जब भी
अटक गई चलते-चलते
अब ....?
कोई रास्ता
नजर नहीं आता जब
छा जाते हैं बादल
घाटियों में
मन पाखी फड़फड़ाता हैआंखें ढूंढ़ने लगती हैं तुम्हें
चहुं ओर...
ऐसा नहीं कि
खुशियां छूती न हों अब
ऐसा भी नहीं
कि गीत नहीं जीवन में...
पर क्या करूं
वो जो अन्तर्गोह है न
पहुंचती नहीं वहां
कोई एक किरन भी कभी
घना कुहासा छाया है वहां
तुम्हारे जाने के बाद से ही
सारी किरणें जो ले गए तुम
अपनी बंद मुट्ठी में
.........
फूल तो आज भी खिलते हैं
गीत आज भी गूंजते हैं
पहले की तरह
पर तुम होते आज तो
रंग ,राग,सुवास
कुछ और ही होते
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