ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 19 जुलाई 2020

"ताना- बाना”— मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 5


 घर घर खेलते हुए
धप्पा मारते हुए,
किसी धप्पा पर चौंक कर मुड़ते हुए,
कब आंखों में सपने उतरे,
कब उनका अर्थ व्यापक हुआ -
यह तब जाना,
जब एक दिन आंसुओं की बाढ़ में,
शब्दों की पतवार पर मैंने पकड़ बनाई
और कागज़ की नाव लेकर बढ़ने लगी
---...... यह ताना-बाना और कुछ नहीं, कवयित्री उषा किरण के मन की वही अग्नि है, जिसके ताप और पानी के छींटे से मैं गुजरी हूँ ।"एक कमरा थकान का
एक आराम का
.... एक चैन का !"जाना-,
कोई भी रिश्ता सहज नहीं होता, सहज बनाना होता है या दिखाना होता है ।"रिश्ते मिट्टी में पड़े बीज नहीं
जो यूँ ही अंकुरित हो उठे...""स्वयं अपने, हम हैं कहाँ ?
....सम्पूर्ण होकर भी
घट रीता !"फिर, बावरा मन या वह - कहती जाती है,"पकड़ती हूँ
परछाइयाँ,
बांधती हूँ गंध
पारिजात की !"उसे पढ़ते हुए मेरे ख्याल पूछते हैं, क्या सच में गंध पारिजात की या उस लड़की की जिसने परछाइयों को अथक बुना ...।

क्रमशः

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