषाकिरण
ये मौन भी कभी कभी डगमगा देता है ।
जवाब देंहटाएंइसलिए बोलो मत लेकिन किसी के साथ मन को बाँट लो । शायद कुछ सुकून मिले , क्यों कि मैं जानती हूँ कि मौन भी बहुत भयानक स्थिति पैदा करता है ।।
कितना बोले आखिर इंसान …सुन- सुन कर अपने ही कान पक जाते हैं कभी- कभी…तब लगता है बस अब गहन मौन में डूबते जाओ…धन्यवाद आपका😊🙏
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-5-22) को क्या ईश्वर है?(चर्चा अंक-4445) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
मेरी रचना का चयन करने के लिए आपका हृदय से आभार…देरी से आने के लिए क्षमा करें…🙏😊
हटाएंकामिनी जी मेरी रचना का चयन करने के लिए हृदय से आभार…देरी से आने के लिए क्षमा करें 😊🙏
हटाएंमौन .... उद्धारक हो या मारक .... सब कह देता है। सही कहा।
जवाब देंहटाएंशब्द हहरा कर आ जाते हैं और कविता बह उठती है नदिया सी और फिर गहरे उतरते हैं मौन में अगली कविता के लिए!!बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएं'यदि चाहती हो
जवाब देंहटाएंइनसे मुक्ति, तो
कहा मानो
चुप होकर बैठो और
गहरे मौन में उतर जाओ अब…'
-सुन्दर अभिव्यक्ति!