साहित्यनामा पत्रिका में `दर्द का चंदन' पर बहुत अनोखी परन्तु सटीक समीक्षा लिखी है रचना दीक्षित ने । एक शुक्रिया तो बनता है रचना जी। आइए देखें क्या लिखती हैं वे😊
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एक पाती उषा जी के
प्रिय उषा जी,
आपकी किताब ‘दर्द का चंदन’ नाम पढ़कर भी उस दर्द की पराकाष्ठा को न समझ पाने की भूल कर के पढ़ने लगी क्योंकि अगर पहले से कुछ पता होता तो शायद न पढ़ती। दर्द की गलियों से निकलकर कौन दोबारा उन गलियों में जाना चाहेगा। जब तक पिताजी की और भाई की बीमारी का जिक्र चल रहा था मन असहज होते हुए भी सहजता से पढ़ने का स्वांग करती रही। पर जब आपकी बीमारी का जिक्र आया तो यूं लगा दुखती रग पर किसी ने उंगली नहीं पूरा का पूरा कैंसर रख दिया हो। मैंने किताब रख दी पर फेसबुक पर आपने आग्रह किया कि मैं पढूं क्योंकि दुःख–सुख तो जीवन में आते रहते हैं। सोचने की बात है कि दूसरे को ऐसी सलाह देने और स्वयं उस पर अमल करने में बहुत अंतर होता है जो आपने असल में अपने जीवन में कर दिखाया। दोबारा किताब खोली। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की जगह दर्द का चंदन आपकी ही पंक्तियों से उठा कर माथे पर एक त्रिपुंड सजा लिया और "दर्द हद से बढ़ा तो रो लेंगे, हम मगर आपसे कुछ न बोलेंगे" को मन में बैठा कर मैं दर्द की भूल-भुलइयों में खोने लगी। मेरी अपनी कविता भी रिसने लगी:
पोर पोर पुरवाई उकसाती पीर
बढ़ता ही जाता है सुधियों का चीर
मेरी मां को गर्भाशय का कैंसर हुआ था जब वह 35 साल की थी और यूटरस निकालना पड़ा था। फिर बाद में लगभग 25 साल बाद उन्हें ब्रेस्ट कैंसर भी हुआ पर तकलीफों के साथ भगवान ने उनकी उम्र लिखी थी तो वो अपनी जिंदगी बहुत तो नहीं पर ठीक ठाक जी गईं। इसीलिए ग्रुप में जब कभी बचपन की बात होती है, मायके की बात होती है, मैं चुपचाप खिसक जाती हूँ। बताती चलूं मेरी माँ को दोनों बीमारी थीं तो मैं मेरे लिए तो जोखिम था ही। पहले तो लगातार स्त्री रोग विशेषज्ञ से चेकअप करवाती रही फिर रेगुलर एनुअल हेल्थ चेकअप पर आ गए। इसी बीच बात शायद 23 नवंबर की होगी, एक बार 2018 में एनुअल हेल्थ चेक अप के दौरान ब्रेस्ट में दो गाँठे निकली। फिर क्या था शुरू हो गया भाग दौड़ और टेस्ट का कार्यक्रम। उस समय घर पर कुछ मेहमान थे। इधर हमारा 15 दिन का दुबई और मॉरीशस का टिकट काफी पहले ही हो चुका था। फिर मेहमानों के जाने बाद आनन-फानन में एक सर्जरी हुई 28 नवंबर को फिर उसकी रिपोर्ट आई जो भगवान की कृपा से सामान्य निकली। यूं लगा जान बची तो लाखों पाए। 12 दिसंबर की फ्लाइट थी 10 दिसंबर को टांके कटे, 11 को पार्लर गई, 12 की फ्लाइट पकड़ ली, पर हां, पूरे समय सफर में ध्यान बहुत रखना पड़ा।
यह उपन्यास नहीं ये एक संघर्ष गाथा है, इसे उपन्यास कहना दर्द का अनादर करने जैसा होगा। एक्स रे कक्ष के बाहर लिखा होता है, बिना जरूरत अंदर प्रवेश न करें, विकिरण का खतरा है पर आपने तो नियमों की भयंकर अनदेखी कर दी। विकिरणों को इस कदर हवा दी कि कोई अंदर गया भी नहीं और विकिरणों से छलनी हो गए सबके मन आत्मा और हृदय। यहां दर्द को चंदन के फाहों में लपेट कर उसे शीतलता देने का प्रयास है, ताकि पढ़ने वालों को दर्द की अनुभूति कम हो पर दर्द तो दर्द है। चंदन के भीतर भी कराह उठा स्याही में घुल कर दर्द ने परिसंचरण का रास्ता अपनाया और ले लिया किताब के पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक को अपने आगोश में।
अब बात करें आपकी, तो भाई के लिए आकंठ प्रेम मानव, मानवता, प्रकृति और जानवरों के प्रति आपका लगाव आपकी सकारात्मक सोच। यहां कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है मात्र भोगा हुआ यथार्थ है। शब्दों पर कहीं भी कल्पना का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। अपनी अंतहीन पीड़ा के साथ अपनों को खोने का दुःख, वो भयावह पल ‘दुआओं का हाथों में स्ट्रेचर पकड़ साथ साथ चलना’ ‘दवाइयों की महक, औजारों की खनक’ को आत्मसात करना, दर्द, पीड़ा और नकारात्मकता को रोज उठा कर हवन कुंड में डाल स्वाहा करना, समेटना, पुस्तक का रूप देना। हर चीज चलचित्र की तरह आंखों के सामने से गुजरती रही और उसे अंदर तक महसूस करती आपके साथ-साथ मैं भी। बीच बीच में हंसी ठिठोली के बहाने ढूंढते शब्द। टूटी चूड़ियों की माला, गुट्टे खेलना बचपन में लौटना और अपने साथ सबको ले के जाना भी जादूगरी से कम नहीं है।
बीच बीच में गौरव और सीमा का किस्सा, मात्र दो लोगों का परिवार उसमें अकेले सब कुछ करना और न कर पाने की टीस, इंटरकास्ट मैरिज, उससे उठते प्रश्न। अपनी पीड़ा के बीच दूसरे की पीड़ा को समझना और उन्हें दिलासा देना,
प्रोमेनेड बीच’ पर सूर्यास्त, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद गुरु का कष्ट और शिष्य की चिंता और विवशता आपके दर्द में पूरी तरह डूब कर बाहर आने की बात कहता है तब मेरी ही कुछ पंक्तियां अनायास कलम थाम लेती हैं:
कांपते होंठों से
जब दर्द कुतरा था तुमने
दर्द अपने लिबास उतारने को
आतुर हो गया
मैं ज्वालामुखी सी
पिघल कर बहने लगी थी
अस्पताल के पोस्टरों में लिखी बातें जो लोगों को जागरूक करने के लिए होती हैं पर मुश्किल समय में कोई इन पर ध्यान नहीं देता। उस समय तो मात्र एक ही उद्देश्य होता है किसी भी कीमत पर लड़ाई जीतना। अपना घर, अपनी जमीन बेचकर इलाज करवाने को मजबूर लोग, बीमारी और उससे जुड़ी हुई तमाम बातों को इतना विस्तार से लिखना जिससे आम लोग जागरूक हो सकें। कैंसर सेल की सजगता और उनके शैतानी ख्याल, एंटीजन और एंटीबॉडीज का खेल जिसे पढ़ मचल उठी मेरी एक विज्ञान कविता:
आंखों की तरलता
सारी बंदिशें तोड़ चुकी थी
इस सरसराहट ने
दशकों से शांत
रक्त में विचर रही
शरीर की
टी स्मृति कोशिकाओं को
सक्रिय कर दिया
फिर क्या था
एंटीजन पहचाना गया
रक्त में एंटीबॉडीज मचलने लगीं
मुहब्बत की उदास रात की सांसों
पर किसी ने तकिया रख दिया
दर्द के उत्तराधिकारी उमड़ने लगे
एक खुशनुमा मौसम
पहन कर एंटीबॉडीज ने
अंतिम नृत्य प्रस्तुत किया।
आपने क्या सोचा था, मेरी जैसी चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी को शादी में न बुला कर इग्नोर करेंगी और हम मान जायेंगे। यहां तो मान न मान मैं तेरा मेहमान। मैं तो गेटक्रेशर हूं सो बच्चों की शादियों में बिन बुलाए मेहमान की तरह गेट क्रैश कर हो आई और बच्चों के सर पर चिरायु होने का आशीर्वाद भी दे आई। जानती हूँ चुनौतियों के बिना जीवन भी क्या जीवन है, पर ये सिर्फ सुनने में ही अच्छा लगता है, यथार्थ इसके विपरीत है। ये भी उतना ही सच है कि बड़ी लड़ाई या चुनौती जीतने के बाद इंसान में जो निखार आता है वो किसी दूसरी तरह से नहीं आ सकता।
आपके व आपके परिवार के सुखद जीवन की कामना के साथ।
रचना दीक्षित
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