ताना-बाना
उषा किरण
शिवना प्रकाशन
दो आंखों की सलाइयों पर एक एक दिन के फंदे डाल मन कितना कुछ बुनता है,उधेड़ता है ...गिरे फंदों को सलीके से उठाने की कोशिश में जाने कितनी रातें आंखों में गुजारता है ... दीवारों से बातें करता है, खामोश रातों को कुरेदता है, 'कुछ कहो न'
"एक बार तो मिलना होगा तुम्हें
और देने होंगे कई जवाब
...क्यों बर्दाश्त नहीं होता तुमसे
छोटा सा भी टुकड़ा धूप का-
हमारे हिस्से का ?"
सफ़र छोटा हो या बड़ा, कुछ अपना बहुत अज़ीज़ छूट जाता है, या खो जाता है और बेचारा मन - अपनी ही प्रतिध्वनियों में कुछ तलाश करता है,
पर चीजें हों या एहसास - वक़्त पर कहाँ मिलती है !
"यूँ ही
तुम मुझसे बात करते हो
यूँ ही
मैं तुमसे बात करती हूँ..."
गहराई न हो तो कोई भी बुनावट कोई शक्ल नहीं ले पाती ।
लहरों का क्या है,
"लड़ती है तट से
सागर मौन ही रहता है"
यह अहम भी बड़ी अजीब चीज है, है न ?!
*****
उषा किरण
शिवना प्रकाशन
दो आंखों की सलाइयों पर एक एक दिन के फंदे डाल मन कितना कुछ बुनता है,उधेड़ता है ...गिरे फंदों को सलीके से उठाने की कोशिश में जाने कितनी रातें आंखों में गुजारता है ... दीवारों से बातें करता है, खामोश रातों को कुरेदता है, 'कुछ कहो न'
"एक बार तो मिलना होगा तुम्हें
और देने होंगे कई जवाब
...क्यों बर्दाश्त नहीं होता तुमसे
छोटा सा भी टुकड़ा धूप का-
हमारे हिस्से का ?"
सफ़र छोटा हो या बड़ा, कुछ अपना बहुत अज़ीज़ छूट जाता है, या खो जाता है और बेचारा मन - अपनी ही प्रतिध्वनियों में कुछ तलाश करता है,
पर चीजें हों या एहसास - वक़्त पर कहाँ मिलती है !
"यूँ ही
तुम मुझसे बात करते हो
यूँ ही
मैं तुमसे बात करती हूँ..."
गहराई न हो तो कोई भी बुनावट कोई शक्ल नहीं ले पाती ।
लहरों का क्या है,
"लड़ती है तट से
सागर मौन ही रहता है"
यह अहम भी बड़ी अजीब चीज है, है न ?!
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लेखिका— रश्मिप्रभा
क्रमशः
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