ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

स्वीकार




 स्वीकार

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धराआकाशजल,पवन को

हाजिरनाजिर मान

ऐलान करती हूँ आज

जाओ माफ कियामुक्त किया तुम्हें…!


ताउम्र उलझतीझगड़ती रही

तोहमतें लगाईंकलपती रही कि-

बोलो जरा

तुम्हारी मर्जी बिना जब

हिल सकता नहीं पत्ता भी तो

भला मेरी क्या बिसात 

फिर मेरे किए मेरे कैसे 

सब तेरेसब तेरे…!


फिर क्यूँ प्रारब्ध के चक्रवात में फंसी

जन्म जन्मान्तर से अनवरत भटक रही 

मेरा क्या है मुझमें जो भुगत रही हूँ 


थक गई हूँ अब और नहीं लड़ सकती

प्राण-शक्ति शिथिल और

दृष्टि धुँधला रही है

दूर क्षितिज पर टिमटिमाती मद्धिम लौ 

धीरे-धीरे निकट  रही है


पद भ्रमित हैंमन विकल

ढलती जाती है साँझ 

श्वास अवरुद्ध है और कण्ठ शुष्क 

हे प्रियबहुत हुआ.. बस

स्वीकार करो मेरा सर्वस्व 

अब तो खोलो काराअंगीकार करो


उड़ने दो उन्मुक्त मेरे राजहंस को

हाथ बढ़ाओसमा लो अब

अपनी निस्सीम बाहों में कि

भटकती यात्रा को मंजिल मिले

और बेचैन रूह सुकून पाए…!!!


                 — उषा किरण


12 टिप्‍पणियां:

  1. थक गई हूँ अब और नहीं लड़ सकती

    प्राण-शक्ति शिथिल और

    दृष्टि धुँधला रही है

    दूर क्षितिज पर टिमटिमाती मद्धिम लौ

    धीरे-धीरे निकट आ रही है

    ओह! हृदय स्पर्शी सृजन उषा जी, शब्द शब्द पर रुह में सिहरन सी हो रही है नमन है आपकी लेखनी को 🙏

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    1. हार्दिक आभार कामिनी जी आपकी सराहना मेरा उत्साह बढा़ रही है🙏😊

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  2. हार्दिक आभार आपका😊

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  3. सही सुनाया है इश्वर को. सब खुद करता है फिर सजा हमको. प्रभावी रचना

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  4. बहुत ही मर्मान्तक सृजन उषा जी | कई बार नहीं अनेक बार यही प्रश्न उठाता है व्यथित अंतर्मन | आखिर कब तक कठपुतली बन सहता रहे कोई |अपनी ही रची हस्ती पर फिर व्यर्थ का दोषारोपण करने का र्सियिता को कोई अधिकार क्यों हो , जब सब किया-धरा स्वयं उसी का है कभी तो प्राणों के राजहंस को उन्मुक्त उड़ान की चाहत हो . उसे भी उड़ने को खुला अम्बर नसीब हो | रचना के शब्द-शब्द में मानों व्यथित मन की आर्तता झझकोर रही|

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  5. तुम्हारी मर्जी बिना जब

    हिल सकता नहीं पत्ता भी तो

    भला मेरी क्या बिसात

    फिर मेरे किए मेरे कैसे

    सब तेरे…सब तेरे…!

    फिर क्यूँ प्रारब्ध के चक्रवात में फंसी

    जन्म जन्मान्तर से अनवरत भटक रही

    मेरा क्या है मुझमें जो भुगत रही हूँ
    बहुत सटीक...
    सच में अच्छे भले आस्तिक इंसानों को भी कष्टपूर्व जीवन जीते देख हर वक्त ये प्रारब्ध सुनकर और सोचकर यही सवाल उठता है में...परंतु भगवान तक हमारी शिकायत पहुँचती कहाँ है।

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  6. 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🙏🏼🙏🏼🙏🏼

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  7. हृदय स्पर्शी सृजन ...बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ

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