ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

मेरे अवॉर्ड्स…



1979 में शादी के बाद आर जी कॉलेज में ही एम ए फाइनल इयर में एडमीशन लेकर , वर्ष 1980, एम ए कम्पलीट करते ही, नई- नई टेम्परेरी टीचर बनी उसी आर जी पी जी कॉलेज में।स्टुडेंट्स और मेरी उम्र में मुश्किल से एक दो साल का ही फर्क था। मुझे याद है अपनी पहली एम ए की क्लास में यूरोपियन मॉडर्न हिस्ट्री पढ़ाते हुए मैं थरथरा रही थी। अपनी नर्वसनेस को छुपाने के लिए स्टुडेंट से कहा खिड़की बन्द कर दो बहुत ठंडी हवा है😊

पचासवां स्थापना दिवस था, सभी डिपार्टमेंट को कल्चरल प्रोग्राम वाली शाम को कुछ प्रोग्राम देने थे। हमारे डिपार्टमेंट से तीन प्रोग्राम दिए गए। दो मैंने तैयार करवाए पहला एक नाटक था, दूसरा स्टेज पर आठ फ़ीट बड़े हार्ड बोर्ड पर बच्चों से काँगड़ा पेंटिंग बनवा कर , फिगर वाली जगह कटवाकर वहां पीछे स्टूडेंट्स को पेंटिंग जैसा ही मेकअप करके , बच्चों से साड़ियों के लहंगे बनवाए, पेंटिंग के अनुसार जेवर भी बनवाकर तैयार किया। पेंटिंग के पीछे स्टूल वगैरह रखकर उन पर खड़ा किया। पीछे से बोर्ड को कई लड़कियों ने छिपकर थामा , साथ में कमेंट्री, सितार की धुन, रंग बिरंगी लाइट्स का फोकस बारी- बारी से सब पर…अद्भुत समाँ बंध गया। प्रोग्राम के बाद तालियों के शोर और फर्स्ट प्राइज़ मिलने से सब थकान दूर हो गई और महिने भर की मेहनत सफल हुई। नाटक की कैटेगरी में भी पहला प्राइज़ हमारे नाटक "बहू की विदाई “( शायद यही नाम था) को मिला।

उन दिनों मेरी पहली चार महिने की प्रेगनेंसी थी। उल्टियों के मारे हालत खराब थी। शाम तक पैर सूज जाते थे। बेहद कमजोरी थी। अकल तो थी नहीं बस ये सुना था कि एबॉर्शन भी करवा सकते हैं, तो  डॉक्टर के पास अकेली जाकर कहा आप एबॉर्शन कर दो मुझे अभी करियर बनाना है, पी- एच. डी. करनी है। डॉक्टर अमृत फूल मेरे घटते वजन और सेहत को लेकर परेशान थीं । उन्होंने बहुत प्यार से समझाया और डाँटा भी तो अपनी बेवक़ूफ़ी समझ आ गयी कि यह कोई खेल नहीं है बच्चों का, परिणाम घातक हो सकते हैं।समझाया कि बेशक उल्टी हो जाए पर खाती रहना वर्ना एडमिट करना पड़ेगा।

प्रोग्राम की तैयारी करवाते व क्लास लेते समय चुपके से टॉयलेट में जाकर वॉमिट करती और मुंह में टॉफी या इलायची डाल फिर काम में जुट जाती। पेट में कुछ रुकता - पचता ही नहीं था, खाया- पिया सब निकल जाता। जूस पर जिंदा थी। बेहद कमजोरी थी पर कुछ करने का, कुछ बनने का जुनून था। वे मेरी जिंदगी के सबसे तकलीफ भरे दिनों में से थे।किसी की चमक- दमक देखकर कौन अनुमान लगा सकता है कि वहां तक पहुँचने का रास्ता कितना कंटकपूर्ण था।

कष्ट के दिनों में किए गए सद्व्यवहार या दुर्व्यवहार को मैं चाह कर भी कभी भुला नहीं सकी। पता नहीं कैसे लोग किसी के कठिन वक्त में इतने निर्मम हो सकते हैं। जो मन होता है सुना देते हैं ।किसी की मेहनत पर अपना ठप्पा लगा देते हैं ।पर कुछ लोगों की ममता को भी नहीं भूलती। Sudha Sharma मैम , Dinesh Sharma सर के घर जाती कभी तो वे लोग खाना खाए बिना आने नहीं देते थे सुधा मैम की बात पर हंसी आती जब वे लाड़ से कहतीं, “तुमको तो बॉम्बे जाना था फ़िल्मों में…!” 

सावित्री गैडी मैम इशारे से बुलाकर कान में कहतीं, “उषा रेवड़ी मूंगफली लाई हूँ, लोहड़ी की…क्लास के बाद स्टाफ रूम में आ जाना…” जिनकी कभी स्टुडेंट थीं उनके साथ स्टाफरूम में बराबर कुर्सी पर बैठने का, साथ चाय पीने का, उनका मित्रतापूर्ण व्यवहार बड़ा सुख व संतोष देता था।

लोगों में अवॉर्ड्स और पुरस्कार पाने की होड़ जब देखती हूँ तो मन में हंसती हूँ।अपनी चालीस साल की जॉब को अच्छी तरह से निभा सकी। बहुत सम्मान और स्टुडेंट्स का प्यार पाया। अपने पढ़ाए बच्चों को अच्छी जगह सैटल्ड हुआ , अच्छा आर्टिस्ट बने देखती हूँ तो परम सन्तोष होता है। बच्चों की परवरिश पति , परिवार के सहयोग व ईश्वर कृपा से सन्तोषजनक रूप से पूरी कर सकी। उनके प्रति भी कर्तव्य पूरे कर मुक्त हुई। और असाध्य भीषण बीमारी को आस्था व विश्वास की उंगली थाम पार कर सकी , तो लगता है जैसे दुनियां के सारे अवॉर्ड्स मैंने जीत लिए हैं…सोते समय एक गहरी सन्तोष की साँस लेकर सोचती हूँ ….और क्या चाहिए ? 

बस ईश्वर का ध्यान आखिरी साँस तक न छूटे यही कामना शेष है🙏

— कभी-कभी फोटो गैलरी स्क्रॉल करते किसी फोटो पर उँगलियाँ थम जाती हैं और यादों की रील खुल जाती है…वर्ना जिंदगी और कुछ भी नहीं , तेरी मेरी कहानी है….!!!

—- उषा किरण 



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